दीवार
मियाँ बीवी को अलग हुये हफ़्ता ही गुज़रा था, कि सुशील का घर आना हुआ.
अन्जू बहोत टूटी हुई सिर्फ़ इसी सोच में घुली जा रही थी कि रिश्ता निभाने में उससे चूक कहाँ हुई है. सारी चूकों की जड़ तो ख़ुद नजीब ही था. अव्वल तो वो उम्र में अन्जू से काफ़ी बड़ा था, तिस पर से उसने अपने तमाम सारे अवैध कारनामों और
सम्बन्धों के बारे में शादी से पहले अन्जू को हवा तक नहीं लगने दी थी. अन्जू भले ही क़ानूनन नजीब की दूसरी पत्नी, लेकिन उसकी ज़िन्दग़ी में आनेवाली सातवीं औरत थी. वो सीधी सादी घरेलू लड़की थी, परमात्मा ने उसे एक हुनर नवाज़ा था, चित्रकारी, जिसमें दिनरात रमी रहती थी. ये सारे नये ताज़ातरीन मुद्दे, जो बने-बनाये रिश्ते को तोड़ गये, बसी-बसायी गृहस्थी में आग किसकी बददुआ से लग गयी, वास्तव में सब नजीब के इर्द-गिर्द ही घूमते थे. अन्जू सोच में घुली जा रही थी, एक भी कोई ऐसा शख़्स नही था जो उसको अपने जवाबों से तुष्ट कर सके.जितने लोग उतनी ही बातें, जितनी बातें उतना ही असन्तोष. जितना असन्तोष. उतने ही नये सवाल.
और इन सारे बोझिल, चुभनेवाले, बेतरतीब और पीड़ा पहुँचाने वाले सवालों से घिरी हुई अकेली, एकदम अकेली अन्जू.
इन्हीं चरम उलझनों के बीच, एक दिन दरवाज़े पर घन्टी बजी, अन्जू ने दरवाज़ा खोला तो सुशील खड़ा था, “क्या आप श्रीमती अन्जना मिश्रा हैं?”
“जी हाँ, हूँ तो मैं ही..” अन्जू ने थोड़ा हड़बड़ाते हुये कहा, “देखिये मैं थोड़ी जल्दी में हूँ, मुझे कहीं निकलना है. मेरा ड्राइवर आता ही होगा. आपको जो भी कहना है बहोत संक्षेप में और ज़रा जल्दी कहिये..”
अन्जू ने सुशील के औसत से भी कम प्रभावी व्यक्तित्व के चलते उसे महज कोई सेल्समैन या किसी कम्पनी का प्रचारक, या फ़िर कोई पढ़ा-लिखा कोरीयर सर्विसमैन ही समझा था. जल्दबाज़ी और बेख़बरी में सुशील को वहीं दरवाज़े पर छोड़कर, घर और कार की चाबी खोजने लगी. चाबी वगैरह सारी ज़िम्मेदारी तो नजीब ही की थी, जो उसने खुद अपमने मजबूत कंधों पर संभाल रखा था। इंतहाई लापरवाह लड़की अंजू को तो अलग-अलग ताले और उनकी चाबियों की कोई खबर ही नहीं थी।
सुशील खड़ा-खड़ा, उस सजी-संवरी औरतनुमा जादुई लड़की को एकटक देखता रहा. चेहरे पर एक अनीच्छित उदासी ओढ़ी हुई, ये लड़की अपने पहनावे से उम्रदराज़ बनने की कोशिश करती दिख रही थी, लेकिन उसकी आँखों में बेहद मासूमियत भरी थी. उस चंचल हसीन शय की आवाज़ भी बहोत नटखट, शरारत और कमसिनी से भरपूर थी. जो सुशील के कदमों और बहुत कुछ दिल को बुरी तरह जकड़ चुकी थी। वो उसे ग़ौर से देखते हुये आगे बोला, “जी.. जी मुझे ख़ुद भी साइट पर निकलना है मैडम. मैं आपका ज़्यादा टाइम नहीं लूँगा.. मेरा नाम सुशील शर्मा है, आपने डी.डी.ए. में जो शिकायत कर रखी है, उसी सिलसिले में मुआयना करने आया हूँ.. मैं वहाँ का एक जे.ई. हूँ..”
अन्जू खूबसूरत सी बैंगनी और चटक गुलाबी रँग की जरीदार साड़ी पहने, मोटा सिन्दूर लगाये, माथे पर छोटी लाल बिन्दी और कुछ क़ीमती ज़ेवरों से सजी हुई एक लम्हे के लिये हैरान हुई, “आप जे.ई. हैं... यू मीन जूनियर इन्जीनियर हैं...?” ज़रा-सा रुककर, कुछ सोचते हुये बोली, “अच्छा होंगे... लेकिन शिक़ायत…. शिक़ायत कौन सी.. बेतकल्लुफ़ होकर कहिए, लेकिन ज़रा जल्दी.. बताया ना, वक़्त नहीं है मेरे पास..”
सुशील को उर्दू का साफ़ उच्चारण सिर्फ़ रेडियो-टीवी या यूट्यूब में सुनने को मिलता था. इण्टरपास करके डिप्लोमाधारी इंजीनियर्स से ही उसका पाला पड़ता रहा था. जब सामने खड़ी जादुई कशिश से भरी टोकरी की ज़बान से साफ़ उर्दू के लफ़्ज़ सुने तो वो घड़ी भर को ख़ामोश रहा, फिर उसने कुछ अदब, ऐहतराम और प्रेम के साथ याद दिलाने की कोशिश की, “आपके पड़ोसी मिस्टर चौधरी की शिकायत की है ना आपने…”
अन्जू को ‘चौधरी’ का नाम सुनते ही फ़ौरन याद आ गया. एक रात उसने और नजीब ने मिलकर अपने फ़्लैट के ठीक नीचे रहने वाले चौधरी मियाँ-बीवी की ढेरों बदसलूक़ियों का मज़ा चखाने के लिये एक लम्बी दरख़्वास्त डी.डी.ए. के आला-अधिकारी के नाम लिखी थी.
अन्जू को उसी वक़्त बरबस ही, ये भी याद आया कि उस दिन वो और नजीब अपने डबलबेड पर पसरे थे. नजीब उस वक़्त ‘गोगां’ के लंदन में हालिया प्रदर्शित चित्रों की रिपोर्ट पढ़ रहा था, और खुद अन्जू नजीब के पेट का तकिया बनाकर आराम से लेटकर अपने टेबलेट-मोबाइल पर दरख़्वास्त लिखकर नजीब को सुना रही थी. नजीब बीच-बीच में डिस्टर्ब होता तो था, फ़िर भी वो अन्जू का लिखा शिक़ायती-ख़त सुन रहा था. अन्जू ने एप्लिकेशन पूरी लिखने के बाद नजीब को सुना दी। सुबह ‘प्रिन्टआउट' निकालने के लिये ‘ड्राफ्ट’ में सेव कर दिया था. फ़िर टेबलेट किनारे मेज़ पर रख दिया था और पलटकर नजीब के चेहरे के बहोत नज़दीक जाकर शिक़ायती अन्दाज़ में ही तुनककर बोली थी, “तुम हमेशा पढ़ते ही रहते हो, कभी भी प्यार नहीं करते हो. चित्रकारी से मुझे भी इश्क़ है नजीब, लेकिन ये क्या कि अपनी मेहरारू को भूल ही जाओ एकदम.. देखो तो ज़रा, रात के साढ़े बारह बजे हैं, अभी भी तुम्हें मेरा रत्ती भर ख़्याल नहीं है. हमारा तो बेडरूम भी दफ़्तर जैसा लगता है. नजीब एक बात तो बताओ, जब इतनी ही बेरुख़ी रखनी थी, तो फ़िर शादी ही क्यूँ कर ली तुमने.. मैं तुम्हारी तरह बहत्तर लोग के साथ सोकर नहीं आयी हूँ... पहली-पहली शादी है ये मेरी, मेरे बारे में कुछ तो सोचा करो...”
नजीब चश्मे के भीतर से झाँकती खुदगर्ज़ आँखों से अंजू को देखते हुए सोचने लगा, “कोई इतना खूबसूरत होते हुए भी इस क़दर मासूम कैसे हो सकता है.. ये लड़की बाक़ी औरतों की तरह चंट, चतुर या कमीनी क्यूँ नहीं बन जाती..? अपनी भूख को कहीं और क्यूँ नहीं निपटा आती...”
नजीब अभी सोच ही रहा था, कि अंजू बीच में बोल पड़ी, “आखिर शादी हुई है हम दोनों की, कोई चोरी-चकारी का रिश्ता तो है नहीं हमारा?”
नजीब की बुझी हुई ज़बान और उससे भी कहीं ज़्यादा थकी हुई जवानी ने जवाब दिया, “यार मैं आज बहोत थका हुआ हूँ. तुम्हें पता है कनॉटप्लेस तक आना और जाना और वो भी ख़ुद गाड़ी चलाकर. तुम क्या जानो, बैंक की भीड़ में छोटे-बड़े अमाउण्ट के चेक को क्लियर करवाना कितना थकाऊ होता है. प्लीज़ अभी सोने दो, तंग मत करो मुझे. लाइट ऑफ कर दो, या कहो तो मैं अपने कमरे में जाकर सो जाऊँ..”
“ये तो तुम्हारे रोज़ के जवाब हैं नजीब. कितनी बार कहा है एक चौबीस घण्टों का नौकर रख लो.. वो तुम्हारा सब काम कर आया करेगा और तुम बिलकुल भी नहीं थकोगे, और फ़िर मुझे खूब सारा प्यार कर सकोगे..” कहते-कहते अन्जू ने नजीब के हाथ से उस बड़े से एलबम को लेकर किनारे रख दिया, और अपना सिर उसकी छाती पर आराम से टिका दिया था.
“अगर हर वक़्त का नौकर रख लिया तो वो तुम्हें मिनटों में पटायेगा और भगाकर ले जायेगा.. तुम्हारी डिमाण्ड है ही क्या सिवाय एक जवान जिस्म के.. फ़िर तो मेरा तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराना, तुम्हें लुभाना, हज़ारों-हज़ार कॉल, मैसेज, और तो और तुमसे शादी करना भी बेकार चला जायेगा..” नजीब अपना चश्मा उतारते हुये कहता रहा.
“इतना कड़वा ना बोलो, यू नो वेरी वेल दैट आइ डोन्ट हैव एनी अफ़ेयर विद एनी गाय...” इस बार अन्जू की आवाज़ कितनी तक़लीफ़शुदा थी.
“अफ़ेयर होने में वक़्त कितना लगता है मेरी जान.. दो मीठे बोल किसी ऐरे-गैरे ने बोले, और तुम्हारा दिल मोम के मानिंद पिघल जाएगा... चलो अब सुबह बात करेंगे..” वो अलग होता हुआ बोला. इस आवाज़ में कितना चुभता हुआ व्यंग्य था.
नजीब ने अपना तकिया-चादर समेटा था और बगल वाले कमरे में ‘गुडनाइट’ कहता हुआ चला गया था.
अन्जू उसकी किताब और उस पर रखा उसका चश्मा देखती रही. उसकी आँखों में दो आँसू और चेहरे पर एक कसैली तल्ख़ी तुरन्त उभर आयी थी, जिसे फ़िलवक़्त नजीब नहीं, बल्कि सुशील देख रहा था.
सुशील ने उसे जैसे जगाते हुये कहा, “मैडम अन्जना आपको कहीं जाना था..”
अन्जू किसी गहरे अवसाद के एक कुँयें से जैसे जागकर तत्क्षण वापस लौटी हो.
उसने संयत होकर कहा, “हाँ.. हाँ मुझे जाना है, दरअसल मैं ड्राइवर का ही इन्तज़ार कर रही हूँ.. कॉलबेल की आवाज़ से मुझे लगा के ड्राइवर ही आया है, लेकिन ये तो आप निकले..” उसने छलके हुये आँसू की लकीर इस तरह पोंछी जैसे काजल की धार पर कोई मन्त्र लिख रही हो.
“अन्जना जी, जब तक आपका ड्राइवर नहीं आ रहा आप ब्रीफ़ में चौधरी-फ़ैमिली के बारे में बता दीजिये, क्या दिक्कत है आपको उनसे..”
“हाँ बेशक..” अन्जू दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ी थी, अतीत से वर्तमान में तत्क्षण प्रविष्ट होना जानती थी.. अन्जू भीतरी दर्द को बाहरी आदमी से छुपा लेने में भी पारँगत थी. “देखिये मिस्टर, क्या नाम बताया आपने अपना.. ख़ैर जो भी हो.. ये जो चौधरी का परिवार है न, बड़ा ही अजीब और जाहिल टाइप का है.. उन्होंने ये... आईये आपको बाल्कनी से दिखाती हूँ, ये देखिये... ये दीवार ग़ैर-कानूनी बना रखी है.. अब ये कॉमन स्पेस है पूरे अपार्टमेण्ट में रहने वालों के लिये. यहाँ हम सब शाम को चेयर डालकर बैठ सकते हैं.. या गमलों में फूल सजा सकते हैं.. अपनी कारें खड़ी कर सकते हैं.. लेकिन इन गुर्जर यानी चौधरी-लोग ने इस पर अपना कब्ज़ा जमा रखा है... और वे इसे हटाने के बजाय गाली-गलौज़ कर रहे हैं.. मैं मेरे पति की दूसरी पत्नी हूँ, चौधरी का परिवार मिलकर इस बात का ताना मुझे हर वक़्त देते हैं.. वो और उसका परिवार हर बात पर झगड़ा करने के लिये आमादा रहते हैं. नजीब भी इन लोग से बेहद तंग रहते हैं.. तभी हम लोग ने परेशान होकर इनकी शिक़ायत आपके यहाँ की थी..”
कहते-कहते, समझाते-समझाते अन्जू बालकनी तक सुशील को ले गयी. सुशील पीछे-पीछे यन्त्रवत चलता रहा, दीवार को देखता रहा, दीवार से ज़्यादा अन्जू को एकटक सुनता-गुनता और निहारता रहा.
आख़िर में अन्जू की बात ख़त्म होने पर बोला, “ये तो वास्तव में ग़लत बात है. अव्वल तो किसी के भी परिवार की प्राइवेट मामलों में कभी टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिये.. मेरी समझ से अन्जना जी, जब वो आप या आपके हसबैन्ड को गाली दे तो पलट कर आपको उससे दुगुनी गाली देनी चाहिये. यही चलन है, क्योंकि अब ये भलाई का ज़माना तो रहा नहीं..” सुशील बेशक एक हँसमुख इन्सान था.
“ठीक कहा है आपने, ये भलाई का ज़माना तो हर्गिज़ नहीं है. आप किसी जर्जर बीमार बूढ़े का सहारा बनिये, तो दुनिया आपको लालची, ख़ुदगर्ज़, मतलबपरस्त और ना जाने क्या-क्या कहेगी.. जवान बीवी होना भी किसी सदमे से कम नहीं.. ना केवल ज़ाती रिश्तों में, बल्कि सोशली भी..” अन्जू की दर्दीली आवाज़ बड़बड़ाती चली गई.
लेकिन अन्जू आगे की बात कहते कहते संभल गई और सुशील को समझाने में सफल रही, कि उसके पास भी सलीक़ेदार ‘सेन्स ऑफ ह्यूमर’ की कमी नहीं थी. “...लेकिन मिस्टर शर्मा मुझे गालियाँ नहीं आतीं, मेरे माँ-बाप ने मुझे सिखायी नहीं.. और ना घर की इस लाइब्रेरी में गालियों की कोई क़िताब है, जिससे मैं सीख जाती. वरना शिक़ायत न करनी पड़ती.. ना वहाँ के एक जे.ई. को मुझे ये शिक्षा ही देनी पड़ती कि मैं भी पलटकर गालियाँ भाँजूँ.. है ना..”
इस बात पर दोनों ही हँस पड़े.
सुशील ने सधे हुये लहजे में आश्वासन दिया, “इस दीवार को लेकर आप परेशान ना हों अन्जना जी. आप इसके बारे में एकदम निश्चिन्त हो जाईये. मैं आपके बिल्डर्स से ओरिजनल नक्शा निकलवा कर देखता हूँ..” फ़िर सुशील ने क्षण भर रुककर एक सवाल पूछा, “इफ़ यू डोन्ट माइन्ड, प्लीज़ बताइयेगा आप क्या करती हैं..”
अंजू ने सादगी से बताया, “जी मैं एक पेंटर हूँ मामूली सी.. लेकिन नजीब बहोत शानदार चित्रकार हैं.. ये, ये पेंटिंग देखिये, ये उन्हीं की बनाई है.. और वो भी देखिये, वो कितनी सुन्दर है, वो उधर दीवार पर जो टँगी है, वो देखिये... अगर वो होते तो आप उनसे मिलकर बहोत खुश होते.. बहोत उम्दा इन्सान हैं नजीब.. मैं अभी उन्हीं से मिलने जा रही थी..”
सुशील अन्जू के हाथ के जानिब दिखाई हुईं सभी पेंटिंग्स देखता रहा. वहाँ किसी एक पेंटिंग के नज़दीक अन्जू की एक खिलखिलाती तस्वीर थी, वो रुककर उसे देखता रहा, और बोला, “शानदार तो आप ही बहोत लग रहीं हैं, और बेशक खूबसूरत भी.. ज़ाहिर है आपके पति भी होंगे ही.. और मुझे यक़ीन है, आप चित्र भी बेहद खूबसूरत बनाती होंगी..” सुशील ने अपने विभाग में आई हुई महज एक शिक़ायत करने वाली अजनबी लड़की से इतना कह तो दिया, लेकिन क्षण भर बाद ही उसे जल्दबाज़ी में निकले हुये अपने अल्फ़ाज़ का अहसास फ़ौरन हो आया था. निस्संदेह वो एक कुशल सामाजिक, सरकारी नौकरीयाफ़्ता आदमी था.
उसने बात बदलते हुये अन्जू से फ़िर कहा, “आप अपनी भी कोई पेंटिंग दिखाईये.. हालाँकि मुझे पेन्टिंग की कोई ख़ास समझ नहीं है. लेकिन ख़ूबसूरती को ज़रूर समझता हूँ..”
अन्जू ने इस बार सुशील की बातों को पूरी तरह से नज़रअन्दाज़ नहीं किया था, पल भर रुककर उसे ऊपर से नीचे तक देखा. पास-पड़ोस के किसी दर्ज़ी से सिलवाई हुई शर्ट-पैन्ट, चमड़े की सादी काली चप्पलें, दो-एक चाँदी या सोने की अंगूठी, न रँग गोरा, न चमड़ी में कोई भी चमक, ना रूप में कोई भी आकर्षण, बेहद साधारण काठी, औसत कद, कम सी बनी हुई दाढ़ी वाला रूखा सा चेहरा, चश्मे के भीतर से झाँकती तेज़ नज़रों वाला एक बहोत ही आम-सा, ग्राहक और घूस का अच्छा ज्ञान रखने वाला सरकारी मुलाज़िम दिखता था. अन्जू ने शर्ट के ऊपरी खुले हुये दो बटन और सीने से बाहर झाँकते बेतरतीब उसके बाल देखे, उम्र का अन्दाज़ लगाने की कोशिश की. उसने मन ही मन सोचा “ज़रूर नजीब से बहोत कम उम्र के होंगे ये सज्जन, तभी किसी ख़ूबसूरती पर निगाह ठहरी तो इनकी.. नजीब तो ख़ूबसूरती का मायने ही जैसे भूल चुके हैं...”
इस बीच घर के खुले हुये दरवाज़े पर फ़िर दस्तक हुई, ये अन्जू का ड्राइवर कुणाल था.
“मैडम गाड़ी की चाबी दे दीजिये, एसी खोलके रखूँ, धूप तेज़ है, गाड़ी अन्दर से गर्म हो गई होगी..”
“हाँ कुणाल, ये लो चाबी.. मैं भी बस निकल ही रही हूँ..” कहते-कहते, अंजू ने गाड़ी की चाबी ड्राइवर को दे दी।
दुनियादारी का कुशल जानकार सुशील शर्मा हर एक संकेत की बारीक़ी समझने वाला शख़्स था. उसने फ़ौरन ही अपने काग़ज़-पत्तर समेट लिये. अन्जू से रुख़्सत लेता हुआ बोला, “ठीक है मैडम, फ़िर मिलेंगे.. अच्छा लगा आपसे मिलकर.. आप ज़रा यहाँ एक सिग्नेचर कर देतीं...”
“जी बेशक.. आज मैं जल्दी में हूँ, आपको चाय तक नहीं पूछ सकी.. चलिये मेरी पेंटिंग्स का दीदार और आपकी चाय उधार रही..” एक मिनट रुककर अन्जू ने आगे कहा, “वैसे आप फ़िर मिलिये या ना मिलिये, ये एक अलग बात है, लेकिन वो दीवार ज़रूर हटवा दीजियेगा.. नमस्कार..”
“मैं दीवार हटाने ही तो आया हूँ...” सुशील ना जाने किस रौ में फ़िर बोल गया.
अन्जू ने रुककर पूछा “जी, क्या कहा आपने..”
सुशील एक बार फ़िर संभल गया, “मेरा तो पेशा ही है अन-ऑथोराइज़्ड दीवारें हटाना अन्जना जी, ऐसी जगह काम ही करता हूँ मैं..”
कहते कहते सुशील सीढ़ियाँ उतरता हुआ मेन-गेट की ओर बढ़ा और अपनी कार में विलीन हो गया.
०००
अन्जू शाम को अपने कमरे में अकेली बैठी नजीब से हुई अपनी बेहद नाक़ामयाब और कड़वी मुलाक़ात के बारे में सोच रही थी. दरअसल वो मुलाक़ात अन्जू की ज़िद पर ही हुई थी. नजीब को अन्जू में कोई दिलचस्पी बाक़ी ही नहीं रही थी. वो महारानी बाग वाले अपने पुराने मकान में जाकर रहने लगा था, जो कि अन्जू वाले मकान से अच्छी-भली दूरी पर था. अन्जू उस मतलबी वृद्ध को उसकी टूटती हुई गृहस्थी बचाने के लिए समझाने गई थी, लेकिन नतीजा सिफ़र था.
अब वो साल भर पुराना दौर तो था नहीं, जब नजीब हाल में ही मरी हुई अपनी पहली बीवी के सोग में डूबा हताश, निराश, बेबस, बेकल, बेचैन और शराब की नदी में गोते लगाता हुआ, अन्जू के नाज़ुक कन्धों का सहारा तलाशता हो. अब वो उसके लिये प्राण देने को तैयार इन्सान भी नहीं बचा था.
अब तो नजीब, ज़िन्दग़ी में बेहद दुनियादार और प्रोफ़ेशनल आर्टिस्ट की तरह पेश आ रहा था. अब वो अन्जना मिश्रा नाम की नवोदित चित्रकार के हर क़दम के आगे-पीछे घूमने वाला आवारा पागल आशिक़ नहीं रह गया था. जिसने अन्जू पर हज़ारों-हज़ार कविता रच दीं हों, और उसके बेहिसाब ‘स्केच’ खींचे हों. अन्जना के ब्रश के हरेक ‘स्ट्रोक’ अब उसे अलौकिक, अप्रतिम या फ़िर अद्भुत नहीं लगते थे. अब वो उसके तलवे चाटने की कमज़र्फ़ ज़रूरतों से ऊपर उठ चुका था. अब नजीब, अन्जू को एक ही दिन में अड़तालीस सौ फ़ोन करने वाला, बदहवास उसके पीछे-पीछे फ़िरने वाला, अन्जू की राह में अपना दिल-जिगर बिछाने का कलेजा रखने वाला दीवानावार नहीं रह गया था. अब नजीब का कलेजा मुर्गे और बकरे की कलेजी के लिये फ़िर से मचलने लगा था. वो मीट-मच्छी, वो दिन-रात की शराब, वो महरिनों-कामवाली बाईयों का सौ-पचास रुपए के लिए ‘बाबूजी-बाबूजी’ कहकर उसकी गाँड़ और गोड़ सहलाना, वो आवारा-अय्याश-बेरोज़गार लोग की मजलिसें उसे फ़िर याद आने लगी थी, जिसे वो शुद्ध शाकाहारी पंडिताइन अन्जू से ब्याह करके एक झटके में भूल गया था.
अब तो अन्जू का शाकाहारी भोजन, उसका तिलस्मी रूप-लावण्य, उसकी मदमाती जादुई आँखें, उसकी मासूम निष्कलंक जवानी, उसका गरम खून और उस खून में लगी हुई आग, उसका तराशा हुआ, जवान फड़कता जिस्म रह रहकर नजीब को कचोटने लगा था. सच तो ये था कि उसका बूढ़ा और बूढ़ा होता जिस्म उसके पुरुषोचित अहम को दिनरात कुचलने लगा था. नजीब किसी अल्हड़ जवान लड़की के साथ रोमाँस तो कर सकता था, प्रेम की हज़ार बातें करके उस युवा देह को बहला तो सकता था, अपना चित्रकारी समेत दुनिया भर का ज्ञान उड़ेलकर अपना महात्म्य तो स्थापित कर सकता था, गीत-गज़ल-शायरी सुनाकर मार्केट में आई किसी नई लड़की को लुभा तो सकता था, लेकिन वो “तृप्ति” कहाँ से लाकर देता जो एक पति से ज़ाहिराना तौर पर हरेक पत्नी चाहती हो.
नजीब को अब बुरी तरह से ये अहसास हो चला था कि उसे दूसरी शादी नहीं करनी चाहिये थी. ‘घूमो-फिरो-खाओ-खिलाओ और जवान मादा को उसकी देहरी पर वापस पटक आओ;, यही फलसफ़ा ठीक था. उम्र की ढलान में “शौहर बनना”, ‘बीवी बनने’ से ज़्यादा कठिन है, ये कटु सच नजीब के सामने, रोज़ाना अन्जू के साथ हमबिस्तरी के दौरान आ रहा था. वो हर रात अपनी और अंजू दोनों के सामने ज़लील होने लगा था। अंजू ज़बान से कहे, न कहे, बात तो यही थी। सच यही था। कड़वा, दंश चुभोता यथार्थ एकदम यही था।
अपने बेडरूम की दीवार पर टँगे हुये पंखे को एकटक देखती हुई अन्जना को आज की कड़वी मुलाक़ात की चुभन डस रही थी, और वो अपनी तमाम तरह की निराश-सोच की खाई में धँसी जा रही थी, “नजीब आज कितना बदला हुआ लग रहा था. शराब पी-पीकर, कितना मोटा और भद्दा दिखने लगा है. चेहरा कितना कर्कश, दाग़दार और इन्तहाई कमीना लगने लगा है. अब तो उसकी आँखों में वो मर्दाना-कशिश तक नहीं दिखती. कैसा चुंबक जैसा देखता था मुझे, उसकी आँखों में कैसा लपलपाता लालच था.. एक आकर्षण भी था, जो मेरी देह से चिपक जाता था. उसकी बातों में कोई भी रस तक नहीं था आज. ना ब्रश छूने के बहाने मचल-मचल जाने वाली कोई अदा ही दिखी, ना लपक-लपक कर कभी हाथ, कभी गाल तो कभी माथा छू लेने का कोई हवस ही बाक़ी रही. मुझे ये सबकुछ चाहिए, बार-बार चाहिए.. मैं नजीब को बताना चाहती हूँ.. एक मर्द के गझिन बाल मुझे उसकी ओर खींचते हैं, मैं नजीब को बताना चाहती हूँ, लेकिन अब वो कुछ भी सुनना-समझना ही नहीं चाहता.. वो केवल मुझसे दूर रहना चाहता है.. उसके चेहरे पर अब सिर्फ़ और सिर्फ़ स्वार्थ टपकता है, और हाँ कमीनगी भी ग़ज़ब की दिखाई देने लगी है.. शादी जैसा छल क्या ज़माने में दूसरा भी कोई होगा...” अन्जू के ख़्याली-प्रवाह और बेबाक हलचलों को, पहले उसके बेतरतीब आँसुओं और साथ ही उसकी मोबाइल की घंटी ने रोक दिया.
नये नम्बर से फोन आया था. ये सुशील शर्मा था.
अन्जना से मिलने आने के लिये टाइम माँग रहा था.
०००
तीन दिन बाद की एक दोपहर सुशील, मय अपने ड्राइवर कुलदीप तंवर और सुपरवाइज़र राजकुमार तेली, अन्जना से मुख़ातिब था. सुशील ने आते हुए, मामूली औपचारिकता के बाद, अन्जना के सामने मेज़ पर एक कागज़ फ़ैलाया, “देखिये ये आपके अपार्टमेण्ट के ओरिजिनल नक्शे की वो कॉपी है जिसे डी.डी.ए. ने पास किया था. अब आपका बिल्डर तो वैसे ही महान चालू आदमी है. उसने डीडीए से इसे पास करवाते वक़्त उस ज़मीन को कॉमन दिखाया था, जिसकी आपने कम्प्लेन कर रखी है. अब आपकी शिक़ायत भले ही केवल चौधरी के ख़िलाफ़ हुई हो, लेकिन नपेगा तो ये बिल्डर भी.. ऐसा इसलिये क्योंकि उसने आपमें से किसी की भी परमिशन के बगैर चौधरी से कुछ एक्सट्रा पैसे लेकर उतनी ज़मीन पर उसे कब्ज़ा दे दिया. यही वजह है कि गुज्जर चौधरी ने उस पर ये दीवार बना ली है..”
अन्जना सबकुछ देखती-सुनती रही, फ़िर बेहद आश्चर्य और ढेर सारी मासूमियत से लबरेज़ ज़बान में बोली, “क्या इस दुनिया में ऐसा भी हो सकता है.. यक़ीन नहीं आता. महालक्ष्मी बिल्डर्स ने हमसे पूरे पैसे एकमुश्त लिये. नजीब ने एकबारगी पचास लाख का डाउनपेमेण्ट किया था. पज़ेशन लेने से पहले बाक़ी के पचास लाख भी दिए थे. तब कहीं जाकर ये फ्लैट खरीदा था. चौधरी ने भीषण लोन लेकर फ्लैट बुक कराया, फ़िर भी वो कमीना बिल्डर चौधरी लोग का साइड ले रहा है. ऐसा भी होता है.. अब क्या होगा शर्मा जी, बताईये..”
सुशील मासूम अन्जना को रौ में बोलता देखकर जैसे किसी नशे में डूबता-उतराता था. उस नई शादी की ख़ुमारी में डूबी लड़की की दुनियावी छद्मों, कलेशों, बहरूपिया विडम्बनाओं से अन्जान रवैये को देखकर मुग्ध-सा हो जाता था.
फ़िर संभलकर अपनी नौकरी का लिहाज कर, जवाब भी देता था, “बताना मुझे नहीं, बल्कि आपको है अन्जना जी.. अब अगर आप इस ज़मीन के लिये लड़ाई जारी रखना चाहतीं हैं तो हमें दो नोटिस निकालनी होगी. एक चौधरी के ख़िलाफ़ और दूसरी महालक्ष्मी बिल्डर के ख़िलाफ़.. आप जो कहें, शिक़ायत आपकी ओर से आयी है, सो आपकी बात तो हमें रखनी ही होगी..”
अन्जना ने काफ़ी लम्बी सांस लेते हुये कहा, “नोटिस तो आप निकाल ही दीजिये शर्मा जी, क्योंकि लड़ाई तो आगे बढ़ानी पड़ेगी ही. नजीब होते तो मैं कुछ ना कहती, लेकिन उनकी गैर-हाज़िरी में ये चौधरी-परिवार जैसे मुझे कड़ाही में तलकर खा ही जायेगा.. अभी आप इन लोग को ज़्यादा नहीं जानते हैं.. आपको पता है, नजीब हमेशा मुझे इन लोग से दूर रहने को कहा करते थे, ख़ासकर उस मोटी चौधरानी से.. वो तो पहले-पहल ख़ुद आई थी मुझे ‘शगुन’ देने.. वो मुझसे अकेले में हमेशा कहती थी ‘तुम जैसी भोली लड़की इस बूढ़े के चंगुल में कैसे फँस गई’. अब जब नजीब यहाँ नहीं है तो मुझे अकेले इतना सता रही है. जब इन्हें आपकी नोटिस मिलेगी तो कुछ तो नियंत्रित रहेंगे ये सब.. वैसे सच कहूँ तो नजीब भी ख़ासा तंग थे इन लोग से.. मेरी समझ से आप नोटिस भेज ही दीजिये..”
सुशील अन्जना को लम्बे-लम्बे वाक्य बोलते देखकर मुस्कुराने लगता था. इस बार भी यही हुआ, और अन्जू उसकी ख़ामोश मुस्कुराहट समझकर चुप रह गई.
“ओके.. डन..” सुशील ने एक बार फ़िर संभलते हुये राजकुमार की ओर देखा, उसको फ़ाइलें थमाते हुए बोला, “देखिये राजकुमार जी, इस फ़ाइल में जितनी जगह मैंने ‘मार्क’ किया है उतने पतों की ‘नोटिस’ तैयार करवा दीजिये. इन मैडम वाला, वो रामलीला पार्क के पीछे वाला, वो स्टार-वर्ल्ड वाला और वो प्राइमरी स्कूल सनबीन वाला तो आज ही निकाल दीजिये. सारे के सारे नक्शों में जमकर धाँधली हुई है... आपको कुलदीप छोड़ आयेगा.. सुनो कुलदीप तुम लौटते वक़्त कुछ किलो-दो-किलो लीचियाँ लेते आना.. ठीक है...”
दोनों, दोनों को नमस्कार करते हुये सीढ़ियाँ उतर गये.
अन्जना सुशील का काम करने का तरीक़ा देख रही थी. उसे फ़िर आश्चर्य हुआ कि कैसे इतने सारे बिल्डर्स, मकान में रहने वाले, पार्कवाले यहाँ तक की स्कूल वाले भी ग़लत नक्शे बनाते हैं. कितना कुछ ग़ैर-कानूनी चलता है इस दुनिया में. वो मन ही मन ये सब सोचती रही. इस बार इस बारे में कुछ पूछना चाहती भी थी, लेकिन फ़िर भी चुप ही रही. नये या ग़ैर आदमी से बहोत ज़्यादा खुल जाना अन्जू ने नहीं सीखा था.
“अन्जना जी, क्या इस बार भी बिना चाय के ही लौटा देंगी..” सुशील की दरख्वास्त सुनकर, अन्जू का ध्यान भंग हुआ.
उसने फ़ौरन बगल की ही रसोई में ये कहते-कहते चाय चढ़ा दी, “नजीब के जाने के बाद मैंने तकरीबन सारे ही नौकर हटा दिये हैं. इस लिये चाय-पानी का ध्यान नहीं रहता... नजीब तो बिना खाना खाये आपको जाने ही नहीं देते, मुझे माफ़ कर दीजिये..”
अंजू, चाय के उबलने के इन्तज़ार में ड्राइंग-रूम में लौटती हुई बात बदलकर बोली, “इतनी लीचियाँ क्यों मँगवाईं हैं आपने.. आप लीची बहोत खाते हैं क्या..? वैसे अगर आप लीची बहोत खाते हैं तो मेरे ख़्याल से आपको चाय ज़्यादा पीना पसंद नहीं होना चाहिये..”
सुशील को अन्जू की खऩकदार आवाज़, उस पर से उसके कई सारे सवाल, उन सवालों के ख़ुद ही खोजे हुये जवाब भी बहोत पसंद आने लगे थे. अन्जू की अल्हड़ उम्र और उलझी-उलझी बातें सुशील को रिझाने लगीं थीं. नजीब और उसकी शादी की फोटो सामने ही टँगी थी, जिसे ना केवल सुशील, बल्कि ड्राइवर और सुपरवाइज़र भी बारीक़ी से देख चुके थे. इस बारीक़ी से देखने की वजह अन्जू की दुल्हन की सुन्दर छवि से कहीं ज़्यादा नजीब की बुज़ुर्गियत थी, जो नई-नवेली दुल्हन के पितामह सरीखा बगल में बैठा मुस्कुरा रहा था.
नजीब तकरीबन सत्तर साल का एक अय्याश बूढ़ा था, जिसने दिल्ली जैसे कला और साहित्य की आधी-अधूरी समझ, लेकिन भरपूर माल उड़ेलने वालों के शहर में अपना एक नाम बना रखा था. वास्तविकता ये थी नजीब के पिता का चित्रकारी की दुनिया में बड़ा नाम था, उसे ही भुनाते-भुनाते नजीब की झोली में भी काफ़ी दौलत और शौहरत आ गिरी थी. अन्जना जैसी कुछेक नई लड़कियों को नजीब पहले ही अपने जाल में फँसा चुका था. नजीब के विषय में बहोत दूर तक अनजान अन्जना कुछ ज़्यादा ही फँस गयी और शादी होने के तकरीबन साल भर बाद अब उसे नजीब का असल चेहरा भी दिखाई देने लगा था. बुज़ुर्ग नजीब उसे छोड़कर किसी नये शिकार की ओर रुख़सत हो चुका था.
आज सुशील ड्राइवर के लौटने तक काफ़ी फ़ुर्सत में था. चाय आ चुकी थी. नजीब के बिना अन्जना जैसे मेहमानवाज़ी भूल चुकी थी. उसने एक कप सादी चाय सुशील के सामने रख दी. न बिस्किट, नमकीन, न रोस्टेड काजू, जिसकी वो ख़ुद आदी थी. लेकिन सुशील बड़े मज़े से चाय पीने लगा. चाय उसका शौक़ था.
उसने बातें आगे बढ़ाईं, “आपके हसबैण्ड कहीं बाहर गये हैं क्या. पिछली बार भी नहीं मिले थे..”
“हाँ शायद बाहर गये हैं नजीब.. मुझे मालूम नहीं कब लौटेंगे..” फ़िर अन्जू ने इतनी धीरे से एक वाक्य और मुनमुनाया, जिसे सुशील सुन न सके, “वैसे भी उनके आने और जाने से कोई ख़ास फ़र्क़ पड़ता तो है नहीं.. ना जाने क्यों शादी ही की थी इन्होंने..”
सुशील ने आधा-पूरा सुना, मियाँ-बीवी की हल्की सी अनबन भाँपकर, अन्जू के चेहरे पर आती-जाती तल्ख़ लकीरों को मिटाने के कोशिश करने लगा, “आप लीची का पूछ रहीं थीं ना.. वो मैंने मेरी बेटी के लिये मँगवाई हैं. उसे बहोत पसंद है. उसी की फ़रमाइश थी.. वो यहीं दिल्ली के एक पी.जी. में रहती है. मैं घर लौटते वक़्त उसे देता जाऊँगा.. साथ में जो और लड़कियाँ रहती हैं, वो भी खा लेंगी..”
यूँ तो तकलीफ़ों का निर्माण करने वालों का मुख्य लक्ष्य अपने शिकारों को उसमें घुटते देखना होता है, जब तक कि वे उनके रचे हुए चक्रव्यूह में तड़प-तड़पकर मर ना जायें, जैसा कि यहाँ नजीब कर रहा था.
लेकिन फ़िर भी अन्जू के दिल को बहला देना उसे तक़लीफ़ों से तत्काल बाहर लाना इन्तहाई तौर पर सुशील के लिये कठिन सिद्ध नहीं हो रहा था. वो उसकी बातों में ख़ुद ही घुलने लगी, “अच्छा ऐसी बात है. कौन है आपकी बेटी. क्या नाम है उसका.. कौन से क्लास में पढ़ती है वो..”
“उसका नाम मानसी है. प्लस टू अभी इसी साल ही किया है उसने.. कभी ले आऊँगा उसे आपके पास..”
“हाँ हाँ ज़रूर.. यहाँ इस घर में कोई अपना आता है तो मुझे अच्छा लगता है.. और कौन-कौन है आपके घर में..?”
“माँ हैं, पिता हैं, तीन छोटे भाई हैं.. बड़ी दीदी हैं, दो छोटी बहनें हैं.. पत्नी हैं, एक बेटा और एक बेटी है..” सुशील ने तफ़सील से बता दिया।
“अरे वाह.. बड़े ख़ुशनसीब हैं आप.. भरा-पूरा परिवार है.. शादी से पहले मैं हॉस्टल में रहती थी.. आप नहीं समझेंगे, बहोत सारे लोग के बीच रहकर एकदम अकेला हो जाना बिलकुल अच्छा नहीं लगता..” अंजू उसकी बातों में खुद को कभी भूलती रही, कभी खोजती रही।
“हाँ बिलकुल, मैं समझ सकता हूँ..”
“आप कैसे समझ सकते हैं.. आपका तो परिवार है, बेटी है, बेटा है, माँ-बाप हैं, बीवी है, भाई-बहन हैं.. आप हर्गिज़ नहीं समझ सकते हैं..” फ़िर वो रुककर बोली, “क्या आप कभी पहले हॉस्टल में रहें हैं शर्मा जी..”
“नहीं मैं हॉस्टल में कभी नहीं रह सका.. लेकिन मैं फिर भी समझ सकता हूँ...” दो घूँट चाय पीकर वो आगे बोला, “देखिए ट्रांसफ़रेबल नौकरी है मेरी, कई बार घर से दूर अकेले ही रहना होता है..”
“ओके. लेकिन हॉस्टल में रह लेते तो और भी अच्छा होता.. बहोत कुछ नया सीख जाता है कोई भी हॉस्टल-लाइफ़ में..” अंजू शरारती-अंदाज में सिर हिलाती हुई बोली।
“हाँ, ऐसा होता तो है.. लेकिन मुझे ज़रूरत नहीं पड़ी.. कॉलेज घर से ज़्यादा दूर नहीं था.. मैं घर में सबसे बड़ा था, तो पिताजी ने भी घर से दूर जाने नहीं दिया, और फ़िर घर की तमाम ज़िम्मेदारियाँ होतीं हैं....”
“ह्म्म्म्म.. वो तो है.. वैसे कहाँ पढ़ते थे आप..?” अंजू सुशील की बातों में गुम हो रही थी।
“मैं अलीगढ़ का रहने वाला हूँ. वहीं यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग पूरी की। मेरे पिताजी एक रिटायर्ड-टीचर हैं। उन्हें हमारी पढ़ाई का बहोत ख़्याल रहा हमेशा..”
“ओके. ऐसा सुनती हूँ कि टीचर के बच्चे पढ़ने में अच्छे होते हैं..”
इस बीच चौथी बार सुशील के मोबाइल फोन की घण्टी बज उठी. इस बार, “एक्सक्यूज़ मी...” कहकर सुशील ने फोन रिसीव किया, “हाँ राठी चले जाओ वहाँ.. पेमेंट तैयार है, ले लेना और केशव बिल्डर्स वालों का ड्राइवर मिलेगा, फ़ाइल उसे ही दे देना.. तीन के आसपास मिलता हूँ मैं.. अभी साइट पर हूँ.. और सुनो, लोकेश से कल्याण वालों का नम्बर ले लो.. उसके बेटे का नर्सरी में ऐडमिशन नहीं हो रहा है.. कल्याण वाले कह देंगे तो हो जायेगा. वहाँ की स्कूल की बिल्डिंग के ख़िलाफ़ भी तीन शिक़ायतें पेंडिंग में है.. उससे कहना प्रिंसिपल से सीधा बात करे वो ऐडमिशन ले लेगा..”
फोन डिस्कनेक्ट होते ही अन्जू ने चुभता हुआ एक जुमला कसा, “आप सारे सरकारी लोग घूसखोर ज़रूर होते हैं.. है ना..”
“मैं या मेरा महकमा घूसखोर है इसमें कोई हैरान कर देने वाली बात तो बिलकुल नहीं है.. रत्ती भर तन्ख्वाह से किस किसका पेट भरेंगे.. तनख्वाह आती है और ग़ायब हो जाती है.. सच पूछिये अन्जना जी, तो हमारी महीने की सैलेरी महज एक छलावा है.. मामूली सा छलावा. उस सैलेरी से दस गुना तो हम साइट्स पर घूम घूमकर पेट्रोल और डीज़ल में उड़ा देते हैं.. इस कीमती चाय के लिए..” उसने उठाकर इशारे से चाय के कप को दिखाया....” आगे कहता गया, “यक़ीन मानिये, सरकार केजरी की आ जाये या शीला की, घूसखोरी को मिटाना किसी के बस में नहीं है, कोई भी हो गद्दी पर.. मान लीजिये, हम और हमारे महकमे की बात छोड़ भी दें, तो ऐसा एक भी सरकारी मुलाज़िम पूरे हिन्दोस्तान में नहीं मिलेगा जो अपनी उसी नौकरी, सरकारी नौकरी के ढेर सारे काम अपनी तनख्वाह से निपटाता है, जिसका एक छदाम भी सरकार से नहीं मिलता.. लेकिन वो काम उसे करने ही पड़ते हैं, सरकार तो रिज़ल्ट माँगती है ना, कैसे रिज़ल्ट टेबल पर लाकर हमने रखा है, ये तो हमारा दिल जानता है. बिना घूस के तो अन्जना जी हम आपके यहाँ चाय तक नहीं पी सकते. लेकिन एक बात तो बताईये, आप हमलोग की घूसखोरी को कैसे जानती हैं, वो भी इतनी बारीक़ी से.. कितने सरकारी दफ़्तरों के चक्कर काट डाले आपने.. आप ठहरी कल्पनाओं की दुनिया में रँग भरने वाली.. ये बात मुझे हैरान कर रही है..”
इतने लम्बे वक्तव्य के बाद अन्जू कुछ कहे इससे पहले ही, मेज़ पर रखा सुशील का दूसरा फोन घनघनाने लगा. सुशील ने हँसकर कहा, “लीजिये फ़िर बज गया फोन हमारा.. लोग को पसंद नहीं हमारा आपसे बात करना..”
अन्जू ने मुस्कुराते हुये कहा, “लगता है लोग को भी घूस खिलानी होगी, कि वो आपको उस वक़्त परेशान ना किया करें, जब आप हमारे यहाँ चाय पीने की घूस खा रहे हों..”
सुशील ने ठहाका लगाया और फोन पर बात करने लगा.
अन्जू ने चाय के कप वगैरह समेट दिये. आख़िरी बात जो सुशील की फोन पर हुई थी वो नर्सरी में बच्चे के ऐडमिशन से सम्बन्धित थी.
“तो अब आप नर्सरी का ऐडमिशन भी कराने लगे हैं… इसके लिये कितनी घूस लेते हैं आप..?” अंजू मुस्कुराती रही।
सुशील समझाता रहा, “अरे ये तो समाज-व्यवहार में कराना ही पड़ता है जी.. आज हम उसका काम करेंगे, कल वो हमारे काम आयेगा...”
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सुशील की बाहों का दायरा उस दुबली देह के लिये बहोत फ़िट था. उसने बहोत ही स्नेह से भरकर अन्जू को दो पल के लिये समेटे रखा. अन्जू आँखें बन्द किये सुशील के सीने में ख़ुद को छुपाये रही. अन्जू की पीठ के चुभते हुए हुक सुशील की उंगलियों को बहोत मीठा निमंत्रण दे रहे थे. सामने आँखें बन्द किये हुये स्नेह की दरिया में डूबा एक युवा बदन भी उसके दरिया में उतर जाने का इन्तज़ार करता हुआ दिख रहा था. सुशील उसे देखता रहा. एकाएक उसी वक़्त सुशील की बड़ी बेटी मानसी का नाम मोबाइल-स्क्रीन पर चमकने लगा. मानसी अपने माँ-बाप के बीच सेतु बनी हुई थी, वरना तो उन दोनों के बीच के गतिरोध भी चरम पर थी. मानसी जो कि उम्र में इस सामने परोसकर रखे हुये सुस्वादु व्यंजन से वय में बहोत ज़्यादा बड़ी नहीं थी, लेकिन उसने दुनिया में संजीदगी से रहना सीख लिया. सुशील के हाथ उस देह से खुद-ब-खुद कुछ दूर चले गये. वो अन्जू के पास एक लम्हा भी और रुक नहीं सका.
सुशील फोन हाथ में लेकर, बिस्तर से उठा और बेडरूम से बाहर निकल गया. मोबाइल-फोन पर बात करते करते, वो रसोई तक चला आया, उसे प्यास लगी थी, आर.ओ. के पास खड़ा होकर गिलास खोजने लगा. अन्जू अपने चेहरे पर उदासी की एक दिलकश छाया लिये सुशील तक पहुँच गयी. बात ख़त्म होने पर सुशील ने मोबाइल-फोन अपनी शर्ट की जेब में रख लिया. अन्जू ने ख़ामोशी से सुशील को गिलास थमा दिया. बड़ी गंभीरता और लगाव से डूबी नज़रों से पानी पीते हुए सुशील को देखते हुये बोली, “आप दु:खी ना हों, दुनिया की हर खुशी हर एक के लिये नहीं होती. तक़दीर में जो नहीं लिखा होता वो किसी भी हाल में नहीं मिलता. बिस्तर तक पँहुच कर भी नहीं मिलता.. इस हक़ीक़त से एकदम ही ग़ाफ़िल तो नहीं हूँ मैं..”
सुशील भी कुछ देर बिना एक भी शब्द बोले, अन्जू को देखता रहा. कुछ सोचकर इतना कहकर रह गया, “आप उर्दू बहोत ख़ूबसूरती से बोल लेतीं हैं.. ऐसा कैसे.. आप तो बहुत संस्कृत के माहौल वाले पण्डित-घरआने से आतीं है..” सुशील ने अंजू को खामोश देखकर लंबी साँस ली. आगे बोला, “देखिए, वैसे कोशिश तो मैं भी करता हूँ.. लेकिन सफल नहीं होता.. बिल्कुल नहीं होता..”
ये सुनकर अन्जू की सारी गम्भीरता पल भर में उड़ गई. वो ठहाका लगाकर हँसते हुए बोली, “सुशील जी, आप तो किसी भी फ़ील्ड में सफल नहीं..”
सुशील उसे खिलखिलाते देखकर उसने आगे बढ़कर अन्जू को फ़िर से गले से लगा लिया. अन्जू दुबकते ही मचलने लगी, जिसे फ़िर सुशील ने संभालने के क्रम में, उस बहकते हुये माहौल और अपनी उस नादान प्रेयसी दोनों को हल्का बनाने के लिये ठिठोली की, “क्या हिन्दी और उर्दू में प्रेम अलग-अलग तरीक़ों से होता है?”
अन्जू की बाहों के घेरे सख़्त हो गये, उसने मदहोशी में कहा, “क्या सारा प्रेम यही रसोई में होगा...”
सुशील उसे साथ आगे ले जाते हुये बोला, “आइए बालकनी तक चलते हैं..”
अन्जू कितनी भी नादान थी, कम उम्र की थी, दुनियादारी से अन्जान थी, मासूम थी, लेकिन उसे इश्क़ के सारे क़ायदे और सबक़ ज़रूर कंठस्थ थे. मर्दाना मुस्कुराहटें, उसके सारगर्भित, गहरे अर्थ ख़ूब जानती थी. उसने अपने अब तक के जीवन में चित्रकला, संगीत और साहित्य के सिवा कुछ नहीं जाना था, जिनका मूल आधार सुन्दर भावाभिव्यक्ति और, कहीं न कहीं हमेशा स्त्री-पुरुष प्रेम पर ही टिका होता है. वो अति नैसर्गिक प्रेम चाहे पेड़ और पेड़ के मजबूत तने पर बलखाती लताओं के रूप में चित्रित हो, या फ़िर पर्वत, झरने, मेघ, समन्दर और लहराती नदी के मिलन का संसार हो. वो आसमान में उड़ते आज़ाद परिंदे और फ़ूलों की सुन्दर गन्ध के आसपास इठलाती तितली के रूप में ज़ाहिर हो, या फ़िर शीतल चन्द्रिका का सहवास भोगते पूर्णिमा के चाँद की अलौकिक सुन्दरता ही क्यूँ ना हो.. होता हर जगह प्रेम ही है. अन्जना हिन्दोस्तान के तीन सबसे बड़े संस्थानों की गोल्ड मेडलिस्ट छात्रा रही थी. अपने समृद्ध कमान से निकालकर उसने एक तीर बड़ी बारीक़ी से, सवाल की शक़्ल में सुशील पर चला दिया, “आप क़रीब आने से घबड़ाते क्यूँ हैं सुशील जी.. आपको नजदीकियों से डर क्यूँ लगता है..?”
सुशील ने जवाब देने से पहले अन्जू के दोनों हाथ थामे और बड़ी समझदारी से बोला, “घबड़ाने की क्या ज़रूरत है, तुम कोई डायन चुड़ैल हो क्या.. तुम तो बहोत प्यारी हो, सुन्दर हो, मासूम हो, एकदम ही निश्छल.. मुझे कोई अपराध जैसा लगता है तुम्हें छूते हुये.. एकदम निष्पाप हो तुम.. अनछुई किसी और की अमानत जैसी हो..”
“आप भी क्या बच्चों जैसी बातें करते हैं.. वो निर्लज्ज आदमी जो मुझे बीच चौराहे पर छोड़कर भाग निकला, आप उसकी अमानत कहते हैं मुझे.. प्लीज़, सुशील जी कोई और बहाना खोज लीजिये. ये वाला तो नहीं चलेगा... प्लीज़..” अन्जू की तक़लीफ़ उसके चेहरे पर आकर दहकने सी लगी.
सुशील निरुत्तर रहा, वो अपनी मानसिक और दैहिक कठोरता अपने संयम की मजबूत डोर से बाँधे रहा. अन्जू दिल ही दिल में उसके इस ‘विरले संयम’ पर फ़ख्र कर रही थी. ऊपर से दिखावे की लुभावनी बातें करती रही.
इस तरह बार-बार बातें बदलते हुये दोनों का वक़्त ज़रूर गुज़रता रहा. अन्जू देह की प्यास और उससे जुड़े तमाम सवालात से विलग होकर सुशील की बातों में खोती रही. कुछ महीने अन्जू के उसी हाल और सुशील के उन्हीं हालात में बीत गये.
सुशील रोज़ाना अपने घर से दफ़्तर के लिये निकलता और कोई ना कोई हिसाब बैठाकर, जुगाड़ बनाकर वो अन्जू के मकान की तरफ़ का दौरा निकाल ही लेता. ड्राइवर को कार-सहित कहीं दूर भेजकर, चहकते हुये अन्जू के घर की सीढ़ियाँ चढ़ता, लरज़ते हुये दरवाज़े की घन्टी बजाता. चुनाव की ड्यूटी के दौरान जब वक़्त निकलता, तो सुशील को अन्जू की यादों से फ़िर घिर आती। सादग़ी से अंजू को फोन लगाता। अन्जू का घर में अकेला होना जानकर वो फिर अन्जू के पास आ पँहुचता.
इतराती, इठलाती, खिलखिलाती अन्जू सुशील से प्रेम से बतियाने लगती. इकलौती नौकरानी को विदा देकर ख़ुद चाय बनाती, नाश्ता तैयार करती. दोनों घन्टों खूब-खूब-खूब बतियाते. इन बातों में हर कोई शामिल हो जाता. प्रधानमन्त्री से लेकर अड़ोसी-पड़ोसी, उम्दा शायर से लेकर चिरकुट कवि, चित्रकारी से लेकर सुनारी-किसानी-मजूरी की बातें, मौजूदा राजनीति से हालिया रिलीज़ फ़िल्में, हर किसी मुद्दे, हर एक मसले की बातें. ये भी सच था कि दोनों में से किसी का भी दिल महज बातों से नहीं भरता फ़िर भी दोनों अपनी-अपनी कुर्सियों में जमे रहते.
तत्कालीन दिल्ली का मुख्यमन्त्री और उसकी कामकाज के तरीके सुशील और अन्जू दोनों को बहोत पसंद थे, वो दोनों घण्टों उसके बारे में भी हज़ार-हज़ार बातें करते रहते, सरकार से बाबस्ता अपने-अपने तजुर्बे एक दूसरे से बाँटते रहते. दोनों उस दौरान बहुत खुश थे।
०००
आज सुशील, अन्जू और अपने बीच की सारी दीवारें तोड़ने का मन बनाकर ही अन्जू की दहलीज़ पर पँहुचा था. दरअसल उसकी ख़ुद की खूब मोटी बीवी उससे झगड़कर एक बार फिर से मायके चली गई थी. मायके में इस साल का ये उसका सातवाँ फेरा था। आज अंजू के घर पहुँचकर सुशील अन्जू का हाथ थामकर खुद बढ़कर बिस्तर पर अन्जू की नज़दीकियों में चुभने वाले हर हुक, हर ख़्याल, हर सोच को अन्जू और ख़ुद के बीच से हटा देने का सोचकर चला था. आज सुशील अन्जू के इतने नज़दीक जाना चाहता था, जितना कि अन्जू हमेशा से चाहती थी. गुज़री हुई पूरी रात अन्जू की सिसकियों, आहों और बेचैन-बेकल-बेतरतीब आवाज़ों में कई बार सुशील ने महसूस करता रहा था.
अन्जू के मकान की कॉलबेल बजाने से पहले उसने अपने वकील से सुधा को कानूनी नोटिस भेजकर अलग होने का फ़ैसला भी कर लिया था.
अंजू ने खुद दरवाज़ा खोला।
आज सुशील ने अन्जू को फ़िर उतना ही उदास देखा जितना पहली बार बैंगनी साड़ी, ज़ेवरों-सिन्दूर-बिन्दी से लकदक देखा था, जब वो अन्जू से पहली बार मिला था. आज उसे अन्जू के चेहरे पर ये उदासी और बेकली बर्दाश्त नहीं हो रही थी. वो कुछ कहता उससे पहले ही अन्जू बोल पड़ी, “अच्छा हुआ आप आ गए.. अभी-अभी नजीब से बात हुई है मेरी.. पता है वो बहुत बीमार हैं.. डॉक्टर और नर्सें उसके मकान में इस वक़्त भी मौजूद हैं.. ज़रा सा आप मुझे उन तक छोड़ देते, तो बड़ी मेहरबानी होती आपकी... आज तो वो दुष्ट कुणाल भी नहीं आया, ज़रूरत वाले दिन ज़रूर नागा करता है..” कहते कहते अन्जू एक बड़े से झोले में नजीब की कई पुरानी डॉक्टरी-रिपोर्टें, दवा के ढेर सारी पर्चियाँ, कुछ दवाएं समेटकर रखती रही.... आगे बोली, “कुछ फल भी ले लूँगी रास्ते से, ठीक है... इतने दिन तक न जाने किस किसके हाथ का बना खाते रहे हैं, मैं इतना ऐहतियात से इन्हें खाना खिलाती थी, लेकिन वहाँ जाकर तो एकदम ही सेहत का कबाड़ा बना लिया है इन्होंने.. मूली और साग के भंरवा पराठे इन्हें बेहद पसंद हैं, बना लिये हैं मैंने.. डॉक्टर अलाओ करेगा तो खिला दूँगी... चलिए जल्दी चलिए ना... आप खड़े खड़े मेरा मुँह मत देखिए, चलिए गाड़ी मोड़िए वरना ट्रैफ़िक बढ़ जाएगा, यू नो...”
अन्जू की बेहद सादा सूरत और भावुक ज़बान से ये मीठे शब्द सुशील के ज़ेहन से निहायत ही तीखे और कड़वे, नश्तर जैसे चुभते हुए गुज़रे. उसने यन्त्रवत कार सड़क के किनारे लाकर रोक दी और दरवाज़ा खोलकर अन्जू को बिठा दिया. उसने एक लफ़्ज़ भी नहीं बोला, अन्जू को उसे सुनने की ज़रा भी फ़ुर्सत नहीं थी, उसे रत्ती-सा ख़याल ही नहीं था इस बात का. वो तो उड़कर बस नजीब की देहरी देखना चाहती थी, बस्स.
लेकिन सुशील उसी एक पल अन्जू को खींचकर गले से लगाना, समेट लेना चाहता था. आज वो कुछ भी और याद नहीं करना चाहता था, सिवाय इसके कि वो अन्जू के दामन में कैसे भी अपने नाम और अपने वजूद की अमिट छाप छोड़ दे, बेपनाह ख़ुशियाँ भर दे.
लेकिन फ़िलवक़्त ‘नजीब’ नाम का ज़हर अन्जू के होठों से अपने कान और ज़ेहन में उतारता हुआ न जाने कब महारानी बाग तक पँहुच गया. न ट्रैफ़िक, न भीड़, न शोरगुल, न रास्ते, न लोगबाग, न फलवाला, न जूस वाला, सुशील ने जैसे कुछ भी नहीं देखा. उसके दिमाग और दिल में भीषण कोलाहल थी, जहाँ नजीब दैत्याकार छवि लेकर उसकी कार से दो कदम आगे चलता दिखाई देता रहा, जिसे कुचलने की ख़्वाहिशें लिए वो इतना लम्बा रास्ता न जाने कब गुज़र गया और वो दोनों नजीब के दरवाज़े तक आ गये थे.
अपनी मोहब्बत की भीगी हसरतों से सिलकर उसने अपनी ज़बान बन्द कर दी थी.
अन्जू की नजीब के लिए फ़िक्रो-परवाह चकरी जैसी ज़बान से पूरे रास्ते कार के पहियों से भी तेज़ रफ़्तार से दौड़ती रही. नजीब का नाम सुशील की चाहत ने अन्जू की रूह से निकालकर बहोत दूर फ़ेंकने की हरसम्भव कोशिश की. लेकिन वो क़ामयाब नहीं हुआ. वो एक दीवार सुशील फ़िर भी नहीं तोड़ सका.
नजीब और अंजू दाम्पत्य से बँधे हुए थे. उनके बीच कोई भी दीवार खड़ी किया जाना मुमकिन नहीं था।
लेकिन सुशील और अंजना के दरम्यान एक ना गिरने वाली अनऑथोराइज्ड-दीवार बनी थी. जिसे बहुत अल्पकालिक, जज़बाती और नाजुक हालात तोड़ देना चाहते थे। लेकिन वो दीवार जस की तस खड़ी रह गई।
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साहित्यकार परिचय
आम तौर से उपन्यासकार और कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित भूमिका जी की स्त्री सम्वेदनाओं में पगी और प्रेम के दर्पण जैसी, तीन लम्बी कविताएँ, पहली बार किसी ब्लॉग में प्रकाशित की जा रहीं हैं।
अंग्रेजी, उर्दू और संस्कृत साहित्य की गहन अध्येता, हिन्दी साहित्य रचना-जगत में एक बहुचर्चित, प्रशंसनीय और सुप्रतिष्ठित नाम है।
उर्दू और हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर उपेन्द्रनाथ अश्क की पुत्रवधू और वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार स्वर्गीय नीलाभ अश्क की पत्नी भूमिका क़रीब डेढ़ दशक से दिल्ली में रहकर ‘अश्क रचना संसार’ गौरवशाली परंपरा को लगातार गंभीरता से आगे बढ़ा रहीं हैं
जन्मस्थान/तिथि - इलाहाबाद उ प्र, 23 दिसम्बर.
निवास - राजधानी दिल्ली, भारत
शैक्षिक योग्यता –
एम.फ़िल. दिल्ली विश्वविद्यालय
एम.ए. (अंग्रेजी साहित्य), इलाहाबाद विश्वविद्यालय.
एम.ए. (तुलनात्मक साहित्य- हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अरबी, फारसी), इलाहाबाद विश्वविद्यालय.
प्रकाशित पुस्तकें -
उपन्यास
~ अखाड़ा (इंक प्रकाशन, इलाहाबाद एवं नई दिल्ली, 2024)
~ सोनाली एक कमज़ोर पटकथा (अनुज्ञा प्रकाशन, नई दिल्ली, 2023)
~ माणिक कौल, कहानी एक कश्मीरी की (प्रभाकर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021)
~ नौशाद, (2021, डायमंड बुक्स, नई दिल्ली)
~ शिकारी और शिकारा (इण्डिया नेट बुक्स, दिल्ली अमेरिका, 2022)
~ स्मैक (सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020)
~ किराये का मकान, (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2019)
~ आसमानी चादर, (2018, साहित्य भंडार, इलाहाबाद)
~ शिवाला, (2022, दिल्ली)
कहानी संग्रह
~ दाँव एवं अन्य राजनैतिक कहानियाँ, (इंक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2024)
~ पितृपक्ष, (इण्डिया नेट बुक्स, दिल्ली अमेरिका, 2021)
~ ख़ाली तमंचा, (हिंद पॉकेट बुक्स, दिल्ली, 2020)
~ बोहनी, (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2017)
संस्मरण
~ दीये जलते हैं, (प्रलेक प्रकाशन, 2022)
~ The Last Truth (2012, अनुवाद अज्ञेय के उपन्यास "अपने अपने अजनबी" का अनुवाद, दिल्ली वि.वि.)
साहित्यिक उपलब्धि –
~ प्रथम कथासंग्रह *“बोहनी’*, *भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन अनुशंसा* सम्मान 2017 से पुरस्कृत.
~ प्रथम उपन्यास *“आसमानी चादर", मीरा स्मृति सम्मान 2018 साहित्य भंडार से पुरस्कृत.
~ लगातार साहित्यिक सेवा के लिए तिलका माँझी राष्ट्रीय सम्मान 2022 प्राप्त
~लेखिका का इलाहाबाद और लखनऊ दूरदर्शन केन्द्र सहित आकाशवाणी इलाहाबाद में अतिथि कलाकार के रूप में लगभग 10 वर्षों का जुड़ाव रहा है।
~ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रवास के दौरान थियेटर जगत में सक्रिय भागीदारी.
वर्तमान–
विगत डेढ़ दशक से दिल्ली में रहते हुए स्वयं का मुक्त लेखन/चिंतन. हिंदी साहित्य जगत की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में साक्षात्कार, स्त्री-विमर्श समेत विविध विषयों पर निरन्तर लेखन..
उर्दू और हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर उपेन्द्रनाथ अश्क की पुत्रवधू और वरिष्ठ साहित्यकार नीलाभ अश्क की पत्नी भूमिका क़रीब डेढ़ दशक से दिल्ली में रहकर ‘अश्क रचना संसार’ गौरवशाली परंपरा को लगातार गंभीरता से आगे बढ़ा रहीं हैं.
सम्पर्क
bhumikadwivedi1990@gmail.com
भूमिका द्विवेदी
9910172903
(नई दिल्ली)
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