सरिता भारत की कविताऍं
दलित की बेटी बोल रही है
सब कुछ वो तोल रही है
दलित की बेटी बोल रही है!
अपनी जड़ता लिए,
बरगद सी खड़ी ,
पूर्वजों ने दी जो विरासत,
इतिहास की परतें,खोल रही है!
दलित की बेटी बोल रही है!
कितना तोड़ोगे उसे,
शब्दों के चाबुक से,
नफ़रतो के शहर में
लिए,
खंजर इंकलाब का
गाॅंव-गाॅंव ,कूंचे ,चौबारे
वो डोल रही है!
दलित की बेटी बोल रही है।
बलात्कार, हत्या, छेड़छाड़
कब तक करोगे ,
ओ चौधरी सरकार❓
फाइलों,दफ्तरों ,में घूमती
किताबें कानून की, वो
शोध रही है ,
दलित की बेटी बोल रही है!
जानती है चौपट व्यवस्था,
अंधा कानून, पितृसत्ता का समाज
जाति भेद,
गैर बराबरी,
उसको अब वो रोंध रही है!
दलित की बेटी बोल रही है
बेटी,दलित बाप की,
मजदूर किसान की,
लुहार, चमार की,
बंजारा ,कुम्हार की,
भंगी ,काश्तकार की,
सवर्ण या साहूकार की
जमींदार या दस्तकार की
सुन लो !
समाज के ठेकेदारों
जबड़े सबके तोड़ रही है!
भारत की बेटी बोल रही है
करेगी दमन की मुख़ालिफ़
बेख़ौफ़ आज़ाद वो
दौड़ रही है !
दलित की बेटी बोल रही है
सत्ता सिंहासन का तोड़ रही है
दलित की बेटी बोल रही है
हिमालय, मेघालय
जम्मू कश्मीर, से लेकर
मणिपुर,बंगाल की खाड़ी तक
समुद्र की तह में,आकाश,
पाताल में धरती डोल रही है
दलित की बेटी बोल रही है ।
०००
बुद्ध के देश में युद्ध लड़ती लड़कियाॅं
बुद्ध के देश में युद्ध लड़ रही है लड़कियाॅं
अपनी प्रतिबद्धता से लैस,
प्रतिरोध का स्वर बन रही है लड़कियाॅं
बुद्ध के देश में युद्ध लड़ रही है लड़कियाॅं
यौनिकता पर प्रहार करने वालों से , नर
हजार पत्थर,मिर्च यौनी में भरने वालों से
एक लंबी क्षय के साथ दहकता अंगारा हथेलियों में लिए,
जंतर मंतर पर सड़कें नप रही है लड़कियाॅं !
दैहिक जुल्म के खिलाफ़,
लड़ने का संकल्प लिए
सुप्रीम कोर्ट का आदेश
सीबीआई जांच हो जाने तक
अपराधियों को क्यू नही मिलती सजा ,
आखिर
बुद्ध से ही फूट फूट कह रही है लड़कियाॅं
बहुचर्चित आरोपी घूम रहा छुट्टा,
देखो बुद्ध के देश में,
मनुवाद,सामंतवाद ,पितृसत्ता
तानाशाही के बोझ तले दब रही है लड़कियाॅं!
दशकों की सीढ़ियां लांघे बन पाई थी
तुम हाथों में भारत का परचम लहराएं
देखो बुद्ध आज ये भी युद्ध हुआ की
बेरहम वक्त की साजिश ,
सत्ता की कुर्सी,और हुई हवस का शिकार ,
अपने ही स्वाभिमान और सम्मान के लिए
चढ़ी थी जो सीढ़ियां ,थू ऐसे देश पर
उन्ही से नीचे उतर रही लड़कियां
बुद्ध अब तो नग्न प्रदर्शन बाक़ी है
इस देश की माताएं जब निकल पड़ी थी
नग्न प्रदर्शन करने मणिपुर,
इम्फाल में,
बोली थी आओ हमारा बलात्कार करो ?
याद है बुद्ध
ये युद्ध भी हो चुका इस देश में
जब माताओं ने कपड़े उतार फेंके थे
ओर 14 साल इरोम शर्मिला बैठी थी फास्टिंग पर,
खूनी छींटों से
दंगो से गोली बारूद के खिलाफ़
मुकम्मल युद्ध लड़ती रही ।
मनोरमा थांगजाम से बलात्कार हुआ,
फिर उसकी यौनी में 7 गोलियां दागी गई!
पत्थर घुसेड़े गए आतंकवादी घोषित किया।
उसके माॅं-बाप के सामने बलात्कार किया गया।
फिर भी युद्ध लड़ती रही स्त्रियाॅं।
बुद्ध के देश में एक युद्ध
ये भी लाखों की तादात में महिलाओं ने
लड़ा था शाहीन बाग में
नहीं डरी थीं वो तब भी ,पुलिस के डंडों से
ऑंसू गैस के गोलों से
लड़ती रही
जब तक छेड़छाड़ ,हत्या, बलात्कार होता रहा!
चट्टानों को फाड़ देने वाली तपिश
झुलस जाए चाहे।
चाहे बना ले बंदी
चाहे भेज दे जेल ,
लगा दे फांसी ,
दमन की चूलें हिलाने
वाले मुक्ति के स्वर गाती रहेंगी लड़कियाॅं
करती रहेंगी बगावत पर बगावत
जब तक लोकतंत्र की नब्ज़ हमारे हाथ में न आ जाए।
बुद्ध के देश में युद्ध लड़ रही है बेटियाॅं
बलात्कार ,हत्या ,हिंसा , पाबंदियों के खिलाफ़
डर से आजाद होकर , हवा के पंखों पर सवार
चीत्कार करती हुई
जमावड़ा करने लगी है बेटियाॅं
लड़कियों हमे चुप कराया जाएगा!
अनाप शनाप बेतुकी बातें उठेंगी।
धमकियां मिलेगी मर्डर कराया जाएगा
नारी देवी है
घर में अच्छी लगती का नारा बुलंद होगा।
उठेगी उंगलियां चरित्र पर
राष्ट्र द्रोही आतंकवादी बनाया जायेगा ।
भद्दी टिप्पणियां उठाई जायेंगी।
छीनाल और बेशर्म बोला जायेगा।
कुछ अंधभक्ति में डूबी महिला भी बोलेंगी
कुछ कट्टर समर्थक,कुछ मनुवादी
कुछ स्त्री को देवी पति को देवता मानने वाले
कुछ धर्म के ठेकेदार आयेंगे।
पर करना तुम बुद्ध के देश में शब्दो का मुकाबला
नही डरने के हथियार तर्क की चाबियों से
सामंती तालो को खोलना होगा।
गिद्ध और गधों की लड़ाई में तुम्हे बनना होगा!
बाज,
तोता बनना छोड़ दो, कोयल सी क्यू गाती हो
छेड़ो संघर्ष की तान, लड़ो लड़ो लड़ो
जब तक पितृसत्ता की जंजीरे न टूट जाए।
अपने अस्तित्व के मेटाफिजिक्स को समझो !
आगे बढ़ो क्यू की बुद्ध के देश में
अब युद्ध ही नज़र आता
बुद्ध के देश में एक युद्ध ये भी लड़ना होगा।
अपने अस्तित्व को बचाने का युद्ध !
०००
चिड़ियों की दुनियाॅं
कौन समझेगा घोसलों से चिड़ियों का उड़ना जारी है।
कौन समझेगा चिड़ियों ने दुनिया संवारी है।
कौन समझेगा चिड़ियों का इश्क इंकलाब हुआ!
कौन समझेगा चिड़ियों की भाषा उनकी ज़ुबान
कौन समझेगा आकाश नापती है वह अपने हिस्से का,
कौन समझेगा उनकी कल्पना की उड़ान
परियों की कहानी,गुड़िया गुड्डे के खेल!
कौन समझेगा उनकी बाते,
रात जगाती हुई राते!
कौन समझेगा उनकी रफ़्तार
उनके इंकलाबी स्वर!
कौन समझेगा इश्क उनका!
कौन समझेगा की चिड़ियों ने दुनिया सॅंवारी है ।
कौन समझेगा हर लहर पर झूम कर नाचना उनका,
कौन समझेगा उनके ख्वाबों को
जिसे जीना चाहती है वह मदमस्त खुले आकाश तले।
कौन समझेगा उनके बाहों के आसमान
सतरंगी ख्वाब
कौन उतारेगा केनवास पर तस्वीर उनकी
बोलती हुई!
तारो की बाते
चांदनी रात की यादें
दादी सब समझती थी ।
किंतु फिर भी रोक देती
घोसलों से उड़ान उनकी
माॅं चाहती थी।
किंतु बाप ने काट दिए पर !
दी तलवारें समाज ने,
चिड़ियाऍं सहम गई डर गई कुछ पल
फिर चिड़ियों को उठा ले गए बाज
बाज खतरनाक थे।
नोच डाली चिड़ियों की चाल
चिड़िया शासन के धमाकों से फिर सहम गई!
कौन समझेगा घोसलों से चिड़ियों का उड़ना जारी है
कौन समझेगा चिड़ियों ने दुनिया संवारी है!
सुनो चिड़ियों तुम इश्क इंकलाब हो
समझ सकती हो तो आओ
इश्क और इंकलाब का स्वर ऊंचा करें!
०००
सखी तुम आई
जिंदगी के थपड़े लगे तब सखी तुम आई
लगे जब होने वजूद के टुकड़े सखी तुम आई
दहलीज को लांघ कर जब आई में,
अपने कबीले से निकलकर
सखी तुम दरवाजे पर खड़ी मिली!
दूर धुंधले से रास्ते ,
बंजर धरती,
पथरीली राहे,
सांसों में तूफ़ान
आखों में ख्वाब लिए,
निकल पड़ीं थी
संग्रामी चेतना के साथ
खड़ी रही तुम साथ मेरे,
जब हार जाते जिंदगी से
कभी करती मरने की बात
तुम हौंसला बन रहती साथ
दुश्मनों की फितरत को तुम ही तो जानती
आगाह करती हर वक्त,
धूप , छाॅंव, ऑंधी, तूफ़ान
हो चाहें घर के चार दिवारी की बातें
तुम रही साथ अक्सर ,
कभी कभी तो तुम मेरी अम्मा बन जाती हों
कभी लगती हो जैसे प्रेमिका,
जिंदा रहने की जिंदादिली और दोस्ती का सबब सिखाया तुमने,
इससे पहले की वक्त के बियाबान में
जब कभी उदास रातों के समुंद्र में गोता लगाती हूं
झट से तुम्हारे फोन की घंटी बज उठती है
सरिता कैसी हों?
ये तुम्हारा हमारा रिश्ता है
इसमें कुछ कनेक्शन हैं
इस कनेक्शन में ना उम्मीदें है
ना चालाकियां,ना जात धर्म की खाई
ना अमीरी है ना गरीबी
अभी है कुछ रिश्ते में तो
वो भावनाएं
जो वक्त पुराना न कर पाएं!
जैसे समय के जल की उठती,
अनगिनत बूंदों में
भावनाएं स्पंदन की,
कही भी रहूं कुछ भी करू
सांसों की गरमाहट में
सखी तुम हो
सखी तुम हो!
०००
दाॅंव पेंच
उड़ रही है पतंगे अपनी अपनी छतों से ,
मांझा भी कस रहा है पतंगों की उड़ान के साथ,
आसमान में लहरा रही हर रंग की पतंगे
कुछ नीली ,कुछ पीली,कुछ लाल ,कुछ हरी,
नारंगी भी उड़ रही साथ,
दाव पेंच चल रहे एक दूसरे से,
झोंपड़ी से भी एक मांझा भर रहा उड़ान
अपनी अपनी ऊंचाईयों पर
लहराने का परचम ,
लोकतंत्र का पर्व माना रहा,
हिंदुस्तान !
कोई गोल टोपी वाले ,कुछ तिरछी,
कुछ पगड़ी वाले, लंबी दाढ़ी,
कुछ दे रहे मूछों को ताव
हर धर्म, हर मजहब के लोग
शामिल हो चले ,
कुछ डोर है महिलाओ के हाथ
खिलखिलाती ,पूरे जोश के साथ
नाप रही अपनी ऊंचाई
पतंगों के इस खेल में ,
आज कोई धर्म, मजहब
आज खुले आकाश में खुल कर होगा
दाव पेंच का खेल!
हार जीत के इस खेल को,
स्त्रियों को अक्सर सीखना चाहिए!
०००
:
बगावत
उन दिनों जब संकट गहरे थे !अन्याय,जुल्म के खिलाफ़
मोर्चो, रैलियों में मुठ्ठी भींचे , लहराते हुए एक हाथ दिखा था उसे,
अपने ख्वाबों से मानों मुलाकात हो रही थी उस लो!
एक तरफ अपने कबीले के ठहरने की आग धधक रही थी!सीने में ,
तो दूसरी तरफ इश्को इंकलाब की चेतना हिलोरे मार रही थीं!
मोर्चो दर मोर्चे में इंकलाबी मुलाकातों का दौर था!
भूले से भी नज़र दर नज़र मिलती एक नया बेमिसाल इतिहास रच रहे थे हम,
बेखोंफ आजादी के स्वर गाते,
दमन के खिलाफ ,
फासीवादी ताकतों के खिलाफ,
मोहब्बत को जिंदा रखते हुए !
बढ़ रहें थे !लाज़िम है हम भी देखेंगे !
फिर गुमराह किया कुछ स्वार्थी तत्वों ने,
जैसे किसी नवजात शिशु को फैंक आए किसी कूड़ेदान में,
किन्तु संघर्ष से तपे चेहरे , जोश भरते रहेंन
नफरतों के सौदागरों के आगे,
फैज़ के गीत गाते हुए कुछ
तो कुछ प्रेम के तराने लिऐ , तय किया अपनी सुरमई आंखों में,
देखेगी वह ख़्वाब ,करेगी जुल्म के खिलाफ़ बगावत
नारो ,जज्बातों के साथ, इस बात से ,बेंखोफ, क्या समाज कसेगा उसे ताने ,
सुनो साथियों ..........
मोर्चो रैलियों के इंकलाब का ईश्क
आज भी जिंदा है !
०००
हाॅं मैं घुमन्तू हूॅं
हाॅं घुमन्तू मजदूर!
बंजारा, सपेरा,कालबेलिया ,बहरूपिया ,लोहार, गडरिया, भांड, मदारी, नाग,कंजर, सांसी, देवार,नट,सापनेरिया,बजानिया,
हाॅं मैं घुमन्तू हूॅं!
सदियों से सहता आया अपने घुमक्कड़ जीवन का दर्द ,
भीख मांगता, गाता, बजाता, तमाशा दिखाता, तो कभी बनता बैहरूपिया ,तो कभी सांप का करतब दिखाता ,करतब करता ,खाट बुनता ,लोहा कूटता, नाचता,
खेल दिखाता ,रस्सी पर कलाबाजियां करता,
और चल पड़ता मीलों पैदल,
अपनी गठरिया बांधे गधे , खच्चरों के साथ,
एक गाॅंव से, दूसरे गांव,
हाॅं मैं घुमन्तू हूॅं
सदियों से दी गई मुझे यातनाएं!
मेरे घुमंतू होने पर,
कोई शहर करता, मुझसे थोड़ा प्रेम वहीं तान लेता तंबू,
फिर कुछ दिन बाद होता मेरा पलायन,
हाॅं मैं घुमन्तू हूॅं
सदियों से,
सड़क किनारे पड़ा रहा देखता रहा!
विकास की चौड़ी चौड़ी इमारतें ,रेल, हवाई जहाज ,मेट्रो तक किंतु मैं रहा वहीं का वहीं !
हां मैं घुमंतू जो ठहरा ,
वर्षों से सुन रहा हूं ,
विकास की बड़ी-बड़ी बातें,
इतना अनपढ़ और गवार भी नहीं,
तंबू की चौखट पर निहारता की ,
विकास आएगा एक दिन!
मेरी झुग्गियों में,
विकास नहीं आया!
मैं बूढ़ा हो गया!
पीढ़ी दर पीढ़ी ऊब गई ,
थक गई आंखे
पथराई आंखो में देखता
की आयेगा विकास ,
आज 21वी सदी के भारत में फिर दिखा
अपनी पूरी जमात के साथ ,
पलायन करता हुआ !
हाॅं मैं घुमन्तू हूॅं
रोजमर्रा की तरह
एक शहर से दूसरे शहर नमक बेचता हुआ !
मेहनतकश हूं कोई चोर डकैत नही!
घुमक्कड़ बंजारा अपनी परंपरा और परंपरागत धंधों के साथ जी रहा हूं आज भी किंतु
सेंधमारी हुई उसकी भी अब,
निरीह चिंता और मच्छरों के साथ
सड़े बदबूदार नालों के बीच
खुले आसमान तले
आकाश की चादर लपेटे, आंखों में खाक स्वप्न,
पेट की खातिर
भूख और अवसाद में डूबे बीवी बच्चियों के साथ
इस डर के साथ
अधखुली आंखों से,
कि कोई नन्ही बिटिया के साथ न करे बलात्कार
अपनी बेलगाड़ियो में पर्दे टांगता हुआ,
बेबस बाप पहरा देता रात भर,
हां वो खाकी वर्दी वाले भी तो
लाठियां भाजने से बाज नहीं आते,
लुटता ,पीटता, डरी सहमी टोली को ले,
फिर बढ़ चलता ,अपनी गठरिया उठाए !
यह सोच कर चल पड़ता
कि कोई तो चुकाएं ?
मेरे खाए नमक का कर्ज!
०००
करतब करती लड़की
पैरो के बल जब चलती है
रस्सी पर ,
कोई नही रोक पाता उसकी उड़ान को ,
आंखो से टिकटिकी लगाए एक तीर की भांति
बढ़ाती है कदमताल कोई नही रोक पाता ,उसके आंखो के स्वप्न को,
करतब करती लड़की अपनी बांहों को फैलाए आकाश छूने की चाहत में ,
रस्सी की डोर की भांति फैला देती है भुजाओं को बांस की गति के साथ , जोश और जज्बे के साथ ,
दलित समाज में पैदा होकर भी डिग्ना नही सीखा उसने , सीखी है कलाबाजियां पैदायशी,
तेजतर्रार आंखो मे आशा और कदमों में फुर्ती लिए
बिना आत्मरक्षा के गुर सीखे कितनी आत्मविश्वास से भरी लड़की,
करतब करती लड़की टिकी है रस्सी की डोर पर
इस बात से अनजान की कौन कस रहा उस पर फब्तियां,
पेट की आग और परिवार की खातिर लड़की सीख रही पेशागत तमाशे , अबोध सी लड़की सोचती होगी।
कभी जाएंगी वह स्कूल ,खेलेगी गुड़ियों गुड्डो से,
फिर तन्हा खुद को समझाती होगी की जो खेल खेलती है वह नही है इतना आसान हर किसी के लिए ,
यही सब तो उसके खेल है ।
अपनी निगाहों को बांधे नही कोई संगी साथी नर्तक की भांति थिरकती हुई झूलती हुई
कोई बदरंग से गाने के साथ, बढ़ चलती है लक्ष्य को साधे
इस छोर से उस छोर ।
करतब करती लड़की अपनी मिट्टी के गढ़े गए वजूद को लिए ,
पीठ पर गठरिया बांधे इस पार से उस पार आज भी झूल रही रस्सी पर , अपने ही वजूद के टुकड़े करना सीख गई होगी।
अज्ञानतावश ,कभी भूख के आगे।
०००
सभी चित्र फेसबुक से साभार
सरिता भारत पिछले 20सालो से सामाजिक कार्यों में सक्रिय, शिक्षाविद् हंस के दलित विशेषांक में कई मैगजीन में कहानियां ,कविता ,प्रकाशित महिलाओं एवम हाशिए के समुदाय पर जमनी कार्य।अलवर, राजस्थान
बहुत अच्छी कविताएं , प्रभावित करती हुई, हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया आपका
हटाएंजी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
जवाब देंहटाएंप्रभावी कविताएं, बधाई
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया आपका
हटाएंकविताओं में कथ्य है तथ्य है रंजना है अतिरंजना भी..... आक्रोश है विद्रोह भी तो आवाह्न संग आंशिक उन्माद भी शायद एक्स्ट्रीम फेमिनिज्म वाला जो नव ग्रह को रचने सा... कांटे को निकालने को कांटा इस्तेमाल करते हुए क्या. पितृसत्ता का क्षरण हो पायेगा या सखी सखी मिलकर सब कर सकते... कर पाएं तो सुखद....... कविता विवेक जगाती, निर्णायक होती तब ही... आभार कविताओं के लिये सरिता शर्मा जी !!! साधुवाद बिजूका सत्यनारायण जी भी.
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया आभार आपका
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए शब्द कम हैं। बस छू गई प्रत्येक लाईन। तुम्हारे जज्बात आबाद रहें दोस्त! सलाम सखी!
जवाब देंहटाएंJi shukriya अपना नाम लिख दीजिए
हटाएंBohot hi uttam...badhai
जवाब देंहटाएंShykriya apna name likh degnge to abhari rahungi.
जवाब देंहटाएंसामाजिक विसंगतियों का कटुयथार्थ, राजनीति और व्यवस्था के प्रति गहरा क्षोभ, बदलाव की छटपटाहट, हाशिए के लोगों का दर्द , विषयानुरूप खुरदुरी और खरी-खरी , आंदोलनधर्मी क्रांतिकारी भाषा, अपने विचारों और भावों की ईमानदार अभिव्यक्ति - यही सब सरिता भारत की कविताओं की विशिष्टता भी है और पहचान भी !
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया आभार रामचरण राग जी अलवर वरिष्ठ साहित्यकार
हटाएंजबरदस्त
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया
हटाएं