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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

17 जून, 2019


गुजराती कहानी


गरासणी

झवेरचंद मेघाणी

अनुवाद: रेखा पंजाबी

“गेमाभाई, मेरी लड़की को आज उसके ससुराल रखने जाना है, आप हमारे साथ चलोगे ना?”
“नहीं दरबार, जहाँ त्रीन पैसे का भी जोखम न हो वहाँ मेरा काम नहीं”। गेमा के साथ किसीको विदा करवाना हो तो पांच-पच्चीस हजार के गहने न हो तो मैं गांव मे ही अच्छा हूँ, मुझे बहुत काम है।



रेखा पंजाबी



चारपाई पर सोते-सोते हुक्के का घूंट लेते-लेते ऐसी आवाज से बोलता हुआ व्यक्ति गेमा पच्छे गांव का कारड़ियो राजपूत है। गोहिलवाड़ के छोटे से पंथक में पच्छे गांव के अंदर इस तरहके चालीस-पचास कारडियों के पास गरासियाओं के पगार खाते है।  जब किसीको विदा करना हो तो वे लोग उनके साथ जाते है, और बखशिश के रूप में मिली हुई ज़मीन (भूँडरी) पर काम के लिए उन सभी से भी काम लिया जाता। परंतु इन सभी कारडियों के बीच गेमा सबसे बड़ा पहलवान था। जिस बैलगाड़ी के साथ गेमा किसीको विदा करवाने जाता , उस बैलगाड़ी पर कोई भी लूटेरा आ ही नहीं सकता। जैसे तैसे को गेमा असभ्य उत्तर दे देता था, गेमा के लिए किसीको विदा करना कोई खेल नहीं है।





एक दिन गांव के बापू खुमाणसंगजी की ओर से गेमा को बुलाया गया। खुमाणसंगजी की बेटी रूपाड़ी बा भाल के हेबतपुर गांव में अपने ससुराल में है। वहाँ उस लड़की की गोदभराई थी। गोदभराई के बाद उसे वहाँ से लेकर आना था। दो लड़कियाँ, एक वेलड़ू, भेळो, गेमो और एक कारडिया यह सभी लोग हेबतपुर गांव में उस लड़की को लेने गये थे।

हेबतपुर से पच्छे गांव आते बीच में मोणपुर गांव तक दश गाउ (किलोमीटर) तक बहुत बड़ा भाल का रण था। उस रण में सुबह सफर नहीं किया जाता था, क्योंकि पानी के बिना इंन्सान की मृत्यु हो जाये। इसलिए रूपाड़ीबा को रात को वहाँ से विदा करवाया। एक बैलगाड़ी में रूपाड़ीबा और दो लड़कियों को बिठाया, और दूसरी बैलगाड़ी में गेमा और उसका साथी और साथ ही में पानी के दो मटके। दोनों बैलगाड़ीयों को जोड़कर शाँम को तारों की छांव में वह सभी लोग निकल चले, रूपाड़ीबा के साथ एक डब्बा था। उसमें पांचहज़ार के गहने थे। उनके साथ बहुत सारे गहने थे।

जैसे-जैसे बैलगाड़ी चलती गयी वैसे-वैसे गेमा बैलगाड़ी में पीछे बैठकर सोने लगा। बहुत से अंधकार में उसका नांक भी बोलने लगा, बैलगाड़ीवाले ने एक बार कहां, गेमाभाई रात बहुत हो गयी है, सोने जैसा नहीं है, बापा! आप होंशियार रहेना।
गेमा ने उत्तर दिया, तु मुझे पहचानता है ना मैं गेमा? जहाँ गेमा हो वहाँ चोर-लूटारू देखते भी नहीं है, तू अपने आप चुप-चाप बैलगाड़ी को चलाया कर
गेमा के नाक बोलने लगा, उसके नसकोरे आगे की बैलगाड़ी मैं बैठी हुई रूपाड़ी बा को सुनाई देने लगे। बैलगाड़ी में जो परदा होता है उसे उठाकर रूपाड़ी बा ने भी कहा “कि गेमाभाई बापा, अभी आप सो नहीं सकते”।
भरी नींद में गेमा बोलता रहा “मैं कौन? मैं गेमा”

ऐसे करते-करते वेळावदर गांव भी चला गया। परंतु वहाँ से डेढ-दो गांव पर एक तलाव आया। बैलगाड़ी चलानार की नज़र तलाव के आसपास गई, उसने देखा तो तलाव के आसपास आग जल रही थी, उसे शंका हुई कि तलाव के आसपास कोई जाग रहा है। गेमा को उसने बोला कि गेमाभाई गलती(बेखबरी) करने जैसा नहीं है।
 गेमा का तो एक ही उत्तर था मुझे पहचानता है ना “मैं कौन मैं गेमा”
जब बैलगाड़ी तलाव के पास पहुंची तब बैलगाड़ी चलनार को दस-बारह इन्सान एकसाथ दिखाई दिये। वो बहुत डर गया, गेमा को उठाने की कोशिश की , परंतु वो तो (गेमा) उठा नहीं। वो कौन, वो तो गेमा।
देखते-देखते में रात अधिक हो गयी और बारह जन की टोली बैलगाड़ी को सभी ओर से घेर कर खड़ी हो गयी। गेमे की आंख खुली और वो चिल्लाया, मुझे पहचनाते हो ना मैं कौन? मैं गेमा। वहां तो उसे एक मार दे दिया और गेमा को नीचे ज़मीन पर गिरा दिया।

एक इंन्सान ने कहाँ कि चलो जल्द से रणगोळीटो कर लो।
लुटेरों ने गेमे को बिठाकर हाथ और पांव को एक ही बंधन से बांध दिया। पैर के घुंटन के नीचे के हिस्से में एक लकड़ी रखी और उसे एक धक्का देकर गोल की तरह घूमता-घूमता फेंक दिया। इस कार्य को ‘रणगोळीटो’ कहां जाता है। रणगोळीटो का अर्थ रण का गेंद। इंन्सान गेंद  की तरह हो जाता है।
कौन है, इस बैलगाड़ी मैं? गहनों को उतार लो जल्दी? लुटेरों  ने चिल्लाया।
रूपाड़ीबा ने बैलगाड़ी के परदो को खोल दिया और लुटेरों के कहने के मुताबिक उन लोगों को पांच हज़ार के गहनेवाला डब्बा दे दिया। तारों के प्रकाश में रूपाड़ीबा के शरीर के गहनें इस तरह से चमक रहे थे वह लुटेरों ने देख लिया।






लुटेरों ने कहां सारे गहनें उतार  के दे दो
रूपाड़ीबा ने सारे गहनें उतारा कर दे दिये, सिर्फ पैर की पायल(कंडला) रहने दी।
‘पायल भी उतार, लूटारूओं ने चिल्लाया’
रूपाड़ीबा ने आजिजी करने लगी, भाई ये नयी पायल है और वो एकदम बंध है, मैं पेट से हूँ मेरे से खोली नहीं जायेंगी। आप इतने से मुझ़े बखश दो मेरे वीरा
‘आप! जल्द से इसे निकाल दो’

तो आप ही उसे निकाल दो ऐसा बोलकर बैलगाड़ी में बैठे-बैठे अपने दोनों पैर को बाहर निकाला और वे लोग जतरड़ा की मजबूत रस्सी से उनके दोनों पैरो को आमने – सामने रस्सी को बांधकर निकालने की कोशिश करने लगे। दूसरे लोग अपनी बातों में लग गये। किसी का घ्यान नहीं था।
रूपाड़ीबा ने अपनी आंखो से देखा और किसी ने तो नहीं देखा, परंतु सिर्फ बैलगाड़ी में लटकाएँ हुए लकड़े की एक लकड़ी देखी। सोंचने का तो समय  भी नहीं था क्योंकि लुटेरों राजपूताणी के शरीर का मज़ाक (मश्करी) कर रहे थे।

रूपाड़ीबा ने उस लकड़ी को खींचा और जो इंन्सान नीचे बैठकर पायल खोल रहा था उसके सर पर जोर से लकड़ी मारी। उसकी दोनों खोप्परी फट गयी। दोनों जन धरती पर गिर गये। वहां तो गरासणी के अंदर का शौर्य जाग उठा। सभी को उस लकड़ी से मार मारती है। जिस-जिस को लकड़ी को मार लगता है वह सभी लोग एक बार लकड़ी का मार खाने के बाद दूसरी बार खड़े होने की ताकत उनमें नहीं थी। काली का रूप लेकर वह क्षत्रियाणी हमला  करती है।
अठार साल की एक गर्भवती लड़की लकड़ीयों और तलवारों के घा देकर झूम रही है। ऐसे में ही दुश्मनों के हांथ से छूटी हुई तलवार गरासरणी के हाँथ लग गयी। ऐसे में उसने मां जगदम्बा का रूप आ गया और बचें हुए दुश्मन भी भाग खड़े हुए।

गेमा रणगोळीटो होकर झांखर में जाकर गिरा। बाई ने कहां कि छोड दो उस डरपोक को।
वहां से छूटकर गेमा चल दिया, किसीको अपना मुंह नहीं दिखा पाया। फिर कभी भी पच्छे गांव को देखेगा ही नहीं।
युवान गरासरणी की जबतक श्वास की रक्तवाहीनी चलती हो, उसके शरीर के सभी अंगों पर से रक्त की बारिश हो रही थी। आंख में से झाळो छोड़ रही थी। हाथ में से रक्त वाली तलवार थी। काली रात में जैसे चंडिका प्रगट हुई हो. गरासरणी वन के सभी पैंड़ पोंधे उसे देख रहे थे।
बैलगाड़ी में बैठने के लिए उसने मना कर दिया। इस तरह का कार्य करने वाली व्यक्ति बैठ नहीं सकती उसके शरीर में अभी भी शोर्य दिख रहा था। भले ही जितने ही घा क्यों न लगे हो, उस पर भी वह गांव-गांव के चल सकती है। उसका खून शांत हो वैसा नहीं है। रूपाड़ी बा चंडी का रूप लेकर बैलगाड़ी के पीछे-पीछे सभी ओर नज़र रखते  हुए चल दी।

सुबह होने के साथ वह मोणपर की सीमा में आ गयी, वो उनके मामा दादभा का गांव था। मामा को संदेशा भेंजवाया गया और वह तुरंत ही कसुंबा (एक अफीम, जिसके रस से होने वाला नशा) लेकर आए।
कसुंबा  लेकर मामा आ गये। लड़की को इतने सारे जख़म मामा से देखे नहीं गये। मामा ने आजिजी की “बेटा आप यहीं रूक जाओ”।
“ना मामा मुझे बहुत जल्द घर पहुंचना है, मुझे मेरे बापू से मिलना है”।
“बहन पच्छे गांव पहुंचे उससे पहले ही उनके आने की बाट पूरे गांव में फेंल गयी थी। सभी को बता दिया गया था कोई भी उसकी प्रशंसा मत करना, उसको दिलासा भी मत देना, सब उसके बारे में खराब ही बोलना, जिससे उसके मन में अंहम् न आ जाए”।
चमक आना यानि इंन्सान की मृत्यु होना।


खून से भीगती हुई लड़की आयी। लड़की को चारपाई पर लाया गया। सभी लोग उसे उलाहना देने लगे कि बेटा बहुत खराब हुआ। पांच हज़ार के गहने चले जाते तो कहां तुम्हारे बाप को पैसों की खोट है।
एक पहर में तो उसका जीव चला गया। परंतु उसका इतिहास अभी तक नहीं गया।

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शोध छात्र - पंजाबी रेखा सतीशकुमार

संस्था      - गुजरात केन्द्रीय विश्व विद्यालय
               गांधीनगर- 30, गुजरात

पता       - ८/ए, कल्याण बाग सोसायटी, बलियाकाका रोड़,
               कांकरिया अहमदाबाद-३८००२२

पीएच.ड़ी. शोध छात्रा – “प्रेमचंद और पन्नालाल पटेल के चयनित उपन्यासों में स्त्री संदर्भों  का तुलनात्मक अध्ययन”

मो. 9904372318
E-mail : rekhapanjabi@yahoo.in 

सौराष्ट्र नी रसधार भाग - 1 (गरासणी)




झवेरचंद मेघाणी

लेखक परिचय :
राष्ट्रीय शायर झवेरचंद मेघाणी का जन्म-२८ अगस्त १८९६, चोटीला  निधन- ९ मार्च १९४७, बोटाद में हुआ था. उनके पिता का नाम कालिदास मेघाणी था. उनकी माता का नाम घोळीबहन था. झवेरचंद मेघाणी का बहुमुखी व्यक्तित्व था. वह एक साहित्यकार, वक्ता, लोकसाहित्य संशोधक, पत्रकार, गायक, स्वातंत्र्य सेनानी थे. उन्होंने अपने जीवन में बहुत उतार चढाव देखे थे. उन्हें बहुत से सम्मान प्राप्त थे जैसे - 
1 1928 में लोकसाहित्य के संशोधन के लिए रणजीतराम सुवर्ण चंद्रक प्राप्त हुआ।
2 1930 में गांधीजी ने “राष्ट्रीय शायर” का सम्मान दिया।
3 1946 में गुजराती साहित्य परिषद के साहित्य विभाग के अघ्यक्षता मिली।
4 1946 में ‘माणसाई ना दीवा’ की श्रेष्ठ पुस्तक के लिये महीड़ा पारितोषिक प्राप्त हुआ।



झवेरचंद मेघाणी की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए


https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/add-caption.html?m=1

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