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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 अगस्त, 2019

कहानी

                पाखंड-पर्व
               उषाकिरण खान

हॅंसुआ-खुरपी लिए-दिए ही रूकिया पंचायत में जाकर बैठ गई। देह केले के पत्ते की तरह कांप रही थी। दूसरे दिन पंचायत में शोरगुल होता रहता था किंतु आज निःशब्द शांति थी। इतनी बड़ी भीड़ तो किसी पंचायत में कभी नहीं जुड़ी और न ही किसी पंचायत में इतनी निःशब्द शांति ही देखने को मिली थी। जितने सिर दीख रहे थे उनकी गर्दनें थक गई होंगी। आंखें पथरा गई थीं। जैसे ही रूकिया ने हाथ में हॅंसुआ-खुरपी लिए उलझे हुए बालों को खुजाते पंचायत में प्रवेश किया वैसे ही सारे सिर उसकी ओर मुड़ गए। फिर नीचे की ओर झुक गए। रूकिया एक कोने में दुबककर बैठ गई। उस कोने में एक बड़ा-सा बेंच रखा हुआ था और दो-तीन कुरिसयां पड़ी थीं। एक कुरसी पर सुंदर बाबू चूपचाप बैठे थे। सुंदर बाबू की स्थिर दृष्टि सीध में देख रही थी। किधर देख रहे हैं, सो किसी की समझ में नहीं आ रहा था। लग रहा था जहां धरती-आकाश गले मिल रहे हैं वहीं देख रहे हैं। रूकिया के क्षण-भर सुंदर बाबू की ओर देखा, फिर उसी ओर देखने लगी जिसपर सुंधर बाबू देख रहे थे। सुंदर बाबू का निर्विकार चेहरा देख वह मन-ही-मन कांपने लगगी।



उषाकिरण खान

        ‘अरे बाप रे, क्या कर दिया रूकिया ने। कैसे गवाही देना स्वीकार कर लिया और कैसे आकर बिलकुल सामने बैठ गई है। इसने आशा बिलकुल नहीं की थी कि सुंदर बाबू स्वयं पंचायत में आकर बैठेंगे। यह सोच रही थी कि पंचायत यॅूं ही जुड़ेगी, आरोप-प्रत्यारोप होगा और उठ जाएगी। किंतु यह तो बड़ी भारी जुटान है। सुंदर बाबू भी बैठे हैं। दूसरी ओर रूकिया ने दृष्टि फेरी। यह तो वही छोकरा साथ खड़ा है जो ... और रूकिया का सम्पूर्ण शरीर भय से कंटकित हो उठा। ‘हा दैव, किस महाजाल में फॅंस गई। रूकिया को स्मरण हो आया, उसका पति शिवचरण सुंदर बाबू की ताबदारी करते-करते सुर-धाम चला गया था। रूकिया को याद आता है वह दिन जब सुंदर बाबू ने इन लोगों के अन्न-वस्त्र का जुगाड़ किया था। पगडंडी के किनारे की एक मढ़ैया के सामने सुंदर बाबू अपनी धोती की खॅूंट सॅंभालते हुए ठमक गए थे।
        ‘‘यह क्या है... टिनही कटोरे में कुछ काला-काला-सा पदार्थ देखकर उन्होंने पूछा था।
        ‘‘सरकार, करमी का उबला हुआ साग है... रूकिया का पति शिवचरण कांपते हुए बोला। बबुजना यॅूं ही माटी पर लोटता हुआ पड़ा था। मलेरिया ज्वर से जर्जर हुआ।
        ‘‘ओह, यह बच्चा क्यों लोट रहा है...?” सुंदर बाबू ने फिर पूछा।
        ‘‘क्या मालूम सरकार बोल न बहि...,’’ घॅूंघट की आड़ में बैठी रूकिया को घुड़का उसने।
        ‘‘नमक नहीं है?’’ सुंदर बाबू ने वेदना से दुहराया। सब चुप थे। बच्चा जो लोट रहा था वह भी चुप हो गया था। गंदे शरीर पर धूल का आवचरण और काले कपोल पर आंसू का निशान लिए वह भी सुंदर बाबू की ओर मुलुर-मुलुर ताकता रहा था। बिना कोई उत्तर दिए सुंदर बाबू आगे गढ़ गए थे।
        ‘‘लो बाबू लो, खा लो। हाकिम फिर आएंगे और जेल ले जाएंगे।’’ रूकिया बबुजना को परबोधने लगी। और बबुजन चुपचाप करमी का अनोना साग निगलने लगा। रसाई उठाकर रूकिया सीकी की डलिया बुनने बैठ गई थी, तभी, उस टोले का एक व्यक्ति झोले में पाॅंचेक सेर चावल-नमक और बुखार की गोलियां लेकर आ धमका था।
        ‘‘यह क्या है?’’ रूकिया ने पूछा था।
        ‘‘चावल ले लो,’’ उसने कहा। रूकिया शिवचरण की ओर देखने लगी। उस मजूरे ने शिवचरण के हाथ पर गोलियां रख दीं और शिवचरण हाथ में गोली लिए मुंह ताकता रहा।
        ‘‘दुर बहि! पानी दो न, दावा खाएगा। मुॅंह क्या देखते हो!’’ वह व्यक्ति झाल्ला उठा था! रूकिया दौड़कर पानी लाने गई।
        ‘‘ऐ भाई, हाकिम मनुस है कि...,’’ शिवचरण बोला।
        ‘‘दैव, दैव हैं,’’ मजूरे ने कहा।
        ‘‘हां वह गया है दरभंगा। वहीं से सबों के लिए अन्न-वस्त्र लाएगा। और लाएगा डाकदर, मलेरिया का डाकदर,’’ मजदूर फिर बोला।
        ‘अएं?’ शिवचरण दवा निगलते हुए चैंका। घॅूंघट में मुंह छुपाए रूकिया उसे ताकती रही थी।
        ‘धत्’ एक चीज तो भूल ही गया। उसने अपनी गोल गंजी की जेब से एक पुड़िया निकाली।
        ‘‘यह लो नमक,’’- छोटा-सा दोना था।
        ‘‘अरी मैया री!’’ रूकिया ने नमक देख अपनी छाती पीट ली।
        ‘‘हाकिम समझ गया कि हमारे पास नमक का भी उपाय नही है।’’
        ‘‘तो क्या, उसने अपनी आंखों से देखा कि नहीं?’’
        ‘‘हां, सो तो सही है,’’ और उस दिन रूकिया के घर में त्योहार का रंग पसर गया। उसके ही नहीं, पूरे मुहल्ले भर में गीला भात पकने को चढ़ा दिया गया था तत्काल। नमकीन गीला भात उस दिन अमृत हो उठा था। भांति-भांति के भोजन अब तक किए होंगे रूकिया ने-खीर-पूरी, माछ-भात, जिलेबी सकरौरी, किंतु उस दिन के गीते नमकीने भात का स्वाद ही तीसरा था। सुंदर बाबू के प्रताप से फिर कभी इस इलाके में करमी का उबला साग किसी ने नहीं खाया।
        ‘‘तुम लोग मुझको हाकिम मत कहो,’’ सुंदर बाबू ने कहा था।
        ‘‘तो मालिक कहें?’’ लोगों ने कहा था।
        ‘‘नहीं।’’
        ‘‘तो क्या कहें?’’
        ‘‘शिवचरण, तुमको मंगल क्या कहता है?’’ सुंदर बाबू ने पूछा था।
        ‘‘काका।’’
        ‘‘तो मुझे भी वही कहो’’ तभी से सुंदर बाबू गांव भर के ‘भैया काका’ हो गये थे।
        कोशी ने गांव को बख्श दिया था। सुंदर बाबू के खेत का कास वन उजड़ना शुरू हो गया था। एक ओर वन उजड़ता जाता, दूसरी ओर खेती शुरू होती जाती। सुंदर बाबू का परिवार भी इसी गांव में रहने आ गया था। सभी मजूरे इनके आंगन-चैवारे में लगे रहते थे। सो यहां के पुराने वाशिदें शंभू बाबू को तनिक न सुहाता था।
        ‘‘तुम लोग उस पाही-पट्टी (बाहरी) को बसाते हो। यह क्या यहां रहेगा? नेता है नेता। जंगत तोड़कर खेती कर रहा है। अन्न-धन कमाकर  यहां से चला जाएगा।’’ शंभू बोलते।
        ‘‘कोई जंगल किसी के बाप का है? उसने खरीदा है, तब तो आबाद कर रहा है,’’ शिवचरण ने प्रतिवाद किया था।
        ‘‘उसने क्या? खरीदा है तो हमें ही जमीन बटाई देकर चला जाए, जहां से आया है। यहाॅं क्यों बैठा है? करता क्या है? वह स्वयं और उसकी स्त्रियाॅं साफ-सफेद वस्त्र पहनकर चैकी चढ़कर बैठे रहते हैं। दूसरों से ही काम कराते रहे हैं, बस...।
        ‘‘अरे, यह क्या बात हुई। तुम्हारे घर की औरतें हमारे साथ खेसारी उखाड़ने जाती हैं तो क्या अपनी मजदूरी भी हमें ही बांट देती हैं? तुम्हारी स्त्रियों की नाक से होंठ तक सोने की बुलाकी झूलती रहती है। हमारी औरतों के पास तन ढकने को वस्त्र भी नहीं है। सो? सुंदर भइया के खिलाफ बात कभी मत बोलना शंभू भइया, तभी तुम्हारा कल्याण होगा। समझे?’’
        ‘‘तुम तो जान-बूझकर टॅंटा खड़ा करोगे, शिवचरण!’’ शंभू बोलता हुआ संुदर बाबू के दालान की ओर चढ़ जाता।
        ‘‘सुंदर बाबू, आप यहां के जन-मजदूर का दिमाग चढ़ा रहे हैं। आधा सेर अन्न मजूरी में भी अधिक दे दते हैं और पनपियाई की रोटी के साथ तीमन-तरकारी भी दे देते हैं,’’ शंभू बाबू कहते।
        ‘‘ऐ भाई, आप भी ऐसे ही दीजिए। मैं तो यही सलाह दॅूंगा।’’
        सुंदर बाबू विरक्त हो उठते। तनावपूर्ण वातावरण में इनका वार्तालाप समाप्त होता। तब शंभू बाबू पाही-पट्टी कहकर उनको अपमानित कर निकालने की असफल चेष्ठा में जुट जाते। उधर सुंदर बाबू की जड़ा जम गई थी। गांव में मलेरिया का उन्मूलन हो गया था किंतु संुदर बाबू की पत्नी स्वयं मलेरिया की शिकार हो गई थी। कुछ दिनों के बाद शिवचरण को सांप ने डॅंस लिया था। सुंदर बाबू बड़े उदास-से रहने लगे थे। किंतु उनके उत्साह में कमी नहीं आई थी। उनकी तीनों बेटियां ससुराल चली गई थीं। सुंदर बाबू अधिकतर भगवद्-भजन में लगे रहते। आस-पास के प्रखंड मुख्यालय भी नहीं जाते। कभी-कभी स्वयं ही अधिकारी-गण आ जाया करते। विचार-विमर्श कर चले जाते।
        रूकिया की दृष्टि दूसरे कोने के जमाव पर पड़ी। छह-छह करती रंगीत लुंगियों और चम-चम चमकती रेशमी गैंजियां, तेल चुपड़े फूल-पत्ती काढ़े केश, काली-काली मूंछें। बिजली की तरह छिटकती नई फसल खड़ी है। रूकिया का सर घूमने लगा। ऐसा ही रूप था बबुजना का। बबुजना- उसका इकलौता बेटा। एकाध दिन सुंदर बाबू ने पूछा भी था -
        ‘‘क्या करता है आजकल बबुजन? मुझसे मुलाकात भी नहीं करता है। इस तरह का कपड़ा-वस्त्र कहां से पहनता है?’’
        ‘‘मैं नहीं जानती मालिक, शंभू मालिक का काम करता है।’’
        ‘‘नहीं जानती हो तो जानने की कोशिश करो। मेरे पास ले तो आना।’’
        ‘‘मैं पूछॅगी।’’ सुंदर बाबू का विचार जानकर रूकिया ने बबुन से चलने का आग्रह किया था कि वह सवा हाथ धरती फांद गया था।
        ‘‘नहीं, मैं नहीं जाता सुंदर काका के पास। क्या होता है गिरस्ती कर के?
        ‘‘रे बाबू, निमक नहीं जुटता था तो सुंदर बाबू...।’’ रूकिया ने कहने की कोशिश की थी कि बबुजना डपट उठा था।
        ‘‘चुप रह, अधिक दलाली मत बतिया। निमक नहीं जुटता था। ई तो हम लोग को देख-देखकर जलता है। थाना वाले से कह दिया है गाॅंव में लड़का सब रंग-बिरंगा कपड़ा पहनता है। घड़ी और रेडियो रखता है सो अनक्वाइरी करो, और तुम पच्छ लेती हो!’’ यह कहकर बबुजना चाय पीने लगा।
        ‘ऐं? ऐसे ईष्र्यालु हैं सुंदर भैया?’ रूकिया सोचने लगी।
        हफ्ता भर के भीतर ही बबुजना और उसके साथी-संगतियों को थाना पुलिस पकड़कर ले गई। रूकिया दौड़कर गई सुंदर बाबू के पास।
        ‘‘सरकार, कुछ कीजिए ना,’’ रूकिया ने पैर पकड़ लिए।
        ‘‘मैं क्या कर सकता हॅूं। सुना है घर से गाॅंजा निकली है,’’ सुंदर बाबू ने पैर छुड़ाने की कोशिश की।
        ‘‘किसी ने दुश्मनी में रख दिया होगा, सरकार!’’
        ‘‘तो मैं क्या करूं, जिसकी मजदूरी करता है उसे कहो,’’ डपट दिया था सुंदर बाबू ने।
        ‘‘मेरा बेटा तो मूरख है। मैं आपका दरवाजा अब तक नहीं छोड़ सकी सरकार, एक ही बेटा है। नई बहू घर में है। पुलिस मारे-पीटेगी,’’ रूकिया आत्र्तनाद कर उठी।
        ‘‘जा भाग जा, छोड़ दे मेरा काम। तुम्हारे बिना कोई काम नहीं रूकेगा। मुझे पूछकर ही बबुजना गुंडागर्दी करता था?’’ कहकर सुंदर बाबू ने पीठ फेर ली थी।
        किस-किसके दरवाजे न रूकिया सिर पटकने गई। शंभू बाबू के यहां गई तो वह भी वैसे ही जोर-से डांट उठे -
        ‘‘भाग, सुंदर बाबू के दरवाजे पर जा। उसी ने तो थाना पुलिस बुलाया। जब जा ना! अभी हुआ क्या है?’’
        और रूकिया थक गई। बबुजना को जेल हो गई। रूकिया पगली हो गई। छोटे-छोटे काश्तकारों के खेत में काम करने लगी। बहू सिंगार-पटार करके घर बैठी रहती। झकाझक रंगीन लुगी, रेशमी गॅंजी, तेल चुपड़े वालों वाले, गुप्ती वाली छड़ी वाले बबुजना के संगी-साथी घर में बैठकर रेडियो बजाते बात चबाते रहते सो रूकिया को जरा नहीं भाता।
        ‘‘ऐ दुलहिन, इन लोगों को इतना मत परचाओ। इन्ही लोगों ने बबुआ को फॅंसाया है,’’ एक दिन रूकिया ने बहू से कहा था।
        ‘‘यह कैसी बात कर रही है? ये सारे एक ही मंडली के लोग हैं। इन्हीं की सहायता से तो दो जून का खाना जुटता है,’’ बहू ने उत्तर दिया था। और तब पूछताछ के बहाने शंभू बाबू भी आकर बैठने लगे थे। बहू के हाथ की बनी चाय उन्हें बड़ी स्वादिट लगती।
        उस दिन रूकिया ने बहू के साथ झंझट खड़ा कर दिया था। बहू ने अपना वस्तु जात सब समेटा था और शाम होते ही दिनेश नाम के मंडलीबाज के साथ गाॅंव से निकल गई थीं। जोर-से कहा था -
        ‘‘मैं नैहर जा रही हॅूं। बेटा आएगा आपको तो ले जाएगा।’’
        उत्तर में रूकिया कुछ बोलती उससे पहले गुप्ती छड़ी में से बाहर निकलकर तन गई उसकी ओर -
        ‘‘ऐ बुढ़िया, जो कहता हॅूं करना पड़ेगा।’’
        ‘‘क्या, बाबू?’’ रूकिया गिड़गिड़ाई।
        ‘‘पंचायत में नालिश करना पड़ेगा- तुम्हारी बहू के साथ सुंदर बाबू घर में फाटक बंद कर पड़े थे।
        ‘‘न रे बाबू, यह अन्याय है, मत कर। मैंने ऐसा नहीं देखा,’’ रूकिया के न्याय की बात गुप्ती की चमक से बदकर रह गई।
        उस रात सरपंच शंभू बाबू के यहाॅं खूब जश्न रही।
        ‘‘कैसे-कैसे क्या होगा रे, बुधना?’’
        कल समूचे इलाके में यह कहानी पसर जाएगी कि रूकिया की पतोहू के साथ सुंदर बाबू .... हेंहेंहें!
        तब तक उस औरत के साथ दिनेशवा उस पार चला जाएगा।
        ‘‘एह, औरत है बेश।’’ शंभू बाबू की राल टपकने लगी।
        ‘‘धत् वह कोई हाथ से जा रही है जो?’’ श्यामा बोला।
        ‘‘बीस साल का बदला निकाला। अहा हा, किंतु यह बुढ़िया बोलेगी न!’’ शंभू बाबू को अब भी शंका थी।
        ‘‘बोलेगी कैसे। गुप्ती के डर से बोलेगी।’’ गुप्ती वीभत्स तरीके से बाहर-भीतर करते बोला श्यामा। और अभी भी गुप्ती मांज रहा है वही सब। श्यामा, बुधना, सुदामा। रूकिया डूबते सूरज की ओर देखती है। मन-ही-मन सभी देवी-देवताओं की गुहार करती है। आज तक ऐसी कोई अफवाह देखी-सुनी नहीं। कैसे मक्खी निगलेगी। शिवचरण कहता था-
        ‘‘ऐ जी, पंछी-पंछी लोग करता है, आदमी ही न पंछी होता है। देख सुंदर भैया कहाॅं से रहने वाले और कहाॅं चले आए हम लोगों का उद्धार करने को। चापाकल गड़ा दिया, इसकुल खोलवा दिया। क्या-क्या न किया।’’
        न, रूकिया क्या बोलेगी। उसी समय साफ-शफ्फाक कपड़ा में सजे-बजे शंभू बाबू और पंचों के साथ आ गए। मुखिया जी बीमार रहते हैं। सभी काम शंभू बाबू ही देखते हैं। सुंदर बाबू वैसे ही निर्विकार भाव से बैठे थे। क्या इनको मालूम नहीं कि आज वज्र इन्हीं के ऊपर गिरने वाला है?
        ‘‘क्या जी, क्या है? कहो,’’ शभू बाबू गुप्ती वाले छोकरों की ओर मुखातिब हुए।
        ‘‘सो तो कहा था, लिखकर भी दिया था,’’ एक जुल्फी वाला बोला।
        ‘‘तो, मैं ही पढॅूं क्या?’’
        ‘‘हाॅं-हाॅं।’’
        ‘‘कल रात में रूकिया घूम-फिरकर आॅंन में आई तो अपनी मड़ैया का फाटक बंद देखा। धक्का देने पर देखा कि सुंदर बाबू धोती का फेंटा कसते हुए कोठरी से बाहर निकल रहे हैं। रूकिया अकचकाई खड़ी रह गई। तभी कोठरी से अस्तव्यस्त अवस्था में उसकी बहू भी निकल आई। रूकिया माथा-कपार पीटने लगी। उसी बीच में बहू कहीं निकलकर चली गई। रूकिया को संदेह है कि सुंदर बाबू इसकी बहू को अनैतिक कार्य के लिए हवेली में या कहीं और छुपाये हुए हैं।’’
        पढ़कर शंभू बाबू सुंदर बाबू को देखने लगे। उनके कुटिल चेहरे पर विजयी मुस्तान थी। उधर सुंदर बाबू चुप, स्थिर, निर्विकार बने रहे।
        ‘‘क्या जी सुंदर बाबू क्या कहते हैं?’’ शंभू बाबू ने उनसे           सीधे प्रश्न किया।
        ‘‘रूकिया से फिर पंचायत के सामने पूछिए,’’ सुंदर बाबू मानेा दूसरे पर किया गया आरोप सुन रहे थे।
        ‘‘रूकिया! चल, खड़ी होकर कह,’’ शंभू बाबू ने जोर-से कहा। रूकिया थर-थर काॅंपने लगी। गुप्ती वाले हाथ सब उसे पकड़कर बीच सभा में खड़ा करने की कोशिश करने लगे। अब क्या करेगी रूकिया। उसकी आॅंखों के सामने अनोने करमी का उबला हुआ साग और धूल लिपटा बबुजना डोलने लगा, झोला भर चावल और नमक की पुड़िया दीखने लगी। नहीं, यह अधर्म है।
        ‘‘बोल न रूकिया, बोल!’’ शंभू बाबू ने फिर उत्साहित किया।
        ‘‘ओ बाबू, सुंदर मालिक पाही-पट्टी है। हम लोग यहाॅं के डीही बाशिंदे हैं तो इन्हें कहो चले जाएॅं,’’ कहते-कहते रूकिया रोने लगी।
        ‘‘ऐ बुढ़िया, तुमको जो कहना है कहो। तुमसे फैसला सुनाने को किसने कहा?’’ एक पंच बोल उठा।
        ‘‘सरकार सब, सुंदर मालिक देवता है। धन्न सुंदर मालिक जो आज स्यामा, बुधना, दिनेसबा ई आखर सब लिखकर पंचायत में दिया। जिंदा रहा और दू अच्छर पढ़-लिखा। मालिक बाबू सब, नई उमर में को कभी सुंदर मालिक किसी की हाथ-बाॅंह धरा ही नहीं, बुढ़ापे में क्या धरेगा, नहीं-नहीं सरकार, हमने कभी किसी समय नहीं देखा कि सुंदर मालिक ने किसी को मलिन नजर से देखा हो।’’
        रूकिया जोर-जोर से रोने लगी। गुप्ती वाला हाथ जिसने रूकिया को पकड़ रखा था, एक बार फिर जोर-से झकझोर दिया। रूकिया ने उन्हें धक्का देकर हटने का संकेत दिया और तनकर खड़ी हो गई। ‘‘मार डाल, बेटा को सिखा-पढ़ाकर चोर-उचक्का बना दिया। पतोहू को सब मिलकर भोग लगाते हो। क्यों पाप चढ़ाते हो! नहीं-नहीं, मैंने कभी किसी समय सुंदर बाबू को अपने घर-आॅंगन में नहीं देखा। मार डाल मुझे, ले मार!’’
        दिवानी की तरह रूकिया ने झुल्ला (ढीला ब्लाउज) फाड़ सीना आगे कर दिया, बुधना, श्यामा की ओर बढ़ी। पंचायत की चुप्पी टूट गई। शोर-गुल होने लगा। रूकिया दौड़कर सुंदर बाबू के पैर पर गिर पड़ी।
        ‘‘मालिक, आप पंछी हो जाइए। पाप की इस नगरी से चले जाइए भइया, सुंदर भइया।’’ अब सुंदर बाबू ने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ी उठकर खड़े हुए। एक बार शंभू बाबू की ओर देखा, दूसरी ओर सर्द-हिमाल नजरों से पंचायत को निरखा और रूखिया से अपना पैर छुड़ा भीड़ से निकल गए। खेत में मेंड़ पर खड़े-खड़े पश्चिमाभिमुख सूर्य की लाली देखने लगे। लाली भी अब समाप्तप्राय है। अंधकार गाॅंव में व्याप्त हो गया है।
        दूसरे दिन थाना में सरपंच शंभू बाबू इत्तिला देते देखे-सुने गए कि सुंदर बाबू घर से लापता हो गए हैं, बबुजना की घरवाली नहीं मिलती है। उसी दुख से रूकिया अपना मानसिक संतुलन खो बैठी है।

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उषाकिरण खान की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए
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