अर्चना लार्क |
कलाकार
कलाकार जब लिखता है प्यार
तो कितनी ही कटूक्तियों से
दो चार हुआ रहता है
जब वह लिखता है आज़ादी
तो जानता है उनके
कैसे-कैसे फरमान हैं
जिनसे मुक्ति की कोशिश है
कला
वह सुनता है धार्मिक नारों
के बीच बजबजाती हुई
उनकी आवाज़
उनके थूथन की सड़न को धोने
में काम आता है उसका प्यार
कलाकार होता जाता है ईश्वर
का दूसरा नाम
हर बार
वह जानता है प्यार ही है
जो बचता है ज़रा सा भीतर
लोगों की मुस्कानों में
तेवर में
उदास होता जाता है कलाकार
रोज़-ब-रोज़
हर किसी के भीतर मरता रहता
है एक ईश्वर
स्त्री की आवाज़
जब तुम जनेऊ लपेट रहे थे
कुछ दूर एक सुंदर बच्चा
अपने होने की गवाही दे रहा था
जब मन्त्रों की बौछार के
बीच
तुम भाग्य का ठप्पा लगा रहे
थे
कुछ दूर वह बच्चा संघर्ष
का पहला पाठ पढ़ रहा था
जब तुम अपने नाकारापन पर
गंगाजल छिड़क रहे थे
और उस बच्चे को हर कहीं
रोक रहे थे
तुम्हारी मूर्खता तुम्हारी
चोटी की तरह लहरा रही थी
तुम उसकी बुद्धि को
पहचानाने से इनकार करते रहे
वह कोई था एकलव्य या उसका
वंशज रोहित वेमुला
तुमने कहा वे चहांरदीवारी
के अंदर नहीं आ सकते
अपने स्वार्थ से समय को
सिद्ध करते हुए
तुमने उन्हें अपनी थालियों
से दूर रखा
कुर्सी पर विराजमान तुम
उन्हें अपने पैरों के पास
बिठाने को क्रांति समझते रहे
तुम स्त्रियों को कभी राख
तो कभी पत्थर बनाते चलते रहे
तुम्हारा पुरुषत्व उन पर
गुर्राता रहा
फिर एक दिन तुमने कहा कि
घर ही ख़ाली कर दो!
तुम्हारे खड़ाऊँ तुम्हारी
धोती तुम्हारा अंगौछा जनेऊ
मस्तक पर उभरा हुआ चंदन
तुम्हारा भोजन
सब उनका श्रम है
तुम नंगे हो अपनी जाति अपने प्रतीकों अपने धर्म के भीतर
'तुम विधर्मी सब गद्दार हो' कहने वाले तुम
ज़रा नज़रें घुमा कर देखो एक
लंबी कतार है
सौंदर्य से भरा हुआ एक 'शाहीन बाग़'
सुनो वे आँखे तुमसे क्या
कह रही हैं?
मैंने अभी-अभी सुना- ‘हिटलर गो
बैक’
और सबसे ऊँची आवाज़ उस
स्त्री की है
जिसे तुम अपने शास्त्रों
के खौलते हुए तेल में
डुबोते रहे थे बार-बार
युद्ध के बाद की शांति
पृथ्वी सुबक रही थी
खून के धब्बे पछीटे जा रहे
थे
न्याय व्यवस्था की चाल
डगमग थी
युद्ध के बीच शांति खोजते हुए
हम घर से घाट उतार दिए गए
थे
वह वसंत जिसमें सपने रंगीन
दिखाई दिए थे
बचा था सिर्फ स्याह रंग
में
खून के धब्बे मिटाए जा
चुके थे
पता नहीं क्या था
जिसकी कीमत चुकानी पड़ रही
थी
चुकाना महँगा पड़ा था
हर किसी की बोली लग रही थी
हर चीज़ की क़ीमत आंक दी गयी
थी
हम कुछ भी चुका नहीं पा
रहे थे
सपने में रोज़ एक बच्चा
दिखता था
जो समुद्र के किनारे औंधे
मुंह पड़ा था
एक बच्चा खाने को कुछ माँग
रहा था
तमाम बच्चे अपनों से मिलने
के लिए
मिन्नतें कर रहे थे
उसे युद्ध
के बाद की शांति कहा जाता था
दो खरगोश थे उनकी आंखें
फूट गईं थीं
एक नौजवान अपनी बच्ची से
कह रहा था
मुझ जैसी मत बनना
मज़बूत बनना मेरी बच्ची
यह वह वक्त था
जब प्रेमियों ने धोखा देना
सीख लिया था
खाप पंचायतें बढ़ती जा रही
थीं
उस दिन मेरी फोटोग्राफी को
पुरस्कार मिला था
मेरी गिरफ्तारी सुनिश्चित
हो चुकी थी
मैंने कहा यह कोई सपना
नहीं
मेरे होने की कीमत है जिसे मुझे
चुकाना है
अंधापन फैल चुका है
हम कितनी जल्दी में हैं
नष्ट होने को आतुर
हुंकारते सींग मारते घुसे
जा रहे मनमाने
कीचड़ हो गए विचार बिक गए
चौथे खम्भे से
शब्दों के सौदागरों की राय
है
कि मनुष्य न बचे रहें
बेशक मंदी छाई हुई हो
लेकिन झंडा ऊंचा है
झंडाबरदार अँधेरे में तीर
चलाते
सम्मोहन के खतरनाक पड़ाव के
पार हैं
उनकी मृत्यु भी अब स्थगित
है
सुना है अंधापन फैल चुका
है इलाक़े में
बहरेपन ने दस्तक दी है
रिश्तों और विचारों का
मातम मन रहा
सच भरभराकर गिर गया है
'हाँ' को बरी
और 'ना' को नज़रबंद किया गया है
अक्षर और शब्द हड़ताल पर
हैं
जागो आगे तुम्हारा भी
नम्बर आएगा
परिचय
अर्चना त्रिपाठी
(अर्चना लार्क नाम से लेखन)
निवास स्थान- सुल्तानपुर (उ.प्र.)
स्थाई पता - रोहिणी 18, नई दिल्ली
संपर्क - 9811837135
शैक्षणिक योग्यता -
यूजीसी नेट, पीएचडी, एम. फिल (गोल्ड मेडल)
सम्प्रति – असिस्टेंट प्रोफेसर (अस्थायी) दिल्ली वि. (दो वर्ष का शिक्षण अनुभव)
प्रकाशन एवं सर्जनात्मक गतिविधियाँ -
नया ज्ञानोदय', 'वर्तमान साहित्य', 'परिकथा' आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
विभिन्न नाटकों में अभिनय
‘मुहावरे’ लघु फ़िल्म में अभिनय (यूट्यूब पर उपलब्ध)
विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में पत्र वाचन और प्रकाशन
विभिन्न नाटकों में अभिनय
‘मुहावरे’ लघु फ़िल्म में अभिनय (यूट्यूब पर उपलब्ध)
विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में पत्र वाचन और प्रकाशन
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