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20 सितंबर, 2011
यस.., वी आर गिल्टी
‘यस.., वी आर गिल्टी’ नाटक का मंचन 18 सितम्बर को माई मंगेशकर सभागृह (इन्दौर) में हुआ। यह नाटक मूल रूप से मराठी भाषा में लिखा गया है। श्री अनिल सोनार द्वारा लिखित इस नाटक का हिन्दी में अनुवाद श्रीयुत श्रीकांत आप्टे ने किया है। नाटक का कथानक मध्यमवर्गीय दिनेश नाडकर्णी (पति)- अलका नाडकर्णी (पत्नी) के दाम्पत्य जीवन के इर्द-इर्द बुना गया है। दिनेश और अलका ने आपस में प्रेम विवाह किया है।
दिनेश नाडकर्णी एक बड़ी कम्पनी में काम करता है। वह महीने में क़रीब अठराह-बीस दिन कम्पनी के काम से शहर से बाहर दौरे पर रहता है और ऎसा एक महीने या दो महीने नहीं होता है, बल्कि शादी के तीन साल बाद से ही शुरू हुआ यह सिलसिला सात साल तक हर महीने यूँ ही चलता रहता है। निःसन्तान पत्नी अलका अकेली फ्लैट पर रहती है। वह अकेली ऊबे नहीं..इसलिए पति दिनेश उसे शहर के एक क्लब की सदस्यता दिला देता है। अलका जब भी ऊब महसूस करे क्लब चली जाया करती। क्लब में सभी तरह के लोगों से उसकी जान-पहचान होती है। उसकी जान-पहचान का दायरा बढ़ता रहता है। व्यावसायियों से… बड़े-बड़े अधिकारियों से…और समाज के ऎसे कई लोगों से उसकी पहचान होती है… जिनके ईशारों पर शहर चलता है। पहचान धीरे-धीरे उस रिश्ते में बदल जाती है…. जिसे समाज में खुले रूप से स्वीकार करने की ताक़त किसी में नहीं है। न मध्यमवर्गीय दिनेश नाडकर्णी में और न ही अलका के साथ रिश्ता जोड़ लेने वाले किसी भी उच्च मध्यमवर्गीय में।
जब दिनेश कम्पनी के काम से बाहर दौरे पर जाता रहता है। तब अलका क्लब जाती है। क्लब में शराब पीती है। ….और जब दिनेश बाहर रहता है… अलका अपने पति की ग़ैर मौजूदगी में अपने ही फ्लैट में अलग-अलग पुरुषों के साथ संसर्ग भी करती है। शराब और संसर्ग की वह आदि हो जाती है।
दस साल के दाम्पत्य जीवन में कभी दिनेश को यह एहसास नहीं होता है कि अलका के संबन्ध किसी ग़ैर मर्द से भी है, बल्कि कई मर्दों से हैं। लेकिन जब एक बार उसका दौरा स्थिगत हो जाता है.. और वह फ्लैट पर जल्दी लौट आता है… तब अपने फ्लैट में किसी दूसरे पुरुष को देखता है और अलका के दुष्चरित्र के बारे में सबकुछ जान लेता है…. तब वह एक आम आदमी की तरह का ही व्यवहार करता है। पहले तो ग़ैर पुरुष के साथ उसकी धक्का-मुक्की होती है। ग़ैर पुरुष फ्लैट से अपनी जान बचा भागने में सफल हो जाता है.. तब अलका के साथ बातचीत शुरू होती है। अलका निर्लज्जता से बताती है कि वह यह सब पिछले सात साल से कर रही है। अलका का यह रूप दिनेश बर्दाश्त नहीं कर पाता है…और वह अपना आपा खो बैठता है। वह अलका को गला घोट कर ख़त्म कर देता है। कुल जमा घटनाक्रम इतना ही है।
इस नाटक में असाधारण कुछ भी नहीं है। इसमें पति-पत्नी के रिश्ते की असीम व्याख्या करने वाली बहस, द्वन्द, कल्पना, मूल्यों और मान्यताओं से टकराव बिल्कुल नहीं हैं। इसमें दुख और सुख की पराकाष्ठा भी नहीं है। फिर भी लेखक को इस साधारण-से और बहुत आम विषय पर नाटक लिखने की ज़रूरत महसूस हुई। लिखा भी। पर लिखते वक़्त लेखक के मन में साधारण को असाधारण बनाने की बात रही होगी। शायद इसीलिए लेखक ने नाटक में दिनेश नाडकर्णी (रत्नेश रूप) के दोस्त के रूप में मक़बूल शेख (राघवेन्द्र सिंह राजावत) को, अलका नाडकर्णी (ज्योति गोस्वामी) की परिचित के रूप में रत्नमाला विभांडिक (यामिनि सोनवणे), पुरुष (प्रेम उपाध्याय), गोरखा (चैतन्य शाह), टेक्सी ड्रायवर (पुनीत शर्मा), परिवार के डॉक्टर के रूप में डॉ. संचेती (जय पंजवानी), इंस्पेक्टर (रवि जोशी), चपरासी (रोमी सेन) को शामिल किया होगा। इसे विश्वसनीय बनाने का भरसक प्रयास करते हुए और गहरे रहस्यात्मक ढंग से लिखने की कोशिश की गयी। कहने का मतलब यह कि एक आसान से विषय को एक ख़ास अंदाज़ से नाट्य रूप में प्रस्तुत करने में कोई कसर न रहे….ऎसा प्रयास लेखक ने ईमानदारी से किया।
इस नाटक का निर्देशनः राजन देशमुख ने किया। पारखी दर्शकों के लिए निर्देशकीय कमजोरी खोजना टेढ़ी खीर था। मंच प्रबन्ध सतीश फालके और उनके साथियो ने किया था…जो नाटक की ज़रूरत के मुताबिक एकदम ठीक था। संगीत संयोजन, ध्वनि नियंत्रण, मंच सज्जा, रंगभूषा, वेशभूषा और प्रकाश व्यवस्था में भी कोई ज्यादा खोट नहीं निकाली जा सकती। इनमें छोटी-मोटी खोट गिनाने का कोई औचित्य भी नहीं है। इनमें छोटी-मोटी कमी रह जाने से भी नाटक की सेहत पर कोई ज्यादा ख़राब असर नहीं पड़ता है। हालाँकि इस नाटक में यह सभी पहलू उतकृष्ट थे।
मुझे लगता है किसी भी नाटक को कितने भी कम या ज्यादा संसाधनों के साथ खेला जाये। नाटक में दर्शक को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली बात होती है, स्क्रिप्ट, अभिनय और निर्देशन। जब मंच पर स्क्रिप्ट में लिखी हर-एक चीज़ मौजूद होती है। वेशभूषा से लेकर.. संगीत, प्रकाश और सबकुछ ज़रूरत के मुताबिक होता है…. मंच पर जितनी ज्यादा चीज़े उपलब्ध होती है…..कलाकार को अभिनय करने का उतना ही कम अवसर मिलता है। कलाकार सिर्फ़ संवाद को भावनात्मक रूप से संप्रेषित करने का काम करता है।
मैं समझता हूँ कि किसी भी नाटक के सफल होने में दो चीज़ों का ख़ास योगदान होता है। पहली नाटक की स्क्रिप्ट ‘जो सामाजिक चेतना को विकास करने वाली होना चाहिए’ और दूसरी अभिनय। मैं महज ताली बटोरने और मुँह देखी वाह..वाही करने वाली स्क्रिप्ट की बात नहीं कर रहा हूँ। किसी नाटककार का यह मक़सद होता भी नहीं है। अगर यह मक़सद हो तो सबसे ज्यादा ताली और वाह..वाही मसखरों की प्रस्तुति से मिलेगी.. जो आसानी से किया जाने वाला काम है। नाटक करना एक गम्भीर काम है, इसलिए नाटककार का काम कोरी वाह..वाही और तालियों से नहीं चलता है। हाँ.. तालियों और वाह..वाही से उसका हौसला ज़रूर बढ़ता है।
लेकिन नाटककार चाहेगा कि उसका नाटक समाज की जड़ता, रूढी, कुन्ठा, कुप्रथा, छद्म, पुराने मूल्यों और मान्यताओं पर प्रहार करे। समाज में व्याप्त बुराइयों और ज्वलंत समस्याओं से टकराये। समाज में समस्याओं से जूझने की चेतना फूँके… उनसे बचाने का रास्ता खोजे। अन्ततः नाटक करना समाज को साँस्कृतिक दृष्टि से बेहतर बनाने का एक स्वप्न है, जिसे खुली आँखों से देखना है और इसे साकार करने के लिए बेहद ज़िम्मेदारी से सतत साँस्कृतिक कर्म करते रहना ज़रूरी है।
यह लेखक की ही ज़िम्मेदारी है कि नाटक में जो भी ज्वलंत समस्या उठायी गयी है… दर्शकों के सामने उसका हल भी प्रस्तुत करे। हल प्रस्तुत न करने की समाज की चेतना जहाँ रूक गयी है.. वहाँ से आगे के रास्ते पर रोशनी बिखेरे। अगर समस्या बहुत भयावह, जटिल और उलझाव भरी है। उसे सुलझाने की उक्ति नाटककार को भी सूझ-समझ नहीं आ रही है… वह कोई उत्कृष्ट हल प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं है….ऎसी स्थिति में समस्या से लड़ने-भिड़ने का लाजवाब जज्बा पैदा करे। सामूहिक रूप से विचार-विमर्श करने की असहनी बेचैनी समाज में पैदा करे। क्योंकि किसी भी स्थिति में नाटककार को समाज को गुमराह करने की जरा भी नैतिक छूट नहीं होती है।
नाटक में अगर कोई समस्या उठायी गयी है.. तो लेखक की ही नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वह उस समस्या का हल खोजे। ध्यान रहे कि खोजा गया हल नयी समस्या नहीं हो। अगर समस्या का हल दूसरी समस्या है.. तो वह हल नहीं… नयी समस्या है और ऎसी स्थिति में समाज एक साथ पुरानी और नयी दोनों समस्याओं को झेलने को अभिशप्त होता है। समाज को ऎसी स्थिति में धकेलने के लिए नाटककार ज़िम्मेदार होता है। क्योंकि नाटक ऎसी विधा है.. ‘जो उत्कृष्ट अभिनय के मार्फत दर्शक के मन पर सीधा असर करती है। उसे उद्वेलित करती है। उसे समास्या से लड़ने के लिए उकसाती है।’ इसलिए लेखक को बहुत होश्यारी से अपनी ज़िम्मेदारी निभाना होती है।
यस, वी आर गिल्टी नाटक में दिनेश नाडकर्णी के सामने एक समस्या आती है कि उसकी पत्नी अलका दुष्चरित्र है। इस इक्सवीं सदी में पति-पत्नी का दुष्चरित्र होना आम बात बन गयी है, बल्कि समाज के एक ख़ास वर्ग के सिमित हिस्से में इसे मौन स्वीकृति दे रखी है। वहाँ पति-पत्नी एक-दूसरे से दुष्चरित्रता के विषय में लड़ने-झगड़ने को पिछड़ापन मानते हैं। उनके लड़ने-झगड़ने के मुद्दे और तरीक़े भी मध्यमवर्गीय समाज से भिन्न होते हैं। यस, वी आर गिल्टी नाटक समाज के मध्यमर्गीय पात्रों के इर्द-गिर्द बुना गया नाटक है। मध्यमर्गियों में आज भी स्त्री का चरित्रवान होना या न होना बहुत मायने रखता है। यहाँ आये दिन दुष्चरित्रा को लेकर आत्म ग्लानि होने पर आत्महत्या और ग़ुस्से पर नियंत्रण खोने पर हत्या भी की जाती है।
अलका और दिनेश पति-पत्नी तो है…पर वे दस साल के वैवाहिक जीवन में भी एक-दूसरे के भरोसेमंद नहीं बन सके। दिनेश अपने काम में मशरूफ रहा। और इस मुगालते में रहा कि अलका सिर्फ़ उसी से प्यार करती है और वह महीने में जितने भी दिन-रात उसके साथ बीताता है, उससे अलका संतुष्ठ रहती है। जबकि क्लब में जाने और विशेष वर्ग के लोगों के सम्पर्क में आने के बाद अलका की महत्त्वकाँक्षाओं और स्वभाव में बड़ा बदलाव आ चुका होता है।
दिनेश दस साल के बाद भी दस साल पहले वाली भावना से भरा रहता है और अलका मानिसक रूप से उस समाज में स्थानांतरित हो गयी.. जहाँ दूसरे पुरुष से सम्बन्ध बनाना कोई ग्लानिपूर्ण काम नहीं समझा जाता है। और अगर कुछ हद तक समझा भी जाता है तो.. हत्या करना ज़रूरी नहीं समझा जाता है। क्योंकि वहाँ पति भी उतना ही दुष्चरित्र होता है.. जितनी पत्नी। वे आपसी सहमति से कोई ऎसा रास्ता खोज लेते हैं.. जो दोनों के जीवन के लिए बेहतर होता है.. उनके लिए जीवन महत्त्वपूर्ण होता है… चरित्र भी होता है.. पर जीवन से ज्यादा नहीं।
शायद इसीलिए अलका को ग़ैर पुरुषों से अपने सम्बन्धों पर कोई लज्जा नहीं है। लेकिन दिनेश स्वीकार नहीं कर पाता है और आवेश में आकर पत्नी का क़त्ल कर देता है। लेकिन जैसा की मैंने कहा है कि क़त्ल समस्या का हल नहीं.. बल्कि नयी समस्या है। जबकि अलका और दिनेश दोनों को ही ज़रूरत थी समस्या के हल की। अन्ततः दोनों के जीवन ख़ुद उनके लिए और समाज के लिए भी महत्त्वपूर्ण थे।
इंसान का जीवन बहुत विराट और भेदभरा है। यह मान लेना आसान नहीं है कि वह जैसा भी है…उसकी मर्ज़ी से है। इंसान का जीवन कितना भेदभरा है…यह ख़ुद इंसान को नहीं मालूम है। वह ज़िन्दगी के लम्बे सफ़र में कब… कहाँ.. कैसे.. क्या और क्यों कर गुज़रेगा…. इसका उसे जरा भी भान नहीं होता है। एक इंसान जैसा भी स्वभाव, संस्कार और जीवन जीने का तरीक़ा पाता और अपनाता है.. वह पूरी तरह स्वयं का खोजा.. जाना..और अनुभवजन्य नहीं होता है, बल्कि सदियों से पारंपरिक रूप से चले आ रहे तमाम तरीक़ों में से ही कुछ अपने लिए चुन लेता है, और यह चुनाव भी परिस्थियों के मुताबिक ही होता है…।
लेकिन किसी भी समाज के विकास में भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, साँस्कृतिक और आर्थिक विकास की ख़ास भूमिका होती है। यस, वी आर गिल्टी में जो भी परिस्थियाँ बनी वे भी उक्त वजहों से ही बनी थी। लेकिन लेखक ही वह सख़्श होता है जो अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक, साँस्कृतिक और आर्थिक विकास के ढाँचे से टकराता है। जकड़बंध ढाँचों को तोड़कर उसे नयी राह खोजनी होती है… जो या तो पहले से ही समाज में मौजूद होती है… और बस.. उन पर रोशनी डालने की ज़रूरत होती है… और अगर न हो तो परिस्थियों के विश्लेषण और कल्पना के जरिए नयी राहें इजाद की जाती है।
दिनेश पत्नी के क़त्ल के रास्ते को चुनने के लिए अभिशप्त नहीं था.. क्योंकि आज समाज में यह रास्ता उपलब्ध है कि अगर पति-पत्नी में वैमनस्य है। वे एक-दूसरे के जीवन जीने के तरीक़ों से… अच्छी-बुरी आदतों से सहमत-असहमत है.. तो वे अलग-अलग हो सकते हैं। अलग होना समाज में उतना निंदनिय नहीं है.. जितना की क़त्ल करना। क्योंकि समाज में किसी को भी यह अधिकार नहीं कि वह किसी को उसके जीवन जीने के अहम अधिकार से वंचित करे। नाटक में अलका की हत्या को एक रास्ता दिखाया गया है.. जो कि मेरी नज़र में ग़लत रास्ता है।
मैं लेखक द्वारा सुझाये इस रास्ते से असहमत हूँ। मैं नहीं समझता कि अलका के दुष्चरित्र होने पर उसके पति को यह अधिकार है कि वह अलका का क़त्ल कर दे। और मैं यह देखकर ख़ुद को दुखी होने से नहीं रोक पाता हूँ कि लेखक दिनेश के इस भर्त्सना योग्य कृत्य पर समाज सेविका रत्नमाला विभांडिक (यामिनी सोनवणे), पुलिस इंस्पेक्टर, डॉक्टर, गोरखा, टेक्सी ड्रायवर और उसके आॉफिस तक के लोगों को इसमें शामिल कर लेता है।
नाटक के सभी पात्र दिनेश नाडकर्णी द्वारा अनचाही मदद करते हैं। दिनेश बार-बार यह बात स्वीकार करता है कि उसने अपनी पत्नी अलका को उसका गला दबाकर मार दिया है। पुलिस को वह ख़ुद फ़ोन करके बुलाता है। लेकिन सब उसे यह समझाने में लगे रहते हैं कि उसने अलका का ख़ून नहीं किया है। पहले तो वे सबकुछ जानते हुए भी यक़ीन नहीं करते हैं कि दिनेश ने अलका का ख़ून कर दिया है। फिर जब वे इस बात का यक़ीन कर लेते हैं कि अलका मर चुकी है.. तो वे दिनेश को यह यक़ीन कराने में लगे रहते हैं कि वह ख़ून नहीं महज एक दुर्घटना है। वे हत्या के सबूत नष्ट करते हैं… घटना स्थल में हेर-फेर करते हैं, उसे बदलते हैं। यह काम किसी समाज सेवक या शरीफ़ इंसान का नहीं है। दुष्चरित्रता सिर्फ़ ग़ैर पुरुष या स्त्री से सम्बन्ध बनाना ही तो नहीं होता है… दुष्चरित्रता भी कई तरह की होती है और इस लिहाज से नाटक के सभी पात्र कहीं न कहीं दुष्चरित्र नज़र आते हैं। फिर उन सभी दुष्चरित्रों को क्या अधिकार की वे अलका के क़त्ल को दुर्घटना में बदले..?
और किसे पता कि जब दिनेश बीस-बीस दिन दौरे पर रहता है.. तो वह बाहर कोई ऎसा काम नहीं करता है, जो किसी भी चरित्रवान व्यक्ति के लिए निषेध है। दिनेश नाडकर्णी अपने दौरों के दौरान कैसे जीता है.. ? नाटक में नहीं बताया गया है। जबकि आजकल तो बड़ी कम्पनियों के अधिकारियों बीच किराये की औरतों का धंधा जोरों पर है। क्या उसे ऎसी किसी स्त्री के साथ संसर्ग करने का अवसर नहीं मिला या वह चरित्रवान होने के नाते ऎसे अवसरों को ठुकराता रहा..? किसे पता दिनेश नाडकर्णी उन बीस दिनों में बाहर गुलछर्रे उड़ाता था या नहीं। शराब और सिगरेट तो वह घर में भी पिता ही था…और यह सब किसी भले आदमी के लक्षण तो नहीं…!
लेखक पोस्टमार्टम रिपोर्ट को भी प्रायवेट डॉक्टर के सहयोग से अपने अनुसार बनवाना बताते हैं…। नाटक में कई ऎसे पहलू है जो यह साबित करते हैं कि सभी पात्र कहीं न कहीं दुष्चरित्र हैं। और उस क्षण तो हद पार हो जाती है… जब समाजसेविका रत्नमाला विभांडिक से लेकर इंस्पेक्टर, डॉक्टर और सभी उनके किये दुष्कृत्य को जायज समझते हैं। इस बात पर गर्व करते हैं कि उन्होंने अलका के क़त्ल के सबूत नष्ट कर.. दिनेश नाडकर्णी को जेल जाने से बचाकर बहुत महान कार्य किया है। और तब दुष्चरित्रता की पराकाष्ठा हो जाती है…जब वे समाज में यह संदेश देतें हैं कि ऎसा करना समाज सेवा है।
यस, वी आर गिल्टी… मुझे एक ग़लत संदेश देने वाला नाटक लगा। लेकिन इस नाटक की प्रस्तुति बहुत ही रोचक थी और दो घन्टे तक दर्शक को अपने में उलझाये रखती है। लेकिन धोका अक्सर ख़ुबसूरत और आकर्षक होता है जैसे बाज़ार। उससे बचना चाहिए।
हँसी की फूलझड़ी यानी समाजसेविका रत्नमाला विभांडिक को मंच पर देखते ही दर्शक के चेहरे पर हँसी की लहर उठने लगती। रत्नमाला की भूमिका यामिनी सोनवणे निभायी, और यक़ीन मानिये यामिनी ने इस भूमिका को जीवंत कर दिया। यस, वी आर गिल्टी में सबसे कठिन दो भूमिकाएँ थीं। पहली अलका (ज्योति गोस्वामी) की और दूसरी रत्नमाला (यामिनी) की। ज्योति ने भी अलका की भूमिका बहुत ही प्रभावी ढँग से निभायी। लेकिन यामिनी के सामने अलका की भूमिका उन्नीस ही रही। और इसकी वजह ज्योति का अभिनय नहीं लगती…बल्कि मुझे लगता है कि यह नाटककार की कमी रही है। नाटककार अलका का चरित्र उतनी मजबूती से नहीं उभार सके हैं.. जितनी उसमें सम्भावनाएँ थीं। अलका और दिनेश केन्द्रीय पात्र थे, लेकिन स्क्रिप्ट में दोनों की भूमिकाओं ने वह ऊँचायी हासिल नहीं की… जो रत्नमाला ने की।
यामिनी सोनवणे, ज्योति गोस्वामी के बाद क्रमशः चैतन्य शाह, रत्नेश रूप और रवि जोशी के अभिनय ने दर्शकों के मन पर छाप छोड़ी। हालाँकि रवि जोशी से दो-तीन बार संवाद छूटते नज़र आये। रत्नेश रूप का अभिनय उम्दा होने के बावजूद कहीं-कहीं अस्वाभाविक-सा लगा। चैतन्य शाह के पास ‘गोरखा’ की बहुत छोटी भूमिका थी। लेकिन चैतन्य ने अपनी आंगीक और शाब्दिक भाषा से गोरखा को जीवंत कर दिया। लेकिन एक जगह वे क्षण भर के लिए दर्शकों की हँसी में शामिल हो..मुस्करा देते हैं … । जबकि उसकी ज़रूरत नहीं थी वहाँ पर। चैतन्य एक गंभीर अभिनेता है…. अभी तक वे अच्छा काम करते आ रहे हैं… लेकिन यस, वी आर गिल्टी में उनकी वह ग़ैर ज़रूरी मुस्कान.. उन्हें अगम्भीर बनाती है। ऎसे मौक़ों से उन्हें बचना चाहिए। पुरुष की भूमिका में प्रेम उपाध्याह, ड्रायवर की भूमिका में पुनीत शर्मा और डॉक्टर की भूमिका में जय पंजवानी, चपरासी रोमी सेन की भूमिकाएँ बहुत छोटी-छोटी थी…और उन्होंने उन्हें ठीक-ठाक ही निभाया।
यस, वी आर गिल्टी अविरत और रंगरूपिया की नाट्य प्रस्तुति थी। मैं उन्हें सतत रंगकर्म करने के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ और उनसे यह अपेक्षा भी करता हूँ कि आगे वे प्रस्तुति के लिए जिस भी नाटक का चुनाव करे…. उसे सिर्फ़ रोचकता के आधार पर न चुने.. बल्कि उसे एक बेहतर संदेश देने वाली और समाज को जागृत करने वाली रचना के रूप में भी जाँचे-परखे। अगर उनके मन में ऎसा कोई विचार घर किये बैठा है कि मराठी, अँग्रेज़ी या किसी और भाषा से अनुदित नाट्य रचना ही उत्कृष्ट होती है.. तो अपने इस विचार की भी पुर्नसमीक्षा करे। हमेशा रेडीमेड नाट्य रचनाएँ उठाने की आदत अच्छी भी नहीं होती है। ख़ुद नये नाटक लिखने या नाट्य रूपांतर करने का भी सतत प्रयास करे। एक रंगकर्मी का काम सिर्फ़ अभिनय करने से नहीं चलता है। पुनः अविरत और रंगरूपिया के सभी साथियो को बधाई..शुभकामनाएँ।
सत्यनारायण पटेल
बिजूका लोक मंच, इन्दौर
19. 9. 2011
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bahut sunder samiksha.thanx patelji.vaise aapne sahi kaha ki alka aur dinesh alag rahne ka faisla bhi le sakte the bajaye murder ke.
जवाब देंहटाएंशानदार समीक्षा के लिए मित्र कथाकार सत्यनारायण पटेल को बधाई। जैसा कि उन्होंने अपनी समीक्षा में ध्यान खींचा है। नाटक की कथा वस्तु वाकई गलत दिशा में प्रतीत होती है। पहले पहल तो मैंने सोचा कि नाटक का अंत शायद किसी सटायर की ओर जा रहा है लेकिन बार बार पढऩे पर यह स्पष्टï हुआ कि नाटक की दिशा ही वही है। मुझे कहने में गुरेज नहीं कि यह नाटक पुरुषों की सामंती मानसिकता का पोषण करता है और एक अकेली औरत की मनोस्थिति तथा उसे उस कथित व्यवहार की ओर ढकेलने की परिस्थितियों की पड़ताल करने के बजाय आसानी से उसे दुष्चरित्र ठहरा देता है। समाज के प्रति जिम्मेदारी समझने वाले हमारे साथियों को भी ऐसे नाटक करने से गुरेज करना चाहिए। चूंकि मैंने नाटक देखा नहीं है इसलिए अभिनय को लेकर पूरी तरह मित्र सत्यनारायण की राय पर निर्भर हूं। नाटक को लेकर उनकी समझ के चलते मुझे यकीन है कि उन्होंने सभी कलाकारों का समुचित मूल्यांकन किया होगा। यामिनी और चेतन को तो मैं बिजूका के शुरुआती दिनों से जानता हूं और पुनीत मेरा गहरा दोस्त है। अच्छी समीक्षा के लिए एक बार फिर बधाई।
जवाब देंहटाएंसत्यनारायण जी के द्वारा लिखी इस समीक्षा की खबर मुझे मेरी मित्र और नाटक की सहकलाकार यामिनी सोनावने से एसएमएस द्वारा मंगलवार को ही मिल चुकी थी , लेकिन उस समय मैं किन्ही कारणो के चलते इसे पढ़ नही पाया । लेकिन बुधवार सुबह जब मुझे मेरे दोस्त संदीप पाण्डेय का फोन आया और उन्होने मुझे यह समीक्षा और उस पर अपनी टिपण्णी सुनाई तो मैने तुरंत इसे पढना चाहा लेकिन उस समय मेरे इंटरनेट के काम ना करने के कारण मैं इसे पढ़ नही पाया। लेकिन फिर काफी देर बाद कल शाम मैने इस पढा़ ।
जवाब देंहटाएंवैसे मैं भी इसी नाटक का सदस्य था । इस बात के बावजूद कि मै इस नाटक के विचार से सहमत नही था , मैने इस नाटक मे काम किया , इस बात के लिए मैं खुद को दोषी पाता हूँ । निर्देशक राजेन देशमुख जी की प्रतिभा पर सवाल उठाने की मेरी कोई हैसियत नही है, ना ही एसा था कि मेरे किसी भी साथी कलाकार ने अभिनय मे कोई कसर छोडी़ हो । नाटक का मंचन भी अच्छा था । लेकिन नाटक की अंतर्धारा मे बह रही सामंती विचारधारा और पुरुषप्रधान समाज की सोच के सामने ये सब बौना साबित हो जाता है ।
अल्का की हत्या को अगर भावोत्तेजना से उपजे उन्माद मे हुई एक दुर्घटना मान भी लिया जाए , तो उसके बाद समाज का उस हत्या को ठीक ठहराना कैसा न्याय है ?
एक स्त्री पर ये विचार कैसे थोपा जा सकता है कि उसे एक ही पुरुष से संबंध रखना जरूरी है । किसी की यौन जरूरतो को निर्धारित करने वाले हम कौन होते है । हर व्यक्ति की शारिरिक जरूरते अलग-अलग होती है और अगर आप एसे व्यक्ति से निबाह नही कर सकते, तो उससे अलग हो जाइए । हत्या कोई समाधान नही है ।
इस चर्चा को यह कहकर टाला नही जा सकता कि ये नाटक के लेखक की व्यक्तिगत सोच है और वो उसे किसी पर थोप नही रहा । मैं पूछता हूँ कि अगर ये उनकी व्यक्तिगत सोच थी तो महाशय उसे अपनी पर्सनल डायरी का हिस्सा बनाकर रखते , लेकिन उस नाटक को जनता के सामने खेलना , समाज के सामने अपना विचार रखना है । लेखक का उद्देश्य साफ था । वह चाहता था कि समाज उसके विचारो से सहमत हो , तभी उसने सिर्फ सतही बातों को सामने लाकर चतुर पटकथा के माध्यम से पर पुरूषो से संबंध रखने वाली अल्का (जो हर उस औरत का प्रतिनिधित्व करती है , जो विवाहेत्तर संबंध रखती है ) को आरोपी बनाता है और उसकी हत्या तक को सही साबित करता है । वह ना तो अल्का की मानसिक स्थिति को पूरी तरह सामने लाता है और ना उसके पती दिनेश की बाहर की जिंदगी को , कि वह वहाँ क्या करता है और क्या नही । लेखक ने निश्चित ही अगर अल्का को अपनी बात रखने का मौका दिया होता , तो वह सारी बातें और साफ कर देती ।
लेकिन लेखक के विचार साफ है , कि अल्का जैसी स्त्री को उसके समाज द्वारा बनाए गए नियमो पर चलना ही होगा , वरना उसका भी वही हश्र होगा जो अल्का का हुआ ।
अल्का की हत्या के दृश्य पर मिली तालियाँ इस बात की गवाह थी कि पुरुषप्रधान समाज को उसकी मृत्यु से कितना संतोष मिला ।
आखिर मे रत्नमाला का दिनेश को कहा गया यह संवाद कि
"मैने अल्का की ह्त्या करते हुए तुम्हे देखा और गुरखे को लगाई हुई आवाज भी सुनी । जो एक ना एक दिन होगा , एसा लग रहा था कि आज हो रहा है ।"
यह संवाद इतना भवायह है कि सुनते ही मेरे रोंगटे खडे़ हो जाते है । एक स्त्री , किसी दूसरी स्त्री की हत्या होते देख रही है और वह इस बात से खुश है कि चलो परपुरुषो से विवाहेत्तर संबंध रखने वाली एक स्त्री मेरे समाज से कम हुई ?
बाकि बातें तो सत्यनारायण जी लिख ही चुके हैं । समीक्षा के लिए मैं उनका आभारी हूँ और उन सभी कलाप्रेमीयों से क्षमाप्रार्थी , जो कला का संबंध समाज से मानते है ।