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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 अप्रैल, 2019

परख पैंतालीस

रोज़नामचा


गणेश गनी

कोई कवि एक कविता के पांच दृश्यों में पूरा जीवन दर्शन उतार दे, ऐसा कम ही होता है। एक कुशल और अनुभवी कवि अपनी शैली से इसे सम्भव बना सकता है। कई बार बाहरी स्तर पर चीजें भिन्न दिखती हैं, पर जब हम परत दर परत भीतर जाने की कोशिश करते हैं तो कवि के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास करते हैं। राहुल द्विवेदी के रोज़नामचे में जगना, उठना, चलना, ठहरना, थकना और सोना दर्ज तो है लेकिन इन सब क्रियाओं के बीच का जो थोड़ा थोड़ा खाली वक्त है, उस वक्त को पकड़ने की कोशिश करने के दौरान बहुत कुछ ऐसा  घटित होता है जो अधिक महत्वपूर्ण है-


यूँ तो हर दिन
जगना ही पड़ता है
न चाहते हुए भी ...

फर्क नहीं पड़ता इससे
कि उजाला कहाँ तक आया है...

सोने और जागने के
दरमियान
अक्सर ही अपने भीतर के अंधेरों से
जूझते हुए
सो जाते हैं हर रात ---
इस उम्मीद के साथ
कि अन्धेरा खत्म हो जायेगा अगली सुबह  ...

जबकि वो तो
पसरा हुआ है अंदर तक
कहीं गहरे ...।



राहुल द्विवेदी


कवि कहता है कि जगना और उठना साथ साथ ही चल रहा है। जगना एक महत्वपूर्ण घटना है। जब हम जाग जाते हैं, तब जीवन की नई सुबह होती है। कभी भी जागें, पर जीवन में जगना जरूरी है। कहते हैं न जब जागो, तभी सवेरा। पर यह जाग भीतर हो। उजाला बाहर भी हो और भीतर भी-

उठना  लगभग
रोज की आदत बन गई

याद नहीं आता कि
किसी दिन न उठा हूँ
आदतन...

जगना और उठना
साथ ही साथ चल रहा है
जब से याद आता है --

अब सोचता हूँ  अक्सर
कि किसी क्षण ऐसा भी हो
कि भूल ही जाऊँ उठना
अनायास ही...
किसी सुबह।

बुद्ध का एक शिष्य था जो नया-नया दीक्षित हुआ था और बुद्ध को उसने पूछा, मैं आज कहां भिक्षा मांगने जाऊं?
मेरी एक श्राविका है, वहां चले जाना।
वह वहां गया और जब भोजन करने बैठा तो बहुत हैरान हुआ। दरअसल रास्ते में इसी प्रिय भोजन का उसे खयाल आया था। लेकिन उस श्राविका के घर वही भोजन देख कर वह बहुत हैरान हो गया। सोचा, संयोग की बात है, वही आज बना होगा। जब उसने भोजन कर लिया तो उसे अचानक खयाल आया कि जब राजा था, तब तो भोजन के बाद वह विश्राम करता था रोज। लेकिन आज तो वह भिक्षु और भोजन के बाद वापस जाना होगा। दो तीन मील का फासला फिर धूप में तय करना है।
उस श्राविका ने पंखा करते हुए कहा, भंते अगर भोजन के बाद दो क्षण विश्राम कर लेंगे तो मुझ पर बहुत कृपा होगी।
भिक्षु फिर थोड़ा हैरान हुआ कि उसकी बात कैसे उस तक  पहुंच गई! फिर उसने सोचा, संयोग की ही बात होगी। चटाई डाल दी गई। वह विश्राम करने लेटा ही था कि उसे खयाल आया, आज न तो अपनी कोई शय्या है, न अपना कोई साया है; अपने पास कुछ भी नहीं।
वह श्राविका जाते जाते रुक गई। उसने कहा, भंते, शय्या भी किसी की नहीं है, साया भी किसी का नहीं है। चिंता न करें।
अब संयोग मान लेना कठिन था। वह उठ कर बैठ गया। उसने कहा, मैं बहुत हैरान हूं! क्या मेरे भाव पढ़ लिए जाते हैं? वह श्राविका हंसने लगी। उसने कहा, बहुत दिन ध्यान का प्रयोग करने से चित्त शांत हो गया। दूसरे के भाव भी थोड़े-बहुत अनुभव में आ जाते हैं। वह एकदम उठ कर खड़ा हो गया और  घबराकर कांपने लगा।
उस श्राविका ने कहा, आप घबराते क्यों हैं? क्या हो गया? विश्राम करिए। अभी तो लेटे ही थे।
उसने कहा, मुझे जाने दें, आज्ञा दें। उसने आंखें नीचे झुका लीं और वह चोरों की तरह वहां से भागा।
उसने बुद्ध को जाकर कहा, उस द्वार पर अब कभी न जाऊंगा।
बुद्ध ने कहा, क्या हो गया? भोजन ठीक नहीं था? सम्मान नहीं मिला? कोई भूल-चूक हुई?
सब कुछ मिला पर फिर भी वहां जाने की आज्ञा न दें।
बुद्ध ने कहा, इतने घबराए क्यों हो? इतने परेशान क्यों हो?
उसने कहा, वह श्राविका दूसरे के विचार पढ़ लेती है। और जब मैं आज भोजन कर रहा था, उस सुंदर युवती को देख कर मेरे मन में तो विकार भी उठे थे। वे भी पढ़ लिए गए होंगे। फिर भी मुझे भिक्षु और भंते कह कर आदर दे रही थी!
बुद्ध ने कहा, तुम्हें वहां जानबूझ कर भेजा गया। यह तुम्हारी साधना का हिस्सा है। वहीं जाना पड़ेगा। जब तक मैं न कहूं या जब तक तुम आकर मुझसे न कहो कि अब मैं वहां जा सकता हूं, तब तक वहीं जाना पड़ेगा।
उसने कहा, लेकिन मैं कैसे जाऊंगा? किस मुंह को लेकर जाऊंगा? और कल अगर फिर वही विचार उठे तो मैं क्या करूंगा?
बुद्ध ने कहा, तुम एक छोटा सा काम करना और कुछ मत करना, जो भी विचार उठे, उसे देखते हुए जाना। विकार उठे, उसे भी देखना। तुम सचेत रहना भीतर। जैसे कोई अंधकारपूर्ण गृह में एक दीये को जला दे और उस घर की सब चीजें दिखाई पड़ने लगें, ऐसे ही तुम अपने भीतर अपने बोध को जगाए रखना।
वह भिक्षु गया और भय था, पता नहीं क्या होगा? लेकिन वह अभय होकर लौटा। वह नाचता हुआ लौटा। कल आंखें नीचे झुकी थीं, आज आंखें आकाश को देखती थीं।  बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा, जब मैं सजग था, तो मैंने पाया वहां तो सन्नाटा है। मुझे अपनी श्वास भी मालूम पड़ रही थी। मुझे हृदय की धड़कन भी सुनाई पड़ने लगी थी। इतना सन्नाटा था मेरे भीतर। कोई विचार सरकता तो मुझे दिखता। मैं एकदम शांत उसकी सीढ़ियां चढ़ा। मेरे पैर उठे तो मुझे मालूम था कि मैंने बायां पैर उठाया और दायां रखा। यह जीवन में पहली दफा हुआ कि मैं भोजन कर रहा था तो मुझे कौर भी दिखाई पड़ता था। मेरा हाथ का कंपन भी मालूम होता था। श्वास का कंपन भी मुझे स्पर्श और अनुभव हो रहा था। और तब मैं बड़ा हैरान हो गया, मेरे भीतर कुछ भी नहीं था, वहां एकदम सन्नाटा था। वहां कोई विचार नहीं था, कोई विकार नहीं था।
बुद्ध ने कहा, जो भीतर सचेत है, जो भीतर जागा हुआ है, जो भीतर होश में है, विकार उसके द्वार पर आने वैसे ही बंद हो जाते हैं, जैसे किसी घर में प्रकाश हो तो उस घर में चोर नहीं आते।
चलते रहना है जीवन में, तो कहीं तो पहुंचेंगे ही। सबसे बड़ा पहाड़ तो घर की दहलीज़ ही है। बुजुर्गों ने सच कहा कि इसे लांघो एकबार, फिर बड़े से बड़ा दर्रा भी पार कर लोगे-

चलो ,
कि चलना ही निरंतर
प्रगति के लिए जरूरी है

फर्क यहां पड़ता है
कि तमाम परछाइयां
जो चलती थीं साथ साथ --

....अब नहीं दिखती ।

कहते हैं कि
यह अंत की शुरुआत है...।

राहुल बहुत कम लिखते हैं लेकिन जो लिखते हैं उसमें दर्शन है और जीवन की हकीकत भी है। कवि कहता है कि ठहरना तो ठीक है, पर सांसों का ठहरना तो ज़िंदगी का ठहराव है। तो साँसों का हिसाब किताब भी ज़रूरी है-

अक्सर ही रूक
जाते हैं कदम..।

हाँफती साँसों के
थमने तक के लिए ।

जबकि ,
साँसों का ठहरना ही
जिंदगी का ठहरना  है

इसलिए
सबसे छुप कर
करता रहता हूँ अक्सर
साँसों की गिनती
अब ...।

रोज़नामचे के एक टुकड़े में कवि की निराशा झलकती है। लेकिन देखा जाए तो यह निराशा भी नहीं है, एक ऐसी स्थिति है जब इंसान के हाथ में कुछ नहीं रहता। एक समर्पण जैसी स्थिति। इसे हार भी नहीं कहेंगे। कवि थक गया है चलते चलते। उसे अपनी पसंद का हमराही नहीं मिला। एक भटकाव की स्थिति है। पाने की अथक कोशिश के बाद की एक खीझ है, एक बेचैनी है-

अजीब सी थकन है,

मानो सफर का
जो रास्ता तय करना था
कभी ,
वो भटक गया हूँ ।

आसपास भी --
अनजाना सा माहौल है ।

इस दौर में,
किसी एक अपने
को ढूंढ पाने में
लगातार असफल हूँ ...

और खीज कर
थकता जा रहा हूँ ।

कवि राहुल द्विवेदी की बेचैनी हद से ज़्यादा बढ़ गई है। जब एक कवि को अपने सपनों का समाज नहीं मिलता और जिस आदर्श समाज की उसने कल्पना की होटी है, यदि वैसा नहीं दिखता तो फिर यह बेचैनी और बढ़ जाती है-

स्याह होती रात
और उसमें बुनता सन्नाटा

घुसता जा रहा है
जेहन में ।

भयावह हो रहा है
जीना अब ,
इस थकन के साथ ।

सुना था कभी
कि,
इस देश में होती थी
हरियाली,
पीलापन,
नीलिमा ,
और लालिमा भी ।

पर चारो तरफ
मुझे स्याह दीखता है
अब..।

कुछ लोग कहते हैं
कि मेरे आंखों में
पट्टी बंधी है

और मैं मजबूरन
देखता हूँ हर तरफ
काला ...।

कोशिश बहुत की मैंने
कि देखूँ रंगबिरंगा
पर .....
मेरी मनहूसियत साथ नहीं छोड़ती ।

बस अब आखिरी बार,
एक गैर मामूली
दिनचर्या की तरह
सोना चाहता हूँ

और मुक्त हो जाऊं ।

यह रास्ता है, सही भी हो सकता है, गलत भी। चुनाव का विकल्प चलने वाले के पास होता है। मगर रास्ते की पहचान करने की दृष्टि भी चाहिए। राहुल की एक छोटी कविता है जो बड़ा नज़रिया लिए हुए है। यह मात्र कविता नहीं है, एक पूरा जीवन के प्रति और प्रेम के प्रति विराट दृष्टिकोण है-

इतना लंबा रास्ता
कि जो जन्म जन्मांतर तक
जाता हो ,
पाप पुण्य के हिसाब-किताब
के साथ --
तय ही नही कर सकता ..।
मैंने तो तुम तक पहुँचकर ही
खत्म कर दिया युगों -युगों का हिसाब...।
 000


गणेश गनी


परख चवालीस नीचे लिंक पर पढ़िए

कतरा-कतरा पिघलता है दिन !

https://bizooka2009.blogspot.com/2019/03/blog-post_31.html?m=1


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