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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

18 दिसंबर, 2016

कहानी :  युद्ध  : लुइगी पिरांडेलो 

कहानी :  युद्ध  : लुइगी पिरांडेलो 

रातवाली एक्सप्रेस ट्रेन से जो यात्री रोम के लिए चले थे उन्हें सुबह तक फैब्रियानो नामक एक छोटे-से स्टेशन पर रुकना था। वहाँ से उन्हें मुख्य लाइन से सुमोना को जोड़नेवाली एक छोटी, पुराने फैशन की लोकल ट्रेन से आगे के लिए अपनी यात्रा करनी थी।

उमस और धुएँ से भरे सेकंड क्लास डिब्बे में पाँच लोगों ने रात काटी थी। सुबह मातमी कपड़ों में लिपटी एक भारी-भरकम औरत तकरीबन एक बेडौल गट्ठर की तरह उसमें लादी गई। उसके पीछे हाँफता-कराहता उसका पति आया - एक छोटा, दुबला-पतला और कमजोर आदमी। उसका चेहरा मौत की तरह सफेद था। आँखें छोटी और चमकती हुई। देखने में शर्मीला और बेचैन।

एक सीट पर बैठने के बाद उसने उन यात्रियों को नम्रता के साथ धन्यवाद दिया जिन्होंने उसकी पत्नी के लिए जगह बनाई थी और उसकी सहायता की थी। तब वह औरत की ओर पलटा और उसके कोट की कॉलर को नीचा करते हुए जानना चाहा :'तुम ठीक तो हो न, डियर?'

पत्नी ने उत्तर देने के स्थान पर अपना चेहरा ढँका रखने के लिए कोट का कॉलर पुन: अपनी आँख तक खींच लिया।

'बेरहम दुनिया,' पति मुस्कुराहट के साथ बुदबुदाया। उसे यह अपना कर्तव्य लगा कि वह अपने सहयात्रियों को बताए कि बेचारी औरत दया की पात्र थी। युद्ध उसके इकलौते बेटे को उससे दूर ले जा रहा था। बीस साल का लड़का जिसके लिए उन दोनों ने अपनी पूरी जिंदगी दे डाली थी। यहाँ तक कि उन्होंने अपना सुलमौवा का घर भी छोड़ दिया था ताकि वे बेटे के साथ रोम जा सकें। जहाँ एक छात्र के रूप में वह गया था। और तब उसे इस आश्वस्ति के साथ युद्ध में स्वयंसेवक बनने की अनुमति दी गई थी कि कम-से-कम छह महीने तक उसे सीमा पर नहीं भेजा जाएगा। और अब अचानक तार आया है कि वे आ कर उसे विदा करें। उसे तीन दिन के भीतर सीमा पर जाना है।

लंबे कोट के भीतर से औरत कसमसा रही थी। कभी-कभी जंगली पशु की तरह गुर्रा रही थी। इस पक्के विश्वास के साथ कि ये सारी व्याख्याएँ इन लोगों में सहानुभूति की छाया भी नहीं जगाएँगी - पक्के तौर पर वे भी उसी नरक में हैं जिसमें वह है। उनमें से एक व्यक्ति, जो खास ध्यान से सुन रहा था, बोला : 'तुम्हें खुदा का शुक्रगुजार होना चाहिए कि तुम्हारा बेटा अब सीमा के लिए विदा हो रहा है। मेरा तो युद्ध के पहले ही दिन वहाँ भेज दिया गया था। वह दो बार जख्मी हो कर लौट आया। ठीक होने पर फिर से उसे सीमा पर भेज दिया गया है।'

'मेरा क्या? मेरे दो बेटे और तीन भतीजे सीमा पर हैं,' एक दूसरे आदमी ने कहा।

'हो सकता है, पर हमारी स्थिति भिन्न है। हमारा केवल एक बेटा है,' पति ने जोड़ा।

'इससे क्या फर्क पड़ता है? भले ही तुम अपने इकलौते बेटे को ज्यादा लाड़-प्यार से बिगाड़ो पर तुम उसे अपने बाकी बेटों (अगर हों) से ज्यादा प्यार तो करोगे नहीं? भला प्यार कोई रोटी नहीं जिसको टुकड़ों में तोड़ा जाए और सबके बीच बराबर-बराबर बाँट दिया जाए। एक पिता अपना समस्त प्यार अपने प्रत्येक बच्चे को देता है। बिना भेदभाव के। चाहे एक हो या दस। और आज मैं अपने दोनों बेटों के लिए दु:खी हूँ। उनमें से हरेक के लिए आधा दु:खी नहीं हूँ। बल्कि दुगुना...'

'सच है...सच है' पति ने लज्जित हो कर उसाँस भरी। लेकिन मानिए (हालाँकि हम प्रार्थना करते हैं कि यह तुम्हारे साथ कभी न हो) एक पिता के दो बेटे सीमा पर हैं और उनमें से एक मरता है। तब भी एक बच जाता है। उसे दिलासा देने को। लेकिन जो बेटा बच गया है, उसके लिए उसे अवश्य जीना चाहिए। जबकि एकलौते बेटे की स्थिति में अगर बेटा मरता है तो पिता भी मर सकता है। अपनी दारुण व्यथा को समाप्त कर सकता है। दोनों में से कौन-सी स्थिति बदतर है?'

'तुम्हें नहीं दीखता मेरी स्थिति तुमसे बदतर है?'

'बकवास,' एक दूसरे यात्री ने दखल दिया। एक मोटे लाल मुँहवाले आदमी ने जिसकी पीली-भूरी आँखें खून की तरह लाल थीं।

वह हाँफ रहा था। उसकी आँखें उबली पड़तीं थीं, अंदर के घुमड़ते भयंकर तूफान को वेग से बाहर निकालने को बेचैन लग रही थीं, जिसे उसका कमजोर शरीर मुश्किल से साध सकता था।

'बकवास,' उसने दोहराया। अपने मुँह को हाथ से ढँकते हुए ताकि अपने सामने के खोए हुए दाँतों को छिपा सके।

'बकवास। क्या हम अपने बच्चों को अपने लाभ के लिए जीवन देते हैं?'

दूसरे यात्रियों ने उसकी ओर कष्ट से देखा। जिसका बेटा पहले दिन से युद्ध में था, उसने लंबी साँस ली, 'तुम ठीक कहते हो। हमारे बच्चे हमारे नहीं हैं; वे देश के हैं...।'

'बकवास,' मोटे यात्री ने प्रत्युत्तर में कहा।

'क्या हम देश के विषय में सोचते हैं जब हम बच्चों को जीवन देते हैं? हमारे बेटे पैदा होते हैं... क्योंकि...क्योंकि...खैर। वे जरूर पैदा होने चाहिए। जब वे दुनिया में आते हैं हमारी जिंदगी भी उन्हीं की हो जाती है। यही सत्य है। हम उनके हैं पर वे कभी हमारे नहीं हैं। और जब वे बीस के होते हैं तब वे ठीक वैसे ही होते हैं जैसे हम उस उम्र में थे। हमारे पिता भी थे और माँ थी। लेकिन उसके साथ ही बहुत-सी दूसरी चीजें भी थीं जैसे - लड़कियाँ, सिगरेट, भ्रम, नए रिश्ते...और हाँ, देश। जिसकी पुकार का हमने उत्तर दिया होता - जब हम बीस के थे - यदि माता-पिता ने मना किया होता तब भी। अब हमारी उम्र में, हालाँकि देश प्रेम अभी भी बड़ा है, लेकिन उससे भी ज्यादा तगड़ा है हमारा अपने बच्चों से प्यार। क्या यहाँ कोई ऐसा है जो सीमा पर खुशी से अपने बेटे की जगह नहीं लेना चाहेगा?'

चारों ओर सन्नाटा छा गया। सबने सहमति में सिर हिलाया।

'क्यों...' मोटे आदमी ने कहना जारी रखा। 'क्यों हम अपने बच्चों की भावनाओं को ध्यान में नहीं रखें जब वे बीस साल के हैं? क्या यह प्राकृतिक नहीं है कि वे सदा देश के लिए ज्यादा प्रेम रखें, अपने लिए प्रेम से ज्यादा (हालाँकि, मैं कुलीन लड़कों की बात कर रहा हूँ)? क्या यह स्वाभाविक नहीं कि ऐसा ही हो? क्या उन्हें हमें बूढ़ों के रूप में देखना चाहिए जो अब चल-फिर नहीं सकते और घर पर रहना चाहिए? अगर देश, अगर देश एक प्राकृतिक आवश्यकता है, जैसे रोटी, जिसे हम सबको भूख से नहीं मरने के लिए अवश्य खाना है, तो किसी को देश की सुरक्षा अवश्य करनी चाहिए। और हमारे बेटे जाते हैं जब वे बीस बरस के हैं। और वे आँसू नहीं चाहते हैं। क्योंकि अगर वे मर गए तो वे गर्वित और प्रसन्न मरें (मैं कुलीन लड़कों की बात कर रहा हूँ)। अब अगर कोई जवान और प्रसन्न मरता है, बिना जिंदगी के कुरूप पहलू को देखे। ऊब, क्षुद्रता और विभ्रम की कड़वाहट के बिना...इससे ज्यादा हम उनके लिए क्या कामना कर सकते हैं? सबको रोना बंद करना चाहिए। सबको हँसना चाहिए, जैसा कि मैं करता हूँ...या कम-से-कम खुदा का शुक्रिया अदा करना चाहिए...जैसा कि मैं करता हूँ, - क्योंकि मेरा बेटा, मरने के पहले उसने मुझे संदेश भेजा था कि सर्वोत्तम तरीके से उसके जीवन का अंत हो रहा है। उसने संदेश भेजा था कि इससे अच्छी मौत उसे नहीं मिल सकती। इसीलिए तुम देखो, मैं मातमी कपड़े भी नहीं पहनता हूँ...'

उसने भूरे कोट को दिखाने के लिए झाड़ा। उसके टूटे दाँतों के ऊपर उसका नीला होंठ काँप रहा था। उसकी आँखें पनीली और निश्चल थीं। उसने एक तीखी हँसी से समाप्त किया जो एक सिसकी भी हो सकती थी।

'ऐसा ही है... ऐसा ही है...' दूसरे उससे सहमत हुए।

औरत जो कोने में अपने कोट के नीचे गठरी बनी हुई-सी बैठी थी, सुन रही थी - पिछले तीन महीनों से - अपने पति और दोस्तों के शब्दों से अपने गहन दु:ख के लिए सहानुभूति खोज रही थी। कुछ जो उसे दिखाए कि एक माँ कैसे ढाढ़स रखे जो अपने बेटे को मौत के लिए नहीं, एक खतरनाक जिंदगी के लिए भेज रही है। बहुत-से शब्द जो उससे कहे गए उनमें से उसे एक भी शब्द ऐसा नहीं मिला था... और उसका कष्ट बढ़ गया था। यह देख कर कि कोई - जैसा कि वह सोचती थी - उसका दु:ख बाँट नहीं सकता है।

लेकिन अब इस यात्री के शब्दों ने उसे चकित कर दिया था। उसे अचानक पता चला कि दूसरे गलत नहीं थे और ऐसा नहीं था कि उसे नहीं समझ सके थे। बल्कि वह खुद ही नहीं समझ सकी थी। उन माता-पिता को जो बिना रोए न केवल अपने बेटों को विदा करते हैं वरन उनकी मृत्यु को भी बिना रोए सहन करते हैं।

उसने अपना सिर ऊपर उठाया। वह थोड़ा आगे झुक गई ताकि मोटे यात्री की बातों को ध्यान से सुन सके। जो अपने राजा और अपने देश के लिए खुशी से अपने बेटे के, बिना पछतावे के वीर गति पाने का अपने साथियों से विस्तार से वर्णन कर रहा था। उसे ऐसा लग रहा था मानो वह एक ऐसी दुनिया में पहुँच गई है जिसका उसने स्वप्न भी नहीं देखा था - उसके लिए एक अनजान दुनिया और वह यह सुन कर खुश थी कि उस बहादुर पिता को सब लोग बधाई दे रहे थे। वह इतने उदासीन संयम से अपने बच्चे की मौत के बारे में विरक्ति के साथ बता रहा था।

और तब अचानक मानो जो कहा गया था उसका एक शब्द भी उसने न सुना हो। मानो वह एक स्वप्न से जगी हो। वह बूढ़े आदमी की ओर मुड़ी और उसने पूछा, 'तब...तुम्हारा बेटा सच में मर गया है?'

सबने उसे घूरा। बूढ़ा भी घूम कर अपनी बाहर को निकली पड़ती, भयंकर पनीली, हलकी-भूरी आँखों को उसके चेहरे पर जमाते हुए उसे देखने लगा। थोड़ी देर उसने उत्तर देने की कोशिश की। लेकिन शब्दों ने उसका साथ न दिया। वह उसे देखता गया। देखता गया। जैसे केवल अभी - उस बेवकूफ, बेतुके प्रश्न से - उसे अचानक भान हुआ कि उसका बेटा सच में मर चुका है - हमेशा के लिए जा चुका है - हमेशा के लिए उसका चेहरा सिकुड़ गया। बुरी तरह से बेढंगा हो गया। तब उसने तेजी से अपनी जेब से रूमाल निकाला और सबके अचरज के लिए हृदय दहलानेवाली चीत्कार के साथ हिलक-हिलक कर बेरोकटोक सिसकियों में फूट पड़ा।

(माइकेल पेटीनैटी द्वारा अंग्रेजी अनुवाद से हिंदी में : विजय शर्मा)

परिचय

जन्म : 28 जून 1867

भाषा : इटालवी

विधाएँ : उपन्यास, नाटक, कहानी, कविता

मुख्य कृतियाँ

उपन्यास : Sei Personaggi in Cerca d'Autore (लेखक की खोज में छह चरित्र), II Fu Mattia Pascal (स्वर्गीय माटिया पैस्कल), I Vecchi e I Giovan (वृद्ध और युवा), The Turn (मोड़) आदि
नाटक : The Rules of the Game (खेल के नियम), Il Piacere dell'Onestà (ईमानदारी का सुख) Vestire gli Ignud (नग्न को कपड़े पहनाना) आदि
कविता संग्रह : Mal Giocondo (खिलंदड़ पाप), Out of Tune (बेसुरा राग) आदि
कहानी संग्रह : The Medals, and Other Storie (मेडल तथा अन्य कहानियाँ)
 

सम्मान

साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार (1934)

निधन

10 दिसंबर 1936

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टिप्पणियाँ:-

अवधेश:-
कथित देश प्रेम के नाम पर शहीद होने वाले परिवारों के दुखों की  मार्मिक वेदना । कहानी उपलब्ध कराने के लिए एडमिन का शुक्रिया । बेहतरीन अनुवाद ।

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