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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 फ़रवरी, 2011

ये कौन सी दयार है

प्रदीप मिश्र

किसी नक्षत्र का थोड़ा-सा उजाला
मुझे मेरी राह सुझाता है
और वह थोड़ा-सा उजाला ही है
जो मुझे नष्ट कर सकता है
या बचा सकता है ।''

अदम जगाजेयेव्स्की की कविता की इन पंक्तियों को उदय प्रकाश के ब्लाग पर पढ़ा और हमारे समय की गुत्थियों को ठीक से समझने की एक नई रोशनी मिल गयी। यह हमारे समय का भयानक सच है कि हम एक तरह के उजाले से संचालित हो रहे हैं। यह उजाला हमारे समय में हो रहे विकास और उपलब्धियों का उजाला है। इस अंधाधूंध दौर में ऊपर से सबकुछ अच्छा-अच्छा होता दिख रहा है। लेकिन यहाँ पर इस बात को ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि यह उजाला हमें नष्ट भी कर सकता है और बचा भी सकता है। चौंधियाहट हमेशा ही उजाले में पैदा होती है। लेकिन इस इस चिन्तन परम्परा में शामिल होने के लिए हमें हमें थोड़ा अवकाश चाहिए और इस दौड़ से बाहर निकल कर देखना होगा कि यह कहाँ समाप्त हो रही है। क्या ये लगातार आत्महत्या कर रहे, किसानों के कब्रिस्तान में समाप्त हो रही है या मानवीय मूल्यों के कारागार में। क्योंकि यह तो तय है कि दौड़ में जीतनेवाला एक ही होगा, बाकी सब भीड़ हैं। विडम्बना यह है कि इस दौड़ की भीड़ में पूरा का पूरा देश भी, अपने मुखिया सहित शामिल है। अगुवा वे सारे विकसित देश हैं जो बड़ी मछली और छोटी मछली के भोजन परम्परा में विश्वाश रखते हैं। यानि कभी भी कोई भी दौड़ता हुआ देश अपने देश की ध्वजा को रूमाल की तरह जेब में ठूंस लेगा और अगुवा देशों की इस समझाईश को मान लेगा ध्वजा की क्या उपयोगिता यह तो सिर्फ फहरता रहता और एक आदमी रोज इसे उतारने और चढ़ाने में खर्च होता है। जबकि रूमाल साफ-सफाई, दुर्घटना में जीवन रक्षक और जरूरत पढ़ने पर गला कस के आत्महत्या करने में उपयोगी है। यह तर्क सर्वसम्मति से अपने देश की जनता से स्वीकार भी करवा लेगा । भविष्य में आत्मस्वाभिमान, अस्तित्व और हक की बात करनेवाले लोगों को मनोरोगी कहा जाएगा और विकसित देशों में वैज्ञानिक इस शोध में लगें हैं, कि इन भयानक रोगियों का क्या इलाज हो सकता है। अब आप अवकाश लेकर कोई चिन्तन नहीं कर सकते हैं। यदि ऐसा किया तो इस विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट जाऐंगे। जहाँ अंधकार ही अंधकार होगा और ईमानदारी,निष्ठा, बंधुत्व, प्रेम जैसे कुछ मूल्य होंगें। इसलिए बिना सोचे समझें दौड़ें और कमसे कम विश्व विश्वग्राम तक पहुँचकर वैश्विक नागरिकता प्राप्त कर लें।

मुझे मालूम है कि इतनी गम्भीर बातों को सुनने के कान और पचाने के पेट अब नहीं रहे। लेकिन मैं भी क्या करूँ आजकल इन्दौर में घनघोर साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजन हो रहे हैं। हम जैसे आवारागर्दों के तो ये ठिये हैं। सो पहुँच ही जाते हैं और बुद्ध की तरह ज्ञान प्राप्त करके ही निकलते हैं। उसी ज्ञान की बघार ऊपर दे डाली। लेकिन कभी- कभी इन साहित्यिक कार्यक्रमों कुछ जादूई हादसे हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ शरद पगारे जी के सम्मान के अवसर पर हुआ। आयोजन स्थल था मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति में था। सम्मान देने के लिए हमारे समय के एक लोकप्रिय नेता जी पधारे। उनके साथ कुछ एकसपाइरी डेटवाले नेता जी लोग और एक साहित्यकार प्रभू जोशी मंच पर विराजमान थे। इस कार्यक्रम के बारे में पहले ही साहित्यिक मित्रों की प्रतिक्रिया मिल चुकी थी कि क्या जाना वहाँ तो सारे नेता आ रहे हैं। खैर हमने तो खतरा मोल ले ही लिया था, और नेता जी के चिन्तन परक भाषण से रूबरू हुए और पहली बार जाना कि नेता जी संस्कारों की भी बात करते हैं और अपने शहर में होनेवाली धटनाओं के प्रति भी संवेदनशील होते हैं। यहाँ पर मुझे चन ्द्रकांत देवताले की पंक्तियां याद आयीं -

दिखाई दे रही है कई कई चीजें
देख रहा हूँ बेशुमार चीजों के बीच एक चाकू
अदृश्य हो गई अकस्मात तमाम चीजें
दिखाई पड़रहा सिर्फ चमकता चाकू

प्रभू जोशी जी हमारे बीच में लाईट हाउस की तरह हैं। उनकी चेतना हमारे समय के समग्र वैज्ञानिक विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं। इसलिए वे जब हिन्दी भाषा की दुर्गति और उसके कारकों पर बात करतें हैं तो सचमुच हमारी आंखें खुल जातीं हैं और साफ दिखाई देता है कि यह षडयंत्र हमें बिना लड़े किस तरह से पराजित कर देगा और हम अपने विकास का जयगान करते-करते कब अपनी गुलामी का जय गान करने लगेंगे पता भी नहीं चलेगा।

इसी कड़ी में उन्होंने फिल्मी दुनिया की कुटिलता और हेकड़ी पर बात करते हुए बताया कि किस तरह से वहाँ पर लेखकों का शोषण होता है। जब कमलेश्वर जैसे सूस्थापित और रसूख वाले लेखक को फिल्मी दुनियावालों ने नहीं छोड़ा तो शरद पगारे और सत्यानारायण किस खेत के मूली हैं। यहाँ पर मुझे हाल ही का एक प्रकरण याद आया। कोई नीतू हैं जो मुम्बईया फिल्मी बाजार की खुदरा विक्रेता हैं। उनको अचानक स्वप्न आया कि मालवी का फिल्मी बाजार एकदम खाली है। यहाँ पर धन्धा अच्छा चलेगा सो वे अचानक प्रकट हो गयीं और सुप्रसिद्ध कथाकार सतीश दुबे जी के उपन्यास पर फिल्म बना डाला। इस उपन्यास को पटकथा में बदलते समय उनको मालवी बोली के जानकार की जरूरत पड़ी सो युवा कथाकार सत्यनारायण पटेल से मालवी में संवाद भी लिखवा लिया। जैसा कि हमेशा होता है, अब वे सत्यनाराण पटेल का नाम फिल्म में देने से मना कर रहीं हैं। सत्यनाराण ने उनके खिलाफ हाथ-पॉव पटक रहे है। सत्यनारायण ने फिल्म में मालवी संवाद लिखा है इसका पूख्ता प्रमाण मेरे पास भी है। अभी इन सब विचारों में हम उलझे ही हुए थे कि सामने से आते हुए विचारसिंह जी घुड़चढ़े दिखाई दिए। अपनी साईकिल का अगला पहिया मेरे दोनों पावों के बीच में लगभग घुसाते हुए, बोले - "घोर अन्याय हो गया और तुम सब चुप बैठे हो ? जाहिल हो जाहिल"

"क्या हो गया ? " मैंने सकपकाते हुए पूछा।

"वो देखो सामने।" उन्होने कसमसाते हुए आदेश दिया। मुड़कर देखा तो उसी मालवी फिल्म भुनसारा का कद्दावर बैनर लगा था। कुछ छण गौर से देखने के बाद भी मुझे कुछ भी नहीं मिला तो वे झुंझला ते हुए बोले - "यही बात है जो गलत चीजों को बड़ावा देती है। तुम लोग सोते ही रहोगे और चोर सब लूट ले जाऐंगे।" और अपने जेब से एक अपील की पर्ची मुझे थमाते हुए आगे निकल गए। पर्ची पढ़कर जब पुनः उस मालवी की फिल्मी का बैनर को देखा तो उसपर बम्बइया चेहरों की धूम थी और सिर्फ दो नाम छपे थे एक निर्देशक का और दूसरा निर्मात्री का। इन दोनों का मालवा की संस्कृति और बोली से कोई लेना देना नहीं है और इनको आज से पहले मालवा की बोली के उत्थान में कार्यशील कभी नहीं पाया। निर्माण के दौरान स्थानीय प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने की खबरें इस फिल्म के प्रेसकान्फ्रेंसो से खूब आयीं थीं। इस पर न तो लेखक सतीश दुबे का नाम था, न सत्यनारायण पटेल का और नहीं उन स्थानीय कालाकारों के नाम या चित्र जिनको यह फिल्म एक्टिंग का अवसर दे रही थी। यहाँ पर विचारसिंह जी घुड़चढ़े के पर्चे में छपी अपील सार्थक लगने लगी कि - "अगर सच्चे मालवी हो तो भुनसारा फिल्म मत देखना। इसने तुम्हारी बोली के लेखकों और कलाकारों का अपमान किया है। उनका नाम कहीं भी बैनर पर नहीं है। तो सोचो फिल्म बनाने और उसके क्रेडिट में कितना घपला होगा। ये तुम्हारे जेब से पैसा निकाल कर मुम्बई ले जाऐंगे और तुमको ठेंगा दिखा जाऐंगे। बहिस्कार करो, भुनसारा फिल्म का बहिस्कार करो। और बता दो सबको कि मालव भूमी के लोग अपने लेखकों, कलाकारों और संस्कृति से कितना प्रेम करते हैं।" नीचे नोट लिखा था मैं इस अपील को पूरे मालवा में फैला दूँगा फिर देखता हूँ। मुम्बईया दाँव कैसे सीधे सच्चे मालवी जनता को मुर्ख बनाती है। काश विचारसिंह जी घुड़चढ़े का विचार सारे मालवा के निवासियों में प्रवेश कर जाता। मैं अपनी बात मखमूर सईदी के इस शेर के साथ पूरा कर रहा हूँ।

चल पड़े हैं तो कहीं जा के ठहरना होगा

ये तमाशा भी किसी दिन हमें करना होगा

- ७२ए सुदर्शन नगर, अन्नपूरणा रोड, इन्दौर- ४५२००९ (.प्र.) मो. ०९४२५३१४१२६

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