आज आपके लिए प्रस्तुत हैं एक युवा कवि की दो कविताएँ। इन पर आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है...
कविता :
1. "कभी यूँ ही"
ज़ेहन में कौंध गईं स्मृतियाँ
वही सोलहवें साल वाली
जब तुम! एक चित्रलिपि-सी
जब तुम! एक बीजक मन्त्र-सी
जब तुम! अबूझ पहेली थीं
जब पत्तियाँ थीं फूल थे
पर सिर्फ मैं नही था
तुम्हारी नोटबुक में
चकित विस्मित दरीचों की ओट से
पढ़ता तुम्हारा लिखा
विस्फारित नेत्रों से तलाशता अपना नाम
कहीं न था नोटबुक में जो उसे ही पढ़ने की जिद!
कभी यूँ भी
मेरे अवचेतन में प्रतिध्वनि थी मेरी ही आवाज़ की
जबकि नदारद था तुम्हारा उच्चारा मेरा नाम
मुझे लगा
जैसे कोयल कूकने को राजी न थी
जैसे तुम्हारा अनिंद्य सौंदर्य रुग्ण हो
जैसे पानी में उतरी परछाईं जो डूब गई हो
मुझे बिठा कर किनारे पर लौट जाने के लिए
2. "छाले"
माँ आँतों में छाले पाले
जाने कैसे जीती रही बरसों
हथेली में उगाती रही सरसों
हम रहे आये अनभिज्ञ
उसकी खामोश कराहों से
दर्द फूलता रहा खमीर सा
वो चढ़ाये रहती
खोखली हँसी की परतें
माँ का जिन्दा होना ही
आश्वस्ति थी,हमारी खुशियों की
हमारे लिए ही वो
पूजती रही शीतला
करती रही नौरते
भूखी,प्यासी जागती रही सारी सारी रात
और हम जान ही नही पाये
अनगिनत रोटियाँ बेलती माँ की
सूखी हंसी,पपड़ाये होंठों के राज़
उसकी गुल्लकेँ जो
कनस्तरों में,बिस्तरों की तहों में
सुरक्षित और सुनिश्चित करती रहीं
हमारा उजला कल
उगल देती हर बार एक किश्त
हमारे सपनों के लिए
..जब जब भी बाबा हताश हुए
दिन रात सुबह शाम
पृथ्वी सी,अपनी धुरी पे घूमती
रचती रही,मौसमों के उपहार
हमारे लिए
माँ के आशीष पनपते रहे
फूलते रहे,फलते रहे
बनती रही परिवार की झाँकी
कभी चाह और कभी डाह की बायस
माँ जोड़ती रही,तिनका तिनका
हमारे लिए
और खुद रिसती रही बूँद बूँद
दर्द के ज्वार को समेटती रही
ठठा के हंसने में
हम कौतुक से देखते
उसकी रुलाई रोकती हँसी
और फिर भूल जाते
हम नहीं देख पाये
माँ के अंतर को कोंचते
आँतों के छाले
छले गए उस छलनामयी की
बनावटी हंसी से....
3. 'अभाव में प्रेम के'
प्रेम के वे पल
जिन्हें लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठकर
बोया था हमने
बन्द आँख की नम ज़मीन पर
उनका प्रस्फुटन महसूस होता रहा
कॉलेज छोड़ने तक
संघर्ष की आपाधापी में
फिर जाने कैसे विस्मृत हो गए
रेशमी लिफ़ाफ़ों में तह किये वायदे
जो किये थे हमने नम बनाये रखने के लिए
तुम ही नही थीं दोषी प्रिये!
मैं ही कहाँ दे पाया भावनाओं की थपकी
तुम्हारी उजली सुआपंखी आकांक्षाओं को
जो गुम हो गया कैरियर के आकाश में लापता विमान सा
तुम्हारी प्रतीक्षा भी क्यों न बदलती आखिर
प्रतियोगी परीक्षाओं में तुम्हें जीतना ही था
डिज़र्व करती थीं तुम
हम मिले क्षितिज पर
पा कर आखिर अपना-अपना आकाश
हमने सहेज लिया उन उपेक्शित कोंपलों को
वफ़ा के पानी का छिड़काव कर
हम दोनों उड़ेलने लगे
अंजुरियों में भर मोहब्बत की गुनगुनी धूप
अलसाये से पौधे ने आँखें खोली ही थीं कि
हमें फिर याद आ गए गन्तव्य अपने-अपने
हम दौड़ते ही रहे
सुबह की चाय से रात की नींद तक
पसरे रहते हमारे बीच
काम
घर, बाहर मोबाइल, लैपटॉप
फ़िट रहने, सुंदर दिखने, अपडेट रहने की दौड़ में
हम जीत ही गए आखिर
पर मुरझा गया लाल- लाल कोंपलों वाला
हमारे प्यार का पौधा जो था हमने रोपा
लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठकर
पर्याप्त प्रेम के अभाव में
।
4. 'ऋचा हूँ मैं'
एक धारदार कलम ने
एक कोरे कागज़ पर
बड़ी नफ़ासत से
उकेर दिया
सितारों से रोशन हर्फ़
बड़ी शाइस्तगी से
कागज़ को सहलाते रहे
और 'मैं' बन गई
हाँ... ऋचा हूँ मैं।
नाम--आरती तिवारी
जन्म-- 08 january
जन्म स्थान--पचमढ़ी
शिक्षा--बीएससी एम ए बी-एड
अध्यापन अनुभव--लगभग 15 वर्ष पूर्व शिक्षिका
प्रकाशन-
विगत कुछ वर्षों से मध्य-प्रदेश के प्रमुख समाचार पत्रों में विभिन्न विधाओं पे रचनाएँ प्रकाशित
नई दुनिया,दैनिक भास्कर,राज एक्सप्रेस व अन्य प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन ।
सम्मान-
2014 में नागदा की साहित्यिक ,सामाजिक,सांस्कृतिक संस्था "अभिव्यक्ति विचार मंच"द्वारा प्रदत्त राष्ट्रीय विष्णु जोशी(अंशु) सम्मान से सम्मानित
पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में
विशेष सक्रिय
मुख्य विधा-नई कविता
आकाशवाणी इंदौर से कविताओं का प्रसारण
संप्रति-स्वतन्त्र लेखन
E mail -atti.twr@gmail.com
----------------------------------------------------
टिप्पणियाँ:-
प्रदीप मिश्रा:-
आरती जी की कविताओं में हमारे समय के मनुष्य की मनः स्पस्ट दिखाई देती है। चुस्त भाषा और संवेदना से लबरेज कविताओं के लिए आभार। बिजूका का आभार।
दीपक मिश्रा:-
आरती जी की कविताओं से गुजरना एक अलहदा अनुभव होता है। भावनाओं का इतना सघन गुम्फन और सम्प्रेषण एक दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ जाता है।
प्रदीप मिश्रा:-
बहुत सुंदर कविता। मन में उतरकर बात करती हुई। बधाई। गणेश चतुर्थी के उत्सव का सभी मित्रों को बधाई।
सुषमा सिन्हा:-
दोनों कविताएँ बहुत बढ़िया हैं। दूसरी वाली पढ़ी हुई है और कवि को भी पहचान रही। खैर, पहली कविता अपेक्षाकृत ज्यादा अच्छी लगी मुझे
"कभी यूँ ही"
विस्फारित नेत्रों से तलाशता अपना नाम
कहीं न था नोटबुक में जो उसे ही पढ़ने की जिद!
कभी यूँ भी
मेरे अवचेतन में प्रतिध्वनि थी मेरी ही आवाज़ की
जबकि नदारद था तुम्हारा उच्चारा मेरा नाम'
बहुत ही दिल छू लेने वाली पंक्तियाँ।
कवि को बधाई और बिजूका को धन्यवाद !!
राजवंती मान:-
दोनों ही कविताएँ बहुत अच्छी लगीं।कवि को बहुत साधुवाद
नयना (आरती) :-
आरती को पढ़ना मुझे अच्छा लगता हैं हमेशा। नाजुक अहसास की कविताएँ पहले भी पढ़ी हैं फिर से पढ़ना अच्छा लगा
शुक्रिया,बिजूका समूह मेरी कवितायेँ समूह पर शेएर करने के लिए..
जवाब देंहटाएंप्रदीप जी
दीपक जी
सुषमा जी
राजवंती जी
नयना जी