पाथेर पांचाली सत्यजित राय की एक निर्देशक के रूप में पहली फिल्म थी जो आज विश्व की सार्वकालिक महान फिल्मों में गिनी जाती है .1955 में आई यह फिल्म अपु त्रयी ( Apu - Trilogy )की पहली फिल्म थी , हालाँकि इस फिल्म को बनाते समय राय का तीन फिल्में बनाने का कोई इरादा नहीं था . यह फिल्म 1929 में प्रकाशित बिभुतिनाथ बंदोपाध्याय के उपन्यास 'पाथेर पांचाली ' पर आधारित थी . 1920 के आसपास के बंगाल के परिवेश पर लिखा गया यह उपन्यास भी प्रथमतया एक पत्रिका में धारावाहिक के रूप में छपा और बाद में पाठकों के लिए पुस्तक रूप में . कहा जाता रहा है की यह असल में लेखक के आरंभिक जीवन का ही चित्रण था. ये कहानी अपने पुश्तैनी घर को किसी कीमत पर न छोड़ने के लिए संघर्षरत एक परिवार की कहानी है . यह उस दौर की कहानी है जब देश में ज़मींदारी प्रथा का बोलबाला था , खासकर बंगाल में ! ग़रीब और छोटा किसान किस तरह हमेशा से ही ऋण से ग्रस्त रहा है और कभी न खत्म होने वाली उसकी परेशानियाँ किस तरह लगातार बढती ही रही हैं , ये बात इस फिल्म में बहुत गहराई से अनुभव की जा सकती है .
शीर्षक के शाब्दिक अर्थ की बात करें तो पाथेर शब्द का बंगाली में मतलब होता है ‘पथ का ’ और पांचाली बंगाल में गायी जाने वाली कथात्मक शैली का लोकगीत है . इस आधार पर इसका अर्थ हुआ पथ का गीत जिसके प्रस्तावित कई नामों में इसके अंग्रेज़ी संस्करण में नाम स्वीकृत हुआ ‘ Song of the little road ’ यानि ‘ एक छोटे - से रास्ते का गीत ’ .
अपु त्रयी की यह पहली फिल्म अपु के परिवार के सदस्यों के जीवन पर केन्द्रित है जिनमे उसके पिता हरिहर राय मंदिर में एक पुजारी हैं और उसी से जो थोडा बहुत मिलता है अपना घर चलते हैं . अपु की माँ सर्बजया बड़ी मुश्किल से अपने दोनों बच्चों अपु और दुर्गा का पालन पोषण कर रही है . दुर्गा अपु की बड़ी बहन है . इस परिवार में एक और सदस्य है इंदिर ठाकरुन जो वैसे तो अपु की बुआ है लेकिन उम्र में इतनी बड़ी है की दादी लगती है .दाँत गिर चुके हैं , झुक कर चलती है , घर के कोने में बने एक छोटे - से कुट्टड में रहती है और अपना खाना कम पड़ने पर जब तब सर्बजया की रसोई से खाने की चीज़ें चुपचाप ले जाती है . इस बात पर वह कई बार सर्बजया के गुस्से का शिकार भी हो जाती है . कई बार बात ज्यादा बिगड़ जाने पर अपनी फटी चटाई और पोटली लेकर अपने एक रिश्तेदार के यहाँ चली जाती है , जहाँ कुछ दिन रहकर वापस भी आ जाती है . दुर्गा कई बार पड़ोसियों के बग़ीचे से फल चुराकर अपनी बूढी बुआ के लिए ले आती है .इसके लिए कई बार वह पड़ोसन की डांट भी खाती है .यह बग़ीचा असल में हरिहर के ही बाप - दादाओं का था जो क़र्ज़ न चुका पाने के कारण हड़प लिया गया था . अपनी बेटी को इस तरह चोरी करता देख सर्बजया के स्वाभिमान को ठेस पहुँचती है और वह अपनी लड़की पर इसके लिए कई बार नाराज़ भी होती है . एक बार तो बात बहुत ही आगे बढ़ जाती है जब पड़ोसन उस पर एक हार चुराने का आरोप लगा देती है जिसका असल मकसद सर्बजया को पुराने क़र्ज़ न चुकाने के लिए शर्मिंदा करना होता है . दुर्गा अपु से बड़ी होने के कारण उसका एक माँ की तरह ख्याल रखती है . दोनों साथ - साथ खेलते हैं, खेतों- मैदानों के बीच दौड़ते हैं , मिठाई वाले के आने पर दूर तक उसके पीछे-पीछे चले जाते हैं , पिता से बाइस्कोप में चित्र देखने की जिद करते हैं , रामलीला देखने जाते है. गाँव के बच्चों की ट्रेन की आवाज़ इन बच्चों के लिए बहुत कौतुहल का विषय है जिसे बच्चे कभी देख नहीं पाए हैं .एक दिन हिम्मत करके दोनों खेतों और मैदानों के बीच से होते हुए पटरी के पास जा पहुचते हैं और पहली बार ट्रेन को देखते हैं . बच्चों के लिए ये दिन एक बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है . एक दिन खेलकर लौटते वक़्त रास्ते में उन्हें अपनी बुआ इंदिर दिखाई देती है जो भूख और कमज़ोरी की वजह से मर चुकी है. बूढी बुआ द्वारा अक्सर गुनगुनाया जाने वाला गीत उसकी मृत्यु के बाद पार्श्व में बजता रहता है.
हरिहर अंततः पैसा कमाने के लिए नौकरी ढूँढने बाहर जाने का निर्णय लेता है और अपने परिवार वालों को ये आस बंधाकर निकलता है की एक दिन उसे अच्छी नौकरी मिलते ही उनके सारे दुःख दूर हो जायेंगे, घर की मरम्मत हो सकेगी , वे लोग अच्छे कपडे पहन सकेंगे. वह गाँव - शहरों में काम की तलाश में भटकता फिरता है और घर चिट्ठियां भेजता रहता है. दुःख के समय में सर्बजया के लिए ये चिट्ठियां बहुत बड़ा सहारा और उम्मीद है . इस सबके बीच एक दिन बारिश में ज्यादा भीग जाने से दुर्गा बीमार हो जाती है और पैसे के आभाव में उसकी हालत और बिगडती चली जाती है . एक भयानक तूफानी रात के बाद एक दिन वह भी दम तोड़ देती है . यह फिल्म का बहुत ही मर्मस्पर्शी क्षण है . आख़िरकार एक दिन हरिहर नौकरी मिलने के बाद ख़ुशी - ख़ुशी घर लौटता है . उसके हाथों में सबके लिए कुछ न कुछ उपहार हैं . बारिश के कारण घर की बद से बदतर हुई हालत उसे इतना परेशान नहीं करती जितना घर में बिखरा हुआ सन्नाटा . कुछ ही देर बाद घर में पसरी हुई चुप्पी विलाप में बदल जाती है जब हरिहर को पता चलता है की उसकी एकमात्र बेटी दुर्गा मर चुकी है . इस त्रासदी के बीच अंततः वे लोग अपना पुश्तैनी घर और गाँव छोड़ कर जाने का निर्णय ले लेते हैं . अंतिम दृश्यों में परित्यक्त घर है जिसमें सिर्फ उजाड़ पसरा हुआ है. एक सांप रेंगता हुआ घर के भीतर घुसता है. एक बैलगाड़ी संकरे रास्ते से गाँव से बाहर जा रही है , जिसमें तीन उदास और मजबूर चेहरे पीछे छूटते गाँव को सूनी आँखों से देख रहे हैं . पीछे छूटता रास्ता इस उदास चुप्पी का गीत गा रहा है .
हर फिल्मकार मूल कहानी में कुछ न कुछ फेर बदल करता ही है . सत्यजित राय ने भी कुछेक चीज़ों में बदलाव किये . जैसे बच्चों का ट्रेन देखने के लिए घर दूर निकल जाना मूल उपन्यास में कहीं नहीं था . बूढी बुआ इंदिर की मौत उपन्यास में बहुत पहले हो जाती है और उस वक़्त वह घर पर ही होती है .
सत्यजित राय न सिर्फ अच्छे फ़िल्मकार थे बल्कि एक अच्छे चित्रकार भी थे . वे अपनी फिल्मों के दृश्यों के स्केच भी खुद बनाया करते थे . पाथेर पांचाली की स्क्रिप्ट पूरी तरह लिखित रूप में नहीं थी. दृश्यों को कहीं गद्य के माध्यम से समझाया गया था तो कहीं सिर्फ रेखाचित्रों के माध्यम से. राय की टीम के ज़्यादातर लोग और कलाकार उनकी तरह नए थे. सिनेमेटोग्राफर के रूप में राय के साथ सुब्रता मित्र थे जो महज 22 साल की उम्र में पहली बार किसी फिल्म के लिए सिनेमेटोग्राफी कर रहे थे . कुछेक अनुभवी लोगों में आर्ट डिरेक्टर बंसी चन्द्रगुप्त थे जो पहले भी कुछ बड़े निर्देशकों के साथ काम कर चुके थे . लेकिन इस सबके बावजूद आखिर सत्यजित ने पाथेर पांचाली बना कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया .
1949 के दौरान सत्यजित एक विज्ञापन एजेंसी में काम करते थे जब इस उपन्यास पर फिल्म बनाने का विचार उन्हें आया . मशहूर फ़्रांसिसी फिल्मकार ज्यां रेनोइर उन दिनों अपनी फिल्म द रिवर की शूटिंग के लिए कोलकाता आये हुए थे . फिल्म की लोकेशंस दिखाने के सिलसिले में राय की उनसे मुलाकात हुई . राय ने उन्हें इस उपन्यास पर अपनी योजना के बारे में बताया तो ज्यां ने उन्हें यह फिल्म बनाने के लिए प्रोत्साहित किया . 1950 में राय को जब अपनी कंपनी की तरफ से लन्दन भेजा गया तो वहाँ अपने 6 महीने के प्रवास के दौरान उन्होंने तकरीबन 100 फिल्में देखीं जिनमें डी सिका की बाइसिकल थीफ ने उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित किया . कहते हैं इसी फिल्म को देखने के बाद राय ने तय कर लिया था की उन्हें अब सिर्फ और सिर्फ फ़िल्मकार ही बनना है .
देश के जाने मने सितार वादक पं.रविशंकर ने इस फिल्म में संगीत दिया था . फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक भारतीय संगीत के रागों पर आधारित था . बीच- बीच में सितार के स्ट्रोक दृश्यों के प्रभाव को और ज्यादा बढ़ाते हैं . बाँसुरी का प्रभाव गज़ब का है. इसके संगीत के बारे में कहा गया कि यह एक साथ दर्शक को दुःख और जीवन्तता की अनुभूति करवाता है . इन्ही कारणों से पाथेर पांचाली के संगीत को द गार्जियन में प्रकाशित टॉप 50 अंतर्राष्ट्रीय फिल्म साउंडट्रैक्स में शुमार किया गया .
पाथेर पांचाली को उस साल कान्स फिल्म फेस्टिवल में भी प्रदर्शित किया गया जहाँ यह सराही भी गयी और पुरस्कृत भी हुई . राष्ट्रीय पुरस्कारों के अलावा दुनिया भर के कई फिल्म फेस्टिवल्स में इसे कई पुरस्कार मिले. महान जापानी फिल्मकार अकिरा कुरोसावा ने फिल्म की रिलीज़ के कई साल बाद कहा था ".... मुझे यह फिल्म देखने के कई मौके मिले और हर बार मैंने खुद को और ज़्यादा अभिभूत पाया. इसमें एक विशाल नदी के प्रवाह का गाम्भीर्य और भव्यता है ..... बिना किसी अतिरिक्त प्रयास और बिना किसी अप्रत्याशित झटके के राय एक तस्वीर बनाते हैं और दर्शकों को झंझोड़ कर रख देते हैं. कैसे कर पाते हैं वे यह सब ? सिनेमैटोग्राफी की उनकी शैली में कोई भी चीज़ अप्रासंगिक या बेतरतीब नहीं है. और यही शायद उनकी श्रेष्ठता का रहस्य भी है ..." .
अमेय कान्त
मैंने बहुत साल पहले पाथेर पांचाली देखी थी. विभूतिनाथ बंदोपाध्याय का उपन्यास नहीं पढ़ा. लेकिन, जब आशापूर्णा देवी का "प्रथम प्रतिश्रुति" पढ़ा था तो लगा था कि वह पाथेर पांचाली का आल्टरनेट भविष्य का उपन्यास हो जिसका मूल विचार है कि अगर अपू मर जाता और दुर्गा जि़न्दा होती तो कहानी क्या होती. अपू की ट्राईलोजी के तरह से आशापूर्णा देवी ने भी प्रथम प्रतिश्रुती की ट्रालोजी लिखी जो बाद में स्वर्णलता और बुकुल कथा उपन्यासों से बनी. शायद कोई बँगला साहित्य जानने वाला ही बता सकता है कि क्या इस तरह की कोई बहस कभी हुई या नहीं?
जवाब देंहटाएंलगता है सुनील दीपक जी द्वारा इंगित "प्रथम प्रतिश्रुति" पढना पड़ेगा ...
जवाब देंहटाएंक्या हिंदी या मराठी में अनुवाद उपलब्ध है?
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