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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 अक्तूबर, 2010

लोक कला के साथ न्‍याय नही करती पीपली लाइव

राजेन्‍द्र बंधु


पिछले महीने रिलीज हुई आमिर खान की होम प्रोडक्‍शन फिल्‍म ''पीपली लाईव'' को दर्शकों द्वारा सराहा तो जा रहा है, किन्‍तु न्‍याय-अन्‍याय की कसौटी पर यह फिल्‍म खरी नहीं उतर रही है। एक अच्‍छी फिल्‍म बना देना अगल बात है, किन्‍तु उसका निर्माण ईमानदार मूल्‍यों पर आधारित होना दूसरी बात है। पीपली लाईव में लोकगीत को जमकर व्‍यवसायिक उपयोग तो किया गया, किन्तु उनके रचयिता को रायल्‍टी से वंचित रखा गया है। छत्‍तीसगढी गीत के साथ इस फिल्‍म में इसी तरह का अन्‍याय किया गया है।

इसमें फिल्‍माया गया गीत ''चोला माटी के हे राम'' छत्‍तीसगढ के जाने माने गीतकार स्‍व; गंगाराम शिवारे द्वारा लिखा गया था, जो पिछले तीन दशकों से यहां जन-जन में प्रचलित है। छत्‍तीसगढ के कलाकारों ओर सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस गीत को पीपली लाईव में लेने से पहले न तो रचनाकार के परिवारजनों से कोई स्‍वीक़ति ली गई और न ही उसके लिए किसी भी तरह के मेहनताने का भुगतान किया गया।

''चोला माटी के हे राम'' गीत छत्‍तीसगढ के लोकगीत और कला का एक नायाब नमूना है। स्‍व गंगाराम शिवारे ने यह गीत अपनी म़त्‍यु के पांच साल पहले लिखा था। इसे छत्‍तीसगढ के जाने माने गायकों द्वारा गया और कई दफे इसकी मंचीय प्रस्‍तुति की गई। प्रसिद्ध नाटककार हबीब तनवीर के नाटक ''चरनदास चोर'' में इस गीत को शामिल किया गया था। छत्‍तीसगढ के कलाकार बताते हैं कि स्‍व शिवारे अपने गीतों के गैर व्‍यावसायिक उपयोग के लिए प्रतिबद्ध थे। और सामाजिक जागरूकता के लिए उन्‍होंने विभिन्‍न नाटकों में अपने गीतों के प्रस्‍तुतिकरण की अनुमति दी थी। कहा जाता है कि उन्‍होंने सामाजिक परिस्थितियों से समझौता किए बिना लोककला के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। उनकी इसी कला साधना का परिणाम है कि आज छत्‍तीसगढ के जन-जन में उनके गीतों की गुनगुनाहट सुनी जा सकती है। उनके सैकडों शिष्‍य छत्‍तीसगढी लोककला को नई उंचाईयां देने में जुटे हैं।

पीपली लाईव में शिवारे का गीत लिए जाने के सवाल पर छत्‍तीसगढ लोंक कला मंच की सुश्री रमादत्‍त जोशी का कहना है कि ''छत्‍तीसगढी कला का व्‍यावसायिक उपयोग करने पर उसी पर्याप्‍त रायल्‍टी दी जानी चाहिए। शिवारे ने अपनी पूरा जीवन कला साधना में लगा दिया था और आज उनके पत्र आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। उन्‍हें श्री शिवारे के गीत की रायल्‍टी मिलनी चाहिए।'' कलाकर श्रीमती प्रभावती शर्मा कहती है कि ''फिल्‍म में लिया गया यह गीत पिछले 30 सालों से विभिन्‍न मंचों पर प्रस्‍तुत किया जा चुका है। चरनदास चोर नाटक में इसकी बहुत उम्‍दा प्रस्‍तुति हुई है।'' अंतराष्‍ट्रीय पंथी नर्तक देवदास बंजारे ने 15 साल पहले इस गीत पर प्रभावी न्रत्‍य प्रस्‍तुति दी थी।

बताया जाता है कि फिल्‍म ''दिल्‍ली-6'' में फिल्‍माया गया गीत ''सास गारी देवे'' भी स्‍व; गंगाराम शिवारे ने 1970 में लिखा था, जो छत्‍तीसगढ के लोक मानस में पहले से प्रचलित है। जबकि फिल्‍म में रहमान की संगीत धुनों के साथ प्रस्‍तुत इस गीत के गीतकार के रूप में प्रसून जोशी का नाम दिया गया है।

उल्‍लेखनीय है कि छत्‍तीसगढ की धरती लोककला से सम़द्ध है। यहां करमा, द‍‍दरिया, सुआ, पंथी, नाचा-गम्‍मत ऩत्‍यों में लोकजीवन की सहजता प्रदर्शित होती है। स्‍व गंगाराम शिवारे, स्‍व शेख हुसैन, स्‍व हबीब तनवीर, दाउ दुलार सिंह मांदरा, स्‍व रामचन्‍द्र देशमुख, स्‍व बद्री विशाल परमानन्‍द, स्‍व हेमनाथ यदू, डा नरेन्‍द्रदेव, स्‍व हरि ठाकुर, स्‍व केशरी प्रसाद वाजपेची आदि अनेक लेखकों एवं गीतकारों के योगदान से छत्‍तीसगढी स़स्‍ंकति संमद्ध हुई है। तीजनबाई(, किसमतबाईख्‍ मालाबाई, फीताबाई, राधा और कामिनी का गायन छत्‍तीसगढी लोकजीवन का एक अहं हिस्‍सा बन गया है।

पचास वर्ष की उम्र में सन 1982 में दुनिया से विदा लेने वाले स्‍व गंगाराम शिवारे ने अपने जीवन काल में एक हजार से अधिक गीतों की रचना की। कलाकार रेखादत्‍त जोशी के अनुसार ''उनके गीतों में छत्‍तीसगढी जन मानस की सामाजिक दशा का बहुत मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है।'' गीत ''कहां पावों रे खदर छानी के सुघर छांव'' में वे पलायन क दर्द को बयां करते हैं, वहीं ''बिलैका ताके मुसवा, भाडी ले सपट के'' गीदत में वे शोषित पीडित जनता को अपने बचाव और सशक्तिकरण की बात करते हैं।

छत्‍तीसगढी गीतों को फिल्‍मों में शामिल किया जाना उनकी व्‍यापकता की दिशा में अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण है। किन्‍तु छत्‍तीसगढी कला संस्‍क़ति और उसके कलाकारों को क्रेडिट एवं मेहनताना दिए बिना उनका व्‍यावसायिक उपयोग किया जाना कला जगत के साथ अन्‍याय है। यही कारण है कि छत्‍तीसगढ के लोगों और कलाकारों में पीपली लाईव के प्रति नाराजी देखी जा सकती है। जमीन से जुडे कलाकार अक्‍सर इस तरह के अन्‍याय के ज्‍यादा शिकार होते हैं। क्‍योंकि वे व्‍यावसायिकता की जोड-तोंड से परे रहकर ईमानदारी और मेहनत से कला साधना में लीन रहते हैं। दुख की बात यह है कि फिल्‍म उद्योगों और उंच ओहदे पर बैठे कुछ कलाकारों द्वारा उनके प्रति ईमानदारी का व्‍यवहार नहीं किया जाता।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल सही. 'लोक' को भुनाया तो जा रहा है पर जिन लोगों को इसका क्रेडिट मिलना चाहिए, नहीं दिया जा रहा.

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  2. bandhu ji bahut sahi sawal uthaye hain aapane.
    charcha honi chahiye.
    lok kalakaro ko unka haq milana chahiye.

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  3. aamir khan jo ki saare vishv mein ab to apne samajik uddeshya ke liye jane jate hain is tarah se unke asli haqwalon ka haq nahi denge, ye baat mere yaqin se bahar hain. kyou na bijooka lok manch ki aur se is par objection liya jaaye.

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