पहली कड़ी
डॉ. जयश्री सी. कंबार वर्तमान में के.एल.ई.एस निजलिंगप्पा कॉलेज, बेंगलुरु में अंग्रेजी विषय के सहायक प्राध्यापक पद पर कार्यरत हैं। उन्होंने 3 यूजीसी प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया है और विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों
और सम्मेलनों में शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने 02 कविता संग्रह - 'विस्मय' और 'हसिद सूर्य', 03 नाटक- माधवी और एकलव्य और 1 अनुवाद- बुद्ध, कन्नड़ से अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। उनके पास 2 अप्रकाशित नाटक, 2 अनुवादित नाटक और कविताओं का एक संग्रह है। उनकी लघु कथाएँ और कविताएँ कर्नाटक की प्रमुख समाचार पत्रिकाओं और जर्नलों में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपने नाटक माधवी के लिए इंदिरा वाणी पुरस्कार जीता है। कन्नड़ में यात्रा वृत्तांतों पर उनके लेख प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं।उन्होंने केरल में आयोजित तांतेडम महोत्सव- अखिल महिला लेखिका सम्मेलन में मुख्य भाषण दिया है, त्रिशूर में मध्यम साहित्य उत्सव में एक पैनेलिस्ट के रूप में, लिटिल फ्लावर कॉलेज, गुरुवायूर में राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य भाषण दिया है। इसके अलावा उन्होंने 9 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हैदराबाद में आयोजित ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली द्वारा आयोजित कवियों की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कविता प्रस्तुत की है। उन्होंने पंजाब, तिरुपति, बैंगलोर, शोलापुर, शिमोगा, मैसूर, कालीकट, लक्षद्वीप और कर्नाटक में कई स्थानों पर आयोजित लेखक-कवि सम्मेलन में भाग लिया है। रंगमंच पर उनकी बातचीत ऑल इंडिया रेडियो, बैंगलोर द्वारा प्रसारित की गई थी। उन्होंने कई अवसरों पर दूरदर्शन पर अपनी कविताओं को भी प्रस्तुत किए हैं। आप 'कन्नड़ सेवा रत्न', 'इंदिरा वाणी राव पुरस्कार' दो बार कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए प्राप्त कर चुकी हैं।
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जयश्री सी.कंबार की कविताऍं
मूल:- कन्नड़
अनुवाद:-डॉ.प्रभु उपासे
एक
भूखे सूर्य के लिए
अंधकार चीरकर निकले बाहर सूर्य
कूड़ेदाने जैसी मेरी नगरी को
भूखी आँखों से देख लिया।
कल की अस्थियों की टुकडियां
शीशों में, कवरों में, कूडे में
पूरे रास्ते भर बिखर पड़े हैं।
तभी उठकर चहल-कदमी के
प्रातःकालीन चेहरे ताजगी के
मुखौटे पहन कर मस्ती में हैं।
मगर, मैंने अनगिनत कल के दिनों को
यादगार के कंधे पर
ढोकर चल रही हूँ, एकला चलो रे,
इस भारी भरकम निःश्वास के साथ
झूल रहे हैं शब्द, क्या करूँ?
मेरी सांसों के मध्य
भूमि-आकाश के समान
भावनाओं को झुला रहे हैं।
यहाँ एक बड़ा सा व्यापारी मंडी
उसके सामने आकर्षक बोर्ड है।
"यहाँ उत्तम शब्द मिलते हैं।"
एक काँच की टोकरी भर शब्दों को खरीद
एक महीने से उपयोग न करते,
टेबल पर ऐसी ही रही है।
बगल में बैठकर सामने की दीवार
पर लटके कैलेंडर की
संख्याओं के साथ खिलवाड़ कर रही हूँ।
टोकरी में रहे शब्द हिल रहे हैं।
उसे उठाकर टेरस पर
शब्दों को फैला दी है
भूखे सूर्य के लिए।
*****
दो
आकाश आंगन का खेल
नीलिमामय सुविशाल आंगन में
सफेद गुब्बारों के छोटे चट्टान
एक-दूसरे से धकेलते हुए,
विशाल होते, घूमते, सताते,
मिलते, खिलते, खेलते चल रहे हैं।
जहाँ-तहाँ लाल, गुलाबी, केशर, पीले
रंग के संभ्रम की कटोरी में
डूबकर चलते बादल।
किसी प्रांत से तैरती
हवा मत्त से स्पर्श करती।
रश्मियां सूर्य के पीछे से
तिमिर परदा द्वारा आकाश आंगन में
घुसनेवाले करोड़ों नक्षत्र रशि।
उनका निखार यहाँ
खड़ो देकनेवाले इस
बालक की आँखों में टिमटिमा रहे।
*****
तीन
कविता की लहर
संध्याकाल का सुनहरा रंग
मन को भिगोते ही रहे
स्वर्ग की सुगंध ढोए
शीतल समीर छूते रहे
उच्चरण मत करो निखारते
कविता की पंक्तियों को
बातें बनकर रह सकती हैं
तुम्हारी आँख ररूपी सागर भर
कविता की लहरें बढ़ती रहे
मेरे अंतर के पलके खुलकर
पढ़ते रहूँगी
कविता की लहरों को
किनारा न रहे
ताककर कविताएँ
मिट न जाए ऐसे।
****
चार
यूँही एक कथा
किसी एक जमाने में
आकाश भर रंग-बिरंगे
सुंदराकृति के बादल तैरते रहे थे,
कोई सागर भरी आँखों से देखकर-
"उन बादलों में सपने हैं" कह दिया।
इसे सुनकर हीरो एक ही
छलांग में ऊपर कूदकर,
बादलों को मुक्का मार फाड दिया।
वहाँ क्या दिखता है?
खाली आकाश!
कहते हैं, तब से सारे बादल
छिद्र होकर खोखले चलते रहे हैं।
****
पॉंच
गांधी और इतिहास
ठेके लिए इतिहास के पृष्ठों में
कुछ शामिल करने की जरूरत थी।
मंदिर मस्जिद न बनवाए तो भी
काली पट्टी के आंकड़े ही सही कहते
प्रखर ज्वलित अंघीठी की तरह
पृष्ठों को मोडकर लिखत दाखिला कर रही हूँ।
तकरार के संघर्षों के पृष्ठों में
कुछ ध्वनियाँ पुकार करने से क्या?
बिलखने के लिए एक दो बूंद आँसू काफी है।
वेदना शमन होके मौन निर्मौन हो गया।
अपने में महीन दीवारें बनाकर
आइने जैसे आरक्षित किए हैं, जतन से।
तभी आकाश में कूद पड़े
इंद्रदनुष पिघल गया धीरे से
बादलों से पिघलती बारिश
बूँदें घन रूप बने जहाँ तहाँ।
सपनों के हमलों में तितर-बितर, वही
सड़ी ध्वनी को प्रसारित करते
प्रतिध्वनि से हिलडुल करने पर भी
हँसते बातें करते रहे हैं।
मूक प्रेक्षक सा देश के
मानचित्र खोलदिए तो काफी,
टीवी के परदे पर
नख-शिकांत शान से
इतिसास चलनशील है।
तब, अधनंगा पागल फकीर
देशव्यापी क्रूर कीटों को
मिटा देने की मूढ़ता से
अहिंसा की झाडू पकडकर, मुग्ध
हँसी से, बेचारा पैर बढ़ा दिया।
उसकी हँसी की मुग्धता वैसी ही रही है,
मात्र पद छाप मिट गया है।
*****
छः
नीलिमाओं के बीच में
बह रहा है यहाँ नील सागर
तैरते तैरते सफेद लहरों पर।
ऊपर है घन नीला अंबर
लहरों के झाग चांदी आकाश
दोनों नीलिमाओं के बीच
पटवार रख के चल रही हूँ।
चलने की मस्ती में दूर, दूर....
*****
सात
बरगद का पेड़ और घटप्रभा
गाँव सा विशाल जगत सा विशाल
बरगद का पेड़ मेरा 'गिरियज्ज।'
घने हरे गुफानुमा नीड़
झूल रा है आकाश से
झूलनेववाले उसका चांदी सा श्वेत
रेशम की की दाढ़ी।
एक-एक युग के लिए
दस-आठ ऩए सफेद रेशे
जड़ों को ज़मीन की गहराई में गाढ़कर,
टहनियों को आँख बनाए,
जड़ें झूलते सारी कहानियों को
कान बनकर भर लेने के तत्काल।
ये नाना गंभीर मुद्रा में खड़ा है
गांव की ओर दृष्टिपात करके।
मात्र इन्हीं को गांव की चिंता।
शुरुआत में रमते रहनेवाले अब
शीतल समीर मनवाने पर भी न परवाह।
गांव में घूमनेवाले लोग छांव
से लगे, यादें भूलकर
उजड़ गए गाने की ध्वनियाँ।
बांझ सा बना है भरा सा गाँव।
यह देखकर छटपटाते
चैन की सांस के भार में जड़ों को
इधर न निकाले सके
और खड़ा रहा है ना रखने की क्षमता
मेरे गिरियज्जा मूक साक्षी बनकर।
वह उसका कर्म है!
उस तरफ की घटप्रभा
अपने से बिना कि सी संबंध के नुमा
चंद्रमाक बिंब पर
बहती जा रही है।
****
(घटप्रभा- नदी का नाम, अज्ज-नाना, गिरियज्ज-नाम)
चित्र -मुकेश बिजौले
अनुवादक का परिचय
कर्नाटक के वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में विशेषकर अनुवाद क्षेत्र में विशेष नाम के डॉ.प्रभु उपासे संप्रति सरकारी महाविद्यालय, चन्नुट्टण, जिला रामनगर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं।
डॉ.प्रभु उपासे जी का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा जिला, तहसील इंडी के ग्राम अंजुटगी में हुआ। पिता श्री विठ्ठल उपासे तथा माता श्रीमती भोरम्मा उपासे। गांव में ही प्राथमिक शीक्षा पाकर श्री गुरुदेव रानडे ज्ञानधाम प्रौढ़शाला, निंबाळ, आर.एस. में हाइस्कूल की शिक्षा प्राप्त की। कर्नाटक विश्वविद्यालय से एम.ए तथा बेंगलोर विश्वविदायलय से डॉ.टी.जी प्रभाशंकर प्रेमी के मार्गदर्शन में "समकालीन काव्य प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में दिविक रमेश की काव्य कृतियों का अध्ययन" शोध प्रबंध के लिए पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की। आप ने कर्नाटक मुक्त विश्वविद्यालय, मुक्त गंगोत्री मैसूरु से एम.एड. की उपाधि प्राप्त की है।आपने विविध छत्तीस राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया एवं शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। अनुवाद क्षेत्र में गणनीय सेवाएं की है। कर्नाटक में हिंदी के प्रचार वं प्रसार एक अध्ययन विषय पर यूजिसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रैजेक्ट (20025-2007) पूर्ण की है। बसव समिति बेंगलूरु द्वारा प्रकाशित बसव मार्ग पत्रिका के ले पिछले बत्तीस वर्ष से लेख लिखते रहे हैं। इनकी अनूदित कृति "आत्महत्या, समस्याएँ एवं समाधान" कृति के लिए बेंगलूर विश्वविद्यालय द्वारा 2021 वर्ष का लालबहादुर शासत्री अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ है। नव काव्य प्ज्ञा फाउंडेशन द्वारा कई राष्ट्य पुरस्कारों से नवाजा गया है। प्रतिभारत्न-2023, साहित्य रत्न-2024, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2024 उल्लेखनीय हैं।
सुंदर
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