शोभू कैसा है?
हर रोज उस गाड़ी का उस मोहल्ले में आना एक
महाभारत को जन्म देता था। मोहल्ला, या यूं कहें एक
बस्ती या एक बस्तीनुमा मोहल्ला! जहां हर घर में दिनभर की कमाई रात के खाने का का
मीनू तय करती थीं। किसी के घर की दहलीज लांघती हुई पराठे की खुशबू बताती थीं कि आज
उसे कोई अच्छा आसामी मिला होगा। जिन्दगी की जद्दोजहद में पराठे की खुशबू ही यहां
के उत्सव का प्रतीक थीं। अलबत्ता किसी घर से हंसी के ठहाके, किसी घर से पिटती हुई औरत की कराह और किसी घर से बीमार
बच्चे की तड़फ भी यहां के माहौल का अटूट हिस्सा थी। एक दिन यहां के नब्बू ने पड़ोसी जग्गू से अपने
मोहल्ले की पहचान बताते हुए डींगे हांकी “अपने मोहल्ले में तो बस कुछ है? बोलो क्या कमी है?”, तभी ओटले का झाडू
लगा रही शन्नों को देखकर जग्गू ने हूंकार भरी “हां!!! सब कुछ तो है। पर एक कमी है।“ “वो क्या?” नब्बू ने कहा “बस प्यार नहीं है, किसी को किसी से।
बगैर प्रेम की गली है हमारी!”। शन्नो को लगा
नब्बू उसे छेड़ रहा है। उसने चिल्लते हुए उसकी तरफ झाड़ू फेंकी “ले, बताती हूं तेरे को प्यार क्या होता है? ज्यादा होशियारी
दिखायेगा तो पुलिस में केस करके मजा चखाउंगी।“ नब्बू दौड़कर घर में घुस गया।
यह तो महाभारत का ट्रेलर था। असली महाभारत का
तो समय फिक्स है, हर रोज सुबह आठ
से नौ बजे तक। हर रोज सुबह आठ बजे घर—घर से कचरा उठाने वाली गाड़ी इस गली में पहुंचती है। मोहल्ले में गाड़ी का
प्रवेश होते ही शन्नो के दिलो और दिमाग का पारा सातवे आसमान की यात्रा करने लगता
है। कुछ लोग गाड़ी की तारीफ भी करते थे, जैसे उसके कारण हमारे घरों का कचरा साफ हो जाता है। गाड़ी में कचरा डालते
लोगों को देखकर ज्यादातर लोग यह पता लगा लेते थे कि कल किस के घर में कौन सी सब्जी
बनी थीं ? किसने तरबूज का छिलका
फेंका और किसने केले खाए। किसने कल अण्डा खाया और किसके घर से मुर्गी की टांग
निकली थी। यानी कचरा गाड़ी सिर्फ कचरा गाड़ी थी, बल्कि वह ऐसे पारदर्शी कांच की तरह लगती थी, जिसमें रसोई घर में पकी सब्जियां देखी जा सकती
थीं।
कचरा गाड़ी के इस पारदर्शीपन से शन्नों को कोई
तकलीफ नहीं थी। उसे तकलीक कुछ ऐसा शास्वत बातों सें, जिसे बदलना मुमकिन नहीं था। मोहल्ले में कचरागाड़ी वाले से रोज—रोज होते शन्नों के झगड़ो को सुलझाने के लिए
यहां के नब्बू ने एक बार अपनी राय रखी कि “यदि गाड़ी वाला गाड़ी पर तेज आवाज़ में बजने वाला स्वच्छता का गाना बजाना बंद
कर दें तो शन्नों की की शिकायत दूर हो जाएगी।“ लेकिन शन्नों के तेवर जस के तस थे। उसने नब्बू को साफ
इतल्ला कर दी, कि “बात सिरफ गाने के शोर की नहीं है। एक तो गाड़ी
के मोहल्ले में घुसते ही ऐसा लगता जैसा कोई बदबू का फब्बारा गली में छोड़ दिया हो।
दूसरी बात शोभू जानबूझ कर मेरे घर के सामने गाड़ी खड़ी करता है और गाड़ी की पूरी
बदबू मेरे घर में घुस जाती है।“ नब्बू समेत
मोहल्ले के ज्यादातर लोगों को भी शन्नों की बात में दम लगने लगा था।
शन्नो की पीड़ा ने मोहल्ले वालों की संवेदना
बटोर ली थी। लेकिन उनकी संवेदना रोज—रोज के झगड़ो को रोक नहीं पाई। हर रोज झगड़ा नए मुकाम पर होता और गाली—गलौच के मामले में पिछले दिन का रिकॉर्ड तोड़ता
नजर आता है। रोज—रोज के झगड़े से
लोग तंग जरूर हो गए थे, लेकिन एक दिन जब
किसी कारण मोहल्ले में गाड़ी नहीं आई तो कई लोगों को पूरा दिन सूना लगने लगा। यानी
शन्नों का हर रोज का यह झगड़ किसी पियक्कड़ के नशे की तरह जिन्दगी का हिस्सा बन
गया था। इसके बाद भी लोग हर रोज कोशिश करते कि झगड़ा जल्दी खत्म हो जाए और शन्नो
और शोभू दोनों सलामत रहे।
शन्नो का झगड़ा सिर्फ शन्नो का नहीं था। इसमें
पूरा मोहल्ला एक थर्ड पार्टी की तरह था। लोगों को लगता था कि शन्नो का झगड़ा कचरा
गाड़ी से नहीं, उस गाड़ी के साथ
आने वाले शोभू से है। आखिर रोज उसकी लड़ाई शोभू से ही तो होती है। लेकिन शोभू भी
तो खुरापाती है। क्या जरूरत है रोज—रोज शन्नो के घर
के सामने गाड़ी खड़ी करने की? जोर—जोर से गाने बजाने की जरूरत ही क्या है? सुबह घर के ओटले
पर दांत मांजते हुए आदमी लोग इसी झगड़े की चर्चा करते और झगड़े का कारण तलाशने जुट
जाते। ठीक वैसे ही, जैसे किसी गहरी
नदी में फेंका गया कोई सिक्का तलाश रहे हो।
कुल्ला करते हुए नब्बू चाचा ने पड़ोसी जग्गू से
कहा “यार ये शोभू और शन्नों की
बीच तो छत्तीस का आंकड़ा है। शोभू का नाम सुनते ही शन्नो ऐसे आग बबूला हो जाती है
जैसे कोई पिछले जनम की दुश्मनी हो। न जाने कैसी नफरत है दोनों के बीच ? एक काम करते हैं नब्बू, वो नगर निगम में
अर्जी देकर शोभू की ड्यूटी यहां से बदलवा देते हैं”, जग्गू ने कहा। पता नहीं क्यों नब्बू को जग्गू की यह बात
जंची नहीं। उसने कहा “नगर निगम में कोई
किसी की नहीं सुनता जग्गू । और फिर शोभू को पता चला तो खम्ख्वाह वो हमसे बैर रखने
लगेगा।“ “ठीक है।“ दोनों ने एक साथ ठंडे स्वर में ऐसे कहा जैसे नफरत के महासागर को पार करने की नाकाम
कोशिश कर रहे हों। अंतत: एक हारी हुई सेना की तरह दोनों वार्तालाप खत्म कर अपने—अपने घर में घुस गए। शन्नों और शोभू की यह नफरत
अक्सर लोगों की चर्चा का विषय हुआ करती थीं। यह एक मात्र ऐसा मोहल्ला था, जहां लोग शन्नों और शोभू की नफरत पर इतनी बात
करते थे, जितनी कभी किसी की
मोहब्बत पर नहीं हुई होगी।
आज फिर कचरा गाड़ी मोहल्ले के मुहाने पर थीं।
इधर शन्नो के घर से पराठे की खुशबू बाहर झांक रही थीं। कचरा गाड़ी धीरे—धीरे आगे बढ़ रही थीं। लोग अपने—अपने घरों का कचरा गाड़ी को समर्पित करते जा
रहे थे। शोभू हाथ में डंडा लिए कचरे को गाड़ी के अंदर धकियाते हुए आगे बढ़ रहा था।
जैसे —जैसे गाड़ी आगे बढ़ रही
थीं, लग रहा था कोई झगड़े का
तूफान आगे बढ़ रहा है। न शोभू किसी से कम था और न शन्नों! कचरे का डब्बा हाथ में
लिए नब्बू पड़ोसी जग्गू से बोल ही गया कि “मोहब्बत पर तो भोत फिलिम बन चुकी जग्गू, दुनिया में कभी नफरत पर कोई फिलिम बनेगी तो वो शन्नो और
शोभू की होगी।“ इधर कचरा गाड़ी किसी महाराजा के रथ की तरह धीरे—धीरे शन्नों के घर की तरफ आगे बढ़ रही थीं.. और
आखिरकार शन्नों के घर के समाने पहुंच चुकी थी कचरा गाड़ी । बारह फीट चौड़ी गली में
कचरा गाड़ी के कुरूक्षेत्र में शन्नो रोज की तरह गालियां देते हुए घर से बाहर
निकली, “मसान के दिये....,
आग लगे तुझे और तेरी गाड़ी को!” मानो उसे मारने दौड़ी हो। चिल्लाते—चिल्लाते शन्नो ने देखा गली से सामने एक युवक
अनियंत्रित तेज गति की मोटरसाईकिल से दौड़ा चला आ रहा है। लगता है उसका ब्रेक फेल
हो गया। सामने शोभू था। ऐसा लग रहा था जैसे मोटरसाईकिल शोभू को निशाना बनाते हुए
तेज गति से आगे बढ़ रही है। शोभू गाड़ी में कचरा ठूंसते हुए शन्नो की गालियों में मशगूल था। शन्नो ने जैसे ही मोटरसाईकिल देखी, वह यह चिल्लाते हुए शोभू की तरफ दौड़ पड़ी 'दूर हट स्साले, मरेगा क्या?' और कूद पड़ी शोभू पर! वह शोभू को दूर हटा चुकी थी और तेज गति से आ रही
मोटरसाईकिल शन्नों के उपर से होकर गुजर गई। शन्नो जमीन पर पड़ी थीं, सिर से खून बह रहा था। लोगों ने कहा कि यदि
शन्नो नहीं बचाती तो आज शोभू गया था!!! शन्नो गाड़ी के बगल में बेहोश पड़ी थीं।
नब्बू बोल पड़ा “रोज जिसकी जान
लेने पर उतारू होती थी, आज खुद को दांव
पर लगाकर उसकी जान बचा ली! पता नहीं कैसी माया! उपर वाला जाने।“
लोग बेहोशी की हालत में शन्नों को अस्पताल ले
गए। बताया गया उसके सिर में गहरी चोंट है। मोहल्ले के कुछ लोगो के साथ नब्बू भी
शन्नों की तिमारदारी में लगा था। अस्पताल में शन्नो के पास बैठा नब्बू अचानक खुशी से चिल्ला उठा “देखों!.. शन्नों को होश आ गया।“ शन्नों का शरीर हरकत कर रहा था। शन्नों की आंखें खुली। आंखें खोलते ही शन्नों
की जुबान का पहला वाक्य था, 'शोभू कैसा है?
उसको चोंट तो नहीं लगी?'
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परिचय
राजेन्द्र बंधु
जन्म: 26 फरवरी 1968,
मध्यप्रदेश के देवास जिले के खातेगांव में।
पेशा: 20 सालों तक
स्वतंत्र पत्रकारिता में संलग्न। वर्तमान में हाईकोर्ट एडव्होकेट तथा समान सोसायटी
नाम संस्था के माध्यम से महिलाओं को ड्राईविंग एवं मैकेनिक जैसे गैर पारंपरागत
रोजगार से जोड़ने में संलग्न।
लेखन: पिछले 30 वर्षों से लेखन में सलग्न। आलेख, कहानियां एवं कविताएं कई पत्र—पत्रिकाओं में
प्रकाशित। सामाजिक मुद्दों पर कई किताबे — साहसनाम, अखबार में गांव,
नई इबारत।
देश के विभिन्न समाचार पत्रों — जनसत्ता, दैनिक भास्कर,
नईदुनिया, 1000 से ज्यादा आलेख
प्रकाशित।
पुरस्कार : सरोजिनी
नायडू पुरस्कार, नेशनल फाउण्डेशन
मीडिया अवार्ड, संयुक्त राष्ट्र
जनसंख्या कोष द्वारा लाड़ली मीडिया अवार्ड, मध्यप्रदेश सरकार द्वारा तरूण भादुड़ी पुरस्कार,
पता : 163, अलकापुरी,
मुसाखेड़ी, इन्दौर, मध्यप्रदेश,
पिन: 452001 फोन,
8889884676
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