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'पीपली लाइव' फ़िल्म में अनुषा रिज़वी ने किसानों की समस्या , मीडिया की भूमिका और राजनीति पर जो सवाल खड़े किये, वे नए तो नहीं हैं, लेकिन कहानी को कहने का उनका तरीका काफ़ी रोचक है। फ़िल्म बहुत ही सहजता से 'आत्महत्या' और 'खेती से पलायन' वाले दो अलग-अलग मुद्दों को एक दूसरे से जोडती है। फ़िल्म की पृष्ठभूमि में कई जगह प्रेमचंद को महसूस किया जा सकता है। अपनी पहली ही फ़िल्म में अनुषा ने उम्मीद से अच्छा काम किया है। फ़िल्म आज में इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर तो व्यंग्य है ही , साथ ही ये भी दिखाती है कि आज आज़ादी के 63 साल बाद भी हमारे यहाँ हालात किस तरह के हैं। एक किसान सिर्फ़ इसलिए जान देने को राज़ी हो जाता है कि उसके मरने के बाद उसके घर वालों को कुछेक पैसे मिल जायेंगे, जिससे शायद पुराने कर्ज़े चुकता हो जाएँ । यहाँ ‘कफ़न’ के घीसू–माधो याद आते हैं, जहाँ पत्नी की मौत भी भूख के आगे छोटी पड़ जाती है। ये भूख उसी व्यवस्था की देन है, जिस व्यवस्था ने नत्था जैसे तमाम किसानों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया, और व्यवस्था में आज भी कोई ख़ास बदलाव नज़र नहीं आता।
वैसे इस चीज़ को देखने का एक नज़रिया ये भी हो सकता है कि कहीं यह फ़िल्म जाने-अनजाने में यह तो नहीं कह रही कि किसान सिर्फ़ पैसा पाने के लिए जान दे रहे हैं। लेकिन जान अगर पैसे के लिए दी जा रही है तो भी ये कितनी बड़ी कीमत है ! निश्चित रूप से महज एक-दो लाख रूपए के लिए तो बहुत बड़ी ! इस सन्दर्भ में पिछले साल आई एक मराठी फिल्म ' गाभरी चा पाउस ( डिरेक्टर : सतीश मनवार ) ' का उल्लेख ज़रूरी लगता है, जहाँ आत्महत्या के इसी मुद्दे को उठाया गया था। 'गाभरी चा पाउस' विदर्भ में बारिश कि अनिश्चितता के कारण दी जाने वाली एक सामान्य गाली है। यह फ़िल्म विदर्भ में रहने वाले किसानों पर केन्द्रित थी जहाँ गत वर्षों में आत्महत्या के मामले अपेक्षाकृत ज्यादा सामने आये हैं। जैसा कि हमारे यहाँ कहा जाता रहा है कि खेती एक जुआ है , यह फ़िल्म दिखाती है कि हमारे यहाँ का छोटा किसान आज भी खेती के लिए बारिश पर किस तरह निर्भर है। बारिश ठीक से हो गयी तो ठीक , वर्ना कम में भी नुकसान और ज़्यादा में भी। एक गाँव में एक किसान द्वारा आत्महत्या कर लेने पर उसके परिवार को इसका मुआवजा मिलता है। इस गाँव में एक अन्य किसान है- किसना , जिस के घर के लोग इस आशंका से घिर जाते हैं कि कहीं उस के मन में भी इस तरह का विचार तो नहीं आ रहा। इस फ़िक्र में वे सुबह से शाम तक उसकी हर गतिविधि पर नज़र रखते हैं, बार-बार उसको ख़ुश रखने के लिए अच्छा खाना बनाया जाता है जबकि घर की हालत इस लायक भी नहीं है कि दोनों वक़्त का खाना बन जाये। किसना भी पूरी कोशिश में रहता है कि इस बार फ़सल अच्छी कर के सारे कर्ज़ा उतार देगा। लेकिन जहाँ एक समय पानी का न गिरना उसकी परेशानी थी , वहीं अब पानी का ज़रुरत से ज्यादा गिर जाना उसकी नींद उड़ा देता है। आखिर वह अपनी फ़सल नहीं बचा पाता और एक दिन मजबूरी में वही कदम उठा लेता है जिसका उसके परिवार वालों को हमेशा से डर था। यहाँ उसका पडौसी किसान भी है जिसने पानी कि अनिश्चितता के कारण इस बार फ़सल बोई ही नहीं है और जो बार - बार उसे भी यही सलाह देता रहा है कि भले ही घर की चीज़ें बेचनी पड़ जाएँ, खेती का जुआ मत खेलना। खेती छोड़कर दूसरे काम-धंधों में लग जाने वाले किसानों के बारे में ' पीपली लाइव ' भी अंत में यही सवाल खड़ा करती है। फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि नत्था मरा नहीं है। उसने अपने व्यवसाय से समझौता कर लिया है जिसका एक कारण बेहद नाटकीय घटनाक्रम के बीच मीडिया भी है। जबकि ' गाभरी चा पाउस ' में किसान अंतिम उपाय के रूप में आत्महत्या को चुनता है।
कुछ और पहले, 2008 में एक और फ़िल्म आई थी ' समर 2007 ( डिरेक्टर: सोहेल तातारी ) '. यह फ़िल्म किन्ही कारणों से ज्यादा चर्चित न हो सकी लेकिन इसी मुद्दे को बहुत ही गहराई से यहाँ भी उठाया गया था। मेडिकल कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों के माध्यम से इस फ़िल्म में यह दिखाया गया था कि गाँव में पुराने ज़मींदारों द्वारा छोटे किसानों को आज भी किस तरह कर्ज़ा दिया जाता है और पैसा न चुका पाने की हालत में कैसे आत्महत्या ही उनके पास अंतिम विकल्प बचता है। यहाँ फोकस इस बात पर किया गया था कि पुराने ज़मींदार नहीं चाहते कि किसान उनसे कर्ज़ा लेना बंद करें और गावों में बड़ा किसान या ज़मींदार तो फल-फूल रहा है, जबकि छोटे किसान की हालत बद से बदतर होती जा रही है। इस फिल्म में इस समस्या को दिखाने के साथ ये भी बताया गया था कि इसके कुछ हल भी हैं। छोटे स्तर के ऋण लेकर किसान ज्यादा ब्याज पर बड़े कर्ज़ों के कारण पैदा होने वाले विकराल संकट से बच सकते हैं। यही पहल जो बांग्लादेश में मोहम्मद युनुस ने की, और हमारे यहाँ के कुछ गाँवों में महिलाऐं आज कर भी रही हैं।
कुल मिलाकर ये तीन फ़िल्में एक ही समस्या को अलग-अलग तरह से देखने की कोशिश करती हैं। एक में खेती छोड़ देने वाले किसानों की विवशता है साथ ही समस्या को देखने और दिखाने के हमारे मीडिया के तरीकों और राजनीतिज्ञों पर तीखा व्यंग्य भी है। यहाँ प्रेमचंद का होरी महतो आज भी गड्ढे खोदते हुए एक दिन गुमनामी में मर जाता है। दूसरी फ़िल्म में एक तरह का डार्क ह्यूमर है जहाँ समस्या की विकरालता को ज्यों का त्यों हमारे सामने रखा गया है, और तीसरी फ़िल्म कुछ संभव उपायों की बात करती है। ज़रुरत इन उपायों पर गंभीरता से सोचने की है, न कि समस्या का हौव्वा बनाने की।
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