(हिंदी की महत्वपूर्ण कवयित्री कात्यायनी से आशीष सिंह की बातचीत)
कात्यायनी |
आशीष सिंह |
कात्यायनी
महज एक कवयित्री ही नहीं बल्कि एक संघर्षरत सामाजिक -राजनीतिक एक्टीविस्ट भी हैं .
एक सृजनरत सामाजिक योद्धा की भूमिका में उतरे कवियों -कवयित्रियों की जब बात की
जाती है तो दूसरे क ई एक रचनाकारों में कात्यायनी का नाम अनायास जुबान पर आ जाता
है . समकालीन महिला रचनाकारों पर केंद्रित अंक के लिए "पाठ " के संपादक देवांशु पाल की
कोशिश औ अपनी राजनीतिक व्यस्तता व अस्वस्थता के बावजूद कात्यायनी जी के हर सम्भव
सहयोग से ही यह विस्तृत साक्षात्कार सम्भव हो पाया है . यहाँ कविता -कहानी की
विधागत चुनौतियों या स्वयं कात्यायनी की कविता में मौजूद जीवन मूल्यों व रचना
वैविध्य पर ज्यादा बात न करके मूलतः आज के कठिन समय में साहित्यिक -सांस्कृतिक
दायरे में लेखकों -कलाकारों के सामने आ रही चुनौतियों व साहित्यिक जमात की
सकारात्मक भूमिका पर क ई आयामों से बातचीत की गई है . चेहरे पर आँच , सात बहनों के बीच चम्पा , इस पौरुष
पूर्ण समय में , फुटपाथ पर कुर्सी , जादू नहीं कविता , राख अंधेरे
की बारिश में , कविता संकलन के अलावा दुर्ग द्वार पर
दस्तक , षड्यंत्र रत मृतात्माओं के बीच , कुछ जीवंत
कुछ ज्वलंत जैसी गद्य पुस्तकें साहित्यिक व सामाजिक
प्रश्नों पर मुखरता से न सिर्फ अपना पक्ष रखती हैं बल्कि वैकल्पिक साहित्यिक
-सांस्कृतिक संघर्ष के लिए प्रेरित भी करती हैं . लिखते हुए लड़ना औ लड़ते हुए लिखना
की परम्परा सच्ची ध्वजवाहक हैं कवयित्री कात्यायनी ,यह कहने
में कोई संकोच नहीं है . प्रस्तुत बातचीत में तमाम सवालों का जिस बेबाकी से
उन्होंने जवाब दिया है उसी से एक रचनाकार की पक्षधरता भी स्पष्ट दीख -सुन पड़ रही
है . यहाँ उठाये गये सवालों औ तद्जनित जवाबों को व्यापक दायरे में
लेजाकर हम वास्तविक सवालों का सामना कर सकें इस बातचीत कुलजमा हासिल यही होगा .
कुछ बिखरे -बिखरे शब्दों में मेरे द्वारा पूछे गये सवालों को सार्थक दिशा में ले
जाकर कात्यायनी जी ने विस्तार से
धैर्यपूर्वक जवाब दिया है ,यह आप
स्वयं देखेंगे . तथैव यह बातचीत आपके लिए प्रस्तुत है -
आशीष सिंह
आशीष सिंह - कात्यायनी जी आप एक कवयित्री होने के साथ ही सांस्कृतिक-राजनीतिक एक्टिविस्ट भी हैं, स्त्रियों द्वारा लिखी गई कविताओं को समकालीन पुरुष कवियों की कविताओं से किस मायने में अलग करके देखा जाये? या इस सवाल को थोड़े दूसरे तरीके से देखें तो यह भी कह सकते हैं कि समकालीन कवियों की तुलना करते हुए अधिकांशत: स्त्रियों की कविताओं का मूल्यांकन समकालीन स्त्रियों के बीच रखकर ही तुलनात्मक बात की जाती है जबकि सामाजिक सरोकारों में तमाम पुरुष कवियों की कविताओं से वे किसी मायने में कमतर नहीं होती हैं। आपका इस पर क्या कहना है?
कात्यायनी - सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र की तरह साहित्य के क्षेत्र में भी पुरुष-वर्चस्ववादी पूर्वाग्रहों और मानसिकता की उपस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता स्त्री-कवियों की रचनाओं और पुरुष-कवियों की रचनाओं को स्त्री कविता बनाम पुरुष कविता की श्रेणियों में बाँटकर देखने के पीछे किसी हद तक यह मानसिकता भी काम करती है। इसका एक दूसरा कारण साहित्य में ‘आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स’ का प्रभाव भी है।‘आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स’ विभिन्न पहचानों के आधार पर सामाजिक समूहों को बाँटती है, बस उसमें वर्ग की बात नहीं होती है। लेखन को भी वह इसी तरह बाँटती है, जैसे स्त्री–कविता, दलित कविता, आदिवासी कविता.... आदि-आदि। जहाँ तक सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों वाली कविता की बात है, आप ठीक कह रहे हैं कि स्त्री कवियों की ऐसी रचनाएँ पुरुष कवियों से किसी तरह कमतर नहीं हैं। हाँ, जेण्डर- प्रश्न,प्रेम या स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को लेकर जो कविताएँ होती हैं, उनमें स्त्रियों और पुरुषों की संवेदनाओं-अनुभूतियों और अन्तर्जगत की स्वाभाविक भिन्नता के कारण, एक ही वैचारिक अवस्थिति के बावजूद, स्त्री कवियों और पुरुष कवियों की कविताओं में प्राय: मिजाज और रंग की भिन्नता देखने को मिलती है। पर स्त्रियों के पूरे लेखन की ही अलग से ‘कैटेगरी’ बनाने की बात मुझे तो एकदम बेमानी लगती है। लेकिन एक बात और है। स्त्री कवियों की एक नयी प्रजाति भी इधर उभरी है जो अपने आप में विशिष्ट है। इनकी राजनीतिक चेतना शून्य है, सामाजिक सरोकार नदारद है। ये प्रेम, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, देह, घर आदि-आदि को लेकर कभी सुकोमल नवछायावाद का तो कभी ऐन्द्रिक नवरीतिकाल का आवाहन करती हैं और कभी अराजकतावादी ढंग से परम्परा-भंजन और यौन-विद्रोह पर उतारू हो जाती हैं। इनमें से कई है जो स्त्री-जीवन के मार्मिक चित्र रचने के चक्कर में अतीतोन्मुख नॉस्टैल्जिया के गड्ढे में जाकर गिर जाती हैं और अन्जाने ही स्त्री-उत्पीड़क मूल्यों-संस्थाओं-परिपाटियों को रूमानियत के साथ महिमामण्डित करने लगती हैं। यह एक खास किस्म की ‘’स्त्री कविता’’ ज़रूर चलन में आई है, पूरी तरह से विचारहीन, ‘कन्फयूज़्ड’ और सामाजिक परिप्रेक्ष्य से रिक्त। ऐसी कवियों और कविताओं को जो संरक्षणमूलक प्रोत्साहन दिया जाता है, वह भी एक किस्म का मर्दवाद ही है। यही वह मर्दवाद है जो कविता में स्त्री कवियों का आरक्षण-कोटा तय करता है।
आशीष सिंह - लैंगिक-सामाजिक भेद वाले समाज में स्त्री–रचनाकारों द्वारा लिखी गई रचनाएँ निश्चय ही ऐसे अलहदा स्वर-तेवर लिए होंगी, इसमें दो राय नहीं, बावजूद इसके इन कवयित्रियों का मूल्यांकन करते हुए क्या अलग से पैमाना बनाना पड़ेगा जैसे कि दलित लेखकों के बारे में कहा जाता रहा है कि उनको परम्परागत-सौन्दर्यशास्त्रीय पैमाने से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता? क्या यह पद्धति श्रेयस्कर है?
कात्यायनी – जैसा कि मैंने पहले ही कहा, बेशक लैंगिक –सामाजिक भेदभाव वाले समाज में , हर मायने में तो नहीं लेकिन कुछ मायनों में स्त्री रचनाकारों की रचनाओं के मिजाज और रंग कई बार पुरुष रचनाकारों की रचनाओं से अलहदा होंगे। सामाजिक-राजनीतिक प्रकृति की रचनाओं में तो यह अन्तर नहीं होगा, लेकिन प्रकृति , प्रेम , जेण्डर और जेण्डर आधारित उत्पीड़न शिशु के प्रति प्यार आदि यदि विषय-वस्तु हों तो एक ही विचाराधारात्मक अवस्थिति होने के बावजूद, स्त्री और पुरुष के सृजन में रंग और मिजाज का अन्तर होगा। यह अन्तर,मिसाल के तौर पर, वस्तुनिष्ठ मिजाज की कविता से अधिेक आत्मनिष्ठ मिजाज की कविता में दिखाई देगा। पर इस आधार पर स्त्री कवियों के मूल्यांकन का अलग पैमाना बनाने की बात हास्यास्पद है। रचना और रचनाकार के मूल्यांकन का पैमाना तो सामान्यीकृत और सार्विक ही हो सकता है। आलोचना का सवाल विश्लेषण की पद्धति का सवाल है और वह पद्धति या तो द्वंद्ववादी (डायलेक्टिकल) होगी या अधिभूतवादी (मेटाफिजि़कल) होगी। दर्शन के इतिहास में तीसरी कोई पद्धति नहीं है। इसीतरह, सौन्दर्यशास्त्र, सौन्दर्यदृष्टि या सौन्दर्यानुभूति का सवाल विश्व-दृष्टिकोण या ‘वर्ल्ड व्यू’ का सवाल है और वह या तो भौतिकवादी हो सकता है या भाववादी (प्रत्ययवादी) हो सकता है। रचनाकार के जेण्डर, जाति, वर्ग या राष्ट्रीयता के हिसाब से आलोचनात्मक मूल्यांकन या सौन्दर्यशास्त्र के बुनियादी निकष या पैमाने नहीं बदलते। हाँ, अलग-अलग श्रेणी के रचनाकारों के हिसाब से विश्लेषण के उपकरणों का इस्तेमाल अलग-अलग ढंग से होता है। इस प्रकार की उथली बातें इनदिनों वही लोग करते हैं जो इस किस्म की बातें करते हैं कि स्त्री जीवन के प्रामाणिक यथार्थ को केवल स्त्री ही लिख सकती है और दलित जीवन के प्रामाणिक यथार्थ को केवल दलित ही लिख सकता है। आजकल ऐसी बातें ‘आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स’ वाले कर रहे हैं, पर ये बातें दलित और कुछ स्त्रीवादी साहित्यकार पहले से ही करते रहे हैं। यह सोच सामाजिक यथार्थ के कलात्मक परावर्तन में सिर्फ ‘स्वानुभूति’को मान्यता देती है और ‘तदनुभूति’ को सिरे से खारिज करती है। यह कोई नई बात नहीं है। ‘भोगे हुए यथार्थ’ और ‘अनुभव की प्रामाणिकता’ के इन पुराने घिसे हुए सिक्कों को दलितवादी साहित्यकारों ने साठ साल पुराने ‘नयी कहानी आन्दोलन’ के मध्यवर्गीय रोमाण्टिक सूत्रधारों से उधार लिया है। यह संकीर्ण अनुभववाद वस्तुत: प्रकृतवाद (नेचुरलिज़्म) का बुनियादी तर्क है और इसका यथार्थवाद से कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसका दार्शनिक आधार बुर्जुआ प्रत्यक्षवाद (पॉजि़टिविज़्म) है। साहित्य में यह भोड़े समाजशास्त्रीय नज़रिए को जन्म देता है। निश्चय ही स्वानुभूति का अपना महत्व है, लेकिन भोगे हुए यथार्थ से भोक्ता यदि दूरी और समय न ले तो वह वस्तुपरक ढंग से धारणा (कंसेप्शन) बना ही नहीं सकता और बोध (परसेप्शन) को ही धारणा (कंसेप्शन) समझता रहेगा। स्वानुभूति की प्रामाणिकता तभी हो सकती है, जब भोक्ता भोगी गयी घटनाओं के वस्तुनिष्ठ विश्लेषण में सक्षम हो और यह तभी हो सकता है जब भोक्ता के पास घटना- विशेष की मूल कारक सामाजिक प्रक्रिया की समझ देने वाली वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि और विश्लेषण पद्धति हो। दूसरी ओर, एक वैज्ञानिक दृष्टि-सम्पन्न, न्याय और मनुष्यता के प्रति प्रतिबद्ध रचनाकार ‘तदनुभूति’ का भी विश्लेषण और सामान्यीकरण करके सामाजिक यथार्थ का प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत कर सकता है। लूकाच ने काफी पहले ही अपनी पुस्तक ‘समकालीन यथार्थवाद’ में यथार्थ-चित्रण की दो प्रविधियों का उल्लेख किया है: ‘बाहर से’ उद्घाटन और ‘भीतर से’ उद्घाटन। एक लेखक का समाज का अपना अनुभव जिस वर्ग-परिवेश या सामाजिक परिवेश में जीते हुए होगा, वह उसकी आन्तरिक तस्वीर प्रस्तुत करेगा, जबकि इतर वर्ग-परिवेश या सामाजिक परिवेश का चित्रण वह बाहर से करेगा। डिकेन्स और गोर्की ने अपने निम्नवर्गीय चरित्रों का उद्घाटन अन्दर से किया जबकि उच्च और मध्यवर्गीय चरित्रों का बाहर से। स्त्री न होते हुए भी चेर्निशेव्स्की और तोल्स्तोय ने तदनुभूति से स्त्री के अन्तर्जगत और बाह्यजगत को देखा-समझा और वेरा और आन्ना कारेनिना जैसी पात्रों के जरिए स्त्री-जीवन की यंत्रणाओं और मुक्ति-स्वप्नों का महाकाव्य रच डाला। दलित हुए बिना प्रेमचन्द ने ‘कफन’, ‘सद्गति’ और ‘ठाकुर का कुँआ’ जैसी रचनाओं में दलित जीवन की महागाथा दलित नहीं होते हुए भी लिख डाली। निर्मला की त्रासदी उन्होंने बिना स्त्री हुए ही लिख डाली। दलितों के सामाजिक जीवन पर हिन्दी की महानतम उपन्यास-त्रयी जगदीशचन्द्र की है और वे दलित नहीं थे। कहने का मतलब यह कि दलित जीवन के यथार्थ को लिखने के लिए न दलित होना ज़रूरी है, न ही स्त्री जीवन के यथार्थ को लिखने के लिए स्त्री होना ज़रूरी है। हाँ, इतना ज़रूर है कि स्वानुभूति और तदनुभूति के चलते, ‘बाहर से’ चित्रण और ‘भीतर से’चित्रण के चलते, रचनाओं के रंग और शैली और मिजाज़ में अन्तर ज़रूर होगा। पर स्त्री रचनाकारों और दलित रचनाकारों की रचनाओं के मूल्यांकन के लिए अलग आलोचकीय पैमानों और सौन्दर्यशास्त्रीय निकषों की बात बेमानी है, बचकानी है।
आशीष सिंह - एक सर्वमान्य अवधारणा है कि एक रचनाकार अपने समय के प्रति जवाबदेह होता है, ऐसे में आज के समय को किस रूप में देखा-समझा जाये, आज के समय का सामना एक रचनाकार को किस रूप में करना चाहिए और कैसे किया जा रहा है?
कात्यायनी - एक रचनाकार के अपने समय के प्रति जवाबदेही की अवधारणा सर्वमान्य तो नहीं है क्योंकि अभी भी ऐसे लेखकों-कवियों की प्रजाति मौजूद है, जो अपने सृजन-कर्म को अपने आन्तरिक दबावों और आन्तरिक विस्फोटों की उपज मानते हैं। उनका मानना है कि रचना का स्रोत न तो समाज में होता है, न ही रचनाकार की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी बनती है। उत्तर-आधुनिकतावाद और उसकी सहयोगी विचार-सरणियाँ भी अलग ढंग से इन्हीं निष्कर्षों तक पहुँचती हैं। लेकिन हाँ, ज्यादातर रचनाकार फिर भी इस बात को मानते हैं कि हमारी जवाबदेही अपने समय के प्रति बनती है। अब समय के प्रति अपनी जवाबदेही को अलग-अलग रचनाकार अपनी-अपनी राजनीतिक-विचारधारात्मक अवस्थिति के हिसाब से परिभाषित करते हैं। स्पष्ट कर दूँ कि राजनीतिक-विचारधारात्मक अवस्थिति का मतलब दलगत सम्बद्धता नहीं है। हर रचनाकार की एक राजनीतिक-विचारधारात्मक अवस्थिति होती ही है, चाहे वह उसके प्रति सजग हो या न हो। जैसे मैं अपनी बात बता सकती हूँ कि मैं आज के समय को किस रूप में देखती-समझती हूँ और एक रचनाकार की जि़म्मेदारियों को किस रूप में देखती-समझती हूँ। इसको सबसे सटीक तरीके से मैं अफ्रो-अमेरिकी कवि-गायक पॉल रोबसन से शब्द उधार लेकर कह सकती हूँ। स्पेन में जब फासिस्ट ताकतों के विरुद्ध जनता का संघर्ष जारी था, तब रोबसन ने कहा था कि प्रत्येक लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक को अपना पक्ष चुनना होगा। उसने कहा था कि संघर्ष से ऊपर,ओलम्पियन ऊँचाइयों पर खड़ा होने की कोई जगह नहीं होती और कोई तटस्थ प्रेक्षक नहीं होता। ऐसे समय होते हैं जब हम एक प्रतिबद्ध नागरिक का जीवन जीते हुए मुख्यत: सृजन-कर्म को ही अपना मोर्चा बनाये होते हैं। और फिर ऐसे भी दौर आते हैं जब एक सच्चा जनपक्षधर रचनाकार को सड़कों पर उतरना भी पड़ता है और सत्ता का कोपभाजन होने का जोखिम मोल लेना ही पड़ता है। अगर वह ऐसा न करे तो जन-संग-ऊष्मा से रिक्त हो जाता है, सृजनशीलता से रिक्त होकर साहित्य की मुदर्रिसी करने लगता है और अपनी ही नज़रों में गिर जाता है। जैसे हम आज के दौर की बात करें। यह प्रतिक्रिया के चरम उभार का दौर है, असाध्य ढाँचागत संकट से ग्रस्त रुग्ण-वृद्ध पूँजीवाद का दौर है, नवउदारवाद और फासिस्ट उभार का दौर है, अलगाव, व्यक्तित्व के विघटन और बर्बरता का मानवद्रोही दौर है। ऐसे में शान्त अध्ययन-कक्षों में बैठकर सृजनरत रहना और साहित्यिक जलसों में सम्मानित-पुरस्कृत होते रहना ऐय्याशी है, जनता के साथ गद्दारी है। ऐसे में सड़क के मोर्चों पर आम लोगों के कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़ा होना सर्वाधिक उदात्त, मानवीय और काव्यात्मक सृजन-कर्म है। अपना तो यही मानना है। इसीलिए सामाजिक संकटों से विरत रहकर साहित्य और साहित्य की राजनीति और रसरंजन और चेमगोइयों मे तल्लीन वाम धारा के कवियों-लेखकों को मैं छद्म-वामी मानती हूँ, कायर, और दुनियादार और ‘फ्राड’ मानती हूँ।
आशीष सिंह - आपकी कविताओं में न केवल व्यवस्था विरोध का पहलू प्रधान है बल्कि व्यवस्था के इर्द-गिर्द मंडराते तमाम एक पटु व्यवहारवादी कलमकारों की अच्छी-खासी खिंचाई भी की है। कविता में मौजूद तीखापन तिलमिलाए बगैर नहीं रहता, इस भाव-भंगिमा की कविताएँ हैं आपके यहाँ। इसतरह की कविताएँ अपनी मुखरता के लिए बहस का हिस्सा भी बनती रही होंगी, क्या कोई प्रसंग याद है जब इन कविताओं पर किन्हीं खित्तों से कुछ टीका-टिप्पणी असहज होकर की गयी हो या इनकों तवज्जो दी गई हो?
कात्यायनी - राजनीतिक-सामाजिक सन्दर्भ-परिप्रेक्ष्य वाली कविताओं में, जाहिर है कि व्यवस्था–विरोध का पहलू ही मुखर होगा। लेकिन जिस चीज से मुझे सबसे अधिक नफरत होती है, वह है चरित्र का दोहरापन, कैरियरवाद, अवसरवाद और कायरता। ये चीज़ें अगर वाम धारा के कवियों-लेखकों में हों तो और घृणास्पद लगती हैं। एक ओर प्रतिबद्धता का मुखौटा और दूसरी ओर, पद-पीठ-पुरस्कार-सम्मान आदि के लिए सत्ता और पूँजी के संस्कृति-प्रतिष्ठानों के गलियारों में चप्पल फटकाना और प्रभुत्वशाली महामहिमों की महफिलों में हाजिरी बजाना। ऐसी प्रवृत्तियों पर मैं टिप्पणियाँ भी करती रही हूँ और कई कविताएँ भी लिखी हैं। मुझे तमाम साहित्यिक खित्तों में घूमते-फिरते रहने वाले कुछ शुभचिन्तकों-मित्रों से यह पता भी चलता रहता था कि कहाँ-किस महफिल में , मेरी इन कविताओं पर तिलमिलाहटें किस भाषा में प्रकट की गयीं और किस तरह मेरी भर्त्सना की गई। उत्तराखण्ड की भाजपा सरकार के शरणागत हो जाने वाले एक जुगाड़ी कवि ने तो वरिष्ठ कवियों की एक अन्तरंग महफिल में मेरे बॉयकाट का भी प्रस्ताव रखा था। समस्या यह है कि मेरा बॉयकाट कोई करेगा कैसे? मैं उनके झुण्ड में शामिल नहीं, अकादमियों और बड़े प्रकाशन गृहों के मैं चक्कर नहीं काटती, पुरस्कार-सम्मान मुझे चाहिए नहीं। तो फिर मेरा कोई कुछ बिगाड़ना भी चाहे तो क्या बिगाड़ेगा! हाँ, पीठ-पीछे कुछ उल्टी-सीधी बातें करेगा। और उसकी परवाह मैं करती नहीं।
आशीष सिंह - कात्यायनी जी ! क्या आपको नहीं लगता कि आप आज भी एक बड़े साहित्यिक दायरे में हॉकी खेलती लड़कियाँ, गार्गी, सात भाइयों के बीच चम्पा जैसी कविताओं के लिए बार-बार याद की जाती हैं, जबकि आगे चलकर एक राजनीतिक एक्टिविस्ट का स्वर आपकी कविताओं में ज्यादा मुखर होता गया या समकालीन राजनीतिक स्थितियों में एक रचनाकार की भूमिका पर जोर बढ़ता गया, सामाजिक विडम्बनाओं को दर्ज करने वाली कविताएँ कम होती गयी, क्या यह सही है?
कात्यायनी - हाँ , यह आप सही कह रहे हैं कि ‘गार्गी’, ‘सात भाइयों के बीच चम्पा’, ‘हॉकी खेलती लड़कियाँ’ जैसी छ:-सात ऐसी कविताएँ हैं, जो तीन दशक से अधिक समय बाद भी लोकप्रिय बनी हुई हैं। जहाँ भी जाती हूँ, लोग ये कविताएँ ज़रूर सुनना चाहते हैं। मुझे भी ये कविताएँ पसन्द हैं, लेकिन मैं लोकप्रियता को श्रेष्ठता का पैमाना नहीं मानती। जो कविताएँ बहुपरती होंगी, या जिनमें बिम्बात्मक अमूर्तन अधिक होगा, या जिनमें कोई गहन वैचारिक विमर्श होगा, या जिनका कैनवास बड़ा होगा, उन कविताओं के उस हद तक लोकप्रिय होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। जिस तरह राजनीतिक लेखन में‘एजिटेशनल राइटिंग’ होता है, ‘प्रोपेगैण्डा राइटिंग’ होता है और‘एजिट प्रोप राइटिंग’ होता है , उसी तरह कविता में भी लोकप्रिय कविताएँ होती हैं, वैचारिक अन्तर्वस्तु और संश्लिष्ट रूप वाली कविताएँ होती हैं और कुछ ऐसी कविताएँ भी बन पड़ती हैं, जिनमें सहजता, लोकप्रियता और वैचारिकता का संतुलित संश्लेषण होता है। ऐसा भी नहीं है कि बाद की मेरी कविताओं में राजनीतिक एक्टिविस्ट का स्वर ही मुखर होता गया । आप ‘सात भाइयों के बीच चम्पा’ के बाद के मेरे चारों संकलन देखें ----- ‘इस पौरुषपूर्ण समय में’, ‘जादू नहीं कविता’, ‘फुटपाथ पर कुर्सी’ और ‘एक कुहरा पारभासी’। बदलाव यह आया कि 1990 के बाद मेरी कविताओं का आकाश बड़ा होता गया और उसका स्पेक्ट्रम भी बहुवर्णी हो गया। इनमें प्यार, प्रकृति, जेण्डर प्रश्न, सामाजिक जीवन के अनेक रंग और छाया-प्रभाव, अन्तर्जगत की विविध अनुभूतियाँ .....। बेशक, इन सबके साथ अनेक रंगों वाली छोटी-बड़ी राजनीतिक कविताएँ ---- गहन विमर्श से लेकर किसी घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया की राजनीतिक कविताएँ भी बड़ी संख्या में मौजूद है। पर इन सबके बीच सामाजिक विडम्बनाओं और अन्तर्जगत के छाया-प्रभावों को दर्ज करने वाली कविताएँ लगातार मौजूद हैं। राजनीतिक कविताएँ लोगों को ज्यादा दीखती हैं, इसका एक कारण मुखर राजनीतिक स्वर वाली कविताओं के प्रति साहित्य के सुधीजनों में इन दिनों व्याप्त पूर्वाग्रह भी है। दूसरे, राजनीतिक कविताएँ कुछ अधिक होने का कारण कविता में राजनीतिक एक्टिविस्ट का स्वर मुखर होने का नहीं है। राजनीतिक एक्टिविस्ट तो मैं 1980 से हूँ। इसका मूल कारण पिछले तीन दशकों का हमारा राष्ट्रीय परिवेश है। यही तीस वर्षों का समय नवउदारवाद के प्रवेश और वर्चस्व का समय रहा है, और साथ ही, हिन्दुत्ववादी फासिज़्म के उभार और वर्चस्व का समय रहा है। आडवानी की रथयात्रा,बाबरी मस्जिद ध्वंस, गुजरात 2002, 2014 और फिर 2019 ....। और यही वह समय रहा है जबकि हम न केवल बुर्जुआ जनवाद के क्षरण-विघटन के, बल्कि सामाजिक जनवाद की निर्वीयता के भी साक्षी बने। विश्व-पटल पर यदि देखें तो यह समय गतिरोध और उलटाव का विश्व-ऐतिहासिक दौर था। बीसवीं शताब्दी की महान क्रान्तियाँ पराजित हो चुकी थीं और संघर्ष का नया चक्र अभी तक गति नहीं पकड़ पाया है। ऐसे में अगर आप वाकई दिल से एक कम्युनिस्ट हैं तो इस राजनीतिक परिदृश्य पर चिन्तन और चिन्ताओं से आपका कवि-मन भी असम्पृक्त नहीं रह सकता। यदि ये राजनीतिक चिन्ताएँ, द्वंद्व आपकी कविता में आ नहीं पाते तो आप एक जेनुइन कम्युनिस्ट कवि नहीं हैं। आपका कम्युनिज्म ही नहीं, आपका कवित्व भी एक स्वांग है। आप एक फ्रॉड हैं।
आशीष सिंह - आज के समय में एक जनपक्षधर रचनाकार किस रूप में अपनी सामाजिक उपादेयता को सामने लाये। जैसे कि कुछ लेखकों का मानना रहा है कि एक लेखक का लेखन ही अपने समय की जवाबदेही देता है जबकि दूसरे तमाम लेखकों का मानना रहा है कि आज सिर्फ लिखकर ही नहीं बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक भागीदारी करते हुए एक लेखक लेखक बने रह सकता है। आप क्या सोचती हैं इस विषय पर?
कात्यायनी - जैसा कि मैंने पहले भी कहा, आम तौर पर, सामान्य स्थितियों में लेखन ही लेखक का मोर्चा होता है, लेकिन उससमय भी एक सामान्य जागरुक नागरिक के रूप में उसे समाज में जारी तमाम आन्दोलनों और संघर्षों में भी हिस्सा तो लेना ही चाहिए। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान गाँधीवादी, वामपंथी--- लगभग सभी राष्ट्रवादी लेखकों और पत्रकारों ने उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्षों में भागीदारी का जोखिम मोल लिया। यह एक मक्कारी होगी कि रचनाओं में आप सत्ता-विरोध और जनपक्षधरता का स्वाँग करते रहें और साथ ही सत्ता और पूँजी के संस्कृति-प्रतिष्ठानों के चक्कर लगाते रहें,तमाम गुण्डा, भ्रष्ट और कमीने नेताओं के साथ मंच पर भी बैठते रहें और पुरस्कृत भी होते रहें। और समय अगर फासिस्ट उभार का हो, ‘मॉब लिंचिंग’, बुद्धिजीवियों की हत्या, दमन के घटाटोप का हो, तो जनपक्षधर रचनाकार को सड़क की आन्दोलनात्मक सरगर्मियों में भागीदारी करनी ही होगी। ऐसे समय में यही सबसे बड़ा सृजनात्मक कर्म होगा। नाजि़म हिकमत, पाब्लो नेरूदा, चिनुआ अचेबे, न्गूगी वा थ्योंगों जैसे रचनाकारों ने, लातिन अमेरिका और अफ्रीका के बहुतेरे लेखकों-कवियों ने अपने-अपने देशों की निरंकुश आततायी सत्ताओं के विरुद्ध संघर्षों में खुलकर भागीदारी की और उसकी कीमत चुकाई। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान फासिस्टों के खिलाफ न सिर्फ सोवियत संघ के, बल्कि यूरोप और अमेरिका के भी कई लेखकों-कलाकारों ने बन्दूकें उठाईं। और फिर स्पेन में फासिस्ट फ्रांको के खिलाफ गणतंत्रवादियों का साथ देने वाले इण्टरनेशनल ब्रिगेड में शामिल होने वाले उन कवियों-लेखकों को कैसे भुलाया जा सकता है, जिनमें से कई शहीद हो गये। मेरा स्पष्ट मानना है कि यदि लोगों पर फासिज़्म या कोई निरंकुश सत्ता कहर बरपा कर रही हो, सड़कों पर बर्बरता का नग्न नृत्य हो रहा हो, तो हमें सड़कों पर उतरना ही होगा। अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो कल लेखन – कर्म की हमारी आज़ादी भी छिन जायेगी और हमारे लिए बोलने वाला कोई न होगा।
आशीष सिंह - आपने जब लिखना शुरू तब कैसी परिस्थितियाँ रहीं और तत्कालीन किन रचनाकारों से आप ज्यादा प्रभावित रही हैं?
कात्यायनी - मैंने 1986 में रचनात्मक लेखन की शुरुआत की। उसके पहले स्त्रियों की स्थिति को लेकर एकाध अखबारी लेख लिखे थे। मैं थियेटर करते हुए राजनीति की ओर आई थी। शशि प्रकाश से मैंने प्रेम किया और फिर हमलोगों ने आजीवन साथ का निर्णय लिया। वह एक राजनीतिक कार्यकर्ता होने के साथ 1970 के दशक के एक चर्चित कवि भी थे। मैं शुरू में बस व्यक्तिगत लगाव और उत्सुकतावश उनकी कविताओं की डायरियाँ पढ़ती थी। 1981 से 1984 के बीच शशि गाँवों में राजनीतिक काम कर रहे थे और मैं शहर-दर-शहर भटकती जि़न्दगी के परेशानियों से जूझ रही थी। बहुत कठिन दिन थे। उन दिनों मुझे बीच-बीच में शशि के लम्बे–लम्बे पत्र मिलते थे और वे सभी कविताओं के शक्ल में होते थे। जाहिर है, उन पत्रों ने मेरे लिए कविता की दुनिया में प्रवेश के लिए पारपत्र का काम किया। कमोबेश 1984 तक मैंने हिन्दी उपन्यासों के अतिरिक्त गोर्की, हावर्ड फास्ट, फेदिन, फदेयेव, तोल्स्तोय,चेर्निशेव्स्की, तुर्गनेव, दोस्तोयेव्स्की, बाल्जाक, फलाबेयर आदि-आदि को तो खूब पढ़ा, लेकिन कविताओं की दुनिया से परिचय कम ही था। 1984 में मैंने विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य से एम.ए. करते हुए छात्रों में राजनीतिक कामों की शुरुआत की। इत्तफ़ाक़ से तब जो हमलोगों की टीम थी, उसमें अधिकांश कविता-प्रेमी थे। कभी-कभी तो रात-रात भर की बैठकियों में नेरूदा, ब्रेष्ट, नाजिम हिकमत आदि से लेकर निराला,मुक्तिबोध, त्रिलोचन, नागार्जुन, शमशेर, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे, मंगलेश, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, वेणु गोपाल,कुमार विकल, पाश आदि की कविताओं का पाठ चलता था और खूब-खूब बातें होती थीं। इसी माहौल का प्रभाव था कि 1986 में मैंने कविताएँ लिखनी शुरु की। शुरू के कुछ वर्ष ऐसे थे जब मैं त्रिलोचन से सबसे अधिक प्रभावित थी। बाद में यह लगने लगा कि गँवई और लोकजीवन के प्रति एक अनालोचनात्मक रागात्मक आसक्ति है। पूँजीवादी समाज में व्याप्त ‘एलियनेशन’ का निषेध वह जिस रागात्मकता से करते हैं, वह भविष्य की नहीं अतीत की चीज़ है। उनके सॉनेटों में मुझे बाद में दुहराव और एकरसता भी दीखने लगी। लेकिन‘धरती’ की कविताएँ मुझे आज भी बहुत पसन्द है। नागार्जुन कभी मेरे बहुत प्रिय नहीं रहे। अपनी जिन राजनीतिक कविताओं के चलते वह विशेष सराहे जाते हैं, वे घटनाओं की आशु-प्रतिक्रिया है, उनमें राजनीतिक समझ का अभाव है और अन्तरविरोध है। जहाँ उनकी कविताओं में जीवन के सहज चित्र हैं या क्लासिकी संस्पर्श हैं, वे मुझे ज़रूर अच्छी लगती हैं। त्रिलोचन के बाद, मैं एक साथ अलग-अलग कारणों से मुक्तिबोध और शमशेर को पसन्द करने लगी। इनके साथ ही सत्तर के दशक के अग्रणी कवियों को हमलोग खूब पढ़ते थे। शशि की कविताएँ मुझे हमेशा पसन्द रहीं, पर मैं हमेशा से यह जानती थी कि उस तरह की भावप्रवण और विचार-सघन कविताएँ लिखने की मैं कोशिश भी नहीं कर सकती। हाँ , उन कविताओं ने मेरी विचार प्रक्रिया और रचना-प्रक्रिया को ,निश्चय ही, अवचेतन की गहराइयों तक प्रभावित किया। दुनिया की दूसरी भाषाओं की कविताएँ मैं अनुवादों के जरिए ही पढ़ पाती हूँ। जब मैंने लिखना शुरू किया था तो मुख्यत: नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा और ब्रेष्ट की कविताओं से परिचय हुआ था। मायकोव्स्की, येव्तुशेंको आदि की भी कुछ कविताएँ पढ़ी थीं। पर इन सभी में नाजिम हिकमत और पाब्लो नेरूदा मेरे प्रिय कवि थे और आज भी हैं।
आशीष सिंह - जहाँ तक मेरी जानकारी है आप महज कविताएँ या आलोचनात्मक लेखन ही नहीं कहानियाँ भी लिखती रही हैं। कहानियाँ लिखने का यह सिलसिला रुक क्यों गया? एक विधा के तौर पर तो कहानी काफी स्पेस देती है अपनी बात साझा करने के लिए।
कात्यायनी - बेशक एक विधा के तौर पर कहानी ज्यादा स्पेस देती है। व्यक्तिगत तौर पर मेरी दिली चाहत होती है कि कहानियाँ लिखूँ । कई प्लॉट आते रहते हैं दिमाग में। कभी-कभी कुछ‘एक्सपेरिमेण्टल फॉर्म’ भी कौंधते हैं। लेकिन जि़न्दगी और राजनीतिक जि़म्मेदारियों का ढंग ढर्रा कुछ ऐसा है कि कहानी लिखने के लिए जितना ठहरकर, थिराकर, रुककर सोचने और रचनात्मक मशक्कत की ज़रूरत होती है, उतना वक्त और उतनी निश्चिन्तता कभी नसीब ही नहीं होती। लेखन शुरू करने के शुरुआती दस वर्षों के दौरान छ: या सात कहानियाँ लिखी थीं जो ‘रविवारी जनसत्ता’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘हंस’ और‘उद्भावना’ में और कुछ और पत्रिकाओं में छपी थी जिनके नाम भी अब मुझे याद नहीं। आम तौर पर मेरी कविताओं का पहला ड्राफट ही अन्तिम ड्राफट हुआ करता है, समय की कमी के कारण। फिर भी, अभी भी मैं सोचती हूँ कि साल में, बीच-बीच में फुरसत के आठ-दस दिन अगर मिल जाया करे तो फिर से कुछ कहानियाँ लिखूँ। दिमाग में और डायरियों में कुछ आइडिया और कुछ प्लॉट भी पड़े हुए हैं।
आशीष सिंह - आपको अपने समकालीन रचनाकारों शुभा, नीलेश रघुवंशी, अनामिका, सविता सिंह व निर्मला गर्ग की कविताओं की विशिष्टता एक पंक्ति में कहना हो तो क्या कहेंगी?
कात्यायनी - जब मैंने लिखना शुरू किया, लगभग उसी के आसपास,कुछ वर्षों आगे-पीछे अनामिका, गगन गिल, तेजी ग्रोवर, प्रगति सक्सेना, शुभा, नीलेश रघुवंशी, निर्मला गर्ग आदि कई स्त्री-कवियों ने अपनी कविताओं की ओर लोगों का ध्यान खींचा था। इन सभी में शुभा और निर्मला गर्ग को मैं अपने निकट पाती हूँ क्योंकि उनकी कविताओं का फलक तथाकथित ‘स्त्री-सुलभता’ की चौहद्दी का अतिक्रमण करते हुए विविध सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों को भी अपने दायरे में समेटता है। इनमें पर्याप्त समय-सजगता है और शुभा की छोटी-छोटी चीज़ों की हरक़तों को पकड़ने वाली सूक्ष्मग्राही कवि-दृष्टि विशेष तौर पर ग़ौरतलब है। एक विशेष किस्म की काफ़काई आत्मकेन्द्रित संवेदना की गहराइयों में उतरने के पहले गगन गिल की कविताओं की मार्मिकता, मौलिकता और विद्रोही स्वर ने भी खास तौर पर ध्यान खींचा था। आप उनके पहले संकलन ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ की कविताएँ देख सकते हैं। प्रगति सक्सेना ने अपने पहले ही संकलन से ध्यान खींचा था। मुझे तो उनकी कविताएँ विशेष तौर पर पसन्द थीं। पर उन्होंने लिखने से ही सन्यास ले लिया। सचमुच बहुत अफसोस की बात है। सविता सिंह एक बेहद संवेदनशील और विचारशील स्त्री-कवि हैं। उनकी कविताओं में लोक रागात्मक की लिसलिसाहट-चिपचिपाहट नहीं है। सकारात्मक अर्थों में , वह एक आधुनिक मानसिक बनावट-बुनावट वाली कवि हैं। स्त्री-विषयक या प्यार-विषयक उनकी कविताओं का स्वर सबसे अलग लगता है। उनमें एक खास किस्म की भाषाई सजगता भी है। पर उनकी कविताएँ सामाजिक-राजनीतिक आयामों को कुछ कम ही छूती हैं और इस नाते उनका वर्णक्रम कुछ संकुचित-सा है। अनामिका की कविताओं के बारे में मेरी राय दिन-ब-दिन ज्यादा से ज्यादा आलोचनात्मक होती गयी है। कई बार चमकदार बिम्ब गढ़ने का प्रलोभन उन्हें एक खास किस्म के रूपवादी संजाल में ले जाकर फँसा देता है। कई बार उनकी कविताओं के बिम्ब-विधान या आख्यानों में लोकजीवन की रागात्मकता के प्रति एक अनालोचनात्मक आसक्ति दिखाई देती है। उनकी कविताओं में ऐसे चित्र, बिम्ब या छाया-प्रभाव आते हैं जो पुराने जीवन-मूल्यों या संस्थाओं के प्रति एक किस्म की अनालोचनात्मक नॉस्टैल्जिक आसक्ति दिखलाते हैं। वहाँ थोड़ा खटकता है। लेकिन ऐसा कम ही होता है। आम तौर पर,नीलेश मुझे पसन्द है। इधर, हाल के पन्द्रह-बीस वर्षों में बहुत सारी स्त्री–कवियों ने लिखना शुरू किया है। पर बुरा मानने का जोखिम लेकर भी कहना चाहूँगी कि किसी ने भी अपनी निरन्तरता, सुसंगति, विशिष्टता, दृष्टिसम्पन्नता या शिल्प–सजगता से आकृष्ट नहीं किया है। बहुत अफरातफरी है, बहुत हड़बड़ी है। कुछ चमकदार बिम्बों के कौंध जाने, कुछ रुपकों के टपक पड़ने या कहन-शैली में कुछ नाटकियता ला देने मात्र से कविता नहीं बन जाती। इस बात को समझना ज़रूरी है।
आशीष सिंह - कात्यायनी जी जब हम कहते हैं कि हर प्रकार की रचनात्मक अभिव्यक्ति मानवीय सम्पदा है बावजूद इसके साहित्य की तमाम एक अन्तरधाराएँ राजनीतिविहीन नहीं होती हैं, भले ही अपने कलात्मक तेवर में उसमें निहित राजनीति साफ-साफ परिलक्षित न की जा सके, तब भी। ऐसे में मेरे मन में एक सवाल बार-बार उठता है कि हम राजनीतिक कविताएँ या सत्ता विरोधी कविताओं को अलग से क्यों व्याख्यायित या चिन्हित करते-कराते हैं?
कात्यायनी - राजनीति हमारे सामाजिक जीवन की ‘कमाण्डिंग हाइट्स’है और हमारा अन्तर्जगत भी सामाजिक जीवन का ही परावर्तन है। उस रूप में हमारे आत्मिक जीवन का, हमारे मनोभावों का कोई भी पहलू राजनीति से अछूता नहीं हो सकता। हर सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्य और अवस्थिति के पीछे वर्गीय राजनीति के सुनिश्चित मूल्य हैं, सुनिश्चित अवस्थिति है। फिर भी एक विभाजक-रेखा तो बनती है। जब हम प्रकृति या प्रेम या किसी विशिष्ट वैयक्तिक सौन्दर्यात्मक अनुभूति को लेकर एक कविता लिखते हैं, तो उसके अन्तस्तल में एक राजनीतिक अवस्थिति हो सकती है। पर वह कविता राजनीतिक कविता नहीं कहला सकती। दूसरी ओर, एक कविता राज्यसत्ता की निरंकुशता के खिलाफ़ है, फासिस्ट आतंक के खिलाफ़ है, बुर्जुआ राजनीति के खिलाफ़ है, संसदमार्गी वाम राजनीति के खिलाफ़ है,साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ है या उसका विषय नवउदारवाद के दौर की बाज़ार-संस्कृति है, फिलिस्तीन पर ज़ायनवादी आधिपत्य है या इराक-लीबिया-सीरिया में साम्राज्यवादी साजि़श है, तो वह कविता एक राजनीतिक कविता के रूप में ही चिन्हित की जायेगी। हाँ, यह ज़रूर है कि इस विभाजक-रेखा के आरपार भी आवाजाही होती रही है और बड़े कवि अक्सर ऐसा करते रहे हैं। पाब्लो नेरूदा और नाजि़म हिकमत की ‘एपिकल’ या प्रगीतात्मक रूपबंध वाली कई राजनीतिक कविताओं के बीच प्रेम और प्रकृति और जीवन के विविध दृश्य-चित्र आ जाते हैं, और कई प्रेम और राजनीति से इतर प्रसंग पर केन्द्रित कविताओं में इतिहास, स्मृति या समाज के किसी प्रसंग के बहाने राजनीतिक विमर्श भी आता रहता है।
आशीष सिंह - इसी के साथ यह भी साफ लफ़ज़ो में दर्ज़ प्रतिरोधी भंगिमा जब गूढ़ प्रतीकों-बिम्बों के जरिए प्रस्तुत की जाती है,उसमें प्रतिरोध महज दर्ज़ भर होता है लगभग निष्प्रभावी। वहीं दूसरी तरफ जब हम अपने कलात्मक औजारों को उसकी बुनावट, कलात्मकता आदि जरूरी अंकों से रिक्त तक महज भाषाई आक्रोश दर्ज़ करते हैं वह गहरे तौर और देर तक प्रभावित नहीं करती, ऐसे में इन दोनों अतियों को किस तरह से देखती हैं आप? यह सवाल अक्सर पहले भी उठता रहा है थोड़ा विस्तार में जानने के लिए हम आपकी ही काव्य पक्तियाँ दर्ज़ कर रहे हैं—कला को/इस हद तक/माँजा और निखारा जाये/ कि / सच के बारे में/ लिखी जा सके/ एक सीधी-सादी/ छोटी सी कविता । आपकी कविताओं में प्रतिरोधी स्वर मुखरता से देखने को मिलता है कभी-कभी।
कात्यायनी - मार्क्सवादी दृष्टि से यदि देखें तो हर राजनीतिक कविता किसी न किसी रूप में प्रतिरोध की कविता होती है, ‘स्टैण्ड’लेने की कविता होती है। घटनाओं का ‘’तटस्थ’’ ब्योरा वह हो ही नहीं सकती। समस्या यह है कि प्रतिरोध की कविता का कैनवास यदि बड़ा हो, कथ्य अगर बहुपरती हो तो रूपकों-बिम्बों-फन्तासियों या कविताई के जादुई विधानों का सहारा लेने के लिए कवि को बाध्य होना पड़ता है। कई बार कोई सुदीर्घ आख्यान अपने भीतर कई रूपकों को समेटे हुए आता है। जैसे, नाजि़म हिकमत का ‘ह्यूमन लैण्डस्केप’ और ‘एपिक ऑफ शेख बदरुद्दीन’, पाब्लो नेरूदा की ‘माच्चू-पिच्चू के शिखर’ जैसी कई कविताएँ, मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ और दूसरी लम्बी कविताएँ। ऐसी कविताओं से सरलीकरण का आग्रह एक भोड़ा-भद्दा लोकरंजकतावादी आग्रह होगा। दूसरी ओर, इन्हीं कवियों की सीधे मार करती, सरल लेकिन प्रभावी स्थापत्य और शिल्प वाली राजनीतिक कविताएँ भी हैं। अक्सर ऐसा होता है कि हाल में, या तत्काल घटी किसी घटना को लेकर ,या सामयिक तौर पर ज्वलन्त किसी राजनीतिक मुद्दे को लेकर होने वाले मानसिक उद्वेलन के चलते कवि कोई कविता लिखता है तो वह ज्यादा प्रत्यक्ष होती है, सम्प्रेषणीय होती है,उसका फलक भी अक्सर छोटा ही होता है। इन कविताओं को हम कलाहीन नहीं कह सकते। यह कहना सही होगा कि ऐसी कविताओं की कला ऐसी ही हो सकती है। जैसा कि मैंने पहले ही कहा, कविता की सहजता और लोकप्रियता को, या गूढ़ता और संश्लिष्ट बुनावट को कविता की श्रेष्ठता का र्पमाना कत्तई नही बनाया जा सकता। अन्तर्वस्तु के हिसाब से कविता का रूपाकार ढलता है, शिल्प और स्थापत्य निर्धारित होता है। एक संश्लिष्ट बनावट-बुनावट और सुदीर्घ कलेवर वाली कविता के पाठक निश्चय ही कम होंगे, क्योंकि वे उन्नत-चेतस पाठक होंगे। ऐसी कविता का प्रभाव समाज में धीरे-धीरे फैलता है और देर तक मौजूद रहता है। एक सीधी-सादी, सरल राजनीतिक कविता अक्सर घटनाओं-प्रसंगों के आसन्न दबाव या त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में लिखी जाती हैं। कई बार तो वह आन्दोलनों के दबाव या ज़रूरत के तहत भी लिखी जाती हैं। वे बड़ी आबादी को प्रभावित करती हैं, पर यह प्रभाव प्राय: दूरगामी नहीं होता। लेकिन इस बात को भी मानना होगा कि लोकप्रियता एवं सहजता बनाम कलात्मक मँजाव-तराश के बीच एक द्वंद्वात्मक तनाव की स्थिति सर्जक के दिमाग में मौजूद रहती है। लिखते समय जटिल, तरल और पारभासी अनुभूतियों-कौंधों-विचारों को अधिकतम सम्भव सहज सम्प्रेषणीय अभिव्यक्ति देने की कोशिश तो हर जेनुइन कवि करता है, पर अक्सर उसे जितनी भी सफलता मिलती है वह वांछित से कम ही होती है। सरल होने की एक सीमा होती है। कविता में सरल होना शायद सबसे कठिन भी होता है। इसी भाव से मैंने कविता में यह चाहत प्रकट की है कि ,’ कला को/ माँजा और निखारा जाये / इस हद तक कि / सच के बारे में / लिखी जा सके / एक सीधी-सादी छोटी-सी कविता ।‘ सचमुच यह एक बहुत बड़ी और बहुत कठिनता से सधने वाली चाहत है। जाहिर है, मैं यहाँ उन नकली कवियों की बात नहीं कर रही हूँ जो कृत्रिम, चमत्कारी अमूर्त बिम्बों से कविता में चमत्कार पैदा करते हैं या चौंकाने की कोशिश करते हैं। न ही मैं उन कवियों की बात कर रही हूँ जो उबाऊ शब्दस्फीति और बेजान सपाटबयानी के शिकार हैं, फिर भी हठ और बड़बोलेपन के साथ कविताएँ लिखे चले जा रहे हैं। एक बात और । कविता में सपाटबयानी को, गद्यात्मक विवरण को बिना विशिष्ट बिम्ब-विधान या रूपकों या फन्तासी या किसी जादुई तकनीक के इस्तेमाल के, एक विशिष्ट कला के रूप में साधा जा सकता है। यहाँ काव्यात्मक प्रभाव सिर्फ विषय के मर्म पर पकड़ और कहन-शैली की नाटकीयता से पैदा होता है और गद्य के सीमान्तों तक पहुँचकर भी कविता कविता बनी रहती है। बहुत अधिक कविता बनी रहती है। कविताई का यह हुनर साध पाना बेहद मुश्किल होता है। कम कवियों ने ही ऐसा सफलतापूर्वक किया है। इस कला के उस्ताद कवि विष्णु खरे थे। उन जैसा दूसरा हो पाना असम्भव है। छोटी कविताओं में भी, सीधे अभिधात्मक ढंग से , सूत्रवत् अपनी बात कह देने की कला को इधर अपने ढंग से पंकज चतुर्वेदी ने भी साधा है। इधर फेसबुक पर एक युवा कवि नीतेश मिश्रा को मैं अक्सर पढ़ती रही हूँ। नीतेश ने भी जीवन और समाज के काव्यात्मक मर्म को कविता में सीधी-सपाट भाषा में उद्घाटित कर देने की एक विलक्षण कहन-शैली विकसित की है। सीधे-सादे बयानों,संवादों और आख्यानों से कविता लिखने की अपनी विशिष्ट शैली कविता (कृष्णपल्लवी) ने भी इधर विकसित की है। सादगी के साथ आवेगात्मकता उसकी शक्ति है। पर कई जगह वह घटनाओं को अतिनाटकीय या अस्वाभाविक बनाने की टेकनीक का, कुछ-कुछ अतियथार्थवादी शैली की , जादू का और बोधगम्य बिम्बों–रूपकों का भी इस्तेमाल किया है। गत चार-पाँच वर्षों के दौरान उसने कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिक कविताएँ लिखी हैं।
आशीष सिंह - आप क्यों लिखती हैं? या कविताएँ ही क्यों लिखती हैं?वैसे तो यह बचकाना सवाल लग सकता है, लेकिन फिर भी जानने की आकांक्षा है कि आखिर वह कौन-सी अन्त:प्रेरणा है जो आपको लिखने के लिए व्याकुल करती है?
कात्यायनी - मैं क्यों
लिखती हूँ और कविताएँ ही क्यों लिखती हूँ? --- यह सवाल
हमेशा मुझे उलझन और परेशानी में डालता है। मैं बहुत स्पष्टता के साथ नहीं बता
सकती कि मैं क्यों लिखती हूँ। यह मैं सचेतन तौर पर किसी सामाजिक-राजनीतिक जि़म्मेदारी
के तौर पर नहीं करती। कोई अन्दरूनी सर्जनात्मक दबाव है,जो समय-समय पर लिखने के लिए प्रेरित करता है। कुछ स्मृतियाँ, कुछ स्वप्न, कुछ फन्तासियाँ, कुछ कल्पनाएँ, खुद से और
ज़माने से कुछ शिकायतें, कुछ दु:ख, कुछ अपूर्णताएँ,कुछ
अपेक्षाएँ उमड़ते-घुमड़ते किसी खास बिन्दु पर कविता के रसायन में ढलने लगते हैं।
प्रयोगशाला की रासायनिक क्रियाओं में जैसे अवक्षेपण या ‘प्रेसिपिटेशन’ होता है।
राजनीतिक कविता भी मैं विषय या ‘फॉर्म’ के बारे में सोचकर नहीं लिखती। पहली मंजिल में स्वत:स्फूर्तता
का, संवेदनात्मक-भावात्मक उद्वेलन का ही पहलू काम करता है। पूरी
कविता का खाँचा-ढाँचा एकबारगी दिमाग में आ जाता है। फिर लिखते समय वैचारिक सजगता
से खरापन-खोटापन जाँच लेती हूँ। कविताओं का पहला ड्राफट ही अन्तिम होता है, यह मेरी दूसरी व्यस्तताओं की मज़बूरी है। इसके चलते कई
कविताएँ अधूरे स्केचनुमा, याद्दाश्त
के लिए बनाये गये नोट्स के रूप में ही रह गयीं। कई दिमाग़ में सहसा आईं और लिखने
की टेबुल तक पहुँचते-पहुँचते फिसल गयीं। इन्हीं व्यस्तताओं के कारण, जैसा कि
मैंने पहले ही कहा, चाहकर भी
मैं कहानियाँ नहीं लिख पाती। कविताएँ लिखना तो फिर भी हो जाता है। पर कोई अफसोस
नहीं है। यह मेरा अपना चुनाव है। मैंने स्वेच्छा से राजनीतिक-सामाजिक सरगर्मियों
को पहली प्राथमिकता दी है। वे यदि न हों तो जो मैं लिखती हूँ वह भी नहीं लिख पाती
शायद। विशुद्ध अध्ययन-कक्षों की प्राणी न मैं कभी रही, न बन सकती हूँ। एक बात मैं कह सकती हूँ। लिखना जैसे मुझे
पुनर्नवा करता है, तरोताज़ा
करता है। शायद यह मानसिक स्तर पर स्वयं को पुनरुत्पादित करते रहने की कोई
दुर्निवार ललक है, कोई आन्तरिक
दबाव है जो मुझे कविताएँ लिखने के लिए उकसाता है।
आशीष सिंह - अगर स्मृतियों में थोड़ी देर के लिए वापस जाने की बात करें तो वह कौन-सी रचनाएँ होंगी जिसने आपको गहरे तौर पर प्रभावित किया, या ऐसी कौन-सी घटनाएँ रहीं जिसने आपको लिखने के लिए प्रेरित किया?
कात्यायनी - यह बताना तो मेरे लिए बहुत मुश्किल है कि किन रचनाओं ने मुझे गहराई से प्रभावित किया। राजनीति-पूर्व जीवन में तो मैंने प्रेमचन्द से लेकर लुगदी साहित्य की श्रेणी में आने वाले रूमानी और जासूसी उपन्यास ही पढ़े थे। फिर 1989-80 से पढ़ना शुरू किया और धुँआधार पढ़ा। शुरुआती दौर में गोर्की,हावर्ड फास्ट, कोन्स्तान्तिन फेदिन और शोलोखोव बेहद पसन्द रहे। फिर, तोल्स्तोय, तुर्गनेव, लर्मन्तोव, चेर्निशेव्स्की,दोस्तोयेव्स्की, लू शुन, बाल्ज़ाक आदि को पढ़ा। तब तोल्स्तोय,चेर्निशेव्स्की और बाल्ज़ाक सबसे अधिक भाये। अभी भी दिलो-दिमाग पर ‘युद्ध और शान्ति’, ‘पुनरुत्थान’ और ‘अन्ना कारेनिना’ का सर्वाधिक प्रभाव है। भारतीय गद्य साहित्य में प्रेमचन्द, शरद, टैगोर, आशापूर्णा देवी, यशपाल, भीष्म साहनी,जगदीश चन्द्र जैसे लेखकों का जो प्रभाव पड़ा वह आज तक मौजूद हैं। कवियों के बारे में मैं बता चुकी हूँ। 1984-85 में शायद मैंने नाजि़म हिकमत, पाब्लो नेरूदा, ब्रेष्ट, मायकोव्स्की,लोर्का आदि की कविताएँ पढ़नी शुरू की। बाद में तो विश्व के अधिकांश बड़े और चर्चित कवियों को पढ़ा। पर आज भी नेरूदा और नाजि़म हिकमत ही मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं। जीवन की घटनाओं की जहाँतक बात है, मेरा राजनीति-पूर्व जीवन कस्बाई मध्यवर्गीय परिवारों की आम लड़कियों की तरह एकरस और सपाट था। बस परम्पराओं से विद्रोह मेरी पूँजी थी और अधूरी कामनाओं की एक घुटन थी। हॉकी खेलती थी,छुड़ा दिया गया। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा छोड़नी पड़ी। ऐसी थी जि़न्दगी। जब थियेटर करना शुरू किया और राजनीति में आई, तो जैसे एकाएक हलचल और गतियों की एक सरगर्म दुनिया में लाकर पटक दी गई। कुछ समय तो मुझे नयी तौरे-जि़न्दगी का अभ्यस्त होने में लगा। राजनीतिक तौर पर भी बड़े संकट भरे दिन थे। दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं थी कुछ वर्षों तक। जैसा कि अक्सर होता है, कठिनाई के दिनों में ही आपको मनुष्यता, सहृदयता, प्यार और दोस्ती के विरल अनुभव होते हैं और ऐसे ही दिनों में आप तमाम क्षुद्रताओं ,पाखण्डों और मानवद्वेषी प्रवृतियों के भी साक्षी होते हैं। बहुत सारी मार्मिक घटनाओं की एक महागाथा है। मुझे आज भी याद है, 1982 में एक भूमिगत कामरेड के गाँव जाना हुआ था,जिनकी पत्नी ने शादी के बाद के दो वर्ष साथ बिताने के बाद पन्द्रह वर्षों से अपने पति को देखा तक नहीं था। बहुत मुश्किल से ही उन्हें विश्वास हुआ कि वे जीवित हैं। यह घटना बाद में‘पूरब में प्रतीक्षा’ कविता की ज़मीन बनी। एक बार गाँव में खेत मज़दूर स्त्रियों की बैठक में एक युवा स्त्री को शिरकत करते देखा जिसकी छोटी सी बच्ची अभी तीन दिनों पहले ही चल बसी थी। एक बार गाजीपुर के एक गाँव में रात में आकर पुलिस ने हमलोगों के नाटक का शो रोक दिया। इंस्पेक्टर कह रहा था कि ये सभी नक्सलवादी हैं जिनका एनकाउण्टर कर देने का आदेश है ऊपर से। तब गाँव की मज़दूर स्त्रियाँ दीवार की तरह मज़बूती से खड़ी हो गयीं। नाटक तो रुक गया, पर पुलिस को वापस लौटना पड़ा। दशकों लम्बे राजनीतिक जीवन के चढ़ाव-उतार के दौरान बहुत सारे साथियों को थकते और पीछे हटते भी देखा। उनका जाना त्रासद लगता था क्योंकि वे बहुत नेकदिल और सहृदय लोग थे। एक दौर में जोर-शोर से काम करने वाले कई लोगों के व्यक्तित्व को क्षरित-विघटित होते देखा, कइयों को अवसादग्रस्त होते भी देखा। इन सभी घटनाओं से मेरे सर्जनात्मक जीवन का काव्यतत्व आसवित हुआ है। घटनाएँ एक-दो नहीं हैं। कभी चीज़ों को दूरी लेकर सोचने का मौका मिलता है तो सिनेमा के रील की तरह फ्रेम दर फ्रेम तमाम घटनाओं के दृश्य-चित्र आँखों के सामने से गुजरते चले जाते हैं और एक कलात्मक मोंताज सा बनता चला जाता है। इनमें से कुछ, रचनाओं में ढलती-उतरती हैं और कुछ प्रेरक तत्वों की तरह पार्श्वभूमि में बनी रहती हैं।
आशीष सिंह - अगर स्मृतियों में थोड़ी देर के लिए वापस जाने की बात करें तो वह कौन-सी रचनाएँ होंगी जिसने आपको गहरे तौर पर प्रभावित किया, या ऐसी कौन-सी घटनाएँ रहीं जिसने आपको लिखने के लिए प्रेरित किया?
कात्यायनी - यह बताना तो मेरे लिए बहुत मुश्किल है कि किन रचनाओं ने मुझे गहराई से प्रभावित किया। राजनीति-पूर्व जीवन में तो मैंने प्रेमचन्द से लेकर लुगदी साहित्य की श्रेणी में आने वाले रूमानी और जासूसी उपन्यास ही पढ़े थे। फिर 1989-80 से पढ़ना शुरू किया और धुँआधार पढ़ा। शुरुआती दौर में गोर्की,हावर्ड फास्ट, कोन्स्तान्तिन फेदिन और शोलोखोव बेहद पसन्द रहे। फिर, तोल्स्तोय, तुर्गनेव, लर्मन्तोव, चेर्निशेव्स्की,दोस्तोयेव्स्की, लू शुन, बाल्ज़ाक आदि को पढ़ा। तब तोल्स्तोय,चेर्निशेव्स्की और बाल्ज़ाक सबसे अधिक भाये। अभी भी दिलो-दिमाग पर ‘युद्ध और शान्ति’, ‘पुनरुत्थान’ और ‘अन्ना कारेनिना’ का सर्वाधिक प्रभाव है। भारतीय गद्य साहित्य में प्रेमचन्द, शरद, टैगोर, आशापूर्णा देवी, यशपाल, भीष्म साहनी,जगदीश चन्द्र जैसे लेखकों का जो प्रभाव पड़ा वह आज तक मौजूद हैं। कवियों के बारे में मैं बता चुकी हूँ। 1984-85 में शायद मैंने नाजि़म हिकमत, पाब्लो नेरूदा, ब्रेष्ट, मायकोव्स्की,लोर्का आदि की कविताएँ पढ़नी शुरू की। बाद में तो विश्व के अधिकांश बड़े और चर्चित कवियों को पढ़ा। पर आज भी नेरूदा और नाजि़म हिकमत ही मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं। जीवन की घटनाओं की जहाँतक बात है, मेरा राजनीति-पूर्व जीवन कस्बाई मध्यवर्गीय परिवारों की आम लड़कियों की तरह एकरस और सपाट था। बस परम्पराओं से विद्रोह मेरी पूँजी थी और अधूरी कामनाओं की एक घुटन थी। हॉकी खेलती थी,छुड़ा दिया गया। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा छोड़नी पड़ी। ऐसी थी जि़न्दगी। जब थियेटर करना शुरू किया और राजनीति में आई, तो जैसे एकाएक हलचल और गतियों की एक सरगर्म दुनिया में लाकर पटक दी गई। कुछ समय तो मुझे नयी तौरे-जि़न्दगी का अभ्यस्त होने में लगा। राजनीतिक तौर पर भी बड़े संकट भरे दिन थे। दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं थी कुछ वर्षों तक। जैसा कि अक्सर होता है, कठिनाई के दिनों में ही आपको मनुष्यता, सहृदयता, प्यार और दोस्ती के विरल अनुभव होते हैं और ऐसे ही दिनों में आप तमाम क्षुद्रताओं ,पाखण्डों और मानवद्वेषी प्रवृतियों के भी साक्षी होते हैं। बहुत सारी मार्मिक घटनाओं की एक महागाथा है। मुझे आज भी याद है, 1982 में एक भूमिगत कामरेड के गाँव जाना हुआ था,जिनकी पत्नी ने शादी के बाद के दो वर्ष साथ बिताने के बाद पन्द्रह वर्षों से अपने पति को देखा तक नहीं था। बहुत मुश्किल से ही उन्हें विश्वास हुआ कि वे जीवित हैं। यह घटना बाद में‘पूरब में प्रतीक्षा’ कविता की ज़मीन बनी। एक बार गाँव में खेत मज़दूर स्त्रियों की बैठक में एक युवा स्त्री को शिरकत करते देखा जिसकी छोटी सी बच्ची अभी तीन दिनों पहले ही चल बसी थी। एक बार गाजीपुर के एक गाँव में रात में आकर पुलिस ने हमलोगों के नाटक का शो रोक दिया। इंस्पेक्टर कह रहा था कि ये सभी नक्सलवादी हैं जिनका एनकाउण्टर कर देने का आदेश है ऊपर से। तब गाँव की मज़दूर स्त्रियाँ दीवार की तरह मज़बूती से खड़ी हो गयीं। नाटक तो रुक गया, पर पुलिस को वापस लौटना पड़ा। दशकों लम्बे राजनीतिक जीवन के चढ़ाव-उतार के दौरान बहुत सारे साथियों को थकते और पीछे हटते भी देखा। उनका जाना त्रासद लगता था क्योंकि वे बहुत नेकदिल और सहृदय लोग थे। एक दौर में जोर-शोर से काम करने वाले कई लोगों के व्यक्तित्व को क्षरित-विघटित होते देखा, कइयों को अवसादग्रस्त होते भी देखा। इन सभी घटनाओं से मेरे सर्जनात्मक जीवन का काव्यतत्व आसवित हुआ है। घटनाएँ एक-दो नहीं हैं। कभी चीज़ों को दूरी लेकर सोचने का मौका मिलता है तो सिनेमा के रील की तरह फ्रेम दर फ्रेम तमाम घटनाओं के दृश्य-चित्र आँखों के सामने से गुजरते चले जाते हैं और एक कलात्मक मोंताज सा बनता चला जाता है। इनमें से कुछ, रचनाओं में ढलती-उतरती हैं और कुछ प्रेरक तत्वों की तरह पार्श्वभूमि में बनी रहती हैं।
आशीष सिंह - एक दौर में
लघु पत्रिकाओं ने एक तरह से समानान्तर साहित्यिक आन्दोलन को आगे लाने का काम
किया था। यहाँ तक कहा जाता है कि लघु पत्रिकाएँ प्रतिरोध के छोटे-छोटे उपक्रम हैं।
कहते हैं कि आज फिर छोटी-छोटी लघु पत्रिकाओं का दौर वापस आया है। तमाम छोटी-छोटी
जगहों से स्थानीय साहित्यिक स्वरों के साथ ही वैश्विक सवालों को दर्ज़ करने में
मुब्तिला हैं, क्या ऐसा ही है ?
कात्यायनी - 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों तक लघु पत्रिका आन्दोलन वास्तव में समान्तर साहित्यान्दोलन था। उसमें गुरुत्व और गति थी, मठों और गढ़ों से टकराने का संकल्प था। फिर जिन विचारधारात्मक कारणों और 1980 के दशक की जिस वस्तुगत स्थितियों के चलते व्यवस्था–विरोधी राजनीति की धारा गतिरोध और बिखराव का शिकार हुई, कमोबेश उन्हीं कारणों से वह साहित्यिक आन्दोलन भी विघटन का शिकार हो गया। फिर तो बाज़ार की शक्तियों के वर्चस्व के नये दौर में, वाम जनवादी धारा का साहित्य भी ज्यादातर बड़े घरानों की रंगीन पत्रिकाओं के साहित्यिक विशेषांकों, वार्षिकांकों और अखबारों के परिशिष्टों में ही छपने लगी। लघु पत्रिकाएँ पार्श्वभूमि में चली गयीं। कुछ लघु पत्रिकाएँ सम्पादक के जुगाड़ कौशल और विज्ञापनों के बूते ग्रंथाकार बड़ी पत्रिकाएँ बन गयीं और कुछ रंगीन होकर बड़े घरानों की पत्रिकाओं से होड़ करने की, क्षुद्र, विदूषकीय कोशिश करने लगीं। यह सही है कि पिछले लगभग दस-पन्द्रह वर्षों के दौरान बड़े शहरों के साथ ही छोटी-छोटी जगहों से एक बार फिर ढेर सारी लघु पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगी हैं। इनके जरिए लेखकों-कवियों की पूरी एक नयी पीढ़ी सामने आ रही है। साहित्य और समाज के वैचारिक पक्षों से जुड़ी बहुत सारी सामग्री सामने आ रही है। गौरतलब यह है कि कुछ विभ्रमों और कुछ बचकानेपन-उथलेपन के बावजूद ज्यादातर पत्रिकाओं का तेवर वाम-जनवादी ही है। पर कुछ चीज़ों की ओर मैं खास तौर पर इंगित करना चाहती हूँ। एक तो आज के समय में 1970 के दशक का आवेगमय, सरगर्म राजनीतिक-सांस्कृतिक माहौल नहीं है। इसलिए वाम जनवादी साहित्यिक आन्दोलन और लेखक संगठनों में भी पर्याप्त पतनशील परिदृश्य है, उखाड़-पछाड़, गुटबन्दी-हदबन्दी-चकबन्दी है,पुरानों के बरक्स नया मठाधीश बनने की उग्र आकांक्षाएँ हैं,कभी खुले तो कभी गुप्त घृणित समझौते हैं। इस दौर में लघु पत्रिका आन्दोलन जहाँ एक महत्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका निभा रहा है, वहीं कई लघु पत्रिकाएँ मठाधीशी, कैरियरवाद,अवसरवाद और उखाड़-पछाड़ का औजार भी बनी हुई हैं। दरअसल, क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन का पुनरुत्थान अभी भी गति नहीं पकड़ सका है और जो स्थापित वाम है वह बाज़ार की शक्तियों के साथ प्रेम की पींगे बढ़ा रहा है। इसी की अभिव्यक्ति, विस्तार या प्रतिफल हमें साहित्यिक-सांस्कृतिक दायरे में भी दीख रहा है। वाम के नाम पर छद्म-वाम का घटाटोप यहाँ भी कम नहीं है। दूसरी बात जो ग़ौरतलब है, वह यह कि हिन्दी की लघु पत्रिकाओं में इन दिनों भूमण्डलीकरण,उत्तरआधुनिकता, पर्यावरण, लकां, देरिदा, फूको, फ्रेडरिक जेम्सन, टेरी ईगल्टन आदि-आदि का शोर तो काफी सुनाई देता है, पर सैद्धान्तिक विमर्श का स्तर बड़ा हल्का और अधकचरा है। कई लोग विषय को बिना समझे बस कुछ लिखे जा रहे हैं। कुछ लोग विषय न समझ पाने के कारण सैद्धान्तिक सामग्री का गलत या अबूझ अनुवाद कर रहे हैं। एक युवा आलोचक हैं वह वेर्सों से प्रकाशित ‘लकां फॉर बिगिनर्स’, ‘देरिदा फॉर बिगिनर्स’, ‘पोस्ट मॉडर्निज़्म फॉर बिगिनर्स’ जैसी पुस्तिकाओं को पढ़कर धुँआधार वैचारिक लेखन किये जा रहे हैं और विचारक के रूप में स्थापित हुए जा रहे हैं। दरअसल, कथित विचारकों की इस नयी पीढ़ी ने मार्क्सवादी क्लासिक्स का गम्भीर अध्ययन किया ही नहीं है। साहित्य-सैद्धान्तिकी का भी इनका व्यवस्थित नहीं, बल्कि पल्लवग्राही अध्ययन है। ऐसे लोग जब सैद्धान्तिक विमर्श करेंगे तो नये पाठकों की दृष्टि साफ करने की जगह उन्हें और अधिक ‘कन्फयूज़’ करेंगे।
आशीष सिंह - इसी के साथ यह भी देखने की ज़रूरत है कि इनमें से तमाम एक पत्रिकाएँ या उनसे जुड़ी स्थानीय साहित्यिक संस्थाएँ पुरस्कार-सम्मान के बहाने स्वयं को ही उपकृत करने में लगी हैं। सरकारी-गैरसरकारी साहित्यिक पुरस्कारों के बारे में आपने अपना स्टैण्ड कई बार सामने रखा है, तमाम बड़े व स्थापित कहे जाने वाले रचनाकारों का स्टैण्ड कई बार भ्रम पैदा करता है। इन सबके बारे में आपका क्या कहना है?
कात्यायनी - बिल्कुल! यही तो मेरा भी कहना है। बहुतेरी पत्रिकाएँ और उससे जुड़ी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएँ नया मठ बन जाना चाहती हैं। महानगरों के लम्पट, रसरंजनी, उभरते मठाधीशों को चुनौती देने के लिए छोटे-छोटे शहरों में भी कुछ दुर्दान्त महत्वाकांक्षी लोग गिरोहबन्दी कर रहे हैं। वे भी मठाधीश बनने को आतुर कुण्ठित-मानस लोग हैं। बहुत निम्न स्तर की राजनीति है। कई लोग तो पत्रिकाएँ महज इसलिए निकालते हैं कि रचनात्मक लेखन में फिसड्डी हैं, लेकिन साहित्य में खूँटा गाड़ने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। सो, और कुछ नहीं, तो एक पत्रिका ही निकाल देते हैं। कहते हैं न, अगर कविता-कहानी न लिख पाओ तो आलोचना लिखने लग जाओ और वह भी न कर पाओ तो एक पत्रिका निकाल दो। एक सम्पादक केवल प्रबंधक या संकलनकर्ता ही नहीं होता। वह कुशल पारखी होता है, साहित्य का शिक्षक और संगठनकर्ता होता है। पर आज कितने ऐसे लोग हैं! और यह जो पुरस्कार-सम्मान का खेल चल रहा है, यह भी, दरअसल, ज्यादातर मामलों में, मठ जमाने का ही एक उपक्रम है। इसके पीछे प्राय: जटिल और कुत्सित राजनीति होती है। मैंने तो काफ़ी पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि मैं सरकार या किसी भी सरकारी अकादमी या एन.जी.ओ. या पूँजी घराने के सांस्कृतिक प्रतिष्ठान से न तो कोई पुरस्कार-सम्मान लूँगी, न ही उनके आयोजनों में शामिल होऊँगी। जब विभिन्न छोटी साहित्यिक पत्रिकाओं और उनसे जुड़ी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की निहित स्वार्थों की‘पॉलिटिक्स’ देखी तो मेरे कान खड़े हो गये। अतिरिक्त सावधानी बरतना ही मैंने बेहतर समझा और पिछले दिनों मैंने यह घोषणा कर दी कि अब मैं किसी भी संस्था से कोई सम्मान या पुरस्कार नहीं लूँगी। पुरस्कारों – सम्मानों के बारे में पहले से मेरी यह स्पष्ट सोच रही है कि वाम जनवादी धारा के प्रतिबद्ध रचनाकारों को सत्ता और पूँजी के साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों से कभी कोई सम्मान या पुरस्कार नहीं लेना चाहिए और बुर्जुआ नेताओं, थैलीशाहों, नौकरशाहों के साथ कत्तई मंच नहीं शेयर करना चाहिए। और आज की स्थिति तो विशेष है। जो लोग अपने को प्रगतिशील कहते हैं और बर्बर फासिस्टों के शासन के दौर में सरकार से सम्मान-पुरस्कार लेते हैं,अकादमियों में पद लेते हैं, सरकारी आयोजनों में हिस्सा लेते हैं,वे बेशर्म किस्म के सम्मान-लोलुप और बेग़ैरत लोग हैं। वे ऐतिहासिक अपराध कर रहे हैं। उन्हें माफ नहीं किया जा सकता।
(लखनऊ, जुलाई 2019)
साक्षात्कार कर्ता - आशीष सिंह (लखनऊ)
08739015727
कात्यायनी - कवयित्री ,सामाजिक -राजनीतिक कार्यकर्ता (लखनऊ)
सम्पर्क : +91 99366 50658
कात्यायनी - 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों तक लघु पत्रिका आन्दोलन वास्तव में समान्तर साहित्यान्दोलन था। उसमें गुरुत्व और गति थी, मठों और गढ़ों से टकराने का संकल्प था। फिर जिन विचारधारात्मक कारणों और 1980 के दशक की जिस वस्तुगत स्थितियों के चलते व्यवस्था–विरोधी राजनीति की धारा गतिरोध और बिखराव का शिकार हुई, कमोबेश उन्हीं कारणों से वह साहित्यिक आन्दोलन भी विघटन का शिकार हो गया। फिर तो बाज़ार की शक्तियों के वर्चस्व के नये दौर में, वाम जनवादी धारा का साहित्य भी ज्यादातर बड़े घरानों की रंगीन पत्रिकाओं के साहित्यिक विशेषांकों, वार्षिकांकों और अखबारों के परिशिष्टों में ही छपने लगी। लघु पत्रिकाएँ पार्श्वभूमि में चली गयीं। कुछ लघु पत्रिकाएँ सम्पादक के जुगाड़ कौशल और विज्ञापनों के बूते ग्रंथाकार बड़ी पत्रिकाएँ बन गयीं और कुछ रंगीन होकर बड़े घरानों की पत्रिकाओं से होड़ करने की, क्षुद्र, विदूषकीय कोशिश करने लगीं। यह सही है कि पिछले लगभग दस-पन्द्रह वर्षों के दौरान बड़े शहरों के साथ ही छोटी-छोटी जगहों से एक बार फिर ढेर सारी लघु पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगी हैं। इनके जरिए लेखकों-कवियों की पूरी एक नयी पीढ़ी सामने आ रही है। साहित्य और समाज के वैचारिक पक्षों से जुड़ी बहुत सारी सामग्री सामने आ रही है। गौरतलब यह है कि कुछ विभ्रमों और कुछ बचकानेपन-उथलेपन के बावजूद ज्यादातर पत्रिकाओं का तेवर वाम-जनवादी ही है। पर कुछ चीज़ों की ओर मैं खास तौर पर इंगित करना चाहती हूँ। एक तो आज के समय में 1970 के दशक का आवेगमय, सरगर्म राजनीतिक-सांस्कृतिक माहौल नहीं है। इसलिए वाम जनवादी साहित्यिक आन्दोलन और लेखक संगठनों में भी पर्याप्त पतनशील परिदृश्य है, उखाड़-पछाड़, गुटबन्दी-हदबन्दी-चकबन्दी है,पुरानों के बरक्स नया मठाधीश बनने की उग्र आकांक्षाएँ हैं,कभी खुले तो कभी गुप्त घृणित समझौते हैं। इस दौर में लघु पत्रिका आन्दोलन जहाँ एक महत्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका निभा रहा है, वहीं कई लघु पत्रिकाएँ मठाधीशी, कैरियरवाद,अवसरवाद और उखाड़-पछाड़ का औजार भी बनी हुई हैं। दरअसल, क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन का पुनरुत्थान अभी भी गति नहीं पकड़ सका है और जो स्थापित वाम है वह बाज़ार की शक्तियों के साथ प्रेम की पींगे बढ़ा रहा है। इसी की अभिव्यक्ति, विस्तार या प्रतिफल हमें साहित्यिक-सांस्कृतिक दायरे में भी दीख रहा है। वाम के नाम पर छद्म-वाम का घटाटोप यहाँ भी कम नहीं है। दूसरी बात जो ग़ौरतलब है, वह यह कि हिन्दी की लघु पत्रिकाओं में इन दिनों भूमण्डलीकरण,उत्तरआधुनिकता, पर्यावरण, लकां, देरिदा, फूको, फ्रेडरिक जेम्सन, टेरी ईगल्टन आदि-आदि का शोर तो काफी सुनाई देता है, पर सैद्धान्तिक विमर्श का स्तर बड़ा हल्का और अधकचरा है। कई लोग विषय को बिना समझे बस कुछ लिखे जा रहे हैं। कुछ लोग विषय न समझ पाने के कारण सैद्धान्तिक सामग्री का गलत या अबूझ अनुवाद कर रहे हैं। एक युवा आलोचक हैं वह वेर्सों से प्रकाशित ‘लकां फॉर बिगिनर्स’, ‘देरिदा फॉर बिगिनर्स’, ‘पोस्ट मॉडर्निज़्म फॉर बिगिनर्स’ जैसी पुस्तिकाओं को पढ़कर धुँआधार वैचारिक लेखन किये जा रहे हैं और विचारक के रूप में स्थापित हुए जा रहे हैं। दरअसल, कथित विचारकों की इस नयी पीढ़ी ने मार्क्सवादी क्लासिक्स का गम्भीर अध्ययन किया ही नहीं है। साहित्य-सैद्धान्तिकी का भी इनका व्यवस्थित नहीं, बल्कि पल्लवग्राही अध्ययन है। ऐसे लोग जब सैद्धान्तिक विमर्श करेंगे तो नये पाठकों की दृष्टि साफ करने की जगह उन्हें और अधिक ‘कन्फयूज़’ करेंगे।
आशीष सिंह - इसी के साथ यह भी देखने की ज़रूरत है कि इनमें से तमाम एक पत्रिकाएँ या उनसे जुड़ी स्थानीय साहित्यिक संस्थाएँ पुरस्कार-सम्मान के बहाने स्वयं को ही उपकृत करने में लगी हैं। सरकारी-गैरसरकारी साहित्यिक पुरस्कारों के बारे में आपने अपना स्टैण्ड कई बार सामने रखा है, तमाम बड़े व स्थापित कहे जाने वाले रचनाकारों का स्टैण्ड कई बार भ्रम पैदा करता है। इन सबके बारे में आपका क्या कहना है?
कात्यायनी - बिल्कुल! यही तो मेरा भी कहना है। बहुतेरी पत्रिकाएँ और उससे जुड़ी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएँ नया मठ बन जाना चाहती हैं। महानगरों के लम्पट, रसरंजनी, उभरते मठाधीशों को चुनौती देने के लिए छोटे-छोटे शहरों में भी कुछ दुर्दान्त महत्वाकांक्षी लोग गिरोहबन्दी कर रहे हैं। वे भी मठाधीश बनने को आतुर कुण्ठित-मानस लोग हैं। बहुत निम्न स्तर की राजनीति है। कई लोग तो पत्रिकाएँ महज इसलिए निकालते हैं कि रचनात्मक लेखन में फिसड्डी हैं, लेकिन साहित्य में खूँटा गाड़ने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। सो, और कुछ नहीं, तो एक पत्रिका ही निकाल देते हैं। कहते हैं न, अगर कविता-कहानी न लिख पाओ तो आलोचना लिखने लग जाओ और वह भी न कर पाओ तो एक पत्रिका निकाल दो। एक सम्पादक केवल प्रबंधक या संकलनकर्ता ही नहीं होता। वह कुशल पारखी होता है, साहित्य का शिक्षक और संगठनकर्ता होता है। पर आज कितने ऐसे लोग हैं! और यह जो पुरस्कार-सम्मान का खेल चल रहा है, यह भी, दरअसल, ज्यादातर मामलों में, मठ जमाने का ही एक उपक्रम है। इसके पीछे प्राय: जटिल और कुत्सित राजनीति होती है। मैंने तो काफ़ी पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि मैं सरकार या किसी भी सरकारी अकादमी या एन.जी.ओ. या पूँजी घराने के सांस्कृतिक प्रतिष्ठान से न तो कोई पुरस्कार-सम्मान लूँगी, न ही उनके आयोजनों में शामिल होऊँगी। जब विभिन्न छोटी साहित्यिक पत्रिकाओं और उनसे जुड़ी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की निहित स्वार्थों की‘पॉलिटिक्स’ देखी तो मेरे कान खड़े हो गये। अतिरिक्त सावधानी बरतना ही मैंने बेहतर समझा और पिछले दिनों मैंने यह घोषणा कर दी कि अब मैं किसी भी संस्था से कोई सम्मान या पुरस्कार नहीं लूँगी। पुरस्कारों – सम्मानों के बारे में पहले से मेरी यह स्पष्ट सोच रही है कि वाम जनवादी धारा के प्रतिबद्ध रचनाकारों को सत्ता और पूँजी के साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों से कभी कोई सम्मान या पुरस्कार नहीं लेना चाहिए और बुर्जुआ नेताओं, थैलीशाहों, नौकरशाहों के साथ कत्तई मंच नहीं शेयर करना चाहिए। और आज की स्थिति तो विशेष है। जो लोग अपने को प्रगतिशील कहते हैं और बर्बर फासिस्टों के शासन के दौर में सरकार से सम्मान-पुरस्कार लेते हैं,अकादमियों में पद लेते हैं, सरकारी आयोजनों में हिस्सा लेते हैं,वे बेशर्म किस्म के सम्मान-लोलुप और बेग़ैरत लोग हैं। वे ऐतिहासिक अपराध कर रहे हैं। उन्हें माफ नहीं किया जा सकता।
(लखनऊ, जुलाई 2019)
साक्षात्कार कर्ता - आशीष सिंह (लखनऊ)
08739015727
कात्यायनी - कवयित्री ,सामाजिक -राजनीतिक कार्यकर्ता (लखनऊ)
सम्पर्क : +91 99366 50658
कात्यायनी जी का साक्षात्कार पूरा का पूरा एक बार में पढ़ गया। नज़रें उठी ही नहीं.. इतनी साफगोई और बेबाकी से उन्होंने आशीष जी के प्रश्नों का जवाब दिया जिससे मुझ जैसे नौसिखिए की आँखों के आगे पड़े धूल को साफ करने में बहुत मदद मिली। कात्यायनी जी की एक बात तो मैं ज़रूर कोट करना चाहूंगा.. "यह प्रतिक्रिया के चरम उभार का दौर है, असाध्य ढाँचागत संकट से ग्रस्त रुग्ण-वृद्ध पूँजीवाद का दौर है, नवउदारवाद और फासिस्ट उभार का दौर है, अलगाव, व्यक्तित्व के विघटन और बर्बरता का मानवद्रोही दौर है। ऐसे में शान्त अध्ययन-कक्षों में बैठकर सृजनरत रहना और साहित्यिक जलसों में सम्मानित-पुरस्कृत होते रहना ऐय्याशी है, जनता के साथ गद्दारी है। ऐसे में सड़क के मोर्चों पर आम लोगों के कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़ा होना सर्वाधिक उदात्त, मानवीय और काव्यात्मक सृजन-कर्म है। अपना तो यही मानना है। इसीलिए सामाजिक संकटों से विरत रहकर साहित्य और साहित्य की राजनीति और रसरंजन और चेमगोइयों मे तल्लीन वाम धारा के कवियों-लेखकों को मैं छद्म-वामी मानती हूँ, कायर, और दुनियादार और ‘फ्राड’ मानती हूँ।"
जवाब देंहटाएंइस बेहद महत्वपूर्ण साक्षात्कार को यहाँ प्रस्तुत करने के लिए बिजूका का आभार। आशीष भाई को साधुवाद।