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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 मई, 2010

आशीष झा द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘मातृभूमि ए नेशन विदाउट वुमेन’ का बिजूका लोक मंच में 9 मई रविवार को अपने सदस्यों के बीच प्रदर्शन किया गया। आशीष झा बहुत युवा फ़िल्म निर्देशक है, अभी तक उन्होंने प्रदर्शित फ़िल्म के अलावा अनवर (2007) A VERY VERY SILENT FILM (2001) फ़िल्में निर्देशित की है।इन थोड़ी ही फ़िल्मों के माध्यम से आशीष झा ने अपनी पहचान एक कलात्मक फ़िल्म निर्देशक के रूप में बनायी है। इस बार बिजूका के साथियो के लिए हम फ़िल्म मातृ भूमि पर वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री जवाहर चौधरी का लेख प्रस्तुत कर रहे हैं.. उम्मीद है पाठकों को पसंद आयेगा।

मातृ भूमि
ए नेशन विदाउट वुमन


जवाहर चौधरी

भारत में कन्या भ्रूण हत्या का प्रसंग सदियों पुराना है। इसके कारणों को दोहराने की आवश्यकता नहीं है। पिछली जनगणना में हमारे अनेक राज्यों में स्त्री-पुरुष अनुपात में चिंताजनक अंतर सामने आया है। सामान्य रूप से देश में प्रति हज़ार पुरुषों पर नौ सौ छत्तीस स्त्रियाँ होती हैं, किन्तु कहीं-कहीं यह मात्र सात सौ के आसपास हो गया ! हरियाणा में तो लड़कियों की इतनी कमी है कि वहाँ दक्षिण और अन्य जगहों से ख़रीद कर विवाह करने के प्रकरण भी सामने आए हैं। आज भी लड़कियों को मारने की प्रथा पूर्ण रूप से बंद नहीं हुई है। फर्क़ केवल यह है कि भ्रूण परीक्षण से पता करके अब उन्हें जन्म से पहले ही मार दिया जाता है।

‘मातृ भूमि- ए नेशन विदाउट वुमन’ मनीष झा की 2003 में रिलीज, इस मायने में एक महत्त्वपूर्ण फ़िल्म है कि यह कन्या हत्या की इस समस्या को गहरे असर के साथ दर्शक के मन में उतार देती है। फ़िल्म का आरंभ प्रसव के दृश्य से होता है और लड़की पैदा होती है, जिसे दूध के तपेले में डुबो कर मार दिया जाता है। यह प्रथा, विकृत प्रवृति और मानसिकता का प्रतिनिधि दृश्य आक्रोशित करने वाला है। गाँव में पाँच लड़कों और अधेड़ जमींदार पिता का एक परिवार है। लड़के विवाह योग्य हैं, पर पंडित द्वारा आसपास दूर-दूर तक छान मारने पर भी कोई लड़की उपलब्ध नहीं है। हालात इतने बिगड़े हुए हैं कि छोटे लड़के यौन शोषण का सहज शिकार होते हैं, बल्कि गाय-भैस और बकरियों को भी नहीं छोड़ा जाता है। बाप दहेज के लालच में लड़के को लड़की के कपड़े पहना कर ब्याहने से भी नहीं चूक रहे हैं। पूरा गाँव स्त्री की छाया से भी महरूम है।

ऎसे में पास ही के गाँव में कहीं एक लड़की कलकी का पता चलता है, जिसे उसके पिता ने बहुत छुपाकर पाला है। पंडित जमीदार को सूचना देता है। बात आगे बढ़ती है, पर लड़की का पिता एक लाख रुपए के प्रस्ताव के बावजूद जमींदार के बड़े लड़के से अपनी लड़की का विवाह नहीं करता है। लेकिन पाँच लाख व पाँच गाएँ लेकर पाँचों लड़कों से कलकी को ब्याह देता है।

ससुराल में कलकी को अपने पाँच पतियों के साथ ससुर को भी झेलना पड़ता है। सप्ताह में हर दिन कलकी को एक के साथ सोना पड़ता है। सारे पुरुषों में सबसे छोटा बेटा सुदर्शन और स्वभाव से मानवीय होने के कारण कलकी उसे पसंद करने लगती है। यह बात अन्य भाइयों और पिता को खटकती है और षडयंत्र पूर्वक वे उसकी हत्या कर देते हैं। ज़ाहिर है अब कलकी पर इनकी पशुता दूने वेग से आक्रमण करती है। मौक़ा देख कर वह घरेलू नौकर-लड़के के साथ भागने का असफल प्रयास करती है, फलस्वरूप लड़के को जान गवानी पड़ती है। अब कलकी को गौशाला में साँकल से बाँध दी जाती है। बारी-बारी से ‘मर्द’ उसका यौन शोषण करते रहते हैं।

इस बीच गाँव के दलित लोग जमींदार के घर नौकर रहे रघु नाम के दलित लड़के की मौत का बदला लेने छुप कर धावा बोलने रात में आते हैं। वे दो लोग होते हैं और कुल्हाड़ी से वार करने की नियत से गौशाला के रास्ते जमींदार और उसके बेटों पर हमला करने का सोचते हैं। गौशाला में उन्हें जमीदार की बहू कलकी बँधी दिख जाती है। वे जमींदार और उसके बेटों पर कुल्हाड़ी से हमला करने का ख्याल छोड़ देतें हैं। उनमें से एक कलकी के साथ बलत्कार करता है और यह लगभग हर रात का रूटिन हो जाता है। कलकी गर्भवती हो जाती है। इस ख़बर से गाँव के दलित लोग मानते हैं कि जमींदार के घर पैदा होने वाले बच्चे के बाप वे हैं। बात बढ़ती है, और सवर्ण और दलित के बीच का सामूहिक संघर्ष में बदल जाती है। इधर जमींदार कुपित होकर कलकी को मार डालना चाहता है। उस पर केरोसिन छिड़कता है और उसे आग लगाने वाला होता है, तभी नौकर रघु की जगह रखे नये लड़के से यह देखा नहीं जाता और वह सब्जी काटने के चाकू से जमींदार की पीठ पर एक के बाद एक कई वार कर देता है। जमींदार मर जाता है। कलकी बच जाती है। अगले दृश्य में कलकी एक लड़की को जन्म देती है।

दरअस्ल यह भविष्य की चेतावनी देने वाली कहानी है। यह दुनिया में कहीं भी हो सकता है, लेकिन भारत के संदर्भ में तो है ही। भ्रूण हत्या के मामले में भारत जितना जाहिल और गँवार है उतना शायद ही कोई और देश होगा। किन्तु केवल अशिक्षित और परंपरावादी लोगों पर दोष मढ़ कर हम या कोई भी, इस पाप से मुक्ति महसूस नहीं कर सकता है। सैकड़ों वर्ष पुरानी इन परंपराओं के पीछे पुरुषों की कायरता ही प्रमुख है, जो अपनी बेटियों का भरण-पोषण और रक्षा करने से बचते रहे हैं। बात-बात में धर्म और सँस्कृति को याद करने वाला समाज अपनी ही बच्चियों के मामले में इससे विमुख कैसे हो जाता है ! धर्म में ‘ पवित्रता का प्रावधान’ इन हत्याओं के लिए कितना ज़िम्मेदार है कि व्यक्ति पाप करके किन्हीं पूजाओं और दान से इसे ‘धो’ सकता है। यह धारणा किसने पैठा दी है कि विशेष मुहुर्त में गँगा स्नान करने से पापियों के पाप धुल जाते हैं। या पापी के मरने के बाद भी ब्राह्मण-भोज और कुछ क्रियाएँ करने से उसे स्वर्ग में जगह मिल जाती है। पाप से बचने के प्रावधान पाप के बढ़ाने के उपाय ही हैं। जब तक यह बात समझ में नहीं आती कायरों के समाज में न अपराध कम होंगे न पाप यानी अपराध…

फ़िल्म का सबसे अच्छा पक्ष उसका निर्देशन और फ़िल्माँकन है। विषय में संभावना होने के बावजूद कहीं भी अश्लीलता नहीं है। मनीष झा की समझ को देख आश्चर्य होता है। यद्यपि वे कम ही आयु के, एक दम नौजवान हैं, किन्तु दर्शक को बार-बार लगता है कि श्याम बेनेगल की फ़िल्म देख रहे हैं। किसी सामाजिक समस्या पर उद्देश्यपूर्ण फ़िल्म बनाना आज वैसे भी लीक से हट कर चलना है। उस पर विषय की प्रस्तुति ऎसी है कि दर्शक के मन में गहराई तक उसका असर होता है और वह इस समस्या से ख़ुद को बेहद चिंतित पाता है। फ़िल्म को अनेक देशी-विदेशी अवार्ड मिले हैं। कलकी के रूप में तुलिका जोशी और जमींदार की भूमिका में सुधीर पांडे अद्भुत हैं। इनके अलावा सभी कलाकारों से मनीष झा ने बहुत सधा हुआ काम लिया है।

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16 कौशल्यापुरी, चितावद रोड, इन्दौर-45001 फ़ोन- 098263 61533

8 टिप्‍पणियां:

  1. गाँवों अभी भी स्त्री की दशा चिंतनीय है। वहाँ अभी भी सामंतवाद है। काँपता है दिल इसे देख कर पर ये चीज़ सच है। स्त्री आज भी समाज के किसी न किसी कोने में उपेक्षित और शोषित पड़ी है। यह फ़िल्म बहुत अच्छा मेसेज देती है.. सबसे अच्छी बात यह है कि कलकी एक लड़की को जन्म देती है।
    कृष्णकांत निलेसे

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  2. गाँवों में अभी भी स्त्री की दशा बहुत बुरी है। वह सामंती समाज के किसी कोने में उपेक्षित पड़ी है और उसके साथ लगातार शोषण हो रहा है।
    कृष्णकांत निलोसे

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  3. फ़िल्म बहुत निराशा से भर देती है
    आशीष मेहता

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  4. फ़िल्म ने भीष्म साहनी के नाटक 'माधवी' की याद दिला दी। चौधरी जी ने भी ठीक ही पड़ताल की है।

    चन्द्र शेखर बिरथरे

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  5. मुझे फ़िल्म बहुत डरावनी लगी। डॉक्टर होने के नाते भी ऎसी स्थितियों को समझ सकती हूँ। यह हमारे समय का सच तो है हि लेकिन चौधरी जी के अनुसार अगर यह भविष्य पर भी चिंतित करने वाली फ़िल्म है.. ज़रा सोचे.. बग़ैर औरत के समाज कैसा होगा..
    डॉ यमिनी

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  6. फ़िल्म के संबन्ध में और चौधरी जी के लेख के संबन्ध में हमें कई साथियों की इसी तरह की टिप्पणियाँ मिली है। जो तकनीक से ज़्यादा परिचित होने की वजह से अपनी बात इस मंच पर नहीं कह सकते हैं, लेकिन वे अपनी बात रखना चाहते थे..तो विस्तार से तो नहीं लेकिन उनकी बातों के भाव हमने यहाँ उन्हीं के नाम से रख दिये है.. काग़ज़ पर उनकी लम्बी टिप्पणियाँ हमारे पास सुरक्षित है

    बिजूका लोक मंच

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  7. भूल सुधार
    'तकनीक से ज़्यादा परिचित न होने की वजह से' पढ़े।
    बिजूका लोक मंच

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