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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 फ़रवरी, 2016

जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय विवाद पर बिजूका समूह की सार्थक चर्चा

मित्रो
आज हमें Jnu मसले पर बात करनी है. हम अभी अपनी तरफ़ से कुछ पोस्ट
नहीं कर रहे हैं. चाहते हैं कि सभी साथी
अपनी अपनी समझ साझा करे.
देश भर में चल रही Jnu की बहस को
, मुद्दे को आप कैसे समझ रहे हैं ! प्लीज
साझा करे.
आज शनिवार है. आज और कल दो दिन
हम इस मुद्दे को समझने की कोशिश करते हैं. आप सभी सम्माननीय साथी
बातचीत के लिए आमंत्रित है.

इस बीच समूह के साथी आलोक वाजपेयी जी से दो टीप्पणी प्राप्त हुई

पहली उन्होंने किसी लेख से ली है
और दूसरी उन्होंने खुद लिखी है. दोनों आपके बीच साझा कर रहा हूँ...ताकि बातचीत शुरू हो सके.

पहली
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एक बार की बात है. जेएनयू के हॉस्टल में एक चोर पकड़ा गया. कायदे से तो लड़कों को चोर को ढंग से पेल देना चाहिए था. लेकिन ये जेएनयू था. तो चार अलग-अलग पार्टियों के लड़के ये बहस करने लगे कि चोर के साथ क्या किया जाए. इन सज्जनों में एक राइट, एक लेफ्ट, एक अल्ट्रा लेफ्ट के और एक फ्री थिंकर थे.

बहस शुरू हुई और फिर थम गई क्योंकि सबको चाय की तलब लगी थी. आगे-पीछे लौंडे, बीच में चोर. सब निकल पड़े. चोर को भी चाय दी गई. सवाल उठा कि पुलिस बुलाई जाए या नहीं. किसी ने कहा कि समाज को पुलिस को जरूरत क्यों पड़ती है. पुलिस का चरित्र क्या है? क्या पुलिस चोर को उसके आर्थिक समाजिक हालत ध्यान में रखकर दंड देगी? क्या वहां चोर के मानवाधिकारों के संरक्षण की पर्याप्त व्यवस्था है?

फिर चर्चा यहां पहुंची कि आखिर कोई चोर बनता क्यों है. राइट वाले ने कहा कि यह पूर्व जन्मों के पाप और इस जन्म के कुसंस्कारों का फल है. फ्री थिंकर बोला चोर एक जरूरी किस्म की अराजकता है जो अपने बनैले और बिगड़ैलेपन से सृष्टि में सौंदर्य लाता है. अस्ट्रा लेफ्ट ने कहा कि ये चोर नहीं, ये बुर्जुआ का सताया सर्वहारा है, जो हजार साल की नींद से जागा है और अब संसाधनों पर कब्जा करने आ गया है. राइट वाला फिर लपक कर बोला कि ये कांग्रेस की ‘गरीबी हटाओ’ नीतियों की नाकामी का जीता-जागता प्रमाण है.
तो कैसे तय हो कि चोर क्या है? चोर से पूछा गया कि तुम कौन हो. वो बोला कि मैं तो चोर हूं. उससे कहा गया कि तुमको अपनी सामाजिक राजनीतिक अवस्था का ज्ञान नहीं है. लेकिन फिक्र न करो, नियति तुम्हें ज्ञान के केंद्र जेएनयू ले आई है.

तो ये तय हुआ ये कि यूनिवर्सिटी की जीबीएम (जनरल बॉडी मीटिंग) बुलाई जाए. गंगा ढाबा के बगल में केसी मार्केट के बाहर जेबीएम शुरू हुई. चोर को बैठाया गया. वक्ताओं को तीन-तीन मिनट का समय दिया गया.

इस बीच चोर को खिलाया-पिलाया गया. शौच आदि के लिए हॉस्टल ले जाया गया. जीबीएम जारी रही. एक साथी बोले कि मुझे यहां से हड़प्पा के अपने वे भाई नजर आ रहे हैं, जिनको आर्यों ने अपने हथियारों के दम पर खदेड़ दिया था. दूसरा बोला मुझे महान हिंदू संस्कृति के अवशेष नजर आ रहे हैं जिन्हें मुस्लिम और अंग्रेज आक्रांताओं ने पैदा किया है. किसी ने कहा कि चोर गांव का है, इसलिए यह भारत माता ग्रामवासिनी का अपमान है. किसी ने आशंका जाहिर की कि कहीं ये रूस का एजेंट तो नहीं.

चोर का धीरज जवाब दे गया. गिड़गिड़ाने लगा कि भैया हमको पुलिस में दे दो. एक बाबा खैनी रगड़ते हुए बोले, अहा कैसा सुंदर दृश्य है. हमने इस चोर के भीतर का अंधकार उसी प्रकार दूर करा दिया, जिस प्रकार प्राचीन भारत में तोते शिशुओं का संस्कृत उच्चारण शुद्ध कराते थे.

फिर आखिरकार भारी शोर शराबे, तालियों और डफलियों के बीच एक रेजोल्यूशन पास हुआ कि रोटी की चोरी चोरी नहीं होती. चोर को खिला-पिलाकर छोड़ दिया गया.

तो ये जेएनयू है जनाब. आधी हकीकत, आधा फसाना. थोड़ा सा बौद्धिक, थोड़ा सा चाट. लेकिन हर बात को तर्क की कसौटी पर कसने वाला. यहां हंसी पर भी विमर्श है और विमर्श की भी खिल्ली उड़ाई जाती है.

राम राज्य में पता नहीं शेर और भेड़ एक घाट पर पानी पीते थे या नहीं. लेकिन जेएनयू के हॉस्टलों में संघी और कॉमरेड एक टेबल पर बैठकर खाते हैं, हंसी-मजाक करते हैं, भिड़ते हैं और फिर अपनी पतलूनों में हाथ पोंछकर कमरे पर चले जाते हैं, अगले दिन की तैयारी के लिए. ये जेएनयू किसी का लोड नहीं लेता. पर आज कल जेएनयू की मुस्कान कुछ फीकी हो रखी है, क्योंकि देश ने लोड ले रखा है।

दूसरी
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भाजपा कंपनी ने जेएनयू को टारगेट करने की हिम्मत कैसे कर ली। उनसे एक गलत राजनितिक फैसला कैसे हो गया।
आरएसएस समूह के लिए जेएनयू हमेशा से सबसे असुविधाजनक केंद्र रहा है। कारन स्पष्ट है। जेएनयू हमेशा बौद्धिकता खुलेपन प्रगतिशीलता का केंद्र रहा। यहाँ के माहौल में ही तर्क है। इन्हें तो भेड़ियाधसान अंध बुद्धि वाले शिक्षा केंद्र चाहिए। तो जेएनयू को लेकर एक खुन्नस इन्हें हमेशा रही

मई 2014 से स्थिति हो गयी कि सैय्या भये कोतवाल अब डर काहे का। अपने मुखपत्र पाञ्चजन्य organiser और आरएसएस बौद्धिकों द्वारा जेएनयू पर प्रहार शुरू कर दिए गए कि यह संस्थान देश विरुद्ध है इसे या तो सुधार दिया जाए या ख़त्म कर दिया जाए।
लेकिन इनसे जेएनयू को समझने में एक चूक हो गयी जो इन्हें बहुत भारी पड़ गयी।
इन्होंने सोचा की जेएनयू मार्क्सवादियों वामपंथियो का गढ़ भर है। अब कम्मुनिस्ट पार्टियो का तो कोई भविष्य बचा नहीं और ये कमजोर हो चुके हैं।इनका देश में कोई नाम लेने वाला बचा नहीं है तो इनपर प्रहार कर इनका सबसे मजबूत किला भी नेस्तनाबूत कर दिया जाए। मिडिया को अपनी और मिला के जेएनयू को राष्ट्र विरोधी साबित कर दिया जाए और देश भर में इन्हें कहीं सहानुभूति नहीं मिलेगी क्योंकि कम्मुनिस्तो से तो सब चिढ़ते ही हैं। इनका जेनयू के बारे में यही आकलन गलत पड़ गया।
असलियत यह है कि जेएनयू प्रगतिशीलता तर्कवाद खुलेपन और भारतीय संस्कृति के सभी सकारात्मक लक्षणों को संजोये समेटे एक विश्व विख्यात विश्विद्यालय है। यह दुनिया में देश की शान है। यहां वामपंथ ही नहीं सभी विचारों के विश्व स्तरीय ज्ञाता हैं और पुरे लोकतांत्रिक माहौल में सभी छेत्रों में नित नए ज्ञान के वाहक लोग हैं जो विभिन्न छेत्रों में देश समाज व् मानवता की सेवा दशकों से कर रहे हैं।
असलियत यह भी है कि कम्युनिस्ट पार्टिया भले ही चुनावी राजनीति व् राजनितिक रणनीतियों में अपनी भूलो के चलते कमजोर हो गयी हैं लेकिन वामपंथी सोच अपने विभिन्न आयामों के साथ भारतीय समाज चिंतन में उसी तरह घुल मिल गई है जैसे भोजन में नमक। कोई भले ही नमक की टिकिया खाली मुह में डालके न चूसना चाहे पर वामपंथी नमक के बिना समाज राजनितिक समाज रुपी भोजन बेस्वाद ही होगा। क्योंकि अभी भी वामपंथी सोच कम्मुनिस्ट पार्टियो से परे जाकर मानवता प्रगतिशीलता pro poor orientation के सबसे टिकाऊ उपक्रम के रूप में भारत में रची बसी है।
तो जब इन्होंने जेएनयू पर अटैक किया तो देश भर में सभी लोग इनके खतरनाक अजेंडे के प्रति चौकन्ने हो गए क्योंकि नमक तो सब खाते हैं ना।
भाजपा कंपनी से यह ऐतिहासिक भूल हो गयी और इनकी बर्बादी का कारण बनेगी।
पहले ही कहा था जेएनयू हलुआ नहीं है। दांत टूट जाएंगे तुम्हारे। और इनके दांत दरकने शुरू हो भी चुके हैं।
आने वाले समय में कोई भी जमीर वाला राष्ट्र भक्त भाजपा कंपनी में नहीं रह जाएगा। इनके पास बचेंगे बस मुट्ठी भर आरएसएस कार्यकर्ता और कुछ गुंडे मवाली टाइप लोग।
००
आलोक वाजपेयी
प्रस्तुति:- सत्यनारायण पटेल

संदीप कुमार:-
शेखर गुप्ता ने भी आज बिजनेस स्टैण्डर्ड में इस विषय पर लिखा है:

शिक्षण संस्थानों से छेड़छाड़ के जोखिम

शेखर गुप्ता 

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, कन्हैया कुमार और दिल्ली पुलिस का मामला मेरे मन में 35 साल पुरानी याद ताजा करता है। सन 1981 में पूर्वोत्तर में पांच विद्रोह हुए थे और मैंने उन्हें कवर किया था। विद्रोहियों की संख्या चाहे जितनी हो लेकिन आधिकारिक ब्रीफिंग में उनको राष्ट्रविरोधी तत्त्व और भूमिगत कहकर ही पुकारा जाता था। उस दौरान उन्हें पकड़ा जाता, उनसे पूछताछ होती और कई बार उनको मार भी दिया जाता। दरअसल किसी के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करने की तुलना में यह सब करना अधिक आसान था। हालांकि इसकी वजह से अत्यंत मूर्खतापूर्ण हालात भी बने। 

ऐसे हालात में सैनिक, जासूस और संवाददाताओं के बीच एक अस्वाभाविक रिश्ता पनपता है। कई बार वह मित्रवत भी हो सकता है लेकिन अक्सर वह शत्रुतापूर्ण ही होता है। लेकिन इसके बावजूद उनके बीच साझे और सह अस्तित्व की भावना रहती है। क्षेत्र में खुफिया विभाग के बेहतरीन लोगों (मिजोरम और गंगटोक में अजित डोभााल के अलावा) में से एक कोशी कोशी मेरे मित्र थे। वह हरियाणा कैडर के पुलिस सेवा अधिकारी रहे और सेवानिवृत्ति के बाद फरीदाबाद में रहते हैं। उस वक्त वह गुवाहाटी में खुफिया विभाग के अधिकारी थे। हम अक्सर नोट्स साझा करते और गप्पें मारते। अक्सर किसी बंद वाले रोज मैं उनके कार्यालय जाता या फिर शाम के समय हम केपीएस गिल के घर पर 'बूढ़े संत' को श्रद्घांजलि देने के लिए मिलते। हम ओल्ड मॉन्क रम को इसी नाम से बुलाते थे। 

 
एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि एक बड़ी खबर है: कर्नल एक्स (सेना के खुफिया विभाग में उनके समकक्ष) जो उनके साथ बैठे थे, उनके पास एक बड़ा शिकार था लेकिन वह मेरी मदद से यह जानना चाहते थे कि राष्ट्रविरोधी रैंकिंग में वह किस क्रम पर था। मैं तत्काल वहां पहुंचा। कर्नल ने कहा कि उनके लड़कों ने एक नगा (एक बेनामी समूह का स्वयंभू कर्नल) को पकड़ा है और उसका दावा था कि वह साल्वेशन आर्मी नामक संगठन का सदस्य है। कोशी एक प्रतिबद्घ ईसाई धर्मावलंबी थे। अब तक गंभीर चेहरा बनाए प्रतीक्षा कर रहे कोशी मुस्कराए और उन्होंने कर्नल को बताया कि साल्वेशन आर्मी कितना निर्दोष संगठन है और क्यों ईश्वर के उस गरीब सिपाही को तुरंत क्षमा प्रार्थना के साथ रिहा कर दिया जाना चाहिए। अगले एक घंटे में यह काम हो गया और हमारे पास जीवन भर सुनाने के लिए एक किस्सा रह गया। 

हम इस तार्किक और बेहतर निष्कर्ष पर पहुंच सके क्योंकि वह वक्त दूसरा था। समस्याग्रस्त क्षेत्रों में भी हालात आज से बेहतर थे। कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के मामले में सबकुछ कमोबेश इसी अंदाज में घटित हुआ है। हालांकि हमें सरकार या न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा करनी होगी लेकिन यह घटना पर्याप्त हास्यास्पद भी है। दिल्ली पुलिस और देश की राजनीति के दिग्गज हाफिज सईद के नाम से बने नकली ट्विटर हैंडल और एक छेड़छाड़ किए हुए वीडियो से बेवकूफ बन गए। इसके बाद देश के अग्रणी विश्वविद्यालय के निर्वाचित छात्र संघ अध्यक्ष पर देशद्रोह का आरोप मढ़ दिया गया। अब उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि उनके साथ करना क्या है। सोशल मीडिया और पारंपरिक मीडिया पर तमाम वाद प्रतिवाद हो जाने के बाद यह मामला गुवाहाटी के कर्नल की तरह क्षमा मांग कर निजात पाने का नहीं रह गया है। वह समय भी अलग था। अब हम भारतीय मानसिकता के सनी देओलीकरण से जूझ रहे हैं। रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उपजे दबाव में सरकार ने पहले कहा कि वह दलित नहीं थे, बाद में वाम विचारधारा के गढ़ जेएनयू पर धावा बोलकर पूरी बहस का जाति और वंचना से राष्ट्रवाद में तब्दील कर दिया गया। हालांकि पिछले कुछ दशकों से वहां वाम और दक्षिण (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी अभाविप) के बीच द्वंद्व चल रहा है। लेकिन वहां अब तक हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं रहा है।

भाजपा के सत्ता में आने के बाद अभाविप का धैर्य समाप्त हो चला है। अब वह सत्ता की हनक का प्रयोग वाम नियंत्रण वाले शैक्षणिक परिसरों पर काबिज होने के लिए करना चाहती है। मुहावरे का प्रयोग करें तो 'सैंया भये कोतवाल, अब डर काहे का' जैसा मामला है। दुर्भाग्यवश सरकार ने हैदराबाद और जेएनयू में पक्षपाती कोतवाल की भूमिका निभाने का निर्णय लिया। नतीजा एक दलित छात्र की मृत्यु और एक गरीब छात्र को जेल के रूप में सामने आया, जिसके बारे में उनको नहीं पता कि उसके साथ करना क्या है? अगर वे माफी मांगते हैं तो उन पर आरोप लगेगा कि वे बलि का बकरा तलाश कर रहे थे। यदि वे कन्हैया को जाने देते हैं तो हैदराबाद के बाद यह उनकी दूसरी पराजय होगी। अगर उन पर मुकदमा चलाया जाता है तो यही संभावना है कि आज नहीं तो कल कोई न कोई अदालत उनको रिहा कर देगी। देशद्रोह के आरोपों से तो यकीनन। चाहे जो भी हो कन्हैया का चमकना लाजिमी है। ऐसे में भाजपा के लिए रास्ता एकदम सीधा है। वह या तो गलती स्वीकार कर ले और थोड़ा शर्मिंदा होले या फिर वह बेशर्मी दिखाए जबकि इस स्थिति में भी उसे अंतत: बड़े पैमाने पर शर्मिंदा ही होना है। जब ओपी शर्मा जैसे लोग छात्रों को पीट रहे थे और सेवानिवृत्त होने जा रहे पुलिस प्रमुख ने उनकी रक्षा करने से इनकार कर दिया तो ऐसा लग रहा है कि तानाशाह स्वभाव वाले बुजुर्गों ने नियम कायदे न मानने वाले बच्चों के खिलाफ जंग छेड़ दी है। आपको अंदाजा है कि एक युवा देश में बुजुर्ग बनाम युवा के संघर्ष की क्या परिणति होगी?

एक अच्छा विचार यह है कि संकट के समय अपने कार्यों को वाजपेयी के हिसाब से कसा जाए। वह इस मामले से कैसे निपटते? आपको इसका जवाब उससे काफी अलग मिलेगा जो राजग के मौजूदा शसन में उनके वारिस अपना रहे हैं। सन 1997 के आरंभ में भाजपा-अकाली दल (उस वक्त यह उतना ही असहज था जितना आज भाजपा-पीडीपी) ने पंजाब में सत्ता हासिल की। तत्काल भिंडरांवाले और खालिस्तान समर्थक झड़पें शुरू हो गईं। उस वक्त मैं द इंडियन एक्सप्रेस का संपादक था। अखबार ने इस घटना पर तीखे हमले शुरू किए। भाजपा जो उस समय केंद्र में विपक्ष में थी से कहा गया कि वह गठबंधन की समीक्षा करे। एक दोपहर वाजपेयी ने मुझे अपने घर पर तलब किया। लालकृष्ण आडवाणी और मदनलाल खुराना वहां मौजूद थे। चाय और पाइनऐपल पेस्ट्रीज के बीच वाजपेयी ने मुझे एक भाषण दिया: हिंदू और सिख पंजाब में एकदूसरे के खून के प्यासे थे। सिख आतंकी भाजपा नेताओं की हत्या कर रहे थे। अब अगर भाजपा और अकाली साथ हैं तो यह पंजाब और भारत के लिए बेहतर है या नहीं? हमें छोटी मोटी बातों की अनदेखी कर व्यापक तस्वीर पर नजर डालनी चाहिए। उन्होंने मुझसे कहा, 'थोड़े परिपक्व बनिए संपादक जी।' मैंने पूछा कि अगर यह सब नियंत्रण से बाहर हो गया तो क्या होगा? उन्होंने खुराना जी की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह किस मर्ज की दवा हैं?

 
जरा सोचिए उन्होंने हैदराबाद और जेएनयू मामले में क्या किया होता। अगर उनको पता चलता कि उनके दो मंत्री अभाविप का पक्ष ले रहे हैं तो वह यकीनन अप्रसन्न होते। अगर इसके बावजूद रोहित वेमुला ने आत्महत्या की होती तो उसका दलित होना नकारने के बजाय वह पहले अपना दुख और अपनी समानुभूति प्रकट करते। जेएनयू में शायद उन्होंने कुछ ऐसा कहा होता, 'छोकरे हैं, बोलने दीजिए, फिर आईएएस में जाएंगे।' यह भी याद रखिए कश्मीर में अलगाववादियों द्वारा यह पूछे जाने पर वह उनसे कैसे निपटे थे कि सरकार से कैसे बात की जाए जब वह संविधान के तय दायरे में बात करने को कहती है। वाजपेयी ने कहा था, 'संविधान ही क्यों मैं आपके साथ मानवता के दायरे में बात करूंगा।' यह विवाद को हल करने की सोच थी। फिलवक्त हमें विवाद पैदा करने की तलाश अधिक नजर आ रही है। यह तरीका कारगर नहीं है। 

संजीव:-
पिछले दिनों पुरस्कार वापसी की मुहिम का दूसरा पहलू जेएनयू कांड के रूप में सामने आया है। पुरस्कार लौटाने वालों को कम्यूनिस्ट कहकर हिकारत पूर्ण नजरिया पेश किया गया था। कम्यूनिस्टों पर संगठित और संस्थागत हमला पूरे देश में संभव नहीं था क्योंकि विखरे हुए हैं। जेएनयू को संस्थागत प्रतीक मानकर निशाना बनाया गया है। खिसियानी बिल्ली खंबा लोंचे वाली कहावत सच होती दिख रही है । विचारधारायें इस तरह मिटती नहीं और अधिक सुदृढ होती हैं। हम सब को इस अवसर पर कम्यूनिस्ट विचारधारा की राजनीतिक पार्टी के रूप नहीं बल्कि मानवीय हित के सर्वोच्च मूल्य के रूप में जनता में प्रचारित करने का आंदोलन चलाना चाहिए। जनता के दिल और दिमाग से "कम्यूनिस्ट" के भूत को हटाकर, जिससे शीत युद्ध के समय अमेरिका डरता रहा, को मानवीयता के विकास का मसीहा बनाकर प्रस्तुत करना चाहिए ताकि जनता हमारे साथ हो सके। भगत सिंह से बडा कम्यूनिस्ट भारत में कोई नहीं है। इस नाम के प्रति जनता में सम्मान है हमें जनता के इस सम्मान भाव से अपने पक्ष में माहौल बनाना चाहिए। यह सही वक्त है।

रचना त्यागी:-
जनेयू प्रकरण बेहद शर्मनाक घटना रही है। विश्व पटल पर भारतीय राजनैतिक स्थिति की पोल पट्टी खुल रही है और अवसरवादी ताक़तों ने निश्चित तौर पर अपनी शतरंज की बिसात बिछानी शुरु कर दी होगी। इस ख़तरे को समय रहते भांपना बहुत ज़रूरी है।
    फेसबुक पर कन्हैया की कुछ समय पुरानी पोस्ट्स देखकर सच का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके साथ यह होना लगभग तय था। दिक्कत यह है कि एक पार्टी ख़ुद को पूरा देश,  और अपनी विचारधारा (?) को पूरे देश की आवाज़ समझ बैठी है,  जिससे उनकी अपरिपक्व सोच का पता चलता है।  किसी भी देश, काल में वहाँ के युवा का स्वर समाज का प्रतिनिधि स्वर रहा है। इसे दबाने,  कुचलने की भूल हमेशा से मूर्ख सरकारें ही करती आई हैं। लेकिन युवा स्वर का दमन सांप के बिल में हाथ डालने जैसा है।
    सरकार की असुरक्षा इस हद तक दीख रही है कि कन्हैया की तस्वीरें और वीडियोज़ को एडिट करके फैलाया जा रहा है। कन्हैया के द्वारा तथाकथित रूप से लिखे गए पत्र का लहज़ा पहली दृष्टि में ही चौंकाता है और सहज ही समझा जा सकता है कि इन शब्दों की बनावट किस दबाव से उभरकर आई है!

      सरकार की इस दमन नीति ने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है... यह साफ़ दिखाई दे रहा है कि निकट भविष्य में राजनीति के फ़लक पर कन्हैया का चेहरा एक महत्वपूर्ण नेता के रूप में उभर रहा है। 
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मैं कांग्रेस के बेहतर विकल्प के रूप में अपने देश में एक मज़बूत और कई मामलों में बेहतर सरकार की चाह में वर्तमान सरकार को चुनने के लिए इस हद तक इच्छुक थी कि मेरा एक कीमती वोट न रह जाए,  इसके लिए मैंने प्रशासन में कई चक्कर काटे।  कारण यह था कि मेरी चुनाव में ड्यूटी लगी थी और मुझे डर था कि मतदान के दूसरे विकल्प किसी भी कारणवश मुझसे छूट न जाएँ। एक मौका तो देना ही चाहती थी इस सरकार को,  जबकि कोई और विकल्प दीख भी नहीं रहा था।
   अब भी कोई मलाल तो नहीं उस चुनाव पर,  क्योंकि मौका दिये बिना किसी का असली चेहरा आपके सामने आता नहीं है।

      सारांश यह कि वर्तमान सरकार की कट्टरपंथी विचारधारा का मैं घोर विरोध करती हूँ,  जिसने न सिर्फ़ अभिव्यक्ति का अधिकार,  बल्कि जीने का अधिकार भी छीन लिया है।
ऐसे अँधेरे समय में रोशनी की मशाल जलाते आज के युवा को लाखों सलाम!!
जनेयू का हिस्सा न बन पाने की तड़प और बढ़ गई है,  जबसे सच सामने आया है!

प्रणय कुमार:-
मैं इस विमर्श को एक दूसरी दिशा में ले जाता हूँ|कृपया मुझे बताएँ कि वामपंथ दिन-प्रतिदिन सिकुड़ता क्यों जा रहा है?क्यों जनसाधारण इसके साथ अपने को संबद्ध नहीं कर पाता?इसकी राजनीतिक शाखाएँ आज अपना अस्तित्व बचाने के लिए क्यों संघर्षरत नज़र आती हैं?विचार कभी मरता नहीं,पर भारत में इस विचार को व्यापक जनसमर्थन क्यों नहीं मिल पाया?हम चाहें तो शुतुरमुर्गी मुद्रा इख़्तियार कर सकते हैं,पर इन प्रश्नों पर गहन पड़ताल और गंभीर आत्मावलोकन की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता|

आलोक बाजपेयी:-
अशोक कुमार पाण्डेय की वाल से।
जूलियस सीजर का एक दृश्य है। भीड़ सीजर के हत्यारों में से एक सिना की तलाश में है। तभी उसी नाम के एक व्यक्ति का घर आता है। भीड़ उसकी हत्या के लिए आगे बढ़ती है। कोई रोकने की कोशिश करता है कि वह षड्यंत्रकारी सिना नहीं कवि सिना है। उन्मादी भीड़ उसकी एक नहीं सुनती और वह निर्दोष कवि मारा जाता है।
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इस उन्माद को देशभक्ति समझ के पगलाये मित्रों वह घर आपका भी हो सकता है कभी भी। हाँ हम लेखक हैं। पढ़ा सुना है दुनिया भर में ऐसे उन्मादों का हश्र सो देश में एक गृहयुद्ध जैसे माहौल को लेकर सशंकित है। कहना फ़र्ज़ है हमारा। यह भूमिका चुनी है हमने। पर अगर देश ने अँधेरा ही चुन लिया है अपने लिए तो हम भी क्या कर सकते हैं?

आलोक बाजपेयी:-
जेएनयू सुनने में भले अटपटा लगे पर सचाई यह है कि इस विश्विद्यालय में भारत की आत्मा बसती है। सारे देश से कोने कोने से यहाँ छात्र आते हैं और विश्वस्तरीय ज्ञान पाते हैं। यहाँ पर दाखिला पाना हर छात्र का सपना है।  अगर कोई छात्र बहुत गरीब घर से भी है और अगर वह मेधावी है तो बहुत कम में भी उसका गुज़ारा यहाँ चल जाता है। यहाँ पर पुस्तकालय हमेशा खुला रहता है और जो किताबें भारत में कहीं न मिलें वो यहाँ आसानी से मिल जाती हैं। भारत की लगभग हर संस्कृति के यहाँ छात्र हैं और एक मिली जुली सभ्यता यहाँ पनपी है।
तहजीब क्या होती है.अपने विरोधी को भी किस तरह धैर्य से सुनना चाहिए.महिलाओं के साथ किस तरह बराबरी और सभ्य दोस्ताना व्यवहार रखा जाए.इसे जानने के लिए जेएनयू से बेहतर जगह शायद कहीं न हो।
तर्क करना.हर बात को तर्क की कसौटी पर रखने के बाद ही मानना और परस्पर संवाद के द्वारा ज्ञान अर्जित करना यहाँ के माहौल में है।
जातिवाद फिरकापरस्ती संकीर्णता loose talk से यह जगह अभी भी काफी कुछ महफूज है।
और सबसे प्रमुख बात यह कि हर विषय में विश्वस्तरीय शिक्षक यहाँ पर हैं जिनकी पढ़ाने की शैली ऐसी है कि छात्र शिक्षक के बीच दोस्ताना रिश्ता रहता है।
वाद विवाद संवाद की एक समृद्धिशाली परम्परा यहाँ विकसित हुई है।  कहीं कोई असुरक्षा का माहौल नहीं है और लड़के लडकिया निडर होकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
इन्ही सब वजहों से जेएनयू ने देश को अप्रतिम प्रतिभाएं दी हैं। प्रशासनिक सेवाओं के लिए तो यह मानो खान है। राजनीति कला साहित्य मानविकी व् अन्य सभी छेत्रों में यहाँ के छात्रों ने सारी दुनिया में देश का नाम रोशन किया है।
जिन लोगो ने जेएनयू नहीं देखा है उनसे अपील है कि किसी दुष्प्रचार में ना आएं। यह भारत के भविष्य की लड़ाई  है। अगर यह संस्थान इस फासीवादी सरकार द्वारा बर्बाद किया गया तो यह देश का ऐसा नुक्सान होगा जिसकी भरपाई न हो सकेगी।

आलोक बाजपेयी:-
भाजपा कंपनी से असली खतरा क्या?
मुस्लिम विरोध इनकी राजनीति का मुख्य आधार अवश्य है पर इनकी जड़ें मूलतः बुद्धि व् तर्क के समूल विरोध में ही हैं। मुस्लिम विरोध को यह राजनितिक लामबंदी के रूप में इस्तेमाल करते हैं परन्तु यह कट्टर मुस्लिम संगठनों से मिल के भी चलते हैं। जिससे आग दोनों तरफ सुलगती रहे।
याद रखिये इनके असली दुश्मन बुद्धिजीवी हैं। जो जितना प्रखर बुद्धिजीवी होगा वो इनका उतना ही बड़ा दुश्मन होगा। या तो यह बुद्धिजीवी वर्ग को घुटने टेकने को मजबूर करते हैं और अपनी सेवा के लिए मजबूर करते हैं या फिर उनके सफाये के सुनियोजित अभियान में लगते हैं।
कुछ हिन्दू प्रेमी मझोले बुद्धिजीवी आजकल बड़े खुश हैं कि वामपंथियो को उनकी औकात बतायी जा रही है और ये साले इसी लायक हैं।
याद रखिये कल आपका भी नंबर आएगा। चुन चुन के आप भी मारे जाओगे। और जो लोग फायदा उठाने के फेर में निक्करधारी हो रहे हैं वे भी मारे जाएंगे। भयंकर घात प्रतिघात चलेंगे निक्कर गिरोह में भी।
असली नुक्सान उन्ही का होगा जो आज हिन्दू हिन्दू चिल्लाकर सीना फुला रहे हैं। जो कौम फिरकापरस्ती के जाल में फंसती है उसके आंसू पोछने वाला भी कोई नहीं मिलता।
समय रहते ना चेते तो सब बर्बाद कर देंगे ये असभ्यता पोषक ।

फासीवादी देश में शान्ति ।
अब ऐसा थोड़े ही है जो देश तानाशाही फासीवाद का शिकार बन जाते हैं वहा शान्ति न रहती हो। घनघोर शान्ति बरसती है वहा पर। लोगों की मुँहों में ताले डाल दिए जाते हैं। जो बोले उसे शान्ति से पीट दिया जाता है। अगर कोई पिटाई खाने में उस्ताद हो और पीटने के बाद भी बोलने की जुर्रत दिखाए उसे शान्ति की नींद सुला दिया जाता है। टीवी मीडिया में भी अपूर्व शान्ति छायी रहती है। शाशन प्रमुख का चौतरफा गुड़गान किया जाता रहता है और अशांति की ख़बरों को राष्ट्र द्रोह मान के दबा दिया जाता है। फालतू में गरीब गुरबा अशांति की ख़बरें देखें पढ़े और बागी बनके देश की शान्ति में बाधा डालें?
तो दोस्तों देश एक महान शांत देश बनाये जाने की प्रक्रिया से गुजर रहा है।
ऑपरेशन चालू अहे।

टीकम शेखावत:-
जेएनयू में लगे देशविरोधी नारों के खिलाफ तीनों सेनाओं के पूर्व सैनिक लामबंद हो गए हैं। इनकी अगुआई में कल रविवार २१ फरवरी को प्रात: १०:३० बजे दिल्ली में मैगा मार्च का आयोजन किया जा रहा है। इसमें सैकड़ों पूर्व सैनिकों के जुटने की संभावना है।
तीनों सेनाओं के पूर्व सैनिक 'पीपल फॉर नेशन' के बैनर तले एकजुट हुए हैं। 'सेव द कंट्री, मार्च फॉर नेशन' नाम से यह मार्च निकाला जाएगा। मार्च राजघाट से जंतर-मंतर तक होगा। जंतर-मंतर पर सभा होगी जिसमें सेना के पूर्व अफसर अपनी राय रखेंगे। मार्च का नेतृत्व तीनों सेनाओं के रिटायर्ड अफसर करेंगे।

वागीश झा:-
यस ,आई स्टेंड विद जेएनयू
.................................
यह जानते हुये भी कि
वानरसेना मुझको भी
राष्ट्रद्रोही कहेगी ।
काले कोट पहने
गुण्डों की फौज
यह बिल्कुल भी
नही सहेगी ।
तिरंगा थामे
मां भारती के लाल
मां बहनों को गरियायेंगे ।
दशहतगर्द देशभक्त
जूते मारो साले को
चीख चीख चिल्लायेंगे ।
जानता हूं
मेरे आंगन तक
पहुंच जायेगा,
उन्मादी राष्ट्रप्रेमियों के
खौफ का असर ।
लम्पट देशप्रेमी
नहीं छोड़ेंगे मुझको भी ।
फिर भी कहना चाहता हूं
हॉ, मैं जेएनयू के साथ खड़ा हूं।

क्योंकि जेएनयू
गैरूआ तालिबानियों 
की तरह,
मुझे नहीं लगता
अतिवादियों का अड्डा
और देशद्रोहियों का गढ़ ।
मेरे लिये जेएनयू सिर्फ
उच्च शिक्षा का इदारा नहीं है ।
मुझे वह लगता है
भीड़ से अलग एक विचार ।
कृत्रिम मुल्कों व सरहदों के पार ।
जो देता है आजादी
अलग सोचने,अलग बोलने
अलग दिखने और अलग
करने की ।
जहां की जा सकती है
लम्बी बहसें ,
जहां जिन्दा रहती है
असहमति की आवाजें ।
प्रतिरोध की संस्कृति का
संवाहक है जेएनयू ।
लोकतांत्रिक मूल्यों का
गुणगाहक है जेएनयू ।
यहां खुले दिमाग
वालों का डेरा है ।
यह विश्व नागरिकों का बसेरा है ।

मैं कभी नहीं पढ़ा जेएनयू में
ना ही मेरा कोई रिश्तेदार पढ़ा है।
मैं नहीं जानता
किसी को जेएनयू में ।
शायद ही कोई
मुझे जानता हो जेएनयू में ।
फिर भी जेएनयू
बसता है मेरे दिल में ।
दिल्ली जाता हूं जब भी
तीर्थयात्री की भांति
जरूर जाता हूं जेएनयू ।
गंगा ढ़ाबे पर चाय पीने,
समूहों की बहसें सुनने
वहां की निर्मुक्त हवा को
महसूस करने ।
जेएनयू में मुझको
मेरा भारत नज़र आता है।
बस जेएनयू से
मेरा यही नाता है ।

रही बात
देशविरोधी नारों की
अफजल के प्रचारों की
यह करतूत है
मुल्क के गद्दारों की ।
बिक चुके मीडिया दरबारों की ।
चैनल चाटुकारों की ,
चीख मचाते एंकर अय्यारों की ।
वर्ना पटकथा यह पुरानी है।
बुनी हुई कहानी है ।
नारे तो सिर्फ बहाना है।
जेएनयू को सबक सिखाना है।
स्वतंत्र सोच को मिटाना है।
रोहित के मुद्दे को दबाना है ।
अकलियत को डराना है।
दशहतगर्दी फैलाना है।
राष्ट्रप्रेमी कुटिल गिद्दों ,
तुम्हारी कही पर निगाहें
कहीं पर निशाना है।
असली मकसद
मनुवाद को वापस देश में लाना है।

पुरातनपंथियों,
वर्णवादी जातिवादियों,
आजादी की लड़ाई से
दूर रहने वाले
अंग्रेजों के पिठ्ठुओं ,
गोडसे के पूजकों ,
गांधी के हत्यारों ,
भगवे के भक्तों,
तिरंगे के विरोधियों,
संविधान के आलोचकों ,
अफजल को शहीद
कहनेवाली पीडीपी के प्रेमियों,
हक ही क्या है तुमको
लोगों की देशभक्ति पर
सवाल उठाने का ?

बिहार के एक
गरीब मां बाप का बेटा
जो गरीबी, भुखमरी,
बेराजगारी,बंधुआ मजदूरी,
साम्प्रदायिकता और जातिवाद
से चाहता है आजादी

फासीवाद समर्थक
आधुनिक कंसों !
तुम्हें संविधानवादी
एक कन्हैया भी बर्दाश्त ना हुआ।
तुम्हें कैसे बर्दाश्त होंगे
हजारों कन्हैया,
जो किसी गांव, देहात
दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक
या पिछड़े वर्ग से आते हो,
और पढ़ते हो जहां रह कर,
वो जगह ,कैसे बरदाश्त होगी तुमको ?
मनुस्मृति और स्मृति ईरानी
दोनों को नापसंद है यह तो।
इसलिये शटडाउन 
करने का मंसूबा पाले हो।
वाकई तुम बेहद गिरी
हरकतों वाले हो ।

जेएनयू को तुम
क्या बंद कराओगे ?
जेएनयू महज
किसी जगह का नाम नही ।
मात्र यूनीवर्सिटी होना ही
उसकी पहचान नही ।
जेएनयू एक आन्दोलन है,
धमनियों में बहने वाला लहू है।
विचार है जेएनयू
जो दिमाग ही नही
दिल में भी बस जाता है।
इसे कैसे मारोगे ?
यह तो शाश्वत है,
जिन्दा था, जीवित है
जीवंत रहेगा सदा सर्वदा।
तुम्हारे मुर्दाबादों के बरक्स
जिन्दाबाद है जेएनयू
जिन्दाबाद था जेएनयू
जिन्दाबाद ही रहेगा जेएनयू ।
उसे सदा सदा
जिन्दा और आबाद
रखने के लिये ही
कह रहे है हम भी
स्टेंड विद जे एन यू ।

जेएनयू
अब पूरी दुनिया में है मौजूद
हर सोचने वाले के
विचारों में व्यक्त हो रहा है जेएनयू ।
शिराओं में रक्त बन कर
बह रहा है जेएनयू ।
लोगों की धड़कनों में
धड़क रहा है,
सांसे बन कर
जी रहा है जेएनयू ।
वह सबके साथ खड़ा था
आज सारा विश्व
उसके साथ खड़ा है
और कह रहा है -
वी स्टेंड विद जेएनयू ।

मैं भी
अपनी पूरी ताकत से
चट्टान की भांति
जेएनयू के साथ
होकर खड़ा
कह रहा हूं,
यस ,आई स्टेंड विद जेएनयू
फॉरएवर ।
डोन्ट वरी कॉमरेड कन्हैया
वी शैल कम ओवर ।
वी शैल फाईट
वी शैल विन ।

मुझे यकीनन यकीन है
जेएनयू के दुश्मन
हार जायेंगे ।
मुंह की खायेंगे ।
दुम दबायेंगे
और भाग जायेंगे।
जेएनयू तो
हिमालय की भांति
तन कर खड़ा रहेगा
अरावली की चट्टानों पर,
राजधानी के दिल पर,
लुटियंस के टीलो की छाती पर ....

-भंवर मेघवंशी
(स्वंतत्र पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता । व्हाटसएप -9571047777. सम्पर्क -bhanwarmeghwanshi@gmail.com )

प्रियदर्शन:-
भाई, शुक्रिया यह टिप्पणी लगाने का, मगर वह अधूरी लगी है। पूरी यहां है। अगर आप चाहें तो देशभक्ति और देशद्रोह की अवधारणा पर भी एक टिप्पणी दूंगा। लेकिन बाद में।

बात पते की : ये जेएनयू से जनेऊ का झगड़ा है

जो लोग यह मान रहे हैं कि महज दस लड़कों के कुछ नासमझी भरे नारों के लिए जेएनयू को बदनाम किया जा रहा है, वे दरअसल एक भारी भूल कर रहे हैं। यह जेएनयू से ज्यादा जेएनयू की अवधारणा है जो बीजेपी, संघ परिवार और दक्षिणपंथी विचारधारा को स्वीकार्य नहीं है।

जेएनयू के बहाने देशभक्ति और देशद्रोह पर छिड़ी इस पूरी बहस के अलग-अलग पक्षों को देखें तो यह बात साफ़ तौर पर समझ में आ जाएगी। मसलन जो लोग जेएनयू के नारों का विरोध कर रहे हैं, वे हैदराबाद यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी से भी आंख मिलाने को तैयार नहीं हैं। जो लोग जेएनयू को देशद्रोहियों का अड्डा बता रहे हैं, वे मूलतः आरक्षण विरोधी और उदारीकरण के समर्थक तत्व हैं। जो लोग मानते हैं कि जेएनयू आज़ादी के नाम पर अराजकता फैला रहा है, वे स्त्री की बराबरी और आज़ादी के भी ख़िलाफ़ खड़े लोग हैं।

ये वही लोग हैं जो कश्मीर समस्या और माओवाद के संकट को किसी आंतरिक परिस्थिति की तरह देखने को तैयार नहीं हैं, बल्कि यह चाहते हैं कि इनका उस तरह दमन कर दिया जाए जैसे आक्रांता सेनाएं किसी दूसरे देश के नागरिकों का करती हैं। यही वे लोग हैं जो जातिवाद को गलत बताते हैं लेकिन अपनी जाति के बाहर जाकर शादी करने को तैयार नहीं होते और अख़बारों में बिल्कुल जातिगत पहचानों वाले विज्ञापन देते हैं। ये वही लोग हैं जिन्हें दलितों का, पिछड़ों का, अल्पसंख्यकों का और स्त्रियों का आगे बढ़ना नहीं सुहाता। ये वही लोग हैं जो सरकारी या केंद्रीय विश्वविद्यालयों के सामाजिक माहौल में नहीं जाते और निजी तकनीकी संस्थानों की मूलतः कारोबारी शिक्षा वाली व्यवस्था को सबसे आदर्श मानते हैं।

यही वे लोग हैं जो मानते हैं कि विश्वविद्यालयों में बस कोर्स पूरा करना चाहिए और डिग्री लेकर एक अच्छी नौकरी करनी चाहिए, बहस नहीं करनी चाहिए और राजनीति तो बिल्कुल नहीं। यही लोग हुसैन की कलाकृतियां जलाते हैं, हबीब तनवीर के नाटकों में बाधा डालते हैं और लेखकों के विरोध को राजनीतिक साज़िश की तरह देखते हैं। फिर यही वे लोग हैं जो अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर चाहते हैं, जैश-लश्कर से लेकर आईएस-अल क़ायदा तक की मिसालें देते हुए साबित करते हैं कि मुसलमान आतंकवादी हैं और शिकायत करते हैं कि इसी मुल्क में बोलने की इतनी आज़ादी है कि लोग देश और धर्म की भी आलोचना कर बैठते हैं।

दूसरी तरफ जो लोग रोहित वेमुला के अकेलेपन और उसकी बिल्कुल प्राणांतक उदासी में साझा करते हैं, वही कन्हैया और उसके साथ खड़े होने का दम दिखाते हैं। जो लोग इस पूरी व्यवस्था में हाशिए पर हैं, जो चंपू पूंजीवाद और अलग-अलग सत्ताओं के गठजोड़ से बनी एक बेईमान और अन्यायपूर्ण राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था के शिकार हैं, वे देश के नाम पर ठगे जाने को तैयार नहीं हैं। इत्तिफाक से यही वे लोग हैं जो नई बहसों, नए चलनों, नए राजनीतिक प्रयोगों और नई क्रांतियों के वाहक हैं और अपने-अपने संस्थानों और विश्वविद्यालयों में अति तक जा सकने वाली बहसें करते रह सकते हैं।

यही वे लोग हैं जो कलबुर्गी, पंसारे और दाभोलकर के मारे जाने का विरोध करते हैं, इसके लिए प्रदर्शन करते हैं और अपने पुरस्कार लौटाते हैं। अगर ध्यान से देखें तो बंगाल से महाराष्ट्र तक, छत्तीसगढ़ से तेलंगाना तक और गुजरात से कर्नाटक तक जो लोग कहीं मेधा पाटकर की बांध विरोधी लड़ाई में शामिल हैं, कहीं उदयकुमार के साथ ऐटमी कारख़ानों का विरोध कर रहे हैं, कहीं सोनी सोरी के साथ हुए अत्याचार को उजागर कर रहे हैं, कहीं अख़लाक के मारे जाने का मातम मना रहे हैं, कहीं गैंगरेप की शिकार किसी लड़की के हक़ में आंदोलन कर रहे हैं और कहीं मानवाधिकार की किसी दूसरी लड़ाई के सिपाही बने हुए हैं, वही हैदराबाद से जेएनयू तक पसरे हुए हैं। ये एक अलग सा भारत है- बहुत सारे रंगों से भरा हुआ, बहुत सारे विश्वासों से लैस, बहुत सारी बहसें करता है, बहुत सारे अभावों के बीच गुज़रता हुआ, कहीं पिटता हुआ, कहीं जेल जाता हुआ- जो इस देश पर शासन कर रही सरकारों को समझ में नहीं आता है। वे इस भारत को कुचलना चाहती हैं, क्योंकि वह असहमति जताता है, सवाल पूछता है, नारे लगाता है और कभी-कभार अपनी हताशा या अपने गुस्से में अपने अलग होने की बात भी कह डालता है।

दरअसल यह दो समाजों का झगड़ा है- दो विश्वासों का, जिनका वास्ता हिंदू-मुसलमान-ईसाई जैसी धार्मिक या ब्राह्मण-राजपूत-भूमिहार या यादव जैसी जातिगत पहचानों से नहीं है, बल्कि बराबरी और इंसाफ़ की अवधारणा से है, आर्थिक विकास और सामाजिक खुशहाली के द्वंद्व से है, उग्र राष्ट्रवाद और सामाजिक समरसता की मनोरचनाओं के फ़र्क से है। ये एक बहुत बड़ी लड़ाई है जिसके मोर्चे ढेर सारे हैं। जेएनयू इसका एक नया मोर्चा है। इस ऐतिहासिक लड़ाई में संघ परिवार को मुंह की खानी है क्योंकि वह इतिहास की गति के विरुद्ध खड़ा है। हालांकि इस अंतिम पराजय से पहले वह तमाम तरह की चाल चल रहा है, कुछ तात्कालित जीतें भी हासिल कर रहा है। राष्ट्रवाद एक ऐसी ही चाल है जिसके ज़रिए वह जेएनयू को बदलने में लगा है।

यह नए और पुराने हिंदुस्तान की लड़ाई है जिसे पहचानने की ज़रूरत है और लड़ने की भी। एनडीटीवी इंडिया के संपादक ऑनिंद्यो चक्रवर्ती के मुताबिक यह जेएनयू बनाम जनेऊ है। यह एक सटीक मुहावरा है जिसे समझना इस टकराव को समझने के लिए ज़रूरी है।

वागीश झा:-: https://youtu.be/vB22GzQEuwk
शहीदों के खून और आम जनता के संघर्ष से मिली यह आज़ादी और आज़ाद हिंदुस्तान जम्हूरियत की एक मिसाल है। ये वो जनतंत्र है जिसकी नींव समावेशी और बहुलतावादी विचार में व्यक्त होती है। सवाल खड़े कर सकने की आज़ादी एक अहम मुद्दा है। यहाँ गांधी के हत्यारे की जयंती मनाना भी देशद्रोह नहीं है। यह सोचने समझने का वक़्त है न कि थोथी भावुकता से देशप्रेम का नंगा नाच करने का। जन गण मन जैसा राष्ट्र गान लिखने वाले रवीन्द्रनाथ टैगोर से भी बड़े देशप्रेमी एक बार गुरुदेव की राष्ट्रवाद के बारे में विचार पढ़ लें तो हो सकता है उनपर मरणोपरांत देशद्रोह का मुक़द्दमा चलने के लिए जुलूस निकले जाने लगेंगे।
तब तक एक ये दास्तान सुनिए - दास्ताने सेडिशन।

आशीष:-
साथियों  मेरी राय में  जे एन यू  के  बहाने  हमारे  सामने  एक  दो विचार   आकर  खडे हो  गये  हैं  ।  जब  इंसानी जरुरतों  और  मानवीय हकों से  ज्यादा   कुछ  आदर्श नुमा बातें  देश या राष्ट्र   भक्ति  की चादर ओढ़ कर हमारे  सामने आ डटती हैं ।और  हमसे  कसमें खिला  के कहाजाये  यही  है  देशभक्ति ।  तो  हमें थोड़ी  असहजता  होती   है । यह  सवाल  समाज में  किसके  लिए मायने रखते  है ।  जिन दिनों  गुडगांव , मानेसर के हजारों मजदूर  अपनी  जिंदगी   की  शर्त  पर  रोजी रोटी  के  लिए  पुलिस की  लाठियां  खारहे  होते  हैं तब गौरवशाली   देशभक्ति  का  ज्वार  कहाँ   छुपा  रहता  है ।  एक  किसान  बरसात होने  या होनै  के  झूलता  हुआअपनी  मानहानि से  ज्यादा  फसल  के  बारे में  सोचता  है । और  मध्यवर्ग या  उच्च मध्यवर्ग के  तमाम  जन  जब ज्ञान   की  खातिर  नहीं  और  ज्यादा   धन  की  आकांक्षा में  देशसे  बाहर  अपना  पैर  पसारते  हुए  बेहिचक  चले  जाते  हैं तब  उनकी  निगाह  का  देश  कैसा  होता  है ।  मेरी  लिए  और  मेरे  जैसे   तमाम  खटने वाली  जमात  के  लिए  पहले  रोटी   है ।  उसके  कोई और  चीज ।
    एक छद्म प्रभामंडल  फैला कर  एक  जमात लोगो  के  बुनियादी  सरोकारों  से किंचित मात्र  सहानुभूति न  रखकर उन्हें   एक  अबूझ  राह  में  भटकाने  का  कुचक्र   रचती  है ।  हमारे  सामने  आज  ऐसी  ताकत  देशभक्ति  का  बैनर  लेकर  दौड  रही है । अगर  ऐसा  न  होता  तौ  भारत  की  अलग अलग  राष्ट्रीयताओं  की बासिंदों  की  वास्तविक जरुरतों  पर  भी  भी   इतनी   ही  आतुरता  से  सोचते और  हलकराने  के  लिए  आगे  बढ़ते ।  हमारे  समाज  में  ठहराव और  विकल्पहीनता के  पैरोकार  एक किसम  का  छद्म  वातावरण   बना  रहे  हैं ्  व्यापक  समाज  को सही  दिशा   न  देने  पाने  की  वजह भी   है ।  क्योंकि  इसके  लिए उन्हें  अपनी  समझ  और  व्यवहार  की  तह  में  जाना  पडेगा । 
जे एन यू  प्रकरण  महज  एक  माध्यम   है  ।  असल  में  यहाँ   आगे  न  जापाने की अकुलाहट  और  अपने  मनस  में  कल्पित   विचार  के  अनुरूप   समाज को  कांट छांटकर  गढ़  देने की  बलवती आकांक्षा   टकरारही  है ।

वागीश झा:-
साथियों, वामपंथ और दक्षिणपंथ की राष्ट्रवाद की अवधारणा पर जिरह करने से पहले इस पर विचार कर लें कि हमारा और आपका राष्ट्रवाद  क्या है या क्या हो। मेरा राष्ट्रवाद सत्ता के पक्ष या विपक्ष में नारे लगाने से तय नहीं होता। राष्ट्रवाद उन मूल्यों के साथ खड़े होने का नाम है जिनके प्रति राष्ट्र प्रतिबद्ध होता है। हम और आप उन मूल्यों को रेखांकित करें और फिर तै करें कि नारा लगाना राष्ट्रवाद है या ये सवाल पूछना कि एक नौजवान रोहित वेमुला आत्महत्या क्यों करता है, या कि किसान इस तरह  क्यों मर रहे हैं, और उनके मारने को फैशन बताने वाला नेता हमें या आपको राष्ट्रवादी  क्यों लगता है।  तमाम प्रश्नो पर विचार करने का समय है। इस सन्दर्भ में एक विचार प्रो. भानुप्रताप मेहता का भी पढ़ने लायक लगा जो साझा कर रहा हूँ। प्रोफेसर मेहता सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च के निदेशक हैं और वामपंथी तो कतई नहीं हैं।जब भावनाओं का उबाल पैदा कर तर्कों को किनारे किया जा रहा हो, जब फोटोशॉप और धुंधलाए वीडियो की बाढ़ आ रही हो तब तथ्यों को बचाये रखिये।अपने विवेक पर भरोसा कीजिये।http://www.jansatta.com/national/modi-sarkar-threatened-democracy-that-is-the-most-anti-national-of-all-acts/69285/?utm_source=JansattaHP&utm_medium=referral&utm_campaign=slider4referral

निरंजन श्रोत्रिय:-
दोस्तो,
जे एन यू या पुरस्कार लौटाने वाले मुद्दों के अभिप्राय और निहितार्थ समझना ज़रूरी है। दरअसल असहिष्णुता जैसे शब्द के इतने अर्थ निकाल लिए गए हैं कि यह शब्द उस संदर्भित प्रसंग में अपनी मूल अर्थवत्ता ही खो चुका है। जे एन यू प्रसंग केवल एक स्वायत्त शिक्षण संस्थान में अभिव्यक्ति की आज़ादी और कथित राष्ट्र भक्ति का मामला नहीं है। यह उन राजनीतिक संकेतों का प्रमाण भी है जो सत्ता तंत्र अपनी ओर से देना चाहता है। कन्हैया कुमार अध्यक्ष तो है ही, वह दरअसल एक निम्न मध्यवर्गीय युवक के रूप में उन आकांक्षाओं का भी प्रतीक है जो इस देश का आमजन अपने भीतर संजोता है। कन्हैया और वामपंथ का गढ़ कहे जाने वाले इस संस्थान पर हुए हमलों में फासिज़्म की स्पष्ट आहट सुनाई देती है। दरअसल इस प्रसंग ने "राष्ट्र भक्ति" और "राष्ट्र द्रोह" को नए सिरे से परिभाषित करने की ज़रूरत की ओर इशारा किया है l उन्माद और देशभक्ति में फर्क को समझने की ज़रूरत है। हमारी न्यायपालिका, प्रेस, सोशल मीडिया और प्रशासन की भूमिका पर एक सवाल है यह प्रकरण। राजनीतिक मंशा/ एजेंडा को शिक्षा केंद्रों और पाठ्यक्रम से कैसे मुक्त रखा जाये, उस पर विचारणीय मसला है यह प्रकरण। डॉक्टरड वीडियो, photoshopped चित्रों के ज़रिये हम किस तरह के षड्यंत्र रच सकते हैं, इस प्रसंग से स्पष्ट है। इस समय देश के आमजन विशेषकर युवाओं को अलगाववाद, असली राष्ट्रद्रोहियों की शिनाख्त करने की तमीज़ सीखने की ज़रूरत है। राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र कौन देगा, तय यह करना है। सियाचिन की बर्फीली शहादत पर सियासत कैसे और क्यों की जा रही है, सोचना-समझना होगा। दिखने में साधारण से प्रसंग भी अपने तापमान में असाधारण होते हैं क्योंकि वे सत्ता की असल नीयत को उजागर करते हैं। देश की सामाजिक ,राजनीतिक और आर्थिक दिशाओं को निर्धारित करती हैं ऐसी घटनाएँ। तो फ़िलहाल ज़रूरत अपने विवेक को जाग्रत रखने और चीज़ों को गहराई से समझने की है।

मणि मोहन:-
देश के बाकी शैक्षणिक संस्थानों से जेएनयू की तासीर अलग रही है , अलग है ।दूसरे अन्य संस्थानो में जहां विचार शून्यता एक आम बात है वहीं यहां के स्टूडेंट्स अपनी पढ़ाई से इतर देश दुनियां के मुद्दों पर न केवल सचेत हैं बल्कि बेहद अध्यनशील भी हैं ।इसलिए जेएनयू एक लम्बे समय से सत्ता की आँख की किरकिरी बना रहा है ।और जब भी मौका मिलता है वह आक्रमण करने से नहीं चूकती।वर्तमान मुद्दा भी कुछ कुछ यही है ।लेकिन अपने मद में चूर सत्ता भूल जाती है कि एक जरूरी विचारधारा की घर वापसी सम्भव नही ।

संजीव:-
जेएनयू के संदर्भ में उठी पूरी बहस और लड़ाई राष्ट्रवाद और राष्ट्रद्रोह के नाम पर आरंभ करके वास्तविक कारणों और स्थितियों से जनता को भटकाने का छद्म संघर्ष है। दरअसल भारतीय लोकतंत्र को पूरी तरह से पूँजीवादी हाथों में सोंपने के गुप्त एजेंडे को कार्यान्वित करने के लिए वामपंथ को राष्ट्र द्रोही बताने से अच्छा कोई तरीका नहीं हो सकता। जनता को भविष्य में होने वाले  उसके वास्तविक शोषण के  लिए मानसिक रूप से तैयार किया जा रहा है। पूँजीवाद पूरी दुनिया आर्थिक संकट से जूझ रहा है। हजारों कंपनिया दिवालिया होने की कगार पर हैं, बैंको का पैसा खा पीकर मजे कर रहीं हैं। जनता की कमाई बेदर्दी से इन कंपनियों पर उनके कर्ज को निपटाने में लुटाई जा रही है। निवेश के नाम पर जनता की कमाई को लूटने आने का खुला आमंत्रण दिया जा रहा । इसे राष्ट्रभक्ति और राष्ट्र निर्माण कहा जा रहा है। इस के पीछे के निहितार्थो से जनता को बुद्धीजीवियों को भटकाने का रास्ता है यह विवाद। एक छद्म संघर्ष है जो लडा किसी और मोर्चे पर जा रहा है और दिखाया कहीं और जा रहा है।
मार्क्यूज ने कहा था कि "कोई भी व्यवस्था तभी सफल होती है जब वह विकल्पों पर  विचार करना असंभव बना देती है। यह संघर्ष विकल्पों को समाप्त करने के लिए ही पैदा किया गया है।

आलोक बाजपेयी:-
राजनीति पर टिपण्णी करते हुए थोडा अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होती है। बुद्धिपूर्ण तटस्थता या अतिरेकवादी नैतिकता जैसा कुछ नहीं होता। देशना यह होता है कि आप के तर्क आपको किस पाले में रख रहे हैं। बोलने से पहले यह सोचिये की आपकी बात की दिशा क्या है और वर्तमान परिदृश्य व् परिप्रेक्ष्य में वह दिशा क्या वही है जिधर आप जाना चाहते हैं। यह भी सही वह भी सही यह भी गलत वह भी गलत वाला चिंतन आपको दिग्भ्रमित करेगा।

टीकम शेखावत:-
आलोक जी यह दिक्कत उन बुद्धिजीवियों कि है जिनके लिए देश कि घटनाओं पर विमर्श (कुछ लोगों जिसे पाला भी कहते हैं ) सत्ता और बेसत्ता वाले दलो व राजनीति तक ही सीमित हैं। जरुरत है चश्मा बदलने की। भारतीय होने के नाते उन नारो का विरोध करता हु मैं। साथ ही मौकापरस्त दलों कि व सत्तारूढ़ बीजेपी की राजनीति का।

आलोक बाजपेयी:-
टीकम जी। थोडा आपकी इस पोजीशन को explain करना चाहूँगा। आप देश विरोधी नारों का विरोध करते है। अच्छी बात। ज़रा यह देखिये की जेएनयू के सन्दर्भ में यह बात महत्त्वपूर्ण है या केंद्र सरकार ने इस मसले पर जो किया वो? भाजपा मौका परास्त दल नहीं है। उसका सुस्पष्ट सोच व् विचारधारा है। वह भारत की सांस्कृतिक चेतना व् अन्य आधारभूत संकल्पनाओं को नष्ट करने पर आमादा है। भीड़ तंत्र उसकी रणनीति का स्थायी हिस्सा है। भीड़ को हिंसा के लिए प्रेरित करना उसका तरीका है। देश भक्ति का सर्टिफिकेट बाँट कर वह अपने आलोचकों का चरित्र हनन करना चाहती है।
आप कह सकते हैं की भाजपा विरोधी भी यही करते रहे हैं। लेकिन ह्मरारे सामने अभी जेएनयू का विशिथ सन्दर्भ है। इसके आलावा भाजपा विरोधियों में लोकतांत्रिक चेतना और अपने विरोधी को नेस्तनाबूत न कर केवल कमजोर करना ही मुख्य कार्यभार रहा है।
इसके अलावा चुकी आरएसएस समूह का वैचारिक आधार हिटलर की प्रशंशा व् फासीवादी रुझान भी है इसलिए ये झूठ षड्यंत्र पाखण्ड चिल्लाऊ देशभक्ति आदि चीजें भी धारण करते हैं।
आप समग्रता में घटना कर्म को देखने की कोशिश करेंगे तो शायद अधिक सार्थक हो।
भारत विरोधी नारे जिनका लगाया जाना भी संदेह में है के आधार पर पुरे मामले को देखेंगे तो माफ़ करना दोस्त आपका पक्ष भीड़ तंत्र को ही पोषित करेगा।

सत्यनारायण:-
जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने पिछले गुरुवार की शाम को परिसर में एक सभा को संबोधित किया था। इसके बाद मंगलवार को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इस भाषण की  रिकॉर्डिंग यूट्यूब पर अपलोड है। इसका टैक्स्ट टेलीग्राफ अखबार से लिया गया है।

जिन्होंने ब्रिटिश राज से माफी मांगी वे सावरकर के अनुयायी हैं। इन्होंने हरियाणा में, एक हवाई अड्डे का नाम बदल दिया है।  हवाई अड्डे का नाम भगत सिंह के नाम पर रखा था, जिसे  खट्टर सरकार ने एक  संघी के नाम पर रखा है। मेरे कहने का मतलब है कि हमें आरएसएस से देशभक्ति के प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं है। हम इस देश के हैं। हमें इस देश से प्यार है। हम इस देश की  80 प्रतिशत गरीब आबादी के लिए लड़ते हैं। हमारे लिए यही  देश की पूजा है।

हमें  बाबासाहेब अम्बेडकर पर पूरा भरोसा है। हमें भारत के संविधान में पूरा विश्वास है। यदि कोई जबरदस्ती संविधान को चुनौती देने की कोशिश करता है तो वह संघी है जिसे हम बर्दाश्त नहीं करेंगे।हमे संविधान में विश्वास है। लेकिन उस संविधान में विश्वास नहीं है जो कि झंडेवालान (दिल्ली में आरएसएस मुख्यालय) और नागपुर में पढ़ाया जाता है । हम मनुस्मृति में विश्वास नहीं करते हैं, हम इस देश में जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं करते। हम संविधान और बाबासाहेब  अम्बेडकर के सुधारात्मक उपायों के बारे में बात करते हैं।  अम्बेडकर फांसी की सजा खत्म करने के बारे में बात करते हैं। अम्बेडकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में बात करते हैं।  हम संविधान को बनाए रखना चाहते हैं।  हम अपने अधिकार बनाए रखना चाहते हैं।  यह शर्मनाक है और बड़े दुख की बात है कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, उनके मीडिया के मित्रों के सहयोग से, एक अभियान चला रहा है।  कल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संयुक्त सचिव ने कहा कि हम फैलोशिप के लिए लड़ते हैं। यह कितनी हास्यास्पद बात है ! उनकी सरकार, मैडम मनुस्मृति ईरानी फेलोशिप खत्म कर रही हैं। और वे हम पर फैलोशिप के लिए संघर्ष करने का आरोप लगाते हैं। उनकी सरकार ने उच्च शिक्षा के बजट में 17 प्रतिशत की कमी की है। हमारे छात्रावास चार साल से नहीं बनाए गए हैं। वहां वाई-फाई नहीं है। बीएचईएल ने हमें एक बस दे दी है, लेकिन प्रशासन के पास तेल भरवाने के पैसे नहीं है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और लोग  देव आनंद की तरह दावा करते हैं कि वे छात्रावासों का निर्माण कराएंगे और वाई-फाई मिल जाएगा। फैलोशिप मिल जाएगी। अगर इस देश में बुनियादी मुद्दों पर बहस हो तो हम देश की असल समस्याओं को उजागर करेंगे। हमे जेएनयू का  होने का गर्व है । हम इस देश के विषय में बुनियादी मुद्दों पर बहस कर रहे हैं। हम इस देश में महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की गरिमा से संबंधित मुद्दों को उठा रहे हैं। और  हां, उनके स्वामी (सुब्रमण्यम स्वामी) का कहना है कि जेएनयू में  जिहादी रहते है और जेएनयू के छात्र हिंसा फैला रहे हैं।  जेएनयू की ओर से, मैं आरएसएस विचारधारा को चुनौती देना चाहता हूं।  हमें फोन करें और बहस का आयोजन करें। हम हिंसा की अवधारणा पर बहस करना चाहते हैं। हम अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के उन्मादी नारों पर बहस करना चाहते हैं। उनका नारा है खून का तिलक और गोलियों के साथ आरती करना।  हम इस बारे में  सवाल उठाना चाहते हैं। आखिर वे किसका खून करना चाहते हैं ?  उन्होंने  अंग्रेजों के साथ गठबंधन किया और इस देश के स्वतंत्रता सेनानियों पर गोलियां चलाई। जब गरीब लोगों ने रोटी की मांग की तो उन्होंने गोलियां चलाई। जब  भूख से मरने वालों ने लोगों ने अपने अधिकारों के बारे में बात की थी, तो उन पर गोलियां चलाई। वे मुसलमानों पर गोलियां चलाते हैं।   महिलाएं जब समान अधिकार की मांग करती हैं तो वे उन पर  गोलियां चलाईं।

वे कहते हैं कि पांच अंगुलियां बराबर नहीं हैं। वे वकील हैं कहते हैं कि महिलाओं को सीता का अनुकरण और अग्निपरीक्षा देना चाहिए। इस देश में लोकतंत्र है और लोकतंत्र सभी को समान अधिकार देता है । चाहे  एक छात्र, एक कार्यकर्ता, गरीब हो या अमीर, अंबानी हो या अदानी । और जब हम महिलाओं के समान अधिकार के बारे में बात करते हैं, तो वे हमपर भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का आरोप लगाते हैं।

हम शोषण की संस्कृति, जाति की संस्कृति, मनुवाद और ब्राह्मणवाद की संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। अब तक, संस्कृति को परिभाषित नहीं किया गया है।

They have a problem when people of this country talk about democracy, when they give blue salute along with red salute, when people talk about Ambedkar along with Marx, when people talk about Asfaqulla Khan ( the freedom fighter) . They can't tolerate. It is their conspiracy.

जब इस देश के लोग लोकतंत्र के बारे में बात करते हैं, तो उन्हें सुहाता नहीं है। जब लोग नीले सलाम के साथ लाल सलाम करते हैं और जब लोग मार्क्स के साथ अमबेडकर की बात करते हैं तो उन्हें बर्दाश्त नहीं होता।  जब लोग अश्फाकउल्लाह खान (स्वतंत्रता सेनानी) के बारे में बात करते हैं तो उन्हें समस्या नजर आती है। यह उनकी साजिश है।

वे ब्रिटिश के पिट्ठू थे।  मैं उन्हें चुनौती देता हूं हिम्मत हो तो मेरे खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर करो। मैं कहता हूं कि इतिहास गवाह है कि आरएसएस ने अंग्रेजों का साथ दिया।  ये धोखेबाज आज राष्ट्रवाद का प्रमाण पत्र वितरण कर रहे हैं।

दोस्तों आप मेरा  मोबाइल फ़ोन के देखें। यह मेरी माँ और बहन को दी गई गंदी गालियों से भरा है।  जो भारत माता के बारे में बात कर रहे हैं? तो मेरी माँ क्या अपनी  मदर इंडिया का हिस्सा नहीं है।

मेरी माँ एक आंगनवाड़ी सेविका है।  वे 3,000 रुपये महीने कमाती हैं और परिवार चलाती हैं।  वे उसे गाली दे रहे हैं। मुझे शर्म आती है कि इस देश में, गरीब, दलित किसानों की माताएं मदर इंडिया का हिस्सा नहीं हैं।  मैं इस देश की माताओं की जय करता हूं। मैं इस देश के पिता की जय करता हूं।  मैं इस देश की माताओं और बहनों की जय करता हूं। मैं गरीब किसानों, दलितों, आदिवासियों और मजदूरों की जय करता हूं। मैं उनसे कहता हूं कि

यदि उनमें साहस है, तो वे कहें  'इंकलाब जिंदाबाद', वे कहें  'भगत सिंह जिंदाबाद', वे कहें  'सुखदेव जिंदाबाद', वे कहें अश्फाकुल्लाह खान जिंदाबाद', वे कहें बाबासाहेब अम्बेडकर जिंदाबाद'। उसके बाद ही मैं विश्वास करूंगा कि वे इस देश के प्रति वफादार हैं।

वे अंबेडकर की 125 वीं जयंती मनाने का नाटक अभिनीत कर रहे हैं।

यदि उनमें साहस है तो  वे अम्बेडकर के मुद्दे को उठाएं।  जाति व्यवस्था इस देश में सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है।वे  हर क्षेत्र में आरक्षण लाने के लिए, निजी क्षेत्र में आरक्षण लाने के लिए  इन सवालों को उठाएं तो मुझे विश्वास है कि आपका इस देश में विश्वास है।

यह देश तुम्हारा कभी नहीं था और तुम्हारा कभी नहीं होगा। एक राष्ट्र अपने लोगों द्वारा बनता है। अगर देश के आपके  विचार में भूखे और गरीब लोगों के लिए कोई जगह नहीं है, तो क्या यह कोई राष्ट्र है।

कल, मैंने  एक टीवी बहस में कहा कि हम कठिन समय में हैं । जिस तरह से देश में फासीवाद आ रहा है, यहां तक ​​कि मीडिया को बख्शा नहीं किया जाएगा। मीडिया को जो स्क्रिप्ट दी जा रही है वह सीधे आरएसएस के दफ्तर से आ रही है, जैसे कि इमरजेंसी में कांग्रेस के दफ्तर से आती थी। मेरे मीडिया के कुछ दोस्तों ने मुझे बताया कि जेएनयू में जेो सबसिडी मिलती है वह करदाताओं के पैसे से मिलती है। हां यह सही है कि जेएनयू सबसिडी पर चलता है। लेकिन मैं सवाल उठाना चाहता हूं कि आखिर यूनिवर्सिटी किसके लिए होती है। यूनिवर्सिटी दरअसल समाज की सामूहिक चेतना के आलोेचनात्मक विश्लेषण के लिए होती हैं। आलोेचनात्मक विश्लेषण को बढ़ावा दिया जाना चाहिेए।

यदि यूनिवर्सिटियां अपने कर्तव्य पूरे करने में विफल होती हैं तो वहां कोई राष्ट्र नहीं है। यदि लोग एक राष्ट्र के हिस्से नहीं है, जो यह सिर्फ अमीरों के चरने का मैदान रह जाएगा जिसमें शोषण करने और लूटमार करने की छूट होगी।  

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य़दि हम लोगों की संस्कृति, मान्यताओं और अधिकारों को आत्मसात नहीं करते हैं, तो एक राष्ट्र का गठन नहीं किया जा सकेगा।  हम देश के साथ मजबूती से खड़े हैं, हम भगत सिंह और बाबासाहेब अंबेडकर के सपनों के लिए खड़े हैं। हम समान अधिकार के लिए खड़े होते हैं। हम जीने के अधिकार के लिए खड़े हैं। रोहित वेमुला ने भी इन अधिकारों के लिए खड़े होने में अपनी जान दे दी। लेकिन मैं इन संघियों को यह बताना चाहता हूं अपनी सरकार पर शर्म करोे। हम केंद्र सरकार को चुनौैती देते हैं कि हम जेएनयू में वैसा नहीं होने देंगे जैसा कि रोहित के केस में हुआ। यहां रोहित अपनी जान नहीं देगा। हमें रोहित के बलिदान को नहीं भूलना चाहिए। हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खड़े होंगे। पाकिस्तान और बांग्लादेश को छोड़िए,  हम सिर्फ गरीबों और विश्व की दबी कुचली जनता की एकता का आह्वान करते हैं ।  हम भारत की मानवता की जद करते हैं। हमने उन्हें पहचान लिया है जो मानवता के खिलाफ हैं। आज हमारे सामने यही सबसे बड़ा मसला है। हमने जातिवाद का चेहरा पहचान लिया है। मनुवाद का चेहरा पहचान लिया है।  हमने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के गठजोड़ का चेहरा पहचान लिया है और हम इस चेहरे को सबके सामने बेनकाब कर रख देंगे। हमारा भरोसा वास्तविक आजादी में हैं और यह आजादी संविधान के जरिए ही आएगी, यह संसद के जरिए आएगी, हम इसे हासिल करके रहेंगे।

मैं आप सभी दोस्तों से अपील करना चाहता हूं कि सारे मतभेदों के बावजूद हमें अपनी अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करनी है। हमें इस देश की एकता और अखंडता की रक्षा करनी है। इसके लिए हमें एक बने रहना होगा और उन ताकतों से लड़ना होगा जो हमारे देश को विभाजित करने में लगी हैं। उन ताकतों के खिलाफ लड़ना होगा जो आतंकियों को पनाह दे रही हैं। मेंरी स्पीच खत्म होने से पहले एक आखिरी अपील और करना चाहता हूं।

कसाब कौन है? अफजल गुरु कौन है? ये लोग कौन हैं। आखिर वह कौन सी स्थिति है जो ये लोग अपने शरीर में बम लपेट कर खुद को मारना चाहते हैं।  क्या इन सवालों को यूनिवर्सिटी में नहीं उठाया जाए, एेसा नहीं किया  तो यूनिवर्सिटी का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। यदि हम न्याय को परिभाषित नहीं कर पाएंगे और हम यह नहीं बता पाएंगे कि  हिंसा की परिभाषा क्या है और इसे हम किस नजरिए से देखते हैं। हिंसा का अर्थ सिर्फ किसी को बंदूक से मारना ही नहीं है। हिंसा तब भी होती है जब जेएनयू का प्रशासन दलितों को मिले संवैधानिक अधिकारों को देने से मना कर देता है। यह संस्थागत किस्म की हिंसा होती है। वे न्याय के बारे में बात करते हैं तो यह कौन तय करेगा कि न्याय क्या है। ब्राह्मण वाद कभी दलितों को एेसा करने नहीं देगा। वे दलितों को मंदिर में तक प्रवेश नहीं करने देते। ब्रिटिश लोगों ने कुत्तों और भारतीयों को रेस्टाॅरेंट्स में प्रवेश की पाबंदी लगा रखी थी।

तो यह उस वक्त का न्याय था जिसे हमने चुनौती दी और आज हम एबीवीपी और आरएसएस के न्याय को चुनौती देते हैं क्योंकि उनके न्याय में हमें न्याय देना शामिल नहीं है तो हम उनके इस न्याय और उनकी इस आजादी को स्वीकार नहीं करते।

हम उस आजादी को स्वीकार करेंगे जहां हर व्यक्ति को उसके संवैधानिक अधिकार मिलें, हम न्याय को तब स्वीकार करेंगे जब सभी के अधिकार एक समान हों। दोस्तों आज हालात बहुत मुश्किल भरे हैं। किसी भी परिस्थितियों में जेएनयूएसयू (जेएनयू छात्र संघ) हिंसाा का समर्थन नहीं करता न ही व किसी आतंकी और न ही किसी भारत विरोधी गतिविधि या किसी आतंकी घटना का समर्थन करता है। मैं फिर जोर देकर कहना चाहता हूं कि जेएनएसयू कुछ अज्ञात लोगों द्वारा लगाए गए पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे की कड़े शब्दों में निंदा करता हूं।

दोस्तों मैं आपके साथ एक बात और बांटना चाहता हूं। यह सवाल एबीवीपी और जेएनयू प्रशासन से संबंधित है। जेएनयू कैंपस में हजारों गतिविधियां होती हैं। आप ध्यान से सुनें एबीवीपी आजकल क्या नारे लगा रही है। वे हमें कम्युनिस्ट कुत्ते कह रहे हैं। वो हमे्ं अफजल गुरु के कुत्ते कह रहे हैं। वोे हमें जिहादियों की औलाद बता रहे हैं। यदि संविधान ने हमें नागरिक बने रहने का अधिकार दिया है तो क्या हमारे माता-पिता को कुत्ते कहना  हमारे संवैधानिक अधिकारों पर हमला नहीं है। हम यही सवाल जेएनयू प्रशासन और एबीवीपी से पूछना चाहते हैं।

हम एबीवीपी और जेएनयू प्रशासन से यह सवाल पूछना चाहते हैं कि वह किसके लिए ए किसके साथ और किस आधार पर  काम करता है।  यह स्पष्ट हो चुका है  कि जेएनयू प्रशासन पहले अनुमति देता है और फिर नागपुर से एक कॉल आने के बाद अनुमति वापस लेता है। पहले कार्यक्रम की अनुमति देना और फिर वापस लेना इसका सिलसिला अब तेज हो गया है।  वे फैलोशिप की घोषणा करेंगे और फिर से कहता है कि इसे वापस ले लिया गया है।

यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पैटर्न के साथ जो वे इस देश को चलाने के लिए चाहते हैं। मैं  जेएनयू प्रशासन पूछना चाहता हूँ।  पहले  वे फैलोशिप की घोषणा करेंगे और फिर कहेंगे कि इसे वापस ले लिया गया है। यह आरएसएस और एबीवीपी का पैटर्न है जिस पर वे देश चलाना चाहते हैं। हम

हम जेएनयू प्रशासन से पूछना चाहते हैं कि  9 फ़रवरी के उस कार्यक्रम के अंत में जहां भारत विरोधी नारे लगाए थे, उसकी अनुमति  उस कार्यक्रम के पोस्टर लगने और पर्चे वितरित हो जाने के बावजूद प्रदान की गई थी। जब यह अनुमति दे दी गई थी तो किनके  निर्देश पर इसे वापस ले लिया गया था? हम जेएनयू प्रशासन से  पूछना चाहते हैं कि

आप एबीवीपी के लोगों के सच को भी समझने की कोशिश करों, इनसे नफरत मत करो। मुझे इनके लिए बहुत दुख है। ये इसलिए उछलकूद मचा रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि जिस तरह उन्हें एफटीआईआई में गजेंद्र चौहान मिल गया वैसे ही हर संस्थान में इन्हें इनके जैसे लोग मिल जाएंगे। उन्हें लगता है कि चौहान जैसे लोग सब जगहों पर होने से उन्हें अच्छे रोजगार मिलेंगे। एक बार जब अच्छा काम मिल जाएगा तो वे भारत और भारत माता की पूजा करना भूल जाएंगे। आप तिरंगे की क्या बात करते हैं, जिसका ये कभी सम्मान नहीं करते, ये तो केसरिया ध्वज भी भूल जाएंगे।

मुझे पता है कि वे किस तरह की राष्ट्र पूजा के बारे में बात कर रहे हैं। वे  चाहते हैं अगर एक मालिक अपने कर्मचारियों के साथ ठीक से व्यवहार नहीं करता है और एक किसान अपने मजदूरों के साथ न्याय नहीं करता, और एक मीडिया हाउस के बड़ी तनख्वाह पाने वाले सीईओ बहुत कम तनख्वाह पाने वाले पत्रकारों के साथ ठीक से व्यवहार नहीं करते हैं तो क्या यह  देशभक्ति है ? अपनी देशभक्ति  भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के साथ समाप्त हो जाती है जब वे सड़क पर निकल जाते हैं, और केले  बेचने वाले के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। केले बेचने वाला उन्हें बताता है कि एक दर्जन केला 40 रुपये में आता है तो वे उस पर ग्राहकों से लूटपाट का आरोप लगाते हैं। वे 30 रुपये में एक दर्जन केले की  मांग करते हैं।

केले वाला उनसे कहता है कि आप ही असली लुटेरे हैं तो वे गरीब आदमी को राष्ट्रविरोधी बता देते हैं। राष्ट्रभक्ति धन और सहूलियतों से शुरू और खत्म होती है। मैं एेसे कई एबीवीपी के लोगों को जानता हूं और मैं उनसे पूछता हूं कि आखिर उन्हें राष्ट्रवाद का चाव क्यों है?

उन्होंने मुझे बताया: "क्या करना है, भाई, यह सरकार पांच साल के लिए है और दो साल पहले ही खत्म हो गई हैं तीन वर्ष का टॉक टाइम बचा है जो कुछ भी करना है कर डालो।  लेकिन मैं उनसे पूछता हूँ कि जेएनयू के बारे में झूठ बोला तो क्या कल तुम्हारा साथी तु्म्हारी काॅलर पकड़ कर तुन्हें मारेगा वही पकड़ेगा जो ट्रेन में बीफ पकड़ता है। वबह बोलेगा कि तुम देश भक्त नहीं हो तुम तो जेएनयू वाले हो इसका खतरा मालूम है तुम्हें। उसने बताया कि उन्हें इस खतरे का एहसास है और इसलिए # JNUShutdown (जेएनयू शटडाउन एक ट्विटर हैशटैग) का विरोध कर रहे हैं। पहले, वे जेएनयू के खिलाफ एक माहौल बनाएंगे और  फिर, इसका विरोध करेंगे अंततः वे चाहेंगे कि वे ही जेएनयू में रहें।

मैं बताना चाहता हूँ कि जेएनयू आईटीएस चुनाव मार्च में आ रहे हैं।  एबीवीपी के लोग "ओम" ध्वज के साथ  वोट मांगने आएंगे। आप उनसे पूछो कि हम तो जिहादियों और आतंकियों का समर्थन कर रहे हैं हम देश विरोधी हैं तो हमसे वोट लेकर क्या आप नहीं  राष्ट्र विरोधी बन जाएंगे ?" मुझे पता है कि जब  आप उनसे यह सवाल पूचेंगे तो वे  आपको बता देंगे, "आप नहीं है लेकिन कुछ लोग विरोधी नागरिक हैं"। तो आप उनसे पूछिए कि आपने यह बात पहले मीडिया में क्यों नहीं बताया। उनके कुलपति और रजिस्ट्रार को क्यों नहीं बताया । आप पूछिए कि यह क्यों नहीं बताया था कि "पाकिस्तान जिंदाबाद" के नारे नहीं लगे थे।  न ही वे आतंकवाद का समर्थन किया था। आप पूछिए कि पहले कार्यक्रम की अनुमति  दी गई थी और उसके बाद वापस ले लिया क्या यह उनके  लोकतांत्रिक अधिकार पर हमला नहीं है। आप उनसे पूछिए कि यदि कहीं  लोकतांत्रिक संघर्ष लड़ा जा रहा है, तो वे  इसके लिए खड़े होंगे।

छात्रों को यब बात अन्य छात्रों को बताना होगा कि  एबीवीपी को देश और जेएनयू तोड़ने से रोकें। हम एेसा जेएनयू जिंदाबाद, जेएनयू के लोग सक्रिय रूप से सभी लोकतांत्रिक संघर्ष में भाग लेना जारी रखें। लोकतंत्र की आवाज, स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आवाज को मजबूत करने के लिए हमरा संघर्ष जारी रहेगा। हम संघर्ष करने और जीतने के लिए हैं और इस देश का धोखेबाज हार जाएगा। इन शब्दों के साथ मैं आप सभी से एकता के लिए अपील करता हूं और धन्यवाद देता हूं।

जय भीम, लाल सलाम।

प्रमोद तिवारी:-
सर्वानुमति से डेमोक्रेसी नहीं चलती- केदारनाथ सिंह

आज मुझसे निजी बातचीत में ज्ञानपीठ पुरस्‍कृत वरिष्‍ठ कवि केदारनाथ सिंह ने जेएनयू और हैदराबाद विश्‍वविद्यालय से जुड़ी हालिया घटनाओं पर टिप्‍पणी करते हुए कहा कि ये घटनाएं दुर्भाग्‍यपूर्ण हैं और इनसे मैं बहुत आहत हूं। मैं जेएनयू से प्‍यार करता हूं और उससे आज भी जुड़ा हुआ हूं। जेएनयू में जो हो रहा है वह एक राजनीतिक योजना के तहत हो रहा है। पिछले दिनों जेएनयू गया था परंतु गेट से ही लौटा दिया गया, क्‍योंकि आईकार्ड नहीं था। ऐसा पहला अनुभव है। यदि कोई गैरकानूनी नारे लगाए गए हैं तो मैं उनसे घोर असहमति व्‍यक्‍त करता हूँ परंतु उसकी वस्‍तुपरक जांच के बाद ही कोई फैसला दिया जाना चाहिए। बेगुनाह छात्रों को गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए। मैं कन्‍हैया कुमार को थोड़ा बहुत जानता हूं, वह देशद्रोही नहीं हो सकता, यह मेरा दृढ़ विश्‍वास है। दिक्‍कत यह है कि सही ढंग से कुछ नहीं हो रहा है। कही-सुनी बातों पर और केवल मीडिया पर यकीन नहीं करना चाहिए। कुछ अपवादों को छोड़कर खास तौर से इलेक्‍ट्रानिक मीडिया का रोल आपत्तिजनक है और वह आलोचना की पात्र है। 
मैं जेएनयू के आंतरिक चरित्र को जानता हूं, उसने अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर अपनी शैक्षणिक प्रतिष्ठा बनायी है जिसे नष्‍ट नहीं किया जा सकता। विशाल भारतीय जनमानस इसे स्‍वीकार नहीं करेगा। जेएनयू के छात्र देशप्रेम से उतने ही लबालब भरे हैं जितना देश का कोई भी नागरिक। जेएनयू का चरित्र संवाद और विवाद पर आधारित है। जिस डेमोक्रेसी में विवाद नहीं होगा वह चल नहीं पाएगी। केवल सर्वानुमति से डेमोक्रेसी नहीं चलती। डेमोक्रेसी को नष्‍ट करने की कोशिश हो रही है जिसकी शुरुआत हैदराबाद से हुई। रोहित वेमुला का पत्र आनेवाले समय में बेहतरीन साहित्यिक कृति के रूप में याद किया जाएगा। इसे देश पढ़े और शर्म से सिर झुका ले। जो हो रहा है वह दुर्भाग्‍यपूर्ण है। हैदराबाद चुप है, दिल्‍ली डरी हुई है, मैंने अंग्रेजों का जमाना और खून से लथपथ पिता को थाने से निकलते देखा है। आपातकाल का समय भी देखा है। 80 का हो चुका हूं, ऐसे दिन नहीं देखे। बयान देने से कुछ नहीं होगा पर बोलना चाहिए। इस सारे घटनाक्रम को लेकर मैं व्‍यक्तिगत रूप से बहुत पीड़ित हूं। (प्रमोद कुमार तिवारी से फोन पर हुई बातचीत पर आधारित)

आशीष:-
सही  बात  केदार नाथ  सिंह  ने  कही  कि  जिस डेमोक्रेसी  में वाद विवाद   की  गुंजाइश  नहीं  होगी   वह  कितने  दिन चलेगी ।   इस  समय तमाम   तरीके  से अपनी  राय  रखने और  सोचने  की कोशिशों  को  खत्म करने  को  ही  जनतंत्र  का  नाम  दिया  जा रहा  है ।

प्रणय कुमार:-
आप सबके तर्क दमदार हैं,पर पूर्वाग्रह मुक्त नहीं है|वस्तुपरकता के स्थान पर आपने भी वैचारिक प्रतिबद्धता को ही प्राथमिकता दी है|मैं पूछता हूँ कि आप मूल प्रश्नों को निरुत्तरित क्यों छोड़ रहे हैं?आख़िर जे.एन. यू में भारत-विरोधी नारे लगाए ही क्यों गए?अभिव्यक्ति की आज़ादी,विवाद,संवाद पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है!पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर आप भारत की बर्बादी तक जंग ज़ारी रखने का संकल्प तो नहीं दुहरा सकते!गरीबों को अधिकार दिलाने के नाम पर आप न्यूनतम वेतनभोगी कर्मचारियों (चाहे वह पुलिस या सी. आर.पी के ही क्यों न हों)को तो गोलियों का निशाना नहीं बना सकते?मैं बिहार के उस हिस्से से हूँ,जहाँ गरीबी है,अशिक्षा है,पैबंद लगे कपड़े पहनकर शिक्षा ग्रहण की है मैंने,तपती धूप में बिना चप्पल मीलों चलकर स्कूल गया हूँ,पाँवों में आज भी छालों के निशान हैं|तथाकथित प्रगतिवादी चेतना के ठेकेदारों ने कई गाँवों में विद्यालय बंद करवा दिए, निरीह मास्टरों को निशाना बनाया,कइयों ने वसूली के वैचारिक अड्डे खोल लिए,छोटे-छोटे जोतदारों की खेतों पर लाल झंडे फहरा उन पर जबरन कब्ज़ा कर लिया|क्या यही साम्यवाद है,फिर फासीवाद किसे कहते हैं?क्यों 1925 में पैदा हुआ संगठन देशव्यापी विस्तार पा गया और तमाम कथित मानवीय कार्यों को अंजाम देने के वाबजूद वामपंथ अपने किले और गढ़ों में क़ैद रह गया?केवल टेलीविजनी या अकादमिक बहसों में दिए जाने वाले धारदार तर्कों से कुछ नहीं होने वाला,ज़मीन पर जाकर हकीक़त देखिए|आप मानें या न मानें,सच ये है कि वामपंथ इस देश के मन और मिज़ाज को समझ पाने में पूरी तरह विफल रहा है|

संध्या:-
जहाँ तक कन्हैया के भाषण और नारों का सवाल है उसमे देश विरोधी नारे कौनसे समझे गए हैं ?अगर समाज से बेड़ियों से आज़ादी के नारों को देश द्रोह की संज्ञा दी जा रही है तो मैं नही समझ पा रही कि ,हम किस युग में जी रहे है। ?और जरा आप बताएं कि कौनसा "पंथ "इस देश के मिजाज़ को समझ पा रहा है आवर उनके क्या पूर्वाग्रह हैं ?

आशीष-
जी  यही  सवाल   मेरे भी  है ।  देशभक्ति  का  टेंडर   क्या  कुछ  लोगों  ने अपने  करा  रखा  है ।  हम  अपनी  असहमति   जाहिर   करने  के  लिए किस  ब्यूरो   में  हाजिर हों ।  किसिम  तरीके  से  गणेश  परिक्रमा   की  संस्कृति   को  देश  की  उन्नति   की  संस्कृति   है तो  सोचना   होगा ।  जे एन यू  में  तो  महज  चीजें  आमने  सामने  आयी  हैं ।  बाबू बजरंगी  से  लेकर  अब  तक  किस  संस्कृति   का  प्रोत्साहन  किया  जा रहा है

प्रणय कुमार:-
सब प्रकार की सुविधाओं का उपभोग करते हुए किसी रोमानी दुनिया  या किसी यूटोपिया में जीना पलायनवादी मानसिकता ही है|मैं पूछ रहा हूँ कि गरीबों की गरीबी दूर करने के लिए वामपंथ ने क्या किया?क्या हुआ पश्चिम बंगाल का?क्या हुआ मजदूर-किसान-श्रमिक और शिल्पियों का?मेरे संसदीय क्षेत्र से लगभग 9 बार कम्युनिस्ट पार्टी ने प्रतिनिधित्व किया,सड़क तक नहीं बना के दे पाए!लोगों ने खीझ कर उन्हें अपनी नज़रों से ऐसे उतारा कि अस्तित्व तक नहीं बचा पा रहे|मैं फिर कह रहा हूँ पुनर्मूल्यांकन ज़रूरी है|एक और बात विकास और मानवीयता,प्रगति और पर्यावरण धुर विरोधी हों,यह ज़रूरी तो नहीं|सत्य को समग्रता में देखिए,खंड-खंड करके नहीं|कभी कानपुर जाकर देख लीजिए वामपंथी मज़दूर नेताओं ने तात्कालिक फ़ायदों के लिए फ़ैक्टरियों  के गेट पर ताले तो लगवा दिए, पर गरीबों के मुँह से निवाला तक छिन गया|आप स्वतंत्र हैं अपनी राय रखने को,पर यह सच है कि विचारधारा से पेट नहीं भरता,लोगों को रोजगार चाहिए,रोटी चाहिए|

आनंद पचौरी:-
JNUसहित हमारे शिछण संस्थानों को सामाजिक जागृति के  जो प्रेरणा केन्द्र बनना चाहिए था वे कुत्सित राजनीति के अड्डे बन गये हैं।  शिक्छा का पूरे देश में क्या स्तर है,यह सभी जानते हैं। काफीहाउस में बैठ कर सिगरेट का धुआँउडाते इन तथाकथित देशप्रेमी से कोई क्यों नहीं पूछता कि जिस उत्तरदायित्व के लिए इन्हें बडी बडी तनख्वाह मिलती हैं,उस कर्तव्य के साथ ये क्या न्याय करते हैं?   सरकारी खरचे पर क्या  ऐैयाशी नहीं करते।  पान की दुकानों से यूनीवर सिटी और कालेज खुल रहे हैं, क्या इस गिरते स्तर के लिए आवाज उठाने की किसी को फुर्सत नहीं है।यहाँ शोध और संवधर्न का क्या स्तर है? वैश्विक स्तर पर  हर साल निकलने वाले लाखों इंजिनियरस में से केवल १२% ही योग्य हैं।चाकूबाजी,बंदूकबाजी यह शिक्छा के मंदिरों का चरित्र हो गया है।सब अपनी अपनी ऱाजनेैतिक रोटी सेक रहें हैं।
  देश और देशभक्ति केवल २६जनवरी और १५
अगस्त की ४-५ घंटे की औपचारिकता है जो गिरगिटिया रंग बदल कर सफेद कपडों में निकलती है।  छात्र आंदोलन से निकले बहुत सारे देशप्रेमी आज संसद में बैठै क्या नहीं कर रहे हैं? बहुत चालबाजी र धूर्तता से सब कारोबार चल रहा है, चलता रहेगा।

प्रणय कुमार:-
आनंद जी की बातें गौर करने लायक हैं|वामपंथ और संघ नहीं था तब भी देश था|देश रहेगा तो विचारधारा रहेगी|मानवता और राष्ट्र परस्पर विरोधी नहीं है|हम अपने विवेक किसी संगठन या पार्टी को नहीं सौंप सकते|नीर-क्षीर विवेकी परंपरा में अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहना होगा|सेलेक्टिव एप्रोच सत्य के मूल तक नहीं पहुँचने देगा|

आशीष मेहता:-
प्रणयजी एवं आनंदजी के प्रश्न नुकीले हैं।
मामला चाहे आरक्षण का हो, नक्सलवाद का हो, कश्मीर का हो, किसी पूर्वोत्तर राज्य का हो, जड़ में शोषण, बेपरवाही जरूर मिलेगी। 'साम्यवाद' निस्संदेह "जिसकी लाठी उसकी भैंस" के  बाद की उपज है।

एक आलेख में 'कम्यूनिस्ट' की तुलना नमक से की गई। पूरी दुनिया के हालात देखते हुए "सिर्फ नमक बतौर उपस्थिति" से काम नहीं बनने का... कम्युनिस्ट विचारधारा के क्रियान्वयन की जरूरत इससे कहीं ज्यादा है।

पर यह संघ बनाम वाम, मौजूदा केंद्र सरकार के बाद कुछ ज्यादा अराजक हो चला है।

मानो सड़क पर दो खूंखार कुत्ते लड़ रहें हो ..... नहीं -नहीं कुत्ते नहीं। दो बैल सड़क पर लड़ रहें हों, तो राहगीर के पास सहम कर बच निकलने के अलावा क्या विकल्प होता है।

जेएनयू मसले पर समूह पर 'उमर खालिद' का नाम भी न होना ही बता रहा है कि फिलहाल 'बहस' विचारधारा और पुर्वाग्रहों की है। जो कि शायद निरंतर चलेगी, आज जेएनयू के बहाने तो कल किसी और...

मौजूदा मसले पर भाजपा के भी हाथ काले है, और उमर खालिद की भी तैयारी कम नही थी। बेशक भाजपा ने 'देशभक्ति' पर नासमझी बरती है।

पर अगर 'आप' ने ठान ही लिया है कि 'देश' ने एकमत से सरकार चुनने में भूल की है और इसकी सजा देश को ही उठानी पड़ेगी, तो ठीक है जी आप समझदार। प्रकृति ने थोड़े न हर 'जीव में बुद्धि' डाली है।

I am with JNU (Kanhaiyya) not with JNU (Umar Khalid).

परेश जयश्री:-
JNU मुद्दे पर ZEE न्यूज़ के पत्रकार का इस्तीफा, कहा ऐसा नहीं किया तो खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाउँगा

विश्वदीपक

हम पत्रकार अक्सर दूसरों पर सवाल उठाते हैं लेकिन कभी खुद पर नहीं. हम दूसरों की जिम्मेदारी तय करते हैं लेकिन अपनी नहीं. हमें लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है लेकिन क्या हम, हमारी संंस्थाएं, हमारी सोच और हमारी कार्यप्रणाली लोकतांत्रिक है ? ये सवाल सिर्फ मेरे नहीं है. हम सबके हैं.

JNUSU अध्यक्ष कन्हैया कुमार को ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर जिस तरह से फ्रेम किया गया और मीडिया ट्रायल करके ‘देशद्रोही’ साबित किया गया, वो बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है. हम पत्रकारों की जिम्मेदारी सत्ता से सवाल करना है ना की सत्ता के साथ संतुलन बनाकर काम करना. पत्रकारिता के इतिहास में हमने जो कुछ भी बेहतर और सुंदर हासिल किया है, वो इन्ही सवालों का परिणाम है.

सवाल करना या न करना हर किसी का निजी मामला है लेकिन मेरा मानना है कि जो पर्सनल है वो पॉलिटिकल भी है. एक ऐसा वक्त आता है जब आपको अपनी पेशेवर जिम्मेदारियों और अपनी राजनीतिक-समाजिक पक्षधरता में से किसी एक पाले में खड़ा होना होता है. मैंने दूसरे को चुना है और अपने संस्थान ZEE NEWS से इन्ही मतभेदों के चलते 19 फरवरी को इस्तीफा दे दिया है.

मेरा इस्तीफा इस देश के लाखों-करोड़ों कन्हैयाओं और जेएनयू के उन दोस्तों को समर्पित है जो अपनी आंखों में सुंदर सपने लिए संघर्ष करते रहे हैं, कुर्बानियां देते रहे हैं.

(ज़ी न्यूज़ के नाम मेरा पत्र जो मेेरे इस्तीफ़े में संलग्न है)

“प्रिय ज़ी न्यूज़,

एक साल 4 महीने और 4 दिन बाद अब वक्त आ गया है कि मैं अब आपसे अलग हो जाऊं. हालांकि ऐसा पहले करना चाहिए था लेकिन अब भी नहीं किया तो खुद को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगा.

आगे जो मैं कहने जा रहा हूं वो किसी भावावेश, गुस्से या खीझ का नतीज़ा नहीं है, बल्कि एक सुचिंतित बयान है. मैं पत्रकार होने से साथ-साथ उसी देश का एक नागरिक भी हूं जिसके नाम अंध ‘राष्ट्रवाद’ का ज़हर फैलाया जा रहा है और इस देश को गृहयुद्ध की तरफ धकेला जा रहा है. मेरा नागरिक दायित्व और पेशेवर जिम्मेदारी कहती है कि मैं इस ज़हर को फैलने से रोकूं. मैं जानता हूं कि मेरी कोशिश नाव के सहारे समुद्र पार करने जैसी है लेकिन फिर भी मैं शुरुआत करना चहता हूं. इसी सोच के तहत JNUSU अध्यक्ष कन्हैया कुमार के बहाने शुरू किए गए अंध राष्ट्रवादी अभियान और उसे बढ़ाने में हमारी भूमिका के विरोध में मैं अपने पद से इस्तीफा देता हूं. मैं चाहता हूं इसे बिना किसी वैयक्तिक द्वेष के स्वीकार किया जाए.

असल में बात व्यक्तिगत है भी नहीं. बात पेशेवर जिम्मेदारी की है. सामाजिक दायित्वबोध की है और आखिर में देशप्रेम की भी है. मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इन तीनों पैमानों पर एक संस्थान के तौर पर तुम तुमसे जुड़े होने के नाते एक पत्रकार के तौर पर मैं पिछले एक साल में कई बार फेल हुए.

मई 2014 के बाद से जब से श्री नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने हैं, तब से कमोबेश देश के हर न्यूज़ रूम का सांप्रदायीकरण (Communalization) हुआ है लेकिन हमारे यहां स्थितियां और भी भयावह हैं. माफी चाहता हूं इस भारी भरकम शब्द के इस्तेमाल के लिए लेकिन इसके अलावा कोई और दूसरा शब्द नहीं है. आखिर ऐसा क्यों होता है कि ख़बरों को मोदी एंगल से जोड़कर लिखवाया जाता है ? ये सोचकर खबरें लिखवाई जाती हैं कि इससे मोदी सरकार के एजेंडे को कितना गति मिलेगी ?

हमें गहराई से संदेह होने लगा है कि हम पत्रकार हैं. ऐसा लगता है जैसे हम सरकार के प्रवक्ता हैं या सुपारी किलर हैं? मोदी हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं, मेरे भी है; लेकिन एक पत्रकार के तौर इतनी मोदी भक्ति अब हजम नहीं हो रही है ? मेरा ज़मीर मेरे खिलाफ बग़ावत करने लगा है. ऐसा लगता है जैसे मैं बीमार पड़ गया हूं.

हर खबर के पीछे एजेंडा, हर न्यूज़ शो के पीछे मोदी सरकार को महान बताने की कोशिश, हर बहस के पीछे मोदी विरोधियों को शूट करने की का प्रयास ? अटैक, युद्ध से कमतर कोई शब्द हमें मंजूर नहीं. क्या है ये सब ? कभी ठहरकर सोचता हूं तो लगता है कि पागल हो गया हूं.

आखिर हमें इतना दीन हीन, अनैतिक और गिरा हुआ क्यों बना दिया गया ?देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान से पढ़ाई करने और आजतक से लेकर बीबीसी और डॉयचे वेले, जर्मनी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में काम करने के बाद मेरी पत्रकारीय जमापूंजी यही है कि लोग मुझे ‘छी न्यूज़ पत्रकार’ कहने लगे हैं. हमारे ईमान (Integrity) की धज्जियां उड़ चुकी हैं. इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा ?

कितनी बातें कहूं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के खिलाफ लगातार मुहिम चलाई गई और आज भी चलाई जा रही है . आखिर क्यों ? बिजली-पानी, शिक्षा और ऑड-इवेन जैसी जनता को राहत देने वाली बुनियादी नीतियों पर भी सवाल उठाए गए. केजरीवाल से असहमति का और उनकी आलोचना का पूरा हक है लेकिन केजरीवाल की सुपारी किलिंग का हक एक पत्रकार के तौर पर नहीं है. केजरीवाल के खिलाफ की गई निगेटिव स्टोरी की अगर लिस्ट बनाने लगूंगा तो कई पन्ने भर जाएंगे. मैं जानना चाहता हूं कि पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत ‘तटस्थता’ का और दर्शकों के प्रति ईमानदारी का कुछ तो मूल्य है, कि नहीं ?

दलित स्कॉलर रोहित वेमुला की आत्महत्या के मुद्दे पर ऐसा ही हुआ. पहले हमने उसे दलित स्कॉलर लिखा फिर दलित छात्र लिखने लगे. चलो ठीक है लेकिन कम से कम खबर तो ढंग से लिखते.रोहित वेमुला को आत्महत्या तक धकेलने के पीछे ABVP नेता और बीजेपी के बंडारू दत्तात्रेय की भूमिका गंभीरतम सवालों के घेरे में है (सब कुछ स्पष्ट है) लेकिन एक मीडिया हाउस के तौर हमारा काम मुद्दे को कमजोर (dilute) करने और उन्हें बचाने वाले की भूमिका का निर्वहन करना था.

मुझे याद है जब असहिष्णुता के मुद्दे पर उदय प्रकाश समेत देश के सभी भाषाओं के नामचीन लेखकों ने अकादमी पुरस्कार लौटाने शुरू किए तो हमने उन्हीं पर सवाल करने शुरू कर दिए. अगर सिर्फ उदय प्रकाश की ही बात करें तो लाखों लोग उन्हें पढ़ते हैं. हम जिस भाषा को बोलते हैं, जिसमें रोजगार करते हैं उसकी शान हैं वो. उनकी रचनाओं में हमारा जीवन, हमारे स्वप्न, संघर्ष झलकते हैं लेकिन हम ये सिद्ध करने में लगे रहे कि ये सब प्रायोजित था. तकलीफ हुई थी तब भी, लेकिन बर्दाश्त कर गया था.

लेकिन कब तक करूं और क्यों ??

मुझे ठीक से नींद नहीं आ रही है. बेचैन हूं मैं. शायद ये अपराध बोध का नतीजा है. किसी शख्स की जिंदगी में जो सबसे बड़ा कलंक लग सकता है वो है – देशद्रोह. लेकिन सवाल ये है कि एक पत्रकार के तौर पर हमें क्या हक है कि किसी को देशद्रोही की डिग्री बांटने का ? ये काम तो न्यायालय का है न ?

कन्हैया समेत जेएनयू के कई छात्रों को हमने ने लोगों की नजर में ‘देशद्रोही’ बना दिया. अगर कल को इनमें से किसी की हत्या हो जाती है तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा ? हमने सिर्फ किसी की हत्या और कुछ परिवारों को बरबाद करने की स्थिति पैदा नहीं की है बल्कि दंगा फैलाने और गृहयुद्ध की नौबत तैयार कर दी है. कौन सा देशप्रेम है ये ? आखिर कौन सी पत्रकारिता है ये ?

क्या हम बीजेपी या आरएसएस के मुखपत्र हैं कि वो जो बोलेंगे वहीं कहेंगे ? जिस वीडियो में ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ का नारा था ही नहीं उसे हमने बार-बार हमने उन्माद फैलाने के लिए चलाया. अंधेरे में आ रही कुछ आवाज़ों को हमने कैसे मान लिया की ये कन्हैया या उसके साथियों की ही है? ‘भारतीय कोर्ट ज़िंदाबाद’ को पूर्वाग्रहों के चलते ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ सुन लिया और सरकार की लाइन पर काम करते हुए कुछ लोगों का करियर, उनकी उम्मीदें और परिवार को तबाही की कगार तक पहुंचा दिया. अच्छा होता कि हम एजेंसीज को जांच करने देते और उनके नतीजों का इंतज़ार करते.

लोग उमर खालिद की बहन को रेप करने और उस पर एसिड अटैक की धमकी दे रहे हैं. उसे गद्दार की बहन कह रहे हैं. सोचिए ज़रा अगर ऐसा हुआ तो क्या इसकी जिम्मेदारी हमारी नहीं होगी ? कन्हैया ने एक बार नहीं हज़ार बार कहा कि वो देश विरोधी नारों का समर्थन नहीं करता लेकिन उसकी एक नहीं सुनी गई, क्योंकि हमने जो उम्माद फैलाया था वो NDA सरकार की लाइन पर था. क्या हमने कन्हैया के घर को ध्यान से देखा है ? कन्हैया का घर, ‘घर’ नहीं इस देश के किसानों और आम आदमी की विवशता का दर्दनाक प्रतीक है. उन उम्मीदों का कब्रिस्तान है जो इस देश में हर पल दफ्न हो रही हैं. लेकिन हम अंधे हो चुके हैं !

मुझे तकलीफ हो रही है इस बारे में बात करते हुए लेकिन मैं बताना चाहता हूं कि मेरे इलाके में भी बहुत से घर ऐसे हैं. भारत का ग्रामीण जीवन इतना ही बदरंग है.उन टूटी हुई दीवारों और पहले से ही कमजोर हो चुकी जिंदगियों में हमने राष्ट्रवादी ज़हर का इंजेक्शन लगाया है, बिना ये सोचे हुए कि इसका अंजाम क्या हो सकता है! अगर कन्हैया के लकवाग्रस्त पिता की मौत सदमें से हो जाए तो क्या हम जिम्मेदार नहीं होंगे ? ‘The Indian Express’ ने अगर स्टोरी नहीं की होती तो इस देश को पता नहीं चलता कि वंचितों के हक में कन्हैया को बोलने की प्रेरणा कहां से मिलती है !

रामा नागा और दूसरों का हाल भी ऐसा ही है. बहुत मामूली पृष्ठभूमि और गरीबी से संघर्ष करते हुए ये लड़के जेएनयू में मिल रही सब्सिडी की वजह से पढ़ लिख पाते हैं. आगे बढ़ने का हौसला देख पाते हैं. लेकिन टीआरपी की बाज़ारू अभीप्सा और हमारे बिके हुए विवेक ने इनके करियर को लगभग तबाह ही कर दिया है.

हो सकता है कि हम इनकी राजनीति से असहमत हों या इनके विचार उग्र हों लेकिन ये देशद्रोही कैसे हो गए ? कोर्ट का काम हम कैसे कर सकते हैं ? क्या ये महज इत्तफाक है कि दिल्ली पुलिस ने अपनी FIR में ज़ी न्यूज का संदर्भ दिया है ? ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली पुलिस से हमारी सांठगांठ है ? बताइए कि हम क्या जवाब दे लोगों को ?

आखिर जेएनयू से या जेएनयू के छात्रों से क्या दुश्मनी है हमारी ? मेरा मानना है कि आधुनिक जीवन मूल्यों, लोकतंत्र, विविधता और विरोधी विचारों के सह अस्तित्व का अगर कोई सबसे खूबसूरत बगीचा है देश में तो वो जेएनयू है लेकिन इसे गैरकानूनी और देशद्रोह का अड्डा बताया जा रहा है.

मैं ये जानना चाहता हूं कि जेएनयू गैर कानूनी है या बीजेपी का वो विधायक जो कोर्ट में घुसकर लेफ्ट कार्यकर्ता को पीट रहा था ? विधायक और उसके समर्थक सड़क पर गिरे हुए CPI के कार्यकर्ता अमीक जमेई को बूटों तले रौंद रहे थे लेकिन पास में खड़ी पुलिस तमाशा देख रही थी. स्क्रीन पर पिटाई की तस्वीरें चल रही थीं और हम लिख रहे थे – ओपी शर्मा पर पिटाई का आरोप. मैंने पूछा कि आरोप क्यों ? कहा गया ‘ऊपर’ से कहा गया है ? हमारा ‘ऊपर’ इतना नीचे कैसे हो सकता है ? मोदी तक तो फिर भी समझ में आता है लेकिन अब ओपी शर्मा जैसे बीजेपी के नेताओं और ABVP के कार्यकर्ताओं को भी स्टोरी लिखते समय अब हम बचाने लगे हैं.

घिन आने लगी है मुझे अपने अस्तित्व से. अपनी पत्रकरिता से और अपनी विवशता से. क्या मैंने इसलिए दूसरे सब कामों को छोड़कर पत्रकार बनने का फैसला बनने का फैसला किया था. शायद नहीं.

अब मेरे सामने दो ही रास्ते हैं या तो मैं पत्रकारिता छोड़ूं या फिर इन परिस्थितियों से खुद को अलग करूं. मैं दूसरा रास्ता चुन रहा हूं. मैंने कोई फैसला नहीं सुनाया है बस कुछ सवाल किए हैं जो मेरे पेशे से और मेरी पहचान से जुड़े हैं. छोटी ही सही लेकिन मेरी भी जवाबदेही है. दूसरों के लिए कम, खुद के लिए ज्यादा. मुझे पक्के तौर पर अहसास है कि अब दूसरी जगहों में भी नौकरी नहीं मिलेगी. मैं ये भी समझता हूं कि अगर मैं लगा रहूंगा तो दो साल के अंदर लाख के दायरे में पहुंच जाऊंगा. मेरी सैलरी अच्छी है लेकिन ये सुविधा बहुत सी दूसरी कुर्बानियां ले रही है, जो मैं नहीं देना चाहता. साधारण मध्यवर्गीय परिवार से आने की वजह से ये जानता हूं कि बिना तनख्वाह के दिक्कतें भी बहुत होंगी लेकिन फिर भी मैं अपनी आत्मा की आवाज (consciousness) को दबाना नहीं चाहता.

मैं एक बार फिर से कह रहा हूं कि मुझे किसी से कोई व्यक्तिगत शिकायत नहीं है. ये सांस्थानिक और संपादकीय नीति से जुडे हुए मामलों की बात है. उम्मीद है इसे इसी तरह समझा जाएगा.

यह कहना भी जरूरी समझता हूं कि अगर एक मीडिया हाउस को अपने दक्षिणपंथी रुझान और रुचि को जाहिर करने का, बखान करने का हक है तो एक व्यक्ति के तौर पर हम जैसे लोगों को भी अपनी पॉलिटिकल लाइन के बारे में बात करने का पूरा अधिकार है. पत्रकार के तौर पर तटस्थता का पालन करना मेरी पेशेवर जिम्मेदारी है लेकिन एक व्यक्ति के तौर पर और एक जागरूक नागरिक के तौर पर मेरा रास्ता उस लेफ्ट का है जो पार्टी द्फ्तर से ज्यादा हमारी ज़िंदगी में पाया जाता है. यही मेरी पहचान है.

और अंत में एक साल तक चलने वाली खींचतान के लिए शुक्रिया. इस खींचतान की वजह से ज़ी न्यूज़ मेरे कुछ अच्छे दोस्त बन सके.

सादर-सप्रेम, 
विश्वदीपक”

सत्यनारायण:-
फासीवाद का नया सौंदर्यशास्त्र :नामवर सिंह(Jnu प्रकरण)
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“क्रूरता की इस संस्कृति का एक अमोघ अस्त्र है भव्य प्रदर्शन.समय-समय पर यहाँ-वहाँ होने वाले सांप्रदायिक दंगे इसी भव्य-प्रदर्शन के नमूने हैं.बाबरी मस्जिद का विध्वंस इस दौर का सबसे भव्य-प्रदर्शन था. संभवतः पहला. कारगिल युद्ध का भव्य-प्रदर्शन ताज़ा मिसाल है जिसमे शहीदों की शवयात्रा भी शोक से अधिक प्रदर्शन की वस्तु बन गई. दरअसल यह सब फासीवाद का नया सौंदर्यशास्त्र है. शानदार सैनिक परेड,शाखामृग स्वयंसेवकों की अनुशासित रैली ,लहराते भगवे झंडों का विशाल समुद्र सदृश जुलूस आदि की आतंकवादी छवियाँ इसी सौंदर्यशास्त्र के सर्जनात्मक रूप हैं. कहना न होगा कि इन सबकी चरम परिणति युद्ध है और पोकरण में परमाणु बम का विस्फोट तो निश्चय ही शक्ति-प्रदर्शन की पराकाष्ठा है. उस जोखिम-भरे स्थल पर शक्ति-पीठ स्थापित करने की परिकल्पना उसी प्रदर्शन-प्रिय मानसिकता की अभिव्यक्ति है ! उसे बचकानापन कहकर टाल देना कहीं  बड़ा बचकानापन है.कहना न होगा कि युद्धोन्माद इस फासीवादी संस्कृति का स्थायी भाव है जिसके विभाव,अनुभाव,हाव,संचारी भाव आदि इतने हैं कि भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में भी खोजे न मिलेंगे .इन सबके लिए एक नए नाट्यशास्त्र की आवश्यकता है.”   (ज़माने से दो दो हाथ,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली,2011,पृ.17 -18 )

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