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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 अप्रैल, 2019

परख छियालीस

ऐसे ही हर आज का कल होता रहा!

गणेश गनी

बर्फ़ लगातार गिर रही है। बर्फ़ की एक ख़ास बात और भी है, यह ज़रा भी आवाज़ नहीं करती। जबकि बारिश खूब शोर मचाती है। कहते हैं कि हिमपात वातावरण में मौजूद ध्वनि को सोख लेता है। यानी बर्फ़ गिरने से आस-पास का माहौल शांत हो जाता है। तेज़ आवाज़ें खुसर-फुसर में तब्दील हो जाती हैं। जब बर्फ़ पिघलती है तो इसमें क़ैद आवाज़ आज़ाद हो कर दूर तक फ़ैल जाती है।

ऐसा नहीं था कि वे लोग कोई तुक्का मारते थे समय के बारे में, बल्कि चारों पहर के बारे में बिना घड़ी के भी सही सही अनुमान अपने अनुभव के आधार पर बिठाते थे। हालांकि आज भी वातावरण आसमान से लेकर ज़मीन तक बादलों ने ढक रखा है। बाहर लगभग अंधेरा जैसा ही है, परंतु यह अंधेरा कुछ ऐसा है जिसका वर्णन करना  बड़ा ही असम्भव है। इसे केवल देख कर ही महसूस किया जा सकता है। जैसे कोई पूछे कि रात के समय जो ढिबरी जल रही थी, उसकी रोशनी कितनी थी।


ममता कालिया




फिर भी एक आदमी अपनी दृष्टि बादलों के पार डालता है और कहता है, दोपहर से अधिक समय हो चुका है और छत पर एक हाथ बर्फ़ गिर चुकी है। रात ढलने से पहले पहले इसे हटाना होगा।

छत के एक किनारे से बर्फ़ हटाने का काम शुरू होता है। जब तक दूसरे किनारे तक पहुंचने हैं, तब तक छत का साफ किया हुआ भाग फिर से बर्फ़ ढक देती है। रात ढलने लगी है मगर हिमपात रुक नहीं रहा। सिर, कंधों और पीठ पर जमी बर्फ़ को झाड़ने के बाद बर्फ़ हटाने के लकड़ी के औज़ार घर के एक कोने में रखकर अब सभी आग के आसपास बैठ गए हैं एक घेरा बनाकर। घर के बीचों बीच लोहे की तिपाई पर भी रोशनी के लिए आग जलाए रखी है। कठिन समय है। तो नींद भी कठिन है आना। न जाने सुबह तक क्या होगा, ऐसे कई प्रश्न मन में उठ रहे हैं तो अखरोट तोड़ने वाले गिरियां जमा कर रहे हैं, ऊन काटने वाले तकलियाँ घुमा रहे हैं। मुश्किल समय ज़रा धीरे चलता है। इसलिए घर के कुछ सदस्य समय काटने के लिए पहेलियां भी पूछ और बूझ रहे हैं ताकि डरावने प्रश्न कम से कम कुछ समय के लिए टाले जा सकें। ममता कालिया जानती हैं कि पहेली तो बस सवालों से पलायन है कुछ देर के लिए-

पहेली मुश्किल नहीं थी
मुश्किल थी उसके खानों में पड़ी गिनती।
दिखती ही नहीं थी कमरे में।

सभी सवालों से पलायन है कुछ देर के लिए,
पहेली!

बर्फ़बारी से डर लगता है। बर्फ़बारी से डर लगने की बीमारी को शिओनोफ़ोबिया कहते हैं। ये ग्रीक शब्द शिओन से बना है। ग्रीक भाषा में बर्फ़ को शिओन ही कहते हैं। पाँगी घाटी के आदिवासी बर्फ़ को शीण भी कहते हैं। बहुत से लोगों को बचपन के किसी हादसे की वजह से बर्फ़बारी से डर लगने लगता है। उन्हें लगता है कि वो बर्फ़ के नीचे दब जाएंगे। मगर जो लोग बर्फ़ में ही जन्मे और जिनका पहला स्नान भी बर्फ़ को पिघलाकर बने पानी से किया गया हो तो भला वो कहाँ डरेंगे इस बर्फ़ से।
चूल्हे में आग और तेज़ कर दी गई है। उधर पहाड़ के उस पार ठन्डे रेगिस्तान में एक सन्त कवि ने कविता के शास्त्र और आलोचना के सारे औज़ार आग के हवाले कर दिए हैं। इधर रात भर तो पता ही नहीं चलता कि बर्फ़ कितनी गिरी है या रुक ही गई हो। विहान में डर और विस्मय से दरवाज़ा खोला तो देखा कि बर्फ़ तो आधे दरवाज़े तक चढ़ आई है। इसकी कैद से छूटने के लिए पहले इसे काटना होगा, तब रास्ता बनेगा बाहर की ओर और छत से बर्फ़ यदि शीघ्र न हटाई गई तो छत बैठ भी सकती है। बर्फ़ की बहुत मोटी तह को आधा आधा करके हटाया जाएगा। कवयित्री पूछना चाहती है कि आधी अधूरी चीज़ें कैसे होती हैं-

तुमसे मिले बिना
आधी सदी बिता दी
आधा बियाबान काट लिया।
आधे स्टेशन पार हो गए
आधे गीत याद रहे
आधे भूल गए।
आधे अधूरे जीवन क्या ऐसे ही होते हैं?

ममता कालिया की तमाम कविताएँ जीवन से जुड़ी हैं। सम्बन्धों और रिश्तों को अपनी कविताओं में जिस साफ़गोई से ममता कालिया ने उकेरा है, वैसा कोई कोई ही कर पाता है। सीधी सीधी बात करना और बेबाक तथा निडर होकर जीवन की हकीकत बयान करना कवयित्री को अच्छे से आता है। स्थानीयता और आम बोलचाल के शब्दों का बखूबी प्रयोग किया गया है-

तुमसे मिले बिना, इतनी लंबी राह चली
सड़क का परला सिरा दिखने लगा।
इस लंबी अवधि में
जीती रही
ऐसे
जैसे कभी-कभी बिना धूप
फूल खिल लेता है
जैसे कभी-कभी
बिना नग, कोई अंगूठी पहन लेता है।

एक मुक्तक में पूरा दर्शन समेटकर कवयित्री ने साबित कर  दिया है कि बड़ी बात कहने के लिए लंबी चौड़ी तहरीर की जरूरत कतई नहीं होती-

मिलते हैं लोगबाग दुकानदार की तरह
करते हैं बातचीत कारोबार की तरह
क्यों हम सहें किसी की लानत-मलामतें
जब तुम मिले हो हमको घरबार की तरह।

एक कविता पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि रचनाकर किस हद तक आसपास घटित होने वाली छोटी छोटी घटनाओं को देखता है और फिर अपने भीतर महसूस करता है। जबकि हम ऐसी बातों से गुजरते हैं और ध्यान तक नहीं देते-

उसने अपनी नाक
नगरपालिका को दे दी
कान
आकाशवाणी को।
आंख दूरदर्शन की दर्जनों शाखाओं ने खरीद ली
पैर, परिवहन निगम मांग रहा है।
हाथ सिर्फ रुमाल हिलाने को रह गए।
पेट
गर्भधारण और गर्भपात के उत्पात झेलता रहा
और दिमाग की आग
चिकनी पढ़कर, चुपड़ी खाकर
ऐसी ठंडी हुई कि अब क्या चेतेगी कभी!

दो पंक्तियों में ममता कालिया ने वो बात लिख दी, जिस बात को समझाने में एक समीक्षक दस पन्ने ज़ाया करेगा और फिर भी समझा नहीं पाएगा और बात रहस्यमय ही रहेगी-

सच को इतने लत्ते पहनाना कि वह रहस्य बन जाए
और रहस्य की इतनी कलई उतारना कि वह लगे सच।

जब इंसान प्रेम में होता है तो सच में खुश होता है। प्रेम एक विलक्षण अनुभूति है और इसकी खूबसूरती और मधुरता पर ढेरों लिखा गया है। बावजूद इसके इसे समझने में भूल होती रही है। ममता कालिया की एक छोटी यानी कुल ग्यारह शब्दों की कविता है बहाना। एक छोटी कविता में भी कवि कितना कुछ कह डालता है-

आज खुश हूं
खुद से,
तुमसे,
सबसे,
लिख नहीं पाऊंगी सच!

मनोवैज्ञानिक वेंकर्ट का मत है, प्यार में व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति की कामना करता है, जो एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में उसकी विशेषता को कबूल करे, स्वीकारे और समझे। उसकी यह इच्छा ही अक्सर पहले प्यार का कारण बनती है। जब ऐसा शख्स मिलता है तब उसका मन ऐसी भावनात्मक संपदा से समृद्ध हो जाता है जिसका उसे पहले कभी अहसास भी नहीं हुआ था।
ममता कालिया की प्यार कविता की ये पंक्तियां पढ़ें और स्वयं महसूस करें कि यह अनुभूति होती क्या है-

उस दिन तुम्हें मैंने
देखा नहीं,
महसूस किया महज़
अपने में घिरे
कितने अकेले तुम

मैस्लो ने स्वस्थ प्रेम के जिन लक्षणों की चर्चा की है वे गंभीर और प्रभावी हैं। वे कहते हैं सच्चा प्यार करने वालों में ईमानदारी से पेश आने की प्रवृत्ति होती है। वे अपने को खुलकर प्रकट कर सकते हैं। वे बचाव, बहाना, छुपाना या ध्यानाकर्षण जैसे शब्दों से दूर रहते हैं। मैस्लो ने कहा है, स्वस्थ प्रेम करने वाले एक-दूसरे की निजता स्वीकार करते हैं। आर्थिक या शैक्षणिक कमियों, शारीरिक या बाह्य कमियों की उन्हें चिन्ता नहीं होती जितनी व्यावहारिक गुणों की।
प्रेम पर लिखना न केवल खतरनाक है बल्कि यदि काल्पनिक लिखा जाए तो भ्रम भी पैदा हो सकता है। कैसे एक कुशल कवि जीवन की सच्चाई को कागज़ पर बारीकी से उकेरता है-

जबकि इतना कुछ मांग सकता था वह उससे
हंसी,
इरादे,
खुशियां
और
कार्यक्रम
उसने मांगा सिर्फ शरीर
और संतुष्ट सो गया।
जबकि इतना कुछ मांग सकती थी वह उससे
बातें,
विचार,
विमर्श,
किस्से और कहकहे
उसने मांगा सिर्फ शरीर
और संतुष्ट सो गई।
उठने के बाद वे दोनों
उतने ही अकेले थे
जितने दो अंधे लैंपपोस्ट।

अमृता प्रीतम ने लिखा है, जिसके साथ होकर भी तुम अकेले रह सको, वही साथ करने योग्य है। जिसके साथ होकर भी तुम्हारा अकेलापन दूषित ना हो। तुम्हारी तन्हाई, तुम्हारा एकान्त शुद्ध रहे। जो अकारण तुम्हारी तन्हाई में प्रवेश ना करे। जो तुम्हारी सीमाओं का आदर करे। जो तुम्हारे एकान्त पर आक्रामक ना हो। तुम बुलाओ तो पास आए। इतना ही पास आए जितना तुम बुलाओ। और जब तुम अपने भीतर उतर जाओ तो तुम्हें अकेला छोड़ दे।
प्यार की अपनी भाषा होती है। शब्दों के स्थान पर मूक रहकर भी उससे अधिक कहा और समझा जा सकता है। यह जताने की नहीं बल्कि महसूस करने की अनुभूति है-

पहले हथेलियों ने आपस में बात की,
फिर बाहों ने।
दोनों के बीच लहू एक सा सनसनाया।
फिर तो समूची देह अपने रोम रोम से बोल उठी।
बिस्तर
एक कागज बन गया
बदन
एक लिपि
जिसमें कोई अपनी अद्भुत लिखावट से लिखे जा रहा था,
प्यार प्यार प्यार प्यार प्यार
बार बार बार बार बार।

एक कविता अनमन मन है ममता कालिया की जिसकी कुछ पंक्तियां अद्भुत हैं। यह कविता शायद हर औरत की कविता है। यह सच है कि बच्चे औरत के पैरों में बेड़ियां होते हैं। उसका शोषण होता रहता है लगातार और वो कुछ नहीं बोलती। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तब कुछ हालात थोड़े बदल जाते हैं। एक मां अब ज़बान लड़ाने की स्थिति में आ तो जाती है, मगर तब परिस्थितियां भी बदल चुकी होती हैं। घरेलू हिंसा, मानसिक प्रताड़ना, शोषण, भेदभाव आदि कितना कुछ घटित होता रहता है चारदीवारी के भीतर, पर सहनशक्ति की हद देखें कि उफ़्फ़ तक मुँह से नहीं निकलता-

तीन बीस पर छूटती थी रेल, दिल्ली जाने जाने वाली।
वह रोज सोचती
उतारेगी वह अलमारी के ऊपर से अटैची;
भरेगी उसने अपनी दो चार साड़ियां, सलवार सूट;
पर्स में रखेगी अपनी चेक बुक, संदूकची में
छुपाए हुए रुपए भी।
निकल पड़ेगी वह नयी राह पर,
प्रवाह पर।

तीन तीस पर बच्चे लौटते थे स्कूल से,
यहीं से उसकी पराजय शुरू होती
वह तो अपने आप कपड़े भी नहीं बदलते हैं
खाना निकालकर क्या खाएंगे!

ऐसे ही हर आज का कल होता रहा।
०००



गणेश गनी


परख की पिछली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2019/04/blog-post.html?m=1


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