मित्रो आज पढ़ते हैं संजय जोठे जी का एक लेख ...... सत्य, सत्याग्रह, शूद्र, दलित और भारतीय नैतिकता
संजय जोठे ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतरराष्ट्रीय विकास में परास्नातक हैं, वर्तमान में TISS मुम्बई से पीएचडी कर रहे हैं। फोर्ड फाउंडेशन इंटरनेशनल फेलो हैं और लीड इंडिया फेलो हैं। मध्यप्रदेेश के भोपाल में निवास करते हैं। सामाजिक विकास के मुद्दों सहित पर पिछले 14 वर्षों से विभिन्न संस्थाओं के साथ कार्यरत है। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब प्रकाशित हो चुकी है और एक अन्य किताब प्रकाशनाधीन है। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में भारतीय अध्यात्म और समाज सेवा/कार्य सहित सांस्कृतिक विमर्श के मुद्दों पर शोध आधारित लेखन में संलग्न हैं।
सामाजिक राजनीतिक आन्दोलनों में एक लंबे समय से “आत्मपीड़क सत्याग्रह” प्रचलन में बने हुए हैं. ऐसे भूख हड़ताल, उपोषण, आमरण अनशन जैसे तरीकों से समाज के एक बड़े वर्ग को झकझोरने में सफलता भी मिलती आई है. ये तकनीकें और “टूल” सफल भी रहे हैं और उनकी सफलताओं से जन्मी असफलताओं को हमने खूब भोगा भी है. पूना पैक्ट की प्रष्ठभूमि में किया गया आमरण अनशन, या भारत की आजादी की रात फैले दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक दंगे को शांत करने के लिए किया गया अनशन हो या पूर्वी पश्चिमी पाकिस्तान की तरफ बलात भेजे जा रहे अल्पसंख्यकों की चिंता से उभरा अनशन की धमकी हो, गांधी जी ने अनेकों अवसरों पर अनशन और उपोषण को एक नैतिक उपाय या उपकरण की तरह इस्तेमाल किया है और उनके सदपरिणामों और दुष्परिणामों ने मिलकर ही उस समाज की रचना की है जिसमे बैठकर हम इन पंक्तियों को लिख या पढ़ रहे हैं.
निश्चित ही साधन शुद्धि की बात करने वाले गांधीजी का आग्रह जिसे वे “सत्याग्रह” कहते रहे थे, एक शक्तिशाली रचना थी जिसमे समाज की “प्रचलित नैतिकता” को सम्मोहित करने और झकझोर देने की बड़ी ताकत थी. एक “अधनंगे हिन्दू संत” की छवि गढ़ने में उन्होंने जो सचेतन निवेश किया था जिसकी सफलता ने उन्हें एक ख़ास उंचाई तक पहुँचाया था, उस उंचाई पर साधन की शुद्धता की बहस में साध्य की शुद्धता की बहस को एकदम से विमर्ष से गायब कर देने में सफल हो सके थे. हालाँकि डॉ. अंबेडकर जैसे लोगों ने साध्य की शुद्धता पर साधन, साध्य और शुद्धता जैसे शब्दों की महिमा को अस्वीकार करते हुए बड़े तार्किक प्रहार किये थे लेकिन उन प्रहारों का असर उतना नहीं हुआ जितना होना चाहिए था. ये असर हो भी नहीं सकता था, और ये विवशता आज भी जस की तस बनी हुई है. या कहें कि ये विवशता अब कहीं अधिक बढ़ गयी है, आज धर्मप्रेम, राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रवाद की परिभाषाएं जिस अर्थ में बदली हैं और ‘गांधी के रामराज्य’ पर ‘रामराज्यवादियों का गांधी’ जिस तरह हावी हो चुका है उस हालत में अब साधन या साध्य शुद्धि की बहस में अब गांधी खुद भी आ जाएँ तो वे भी निराश होकर लौट जायेंगे.
सत्याग्रह का यह सत्य और ये साधन शुद्धि क्या है? आइये इसमें प्रवेश करते हैं. गांधीजी जिस ढंग की नैतिकता और शुचिता को समाज मनोविज्ञान के बदलाव के एक उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हैं वह एक ख़ास तरह की प्रष्ठभूमि से आती है. असल में वे शुद्ध साधन से शुद्ध साध्य तक नहीं पहुँच रहे हैं बल्कि शुद्ध साध्य की अपनी विशिष्ट कल्पना से किसी शुद्ध साधन को ‘बेक प्रोजेक्शन’ की तरह निर्मित कर रहे हैं. सरल भाषा में कहें तो वे पहले एक अहिंसक, नैतिक, धर्मप्राण, हिन्दू अर्थ के रामराज्य की कल्पना करते हैं और उसे साकार करने के लिए जो भी करणीय है उसे “शुद्ध साधन” की तरह प्रचारित और प्रयोग करने लगते हैं. ऐसे प्रयासों को वे धर्म, अहिंसा मोक्ष और नैतिकता की इबारत में ऐसे बांधते हैं कि साधन शुद्धि ही एकमात्र बहस बन जाती है. और बहुत सावधानी से साध्य की शुद्धि की कोई बहस उभरने ही नहीं दी जाती. वे साध्य को बिना शर्त शुद्ध और सर्वहितकारी मानकर ही चलते हैं. इसमें सर्व और हित की उनकी अपनी विशिष्ट परिभाषाएं भी शामिल हैं जिनके निर्माण और संशोधनों का अधिकार उन्ही के पास सुरक्षित होता है. विनोबा या कन्हैयालाल मुंशी जैसे पट्टशिष्य तक उस परिभाषा में कोई बदलाव नहीं कर सकते.
सर्वोदय की कल्पना उन्होंने जिस विचार के साथ जोड़ी वह भी जानने योग्य है. रस्किन बांड से गांधी जी खासे प्रभावित थे, उन्ही की एक पुस्तक का गांधीजी ने गुजराती में ‘सर्वोदय’ के नाम से अनुवाद किया था. उनके लिए सर्वोदय का अर्थ था सबका उदय, या कहें सबका विकास, अब इस सर्वोदय को वे जिस रूप में पेश करते हैं उस अर्थ में सर्वोदय भारत का पुराना आदर्श है रहा है जिसमे भारत के उपनिषदों और धर्मशास्त्रों के पवित्र वाक्य “सर्वे भवन्तु सुखिनः” ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’, ‘वसुधैव कुटुंबकम’, अथवा ‘सोऽहम्’ और ‘तत्त्वमसि’ आदि शामिल हैं. हालाँकि हम देख चुके हैं कि इस देश में जिस दौर में इन महावाक्यों की महिमा अपने शिखर पर थी उसी दौर में मानवता के खिलाफ सबसे बड़े षड्यंत्र इसी देश में इन्ही महावाक्यों को जपने वाले लोगों ने रचे थे. सर्वं खल्विदं ब्रह्मम हो या सर्वे भवन्तु सुखिनः हो उसमे इस्तेमाल किया गया यह शब्द “सर्व” असल में कुछ ख़ास “टर्म्स एक कंडीशंस” के साथ ‘अप्लाय’ होता था. इस सर्व में शूद्र और अतिशूद्रों सहित स्वयं सवर्ण द्विजों की स्त्रीयां भी शामिल न थीं. ऐसे महावाक्यों के सर्जकों के दौर में समाज में भी इन नैतिक मूल्यों का जनमानस में कोई प्रभाव नहीं हुआ था, छुआछूत, स्त्री दमन, शिक्षा से वंचित करना आदि धर्माग्यायें मजे से चलती रही. ऐसे में आज हम यह कल्पना करें कि वे ही पुराने नैतिक मूल्य हमारे समाज में यूरोपीय अर्थ के लोकतंत्र, समाजवाद और ‘सर्वोदय’ को आज संभव बना सकते हैं तो शायद हम गलत उम्मीद कर रहे हैं.
अब हमारे लिए यह जानना भी जरूरी है कि ऐसे साध्य और उससे जन्मे ये साधन आते कहाँ से हैं? ये एक ख़ास तरह के धर्मदर्शन और तात्विक मान्यता से आते हैं जो व्यक्ति, व्यक्तित्व, समाज, धर्म, जीवन और जीवन के आत्यंतिक लक्ष्यों सहित इन लक्ष्यों के सन्दर्भ में व्यक्तियों के करणीय को एक विशेष रंग में रंगता है. इन रंगों को उभारने वाले सारे साधन “शुद्ध” हैं और इन रंगों को चनौती देने वाले या इनसे “तार्किक कंट्रास्ट” पैदा करने वाले साधन “अशुद्ध” हैं. उदाहरण के लिए किसी भी समाज की प्रचलित नैतिकता में एक संत या परोपकारी व्यक्ति का भूख से मर जाना पूरे समाज के लिए एक भारी बदनामी और चिंता का विषय बन जाता है. वहीं एक अज्ञात व्यक्ति का भूख से मर जाना किसी को दुखी नहीं करता या एक अपराधी, राष्ट्रद्रोही, या धर्मनिन्द्क सिद्ध कर दिए गये व्यक्ति को भूखों मार देना पूरे समाज को खुश भी कर सकता है.
सत्याग्रह के सत्य की अगर बात करें तो वह भी बड़ा खतरनाक है. भारतीय वैदिक धारणा या उपनिषदिक धारणा में सत्य एक ऐसा फिक्स्ड पॉइंट है जिसके बारे में सैधांतिक रूप से (कथनी में) यह बात फैलाई गयी है कि इस “एक” सत्य की तरफ अनंत रास्ते जा सकते हैं और जिसकी अनंत व्याख्याएं हो सकती हैं. असल में यह एक परमात्मा की धारणा का ही विस्तार है. लेकिन व्यवहार में (करनी) में देखें तो इस तथाकथित सत्य तक पहुँचने के लिए अनंत मार्ग नहीं हैं मार्ग एक ही है और उस पर चलने वाले चुनिन्दा लोग भी विशेष परमिट लेकर ही चलते आये हैं. उस मार्ग में नास्तिक, अनीश्वरवादी, वेदविरोधी या विधर्मी को चलने का कोई अधिकार नहीं है. हाँ ये अलग बात है कि इन श्रेणियों से आने वाले बुद्ध, महावीर, गोरख और कबीर जैसे लोगों ने वैदिक, औपनिषदिक या हिन्दू परिभाषाओं कि चिंता न करते हुए इतनी महिमा प्रदर्शित की कि बाद के वैदिकों हिन्दुओं ने इन व्यक्तियों को भी अपनी सनातन षड्यंत्रकारी “सर्वसमावेशी” खोल में निगल लिया. इस तरह ऊपर ऊपर दिखता है कि ये सर्वसमावेशी खोल सबको सत्यान्वेषण की एक सी सुविधा या अनुमति देती है लेकिन हकीकत में ये होता नहीं है.
अब मूल मुद्दे पर आते हुए अगर हम देखें कि इस मुल्क में सत्य, नैतिकता और आग्रह की ये परिभाषाएं हैं तो “सत्याग्रह” का क्या अर्थ और परिणाम हो सकता है? सत्य की परिभाषा और लोकमानस में उसकी स्वीकृति एक ख़ास रंग में रंगी हुई है. एक आस्तिक धर्मभीरु और रुढ़िवादी अर्थ का सत्य ही हमारे लोकमानस में स्वीकृत है. आजकल इस धर्मभीरुता के गर्भ से जन्मा राष्ट्रवाद और देशप्रेम इस एक ख़ास किस्म की नैतिकता को आकार दे रहा है जिसमे न केवल राजनीतिक सामाजिक शुचिता की परिभाषाएं तेजी से बदल रही हैं बल्कि स्वयं नैतिकता कि परिभाषा भी अब बड़े अनैतिक अर्थों में होने लगी है.
अब मूल रूप से प्रश्न ये है कि आजकल सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं और मुक्तिकामियों में जिस तरह से सत्याग्रह प्रचलित हो रहा है उसे किस नजर से देखा जाये? उसकी सफलता असफलता सहित उसकी व्यावहारिकता और अव्यावहारिकता को किस ढंग से देखा जाए? क्या ये कार्यकर्ता ये मानकर चल रहे हैं कि समाज इतना नैतिक है कि उनके भूखे रहने पर उसे तकलीफ होगी? क्या वे ये मानकर चल रहे हैं कि उन्होंने गांधी या विनोबा की तरह अधनंगे फकीर की छवि गढ़ने में पर्याप्त ‘निवेश’ कर लिया है? क्या वे ये मानकर चल रहे हैं कि जिस नैतिकता या सामूहिक शुभ को वे सम्मान देते हैं जनता भी उसे उसी तरह सम्मान दे पा रही है? और इन सबसे बड़ा प्रश्न ये कि ये साध्य, साधन, शुचिता आदि का ये सौंदर्यशास्त्र जिस सांस्कृतिक प्रष्ठभूमि में जन्मा है क्या वह संस्कृति और उसका अतीत आजकल के लोकतांत्रिक या समाजवादी आदर्शों के साथ कम्पेटिबल है?
इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है – “नहीं”. न तो हमारे आज के मुक्तिकामियों ने अपनी धार्मिक अर्थ की फकीराना या शहीदाना छवि निर्माण के लिए पर्याप्त निवेश किया है (कई लोग तो करना भी नहीं चाहेंगे) न ही सामान्य जन मानस में एक पवित्र पुरुष या नैतिक पुरुष के रूप में अपनी छवि स्थापित की है और ना ही संस्कृति या नैतिकता की परिभाषाओं से आने वाले पारम्परिक करणीयों का उन्होंने पालन किया है. ऐसे में वे किस अधिकार से जनता को या सरकार को नैतिक बल से झुकाना चाहते हैं? ऐसी कौनसी नैतिकता उन्होंने इस जनता में या सरकार में देख ली है? इसका भी यही उत्तर है कि जनता की नैतिकता भी कंडीशंड की जा चुकी है. ऐसी जनता की नैतिकता से उम्मीद रखकर क्या अपनी जान भूखहडताल में दांव पर लगाना समझदारी है? हरगिज नहीं. न तो सरकारें इस योग्य हैं कि उनके आगे नैतिकता का या सत्य का आग्रह किया जा सके और न ही जनता इस योग्य रह गयी है कि उससे नैतिकता का कोई आग्रह किया जा सके. लेकिन यह जानते हुए भी हमारे मुक्तिकामी किस उम्मीद में भूख हड़ताल पर बैठ जाते हैं? निश्चित ही वे संविधान, विधि और कानून द्वारा बनाये गये नियमों से परिभाषित अधिकारों को हासिल करने की उम्मीद में “व्यवस्था” के सामने उम्मीद लगाए बैठे हैं. अब गौर कीजिये इस बिंदु पर वे समाज की नैतिकता से नहीं बल्कि “व्यवस्था के अनुशासन” से उम्मीद कर रहे हैं. इस क्रम में वे व्यवस्था को “अव्यवस्था फ़ैल जाने का भय” दिखाते हुए समाज की नैतिकता के सक्रिय होकर अचानक सड़कों पर उतर आने की झूठी उम्मीद कर रहे हैं. ठीक से देखा जाए तो बस इस दूसरी उम्मीद में ही सारी भूल हो रही है. पहली उम्मीद तक कोई खराबी नहीं है.
सरल शब्दों में कहें तो गांधी या विनोबा की तरह पारम्परिक संत या फकीर या ब्रह्मचारी या अणुव्रती की तरह स्थापित हुए बिना आप इस देश की जनता की नैतिकता को न तो ललकार सकते हैं न ही उससे कोई उम्मीद कर सकते हैं. इसीलिये अंबेडकर ने कभी भारतीय समाज की नैतिकता को ललकारने का वैसा प्रयास नहीं किया जैसा गांधी करते रहे थे. अंबेडकर जानते थे कि इस धर्मभीरु समाज की पाखंडी नैतिकता ही असली समस्या है, जिस नैतिकता ने भारत को सडाया है उससे क्या आग्रह करना? या यूँ कहें कि जहर के कुवें से अपने लोगों के लिए ही पीने का पानी मांगना अंबेडकर कैसे स्वीकार करेंगे? इस सच्चाई को आज के सामाजिक क्रान्तिक्रारियों पर लागू करके देखिये. वे एक दोमुही और असमंजस की स्थिति में फंसे हैं. एक तरफ वे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संविधान आदि के आदर्शों की छाँव में बुनी गयी लेकिन धर्मभीरुओं/ धार्मिक षडयंत्रकारियों द्वारा चलाई जा रही व्यवस्था से कोई आग्रह कर रहे हैं और दूसरी तरफ इस “सत्याग्रह” के लिए उस जनता के आक्रोश से भी उम्मीद लगाए बैठे हैं जिसके लिए ‘सत्य’ ‘नैतिकता’ ‘शुचिता’ ‘आग्रह’ सहित इन सबके प्रति ‘अधिकार’ की परिभाषाएं क्रान्ति विरोधी और बदलाव विरोधी परिभाषाएं हैं. ऐसे में न तो ये व्यवस्था उनकी सुनेगी और न ये जनता उनकी मौत पर आंदोलित होगी. रोहित वेमुला की मौत पर भारत की आम जनता ने कितने आंसू बहाए ये बताने की जरूरत नहीं है. ये ऐसा ही है जैसे आप एक खूंखार धर्मगुरु के घर के सामने धरना देकर बैठ जाएँ और उसी धर्मगुरु के प्रवचनों पर कीर्तन करने वाली जनता से उम्मीद करें कि वो जनता आपकी भूख हड़ताल या गिरती सेहत से प्रभावित होकर अपने धर्मगुरु के खिलाफ सड़कों पर उतर आये. अगर आप ऐसी उम्मीद कर रहे हैं तो आप आत्महत्या कर रहे हैं. ये व्यर्थ की भावुकता भी है और रणनीतिक अपरिपक्वता भी है.
ऐसे में क्या किया जा सकता है? क्या उपाय है? इसका एक ही उत्तर है कि जिस समाज की अनैतिकता ने इस व्यवस्था को जन्म दिया है या संविधान और कानून को ठीक ढंग से अमल में आने से रोका है उस नैतिकता से उम्मीद छोड़ दीजिये. व्यवस्था से शिकायत है तो ‘शिकायत निवारण की जो विधिसम्मत व्यवस्था’ है उसे अमल में लाइए. जनांदोलन और जनजागरण के लिए सड़कों पर “ज़िंदा” उतरिये, “लाश की तरह” आप एक ही बार शोभायात्रा निकाल सकते हैं. इससे काम आसान नहीं बल्कि मुश्किल होता है. ऐसे भावुक शहीदों का वही जहरीली नैतिकता कैसा दुरूपयोग करती है ये हम भगत सिंह और विवेकानन्द के जीवन से सीख सकते हैं. शहीद या विक्टिम बनने के अपने फायदे हैं लेकिन वे फायदे एक नैतिक समाज में एक सभ्य समाज में ही संभव हैं. भारत जैसे अनैतिक और असभ्य समाज में सिर्फ उन्ही लोगों का सत्याग्रह सफल हो सकता है जिनका सत्य धर्मान्ध व्यवस्था के सत्य की परछाई की तरह जन्मा हो. लेकिन अगर आप पश्चिमी मूल्यों से प्रेरित समाजवादी, लोकतांत्रिक, सेक्युलर और सहज मानवीय नैतिकता से भरी व्यवस्था के लिए संघर्षरत हैं तो आपको धर्मान्धों, गांधीवादियों, सर्वोदयवादियों और राष्ट्रवादियों के ढंग के सत्याग्रह और आत्मपीडन से बचना चाहिए.
ग्राउन्ड रिपोर्ट इंडिया से साभार
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