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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 अगस्त, 2019

नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएँ





नरेन्द्र पुण्डरीक




कविताएं



पापा, आप अपना ध्यान रखना
         
लड़कियाँ जो शादी के पहले
पिता से नहीं डरीं
भाइयों से बराबर लड़ीं
माँ से मुँह की मुँह लेकर
लाँघ जाती रही
बार-बार घर की देहरियाँ,

वे डरती हैं पतियों से
वे ब्लॉक करने लगती हैं
अपने प्रिय लोगों के नम्बर
गायब करने लगती हैं मैसेज,

वे डरते-डरते करती हैं
माँ और पिता से बात
कहती हैं सब ठीक है,

सब अच्छा है
मैं बहुत खुश हूँ
पापा, आप अपना ध्यान रखना
मैं अभी नहीं आ पाऊँगी
वे आफ़िस जाते हैं
उन्हें देखना पड़ता है
सुबह उठकर जल्दी
तैयार करना पड़ता है नाश्ता खाना,

पापा, माँ ठीक है न
उन्हें बता देना मैं खुश हूँ
अब देर तक नहीं सोती
अंधेरों से घबड़ाकर
सूरज के उठने के पहले ही उठ जाती हूँ।




पौरुष की समाप्ति का समय
        
समय ने मेरे हाल-चाल कुशलक्षेम
उस समय ले लिए थे जब
घी तीन रुपये किलो था
मैं पट्टी बोरका लेकर
बैजनाथ मुखिया के पिछवाड़े की दलान में
पढ़ने जाता था जिसमें रात में
मुखिया के जानवर बाँधे जाते थे और
दिन में समय हमें बाँधे रखता था,

इस दलान में पढ़ते हुए हमने
नदी की कगार से समय को
रेलगाड़ी में बैठकर पहली बार
कानपुर जाते हुए देखा था
सही मायने में यह दिल्ली का नहीं
कानपुर का समय था जो
अब दिल्ली की मार से कराह रहा है,

मुंशी रामनारायण भट्ट जो काफ़ी बूढ़े थे
झोले में स्कूल और हाथ में बेंत लेकर शहर से आते थे
अब तक मैंने शहर को नहीं देखा था
मुंशी रामनारायण भट्ट के चेहरे से कुछ
शहर की सूरत का अन्दाज़ लगाता था
कुछ उन शब्दों से जो पढ़ाते समय
हमारे भीतर तड-तड़ करके गिरते थे
हमारा स्कूल देर से खुलता था और
बन्द होने के समय से पहले बंद हो जाता था
समय की चाल हमारे साथ शुरू से ही ऐसी थी,

दोपहर में जब खाने-पीने की छुट्टी होती
हममें से कुछ लोग अपने बोरके में
कीच कांदौ का पानी भरकर
अपने शब्दों में रोशनाई भरते और
कुछ लौटकर ही घरों से नहीं आते
और रेलगाड़ी में बैठा हुआ समय
हमारे यहाँ से हो-हो करता कानपुर चला जाता,

यह मेरा समय से सीधा साक्षात्कार था
जो नदी में बने रेल के पुल की खड़खड़ाहट से
कभी मुंशी रामनारायण भट्ट की
कलाई में बंधी घड़ी से चलता था
जो इस समय गाँव की अकेली घड़ी थी,

इस समय ज़्यादातर लोग
समय को अपने बीते से नाप कर रखते थे
वैसे भी इस समय का समय
बैलों के सींग की चमक पर टिका था
जो अब शहर की सड़कों में
समय की झिल्लियाँ चबाते हुए अपने
अन्तिम समय से गुजर रहे हैं
जाने मुझे क्यों लगता है कि
बैलों की तरह ही यह
आदमी के भी पौरुष की समाप्ति का समय है
जो उसके मूक होने की परिणति से पैदा हुआ है।




बच्चों की आँखों से
                
एक औेरत के रोने की आवाज़ से
टूट गई थी पिता की नींद
पिता के आवाज़ मारने पर
रोने वाले के पड़ोस से आई थी आवाज़
भिखुवा के घर में बच्चा नहीं रहा,

बच्चे के न रहने की आवाज़ से
हमारे घर में जगहर हो गई थी
बच्चे के न रहने की सुनागन से
टूट गई थी मोहल्ले की नींद
बच्चे के न रहने से
पूरे गाँव में रतजगा हो गया था,

मैं सोच रहा हूँ कि
जिस शहर में डेढ़ सौ बच्चे मरे
उसमें भी रहते होंगे आदमी
कैसे प्यार करते होंगे वे अपने बच्चों को
जिस शहर में डेढ़ सौ बच्चे मरे
कैसा लगता होगा बच्चों को
अपने माँ-बाप का प्यार
औैर कैसे लगते होंगे उन्हें अपने पिता,

मैंने कहीं पढ़ा था
जिनके बच्चे नहीं होते
उन्हें नहीं सौंपे जाते
जीवन के सरोकार और
दूर रखा जाता है उन्हें राज-पाट से
क्योंकि वे नहीं जानते बच्चों के दुख
जो बच्चों के दुख को नहीं जानते
वे कैसे रच पाएँगे जीवन के सुख,

नेहरु इसलिए बड़े नहीं थे कि
उन्होंने भाखड़ा नांगल बनवाया था
भिलाई औैर दुर्ग में
खड़े किए थे इस्पात उद्योग
नेहरु इसलिए बड़े थे कि
वे बच्चों के साथ खड़े होकर
बच्चों की आँखों से दुनिया देखते थे
औैर एक दिन बच्चों के ही हाथों में
खुद को सौंपकर चले गये थे।



वह स्त्री मुझे यहीं कहीं मिली थी

वह स्त्री मुझे यहीं कहीं मिली थी
जिसे मैं प्यार करता हूँ
बाकी स्त्रियों की तरह खटती हुई
जूझती हुई समय से
समय के साथ उसका जूझना
मुझे अच्छा लगा था,

अच्छा लगा था मुझे
उसका समय को ललकारना
समय के साथ दो-दो हाथ करना
मुझे अच्छा लगा था,

अच्छा लगा था मुझे उसका
समय की कठोर छाती को
पाँव से रौंदना

जिन पाँवों को माँ ने कभी
पालने से नीचे नहीं उतरने दिया
पिता रखे रहे हमेशा कंधों में
पिता की लाई जूतियों में
समा नहीं सके ये पाँव,

समय से लड़ते हुए मुझे
वह कभी पराजित नहीं दिखी
लेकिन थकी दिखी कई-कई बार,

उसने कहा मेरे सिर में दर्द है
ज़रा सहला दो इसे
ज़रा-सा दबा दो मेरे हाथ पैर
उसके हाथ-पैर दबाते हुए मुझे लगा
यही वह स्त्री है
जिसे मैं खोज रहा था
जो एक पुरुष से कह सके
दबा दो मेरे हाथ पैर।



ये स्त्रियाँ

मैं उन रास्तों से
शहर रोज़ आता रहा
जिन रास्तों में घास लकड़ियाँ
लाती हुई स्त्रियों के पाँव की छापें थी,

इन पाँवों की सुघर छापों में
अपन पाँव रखते हुए अक्सर मुझे लगता रहा
इनसे सुन्दर दुनिया में कुछ भी नहीं है,

ये पाँव दुनिया को 
सुन्दर बनाने वाले पाँव हैं
जब ये शाम को घर लौटते हैं
लौट आती है घरों की हँसी
जब ये घर से बाहर जाते हैं
घर उदास हो जाते हैं
ये स्त्रियाँ घरों में
आत्मा की तरह रहती हैं,

जबकि घर में इनका कोई खाता नहीं होता
न होती है इनकी
हिसाब-किताब की कोई बही
सब इनकी देह में अंकित
औैर मन के आले में रखा होता है,

इनके अनन्त यात्रा में निकलते ही
उन लोगों की यात्राओं की तिथि तय हो जाती है
जो समय का हाँका लगाते थे
खुदा की दी हुई इनकी
आधी हड्डी धरती की हर ऊँचाई में
चढ़ी दिखाई देती है
पर ये अपने में जितना जोड़ती हैं
उससे कई गुना
हर बार तोड़ दी जाती हैं।
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नरेन्द्र पुण्डरीक की कुछ कविताएं और नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/blog-post_63.html?m=1


प्रस्तुति: अमेय कांत

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परिचय

नरेन्द्र पुण्डरीक


जन्म - 15 जुलाई 1953, बांदाग्राम – कनवारा, केन किनारे बसे गाँव में
समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवियों में सेकविता के महत्वपूर्ण आयोजनों में भागीदारी

कविता संकलन - ‘ नंगे पाँव का रास्ता’ (1992),  सातों आकाशों की लाड़ली’ (2000) इन्हें देखने दो इतनी ही दुनिया (2014), ‘ इस पृथ्वी की विराटता में’ (2015)इन हाथों के बिना’ (2018), केरल राज्य सरकार की केरलपाठावली में हाईस्कूल के पाठ्यक्रम कविता संग्रहीत वर्ष 2016, शंकराचार्य वि.विकालड़ी में एम.. में चुनी हुई कविताएँ और केदार: शेष-अशेषपाठयक्रम में स्वीकृत। पंजाबी, बांगला अंगेज़ी एवं मलयालम आदि भाषाओं में कविताओं का अनुवाद प्रकाशित। 

आलोचना - ‘ साहित्य: सवर्ण या दलित’ (2010) मेरा बल जनता का बल है’
(
2015) केदार नाथ अग्रवाल के कृतित्व पर केन्द्रित।

संपादन- छोटे हाथ (2007),  मेरे साक्षात्कार (2009) चुनी हुई कविताएँ - केदारनाथ अग्रवाल (2011केदारः शेष-अशेष (2011), कविता की बात (2011)उन्मादिनी (2011),  कहानी संग्रह केदारनाथ अग्रवाल, प्रिये–प्रियमन (2011)केदारनाथ अग्रवाल और उनकी पत्नी के पत्र, आराधक, योध्दा और श्रमिकजन- कविता का लोक आलोक (2011) केदार:शेष -अशेष भाग -(2014)ओ धरा रुको ज़रा, पाब्लो नेरुदा की कविताओं का अनुवाद, केदारनाथ अग्रवाल की विविध बिम्ब धर्मी कविताओं का चयन कर 6 काव्यपुस्तिकाओं का संपादन।

सम्मान- वर्ष 2018 में रास विहारी न्यास द्वारा पहले  रामधारी सिंह दिनकर सम्मान से सम्मानित

वर्तमान में - केदार स्मृति शोध संस्थान बांदा  के सचिव, ‘माटी’ पत्रिका के प्रधान संपादक एवं केदार सम्मान,  कृष्ण प्रताप कथा सम्मान व डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान के संयोजक
      
पता – डी. एम. कॉलोनी, सिविल लाइन, बांदा - 210001
        मो 9450169568 / 8948647444
ईमेल:  pundriknarendr549k@gmail.com



1 टिप्पणी:

  1. 'वह स्त्री मुझे यहीं कहीं मिली थी' कविता की आखिरी पंक्तियाँ ...यही वह स्त्री है
    जिसे मैं खोज रहा था
    जो एक पुरुष से कह सके
    दबा दो मेरे हाथ पैर। ..बहुत ही मारक है | बेहतरीन कविताएँ |

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