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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

10 अगस्त, 2020

कुमार मंगलम की कविताएँ

 

कुमार मंगलम



1.

प्रलाप की इक्कीस मुद्राएं

 

पहली मुद्रा

 

अबूझ का दुहराव

सूझ पैदा नहीं करता

दुहराव उम्मीद नहीं

समझौता है

और समझौते में उम्मीद का टूटना तय

 


दूसरी मुद्रा

 

जैसे बनींद रात के खटके में

कोई स्वप्न भूलते हुए

दस्तक दे रहा हो

और नींद कोसो दूर हो, आँखों से

 


तीसरी मुद्रा

 

द र अ स ल

जब बिजली कड़कती हो

और बादल रह-रह कर गरजते हों

काली रात में

आकाश की तरह

घुंधली हो जाती है स्मृति

 


चौथी मुद्रा

 

एक ही गीत सुनते-सुनते

बेसुरा लगने लगता है जीवन

एक-रस।

 


पाँचवी मुद्रा

 

सफेद फूल जो खिला हुआ है

फुनगी पर

उन्मादी है।

 


छठी मुद्रा

 

एक सहसा गिरा हुआ अनयन बूँद

बारिश की नहीं

आँखों की साजिश लगती है।

 


सातवीं मुद्रा

 

किसी अज्ञात भय में भयातुर

गर्मी में ठिठुरता है बदन

उमस उसाँसो सी बढ़ती चली जाती है।

 


आठवीं मुद्रा

 

अमूर्तन आलाप का

और गीत के मूर्त शब्द भर

सिर्फ अबूझ शब्द लगते हैं

जिसके मानी खो गए हैं

शब्द-शब्द-शब्द

एक भरोसा

जहाँ छिप जाते हैं डर

शब्द साथ छोड़ने लगते हैं।

 


नौवीं मुद्रा

 

अकेलेपन के वैभव का यह वक्त है

जहाँ सब मानसिक रोग के मरीज हैं

दूधिये प्रकाश में सभी नीले दिखते हैं

और अंधेरे में स्याह।

 


दसवीं मुद्रा

 

उन्मादी भीड़

पत्थर लिए रात में नहीं

दिन में शिकार को निकलती हैं

आधी रात तो योजनाएँ बनाने में बीत जाती है।

 


ग्यारहवीं मुद्रा  

(कवि वरवर राव के लिए) 

 

महामानव सा एक

बेवक्त आकर फतवेबाजी करता है

और कवि अपने मूत में बजबजाता हुआ

सदी की बीमारी से जूझता है

 

अपनी साहसगाथा लिखता है

 

सत्ता बहरी और अंधी दोनों है

बस गूंगी नहीं है।

 


बारहवीं मुद्रा

 

डर जीवन का स्थाई भाव है

जहाँ कोमलता की नहीं है कोई जगह

आस्थावान व्यक्ति धीरे-धीरे अवचेतन में

बुदबुदाता है

ईश्वर तब मरता है

जब किसी झूठ को अपना सत्य मान लेता है

जनसंख्या का बहुमत।

 


तेरहवीं मुद्रा

 

नैराश्य की आवाज

सन्नाटा बुनते शोर में है

जैसे बारिश की रात में

बूंदों का शोर।

 


चौदहवीं मुद्रा

 

उम्मीद एक चमक है

जैसे कैमरे का फ़्लैश हो।

 


पन्द्रहवीं मुद्रा

 

जनता अपने भूख

और मध्यवर्गीय मौज में

पक्ष या विपक्ष दोनों से

उतनी ही दूरी पर है

जितनी नदी के दो किनारे।

 


सोलहवीं मुद्रा

 

एक आम आदमी को

कवि की चिंता नहीं

उसे समाज की चिंता नहीं है

उसे अपनी भूख की चिंता है।

 


सत्रहवीं मुद्रा

 

एक महिला जिसका पति

शराबी है

और दो वक्त की रोटी से अधिक

उसे शाम की दारू की अधिक जरूरत है

दोपहर होते ही उसे पीटने लगता है

पीटने के बाद

साठ रुपये के लिए

घिघियाते हुए  मनौव्वल भी करता है।

 


अठारहवीं मुद्रा

 

एक मजदूर जो

राजधानी में हुई एक घण्टे की बारिश में

सड़क पर हुए जलजमाव में डूब कर मर जाता है

उसके बाप को प्रधानमंत्री से कोई लेना देना नहीं है

ना ही किसी कवि से

रोटी जो छीन गयी है उसके मुँह से

उस पर लिखी कविता सबसे अश्लील लगती है।

 


उन्नीसवीं मुद्रा

 

आज की रात सबसे भारी

और सबसे लंबी है

रोज-रोज ताना सुनते हुए

आत्महत्या को विचारता युवक

सुबह की नहीं

सुबह होते ही मरने की प्रतीक्षा कर रहा है।

 

आज की रात कोई कवि

कविता लिखने की प्रतीक्षा में

जगा हुआ है

मच्छर उसे कविता लिखने नहीं दे रहे

और सिगरेट की डिबिया खत्म होने को है।

 

आज की रात कोई प्रेमी

अपनी प्रेमिका की याद में

अधसोया

सिसकियाँ ले रहा है

 

कल सुबह वह अपनी प्रेमिका को वह मना लेगा

 

आज की रात

बस आज की रात ही बची है

इस रात की सुबह नहीं है।

 


बीसवीं मुद्रा

 

बारिश सोहर गा रही है

बादल कजरी सुना रहे हैं

यह गीतों का मौसम है

या कोई विपर्यय

जब सामूहिक मृत्यु हो रही है चारों ओर

 

मौसम ने उत्सव-गान शुरू किया है

क्या यह प्रकृति का रूदन गीत है?

जिसे कोई समझना नहीं चाहता।

 


इक्कीसवीं मुद्रा

 

तुम्हारी प्रतीक्षा अब नहीं रही

अच्छे दिन

तुम चले जाओ बैरन।

 


2.

अपना पता

 

(1)

टपकने

का

इंतज़ार

तुम्हारे

आने

की

प्रतीक्षा

सी

 

क्षणिक

 


(2) 

सूख

कर

गिरा

हुआ

पत्ता

 

तुमसे

बिछुड़

कर

 

जिया हुआ जीवन

 


(3)

साथ

की

गयी

यात्राओं

की

कहानी

 

बस याद कर के भूलना, हर-बार

 


(4)

तेज

हवा

और

उड़ती

जुल्फें

आँखों

को

परेशान

करती

हुई

 

वक्त का लम्हा ठहरा हुआ, अब-तक

 


(5)

अधूरी

मुलाकातें

 

मरने

के

वक्त

तक

प्रतीक्षित

 

जीवन का सबसे बड़ा फरेब।

 


3.

आना तो

 

जैसे सूर्य निकलता है

और अंधेरा छंट जाता है

 

फिर शाम होती है

और अंधेरा बढ़ने लगता है

चाँद से एक उम्मीद जगती है

लेकिन उसपर भी ग्रहण लग जाता है

अमावस्या भी उजाले के उम्मीद को धुंधला देता है

 

लेकिन सूर्योदय होता है

वैसे ही तुम आ जाती

लेकिन आना तो

ललाती भोर की तरह आना

दुपहरिया की चौंधियाती प्रकाश की तरह नहीं

 

अधिक प्रकाश भी अंधेरा पैदा करता है

और

अधिक उम्मीद निराशा

 

आना तो

पूर्णिमा की चाँद की तरह टहटह

जैसे समुद्र किनारे बैठ अँजोरिया रात में

क्षितिज पर चाँद दिखता है।

 

4.

क्रिया


(1)

पानी जहां है

वहाँ कुआँ, नदी, तालाब, चापाकल

सम्भव हो नहीं हो

 

सिर्फ नाव के होने से

नदी या समुद्र का होना

सम्भव हो

यह कोई आवश्यक शर्त नहीं

 

साथ होने

से कोई साथ हो

यह भी जरूरी नहीं

प्रेम एक झूठ भी हो सकता है

 

जो जितना खुश दिखता है

बहुत सम्भव है

वह भीतर से बिल्कुल टूट चुका हो

 

जो दिखता है

किसी विश्वविद्यालय का छात्र

किसी पुस्तकालय में आते-जाते रोज

जरूरी नहीं कि वह छात्र हो

सम्भव है कि

वह अपनी बेरोजगारी को

छिपाने का उम्दा अभिनय कर रहा हो

 

दृश्य भ्रम रचता है

और देखने वाला अक्सर धोखा खा सकता है

धुएं को देख आग

की उपस्थिति देखने वाले

नहीं जान पाते

दृश्यों के छलावों को

 

जिसको भी देखना हो

कई बार बहुत दूर

और

कई बार बहुत पास

से देखना होता है।

 

देखना एक क्रिया भर नहीं है।

 


(2)

सुनना

 

बहुत अधिक शोर

सुनने की प्रक्रिया को असम्भव बना देता है

बहुत शोर में/से

सुनी हुई बात

झूठ और अप्रामाणिक होती है

 

और एक अकेली आवाज

सचाई की सबसे प्रामाणिक आवाज

 

सुनना कई बार

सुनाने वालो को भी संदिग्ध बना देती है

 

जिसे हम सुनते हैं अक्सर

वह

गल्प और गप्प है

 

जो अनसुना, अनकहा है

सच वही है।

 


5.

सचाई

 

बंद कमरे

की गुप्त संधियाँ

किवाड़ के चरमराते चुलों की चिंचियाहट

की तरह बाहर निकल आती हैं

 

नहीं रहता कोई भ्रम

बहुत देर तक नहीं टिकती कोई

दुरभिसंधि

 

 बहुत हल्की चीज होती है

अंततः उपरा ही जाती है

एक न एक दिन।

 


6.

विदाई

 

यह अनंत मृत्यु का दौर है

इतना कि मर जाएं

और

कोई अंतिम विदाई न दे

 

यह मनुष्य के ही नहीं

ईश्वर के भी मर जाने वक्त है

 

ऐसे वक्त में

अगर मनुष्यता जी गयी

तब शायद ईश्वरत्व भी बच जाए।


 

7.

प्रधानमंत्री का बयान सुनकर

 

युधिष्ठिर सत्यवादी थे

उन्होंने अंतिम सत्य की तरह उद्घोषणा की

'अश्वत्थामा हतोहतः नरो वा कुंजरो वा'

पर वे पाण्डव भी थे

और युद्ध के पश्चात होने वाले राजा भी

 

एक अधूरा सच

किंचित झूठ से भी अधिक भयावह होता है

 

सच की प्रतीती देने वाला झूठ

एक सामाजिक हत्या का सबब बनता है

जिसमें अनिवार्यतः वे मरते हैं,

जिसके लिए झूठ बोला जाता है

जो झूठ के कारण होते हैं

वे विक्षिप्त हो जाते हैं

 

विक्षिप्तता को आशय देता हुआ अपूर्ण सच

एक व्यक्तित्व को नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र को विगलित बना देता है।

 

कृष्ण नियंता थे

और अपूर्ण सच के सूत्रधार

उन्होंने सच को अपने पक्ष में परिभाषित कर लिया

वे सर्वमान्य थे और शक्तिशाली भी

 

अक्सर शक्तिशाली सच

एक अधूरा और घातक झूठ होता है

जिसे सत्ता अपने पक्ष में परिभाषित करती है।

 


8.

अनाज की कहानी

 

रोपाई

 

ओदर गया है पैर

बिवाई से खून निकल रहा है

यूँ ही

धान नहीं जमता।

 

सोहनी

 

पैर में पानी

सड़ता है

तब खेत से निकलते हैं खर-पतवार।

 

कटाई

 

जो उपजा

वह मालिक के घर गया

जिसने उपजाया

उसके हिस्से पुआल आया।


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