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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 अक्तूबर, 2024

जयश्री सी. कंबार की कविताऍं

 दूसरी कड़ी 

डॉ. जयश्री सी. कंबार वर्तमान में के.एल.ई.एस निजलिंगप्पा कॉलेज, बेंगलुरु में अंग्रेजी विषय के सहायक प्राध्यापक पद पर कार्यरत हैं। उन्होंने 3 यूजीसी प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया है और विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों

और सम्मेलनों में शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने 02 कविता संग्रह - 'विस्मय' और 'हसिद सूर्य', 03 नाटक- माधवी और एकलव्य और 1 अनुवाद- बुद्ध, कन्नड़ से अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। उनके पास 2 अप्रकाशित नाटक, 2 अनुवादित नाटक और कविताओं का एक संग्रह है। उनकी लघु कथाएँ और कविताएँ कर्नाटक की प्रमुख समाचार पत्रिकाओं और जर्नलों में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपने नाटक माधवी के लिए इंदिरा वाणी पुरस्कार जीता है। कन्नड़ में यात्रा वृत्तांतों पर उनके लेख प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं।

उन्होंने केरल में आयोजित तांतेडम महोत्सव- अखिल महिला लेखिका सम्मेलन में मुख्य भाषण दिया है, त्रिशूर में मध्यम साहित्य उत्सव में एक पैनेलिस्ट के रूप में, लिटिल फ्लावर कॉलेज, गुरुवायूर में राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य भाषण दिया है। इसके अलावा उन्होंने 9 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हैदराबाद में आयोजित ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली द्वारा आयोजित कवियों की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कविता प्रस्तुत की है। उन्होंने पंजाब, तिरुपति, बैंगलोर, शोलापुर, शिमोगा, मैसूर, कालीकट, लक्षद्वीप और कर्नाटक में कई स्थानों पर आयोजित लेखक-कवि सम्मेलन में भाग लिया है। रंगमंच पर उनकी बातचीत ऑल इंडिया रेडियो, बैंगलोर द्वारा प्रसारित की गई थी। उन्होंने कई अवसरों पर दूरदर्शन पर अपनी कविताओं को भी प्रस्तुत किए हैं। आप 'कन्नड़ सेवा रत्न', 'इंदिरा वाणी राव पुरस्कार' दो बार कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए प्राप्त कर चुकी हैं।

०००


एक

दीवार में दरार जैसे


यह दीवार में दरार जैसे, तथा

उसके बीच से ताकनेवाली कालिमा

अंधकार सा, और कोई

कौतुहल सर्जित नहीं करता।


अगाध आकाश के कौतुहल के दरार

पास होके एक ही आँख से

तमाधीन रहस्य को देखो।

मुग्ध रहने दे दूसरी आँख

बंद कर दो।

छुरा की नोक सी दृष्टि

तेज करने पर भी, वह गर्भ

तुम्हारे लिए खुलता नहीं।

फिर से प्रयास करो। अब

कान पास ले जाओगे

अंदर से बहती समीर

मुख पर छिलकती है। 

मकबरे से खिसककर निकले जैसे

कुछ कुछ गुनगुनाते हैं।

ना समझनेवाले शब्द

अंधकाराधीन छाँव।

इस दीवार के पीछे के अंधकार

कुछ कसकर पकड़ लिया है।

अथवा सभी शब्दों को 

छाँवों को भी धकेल रह है।

हारकर तुम पीछे हठे तो

वहाँ, दरार के छोर में 

लाल ईँट के टुकड़े से

तभी बीजांकुरित कोंपल को देखोगे।

****


दो

कविता माने


फिर से और वही पंक्तियाँ

बार बार फेरी करते 

वे ही शब्द।


प्रभात में पुलकित साफ किए

रात में टिमटिमाते तारें जैसे

कहीं से गिर कर

पन्नों पर गोचरित होते।


बहकर निकलते उल्का

की चिंगारी नुमा खिंचाव

कहीं से घुस कर

बन जाती हैं कविता, मृदुल

पंछी के पंख जैसे छाती में।

पानी की लहरों में छिपे 

मंद नाद जैसे शब्द

गाने को गुनगुनाते हैं।


इसका व्याकरण ही अलग है

छंद अलग है।

मत्त भरी आँखों जैसी 

सताती हैं कविताएँ।

*****


चित्र 

मुकेश बिजौले 











तीन

मौन कविता


आकाश में सूख गए

पद सारे हुए जब निःशब्द

पन्नों पर कविता न बनते 

वर्णों को कैसे दूँ मैं ध्वनि?


आँकों में बिंब के लिए जीवरहित

काली गोलों के अंतर्प्रवाह में

फंस गए संदेह।

दुनिया भर ज़ड़ फैले आपदाएँ

मन तथा देह को बाधित करते।


दिवा में वेश धारण कर

मंदहास से, गरमी को भी 

धोखा करने की यंत्रणा।

अंदकार में बी आईने में छाया बिंब

सरसराते चलते रहते साँप जैसे।

मंद समीर में हजारों

अंतराओं का निःश्वास भार।


अंधकार के पन्ने पलटके

क्षितिज के प्रकाश पथ पर

निकले जीव भरे आखर।

छलांग करे शब्दों में नये सिरे से

मौन से परे चलती रहे कविता

आकाश मार्ग चीरकर।

*****

चार

चेस खेलते हुए


आज गद्दी पर विराजनाम राजा

संध्या समय संदेश रवाना करते,

'इसके बाद कोई सपना नहीं देखना।'

अरे! ऐसे कोई आकर

सपनों को ही बिखेरनेवाले,

हमने कभी सपने में बी नहीं देखा।


सुबह होते मंदिर के चबूतरे पर बैठकर

सपनों के प्रमाण कर

देश की गति सुनानेवाले की गति?

जग के उजाले के आंगन देखने

आँख खोलनेवाले मनों की गति?

इंद्रधनुष को क्या बिना रंग के देखे?

आँखों में दिशारहित होकर दौड़नेवाले सपनों को 

मेरे मौन के मकबरे में गाढ़ दिया है। 


अब कैलेंडर को खोलकर

संख्याओं के साथ चेस खेल रही हूँ।


सपनों के सांस के लिए अंधकार ही नहीं चाहिए

फिर भी चंद्रमा मेरी कीवाड़ के शीशे को 

कभी कभी चीरने का यत्न करता रहता है।

*****

पॉंच 

चेन्नम्मा की प्रतिमा और मैं


नीलाकाश में पूर्णिमा का चाँद

घने रूप में फैले नक्षत्र

टार के रास्ते पर 

आटे नुमा फैली चांदनी

अंधकार के इस मौन में

थे हम दो ही....

चेन्नम्मा की प्रतिमा और मैं।


अब सर्कल में है निःशब्द

मायानगरी का जगमगाहट

खत्म होकर दिग्दिशाओं में निकले 

गाड़ियाँ अब अदृश्य।


पहियों के चलनशीलता से अब भी

मार्ग पर हवा का संचार है। 

मन में ही एक प्रश्न है

इस कित्तूर धीरांगना की

दिशा कब बदल गई?


गाड़ियों पर चढ़कर सपनों के 

पीछा कर बागते समय

क्या किसी ने भी नहीं देखा?

सर्कल के सिग्नल में जब खड़ी थी

हरी दिया के लिए देखते

हारनेवाली आँखें 

क्या इनकी ओर भटकी नहीं?

भूल गया क्या इतिहास?


बहती आयी समीर

ना कभी सुनी कथाओं को 

गुनगुनाते रहते समय

शिथिल हुआ मात्र अंधकार ही 

नहीं मन भी।

*****

छः 

छाँव का खेल

तब

रंग निकालकर बाहर आए तो

रहे थे मैं और खाली कुर्सियाँ

रंगपंडप पर एक मंद दीप।


घिसपिटी साढियों से उतरते ही

मौन मिटने की आवाज़

थरथराहट करती, मुड़े तो 

मेरी छाया बगल मे ही

खींचकर बिखरी हुई

फैली है रंगमंच संपूर्ण।


बिखरी बिखरी छाया

सांप की फूंकारती हुई

नाना वेष धरण कर 

पात्रधारी बन गई हैं।

मूल पात्रों को बिखेर कर

बिना नाटककार के निर्बंध से

रमरमाती रही मदोन्मत्त।

सीमा पार कर गाते, खेलते 

छेड़ रही हैं मुझे देख

आर्भट से शोरगुल कर 

ऊपर छढ़कर आक्रमण करती।

चुभनेवाली दृष्टि

दिल को छूकर, चिंगारी

जलकर पल्लटित हुई है।


रखने के पद छाप

पीटकर जगा रही हैं, गीली

समाधी का गंध।

नचने के ये पात्र प्रेतात्माएँ

नाच-नाचकर पात्र की सीमा पार

उषाकाल होते ही

हारकर जमीन में धंस के

शब्दों को निगले निःशब्दनुमा

छाँव में समाहित हुए।

मुग्ध छाया धीरे से

मेरे पास कह देती।

*****

सात

औरेक नव वर्ष


अपरदिशा के रवि गंबीरता से उतर रहा है।

मार्ग पर मोटरगाडी जैसेतैसे घुस रहे हैं

अव्यवस्थित मनों के रूप में

पथ सारे बदल चुके, घूम रहा लंगर

न टिके घूमता ही रहा

टेबल पर बिछे इस्पीट पत्ते की तरह

बिखरे वर्ष एक के बाद एक

फिर नया पत्ता, एक और नव वर्ष।


बाहरी शोरगुल के बीच

बैठे हैं यहाँ मैं और तुम।

धक्कामुक्की कर रहें गुंजाइशें

पंजे झुलस रहे हैं निजी विषयों को।

तैरते आ रहे हैं यादों की लाश नुमा

बातें छेदित घाव जैसे दर्दनाक

गुमसुम छिपा है मौन

बातों के बीच मैं, न रहा मैं,

तुम भी तुम जैसे नहीं रहे मात्र थे वस्तएँ।


तुम्हारी आँखों में देखा भूत

गहरे कुँए से उठते हुए।

छांव को हिलडुल करने का समय।


घूमरहा पासा

घनांधकार गर्भ में

नया दिन करवटे लेकर घूमा,

एक और नया पात

एक और नया वर्ष।

*****  


अनुवादक का परिचय 

परिचयः- कर्नाटक के वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में विशेषकर अनुवाद क्षेत्र में विशेष नाम के डॉ.प्रभु उपासे संप्रति सरकारी महाविद्यालय, चन्नुट्टण, जिला रामनगर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ.प्रभु उपासे जी का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा

जिला, तहसील इंडी के ग्राम अंजुटगी में हुआ। पिता श्री विठ्ठल उपासे तथा माता श्रीमती भोरम्मा उपासे। गांव में ही प्राथमिक शीक्षा पाकर श्री गुरुदेव रानडे ज्ञानधाम प्रौढ़शाला, निंबाळ, आर.एस. में हाइस्कूल की शिक्षा प्राप्त की। कर्नाटक विश्वविद्यालय से एम.ए तथा बेंगलोर विश्वविदायलय से डॉ.टी.जी प्रभाशंकर प्रेमी के मार्गदर्शन में "समकालीन काव्य प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में दिविक रमेश की काव्य कृतियों का अध्ययन" शोध प्रबंध के लिए पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की। आप ने कर्नाटक मुक्त विश्वविद्यालय, मुक्त गंगोत्री मैसूरु से एम.एड. की उपाधि प्राप्त की है।  

आपने विविध छत्तीस राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया एवं शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। अनुवाद क्षेत्र में गणनीय सेवाएं की है। कर्नाटक में हिंदी के प्रचार वं प्रसार एक अध्ययन विषय पर यूजिसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रैजेक्ट (20025-2007) पूर्ण की है। बसव समिति बेंगलूरु द्वारा प्रकाशित बसव मार्ग पत्रिका के ले पिछले बत्तीस वर्ष से लेख लिखते रहे हैं। इनकी अनूदित कृति "आत्महत्या, समस्याएँ एवं समाधान" कृति के लिए बेंगलूर विश्वविद्यालय द्वारा 2021 वर्ष का लालबहादुर शासत्री अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ है। नव काव्य प्ज्ञा फाउंडेशन द्वारा कई राष्ट्य पुरस्कारों से नवाजा गया है। प्रतिभारत्न-2023, साहित्य रत्न-2024, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2024 उल्लेखनीय हैं।

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