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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 अक्तूबर, 2024

जयश्री सी कंबार की कविताऍं

 तीसरी कड़ी 

डॉ. जयश्री सी. कंबार वर्तमान में के.एल.ई.एस निजलिंगप्पा कॉलेज, बेंगलुरु में अंग्रेजी विषय के सहायक प्राध्यापक पद पर

कार्यरत हैं। उन्होंने 3 यूजीसी प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया है और विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों और सम्मेलनों में शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने 02 कविता संग्रह - 'विस्मय' और 'हसिद सूर्य', 03 नाटक- माधवी और एकलव्य और 1 अनुवाद- बुद्ध, कन्नड़ से अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। उनके पास 2 अप्रकाशित नाटक, 2 अनुवादित नाटक और कविताओं का एक संग्रह है। उनकी लघु कथाएँ और कविताएँ कर्नाटक की प्रमुख समाचार पत्रिकाओं और जर्नलों में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपने नाटक माधवी के लिए इंदिरा वाणी पुरस्कार जीता है। कन्नड़ में यात्रा वृत्तांतों पर उनके लेख प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं।

उन्होंने केरल में आयोजित तांतेडम महोत्सव- अखिल महिला लेखिका सम्मेलन में मुख्य भाषण दिया है, त्रिशूर में मध्यम साहित्य उत्सव में एक पैनेलिस्ट के रूप में, लिटिल फ्लावर कॉलेज, गुरुवायूर में राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य भाषण दिया है। इसके अलावा उन्होंने 9 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हैदराबाद में आयोजित ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली द्वारा आयोजित कवियों की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कविता प्रस्तुत की है। उन्होंने पंजाब, तिरुपति, बैंगलोर, शोलापुर, शिमोगा, मैसूर, कालीकट, लक्षद्वीप और कर्नाटक में कई स्थानों पर आयोजित लेखक-कवि सम्मेलन में भाग लिया है। रंगमंच पर उनकी बातचीत ऑल इंडिया रेडियो, बैंगलोर द्वारा प्रसारित की गई थी। उन्होंने कई अवसरों पर दूरदर्शन पर अपनी कविताओं को भी प्रस्तुत किए हैं। आप 'कन्नड़ सेवा रत्न', 'इंदिरा वाणी राव पुरस्कार' दो बार कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए प्राप्त कर चुकी हैं।

०००

कविताऍं

 

एक 

लौटकर गोद में


जितना भी तुम्हें खुदाई कर

तुम्हारे अंदर बाहर

क्रिमियाँ छिलने पर भी

बिना किसी आवाज सहन करोगी

आंतडे निकाल कर 

खोजते रहें हाथ थके बिना।

भूत लगे मन के

तडप अंदकार से भी भार।

छाँव से घेरित मन को 

अनबुझे भूख।

निगलते रहे

हरियासी, साँसें

करोडों सपनों की यादें

गर्भ में मिटकर शांत

इतिहास के चप्पे चप्पे में

लगी गहन धूल।

बहते पानी में पुराण

तैरते निकल रहे बिना रोकटोक

किनारे पर अतिरथ नहीं

बचेखुचे कुछ जड़ों की छाँव

दिख रहे ऊपर चाँद पर।

रोज तुम खिल रहे हो

ऐर पिर करवटे ले,

गोद से अंकुरित पेड़

सूखने पर फिर गोद

भर लोगे गोदी में।

अक्षर बार क्या पदों को?

घमंड का पक्षी सीना उठाकर 

आकाश अपना मान के उड़े तो भी

लौट आता है फिर

तुम्हारी ही गोदी में

०००

दो

 फ़ीकापन


मेरे नगर भर में

आकाश तक छूने वाली

बृहत् उदासीन मंजिलें

हरियाली ढूँढने पर बी नहीं मिलती

यहाँ मात्र भवन ही बढते क से बढ़कर एक

मिट्टी को सांस लेने तक स्तान नहीं

सिमेंट से लेपित है पूरा, टार

कांक्रीट के झील में तैरते रहे 

नकली मेघों के बिंब।

चराहगाहों में चरनेवाले जनवरों की तरह

संकरी गली के रास्ते में

घूम रहे मोटर वाहन

तैरते आई हवा में 

अर्थहीन सीतलता।


नहीं चाहिए खगों की ध्वनि

गाड़ी मशीनों की ध्वनि ही काफी

मेरा रहने की जनकारी 

के लिए नहीं चाहिए हरियाली

बिनरुके सपनों को की कमी नहीं

बिन प्यार के अंध आँखों के

आत्मरहित बांझ हृदय के 

फीके हैं हम फीके हैं। 

*****













तीन 

कीवाड़


कीवाड़ के पास साफ

सुतरा उसकी सलाइयों को 

कंदा लगाकर बाहर

देख लिया तो परिदृश्य

अधनंगा यह जगविस्तार

एक स्पेस के भीतर एक स्पेस

खोलते हुए खुल जाते हैं।

महीना महीना पिघलकर

दोबारा जन्म लेते हैं।


सुबह हो या सायंकाल

पेड़ों के पत्ते कलरव करते

जोरों से शोरगुल करते।


बारंबार नंगे बनती टहनियाँ

कुछ ही समय में हरित हो जाती।

हाथ फैले तो कीवाड़ के बाहर

मिलते टहनियों के बीच

झूलते हुए नक्षत्र पुंज।


कटोरी निमा रास्ते के गड्डों में 

तैरते अंदकार में

गीले गीले नक्षत्र सारे।

कभी हय़ँसकर बादलों में

ओझल हो जाता चंद्रमा।


घने बारिश को देखा गरमाते

घोर धूप बी देखा शीतलमय

सूर्य चंद्रद्वय ओझल हो के

अशीश देते मनभर कर।


जितना देखो उतना ही विशाल

रंगमंडप में चहलकदमी

के पात्र निरंतर।


देखते देखते

कल और आज का खेल, फिर

लौटकर खलबली मचाते

तोते पिंजड़े में

पत्ते उलटते ही रहा है। 


मुझसे बड़ा यह कीवाड

एपने बाहर के क लोक

भीतर एक लोक के

विभिन्न तरह के मोड़

बुने यह वास्तव देखता अनुभवी

द्वार बंद हो तो ओझल

यह छोटी सी दुनिया जब

मैं खोलूँ तो तभी गोचर फिर।

*****

चार 

कर खाए इतिहास


शिशु के गाल पर रश्मिरथी चुंबन 

सुख निद्रा की गहराई में

चेहरे पर चमकता नटखट

पिता के बंदूक की छोर की पकड़

माता के हताश आँचल में

सो गया था शिशु सुखनिद्रा में।


आवारा पंछी को नीड़ का आश्रय

घुमक्कड़ प्राणी को छांव का आश्रय

तुम्हें यहाँ कौन सा आश्रय बेटु?

भयावह औढ़नी के अधीन

मुरझा गया पुष्प मन

लालगुलाब के कोमल पंखुड़े

मरोड़कर निचोड़ने के समान।


मन चाहता है उन्मुक्तता

उड़ कर, सीमा पार

मजबूत सपनों के पंख

पंख नपसारे झुके हैं।

बिन सपनों के लावारिस हम।


सूरज झिझकते ऊपर चढते

जल्दबाजी में अस्तंगत होता यहाँ।

जड़ें भी निःश्वास छोड़ती यहाँ।

मौन भी कंपन करता है।


ठोकर खाए तिहास यहाँ

मुम्हारी दृष्टि ही विशाल

यह भूमि यह आकाश

लाल लाल सारा जहाँ

कंकर, पत्थर, मिट्टी यही लबालब।

क्षितिज से परे भी है एक लोक 

वहाँ है एक स्पर्शमणी 

बंदूक की छोर की रक्षा के सपने में

उस मणी के लिए इंतजार।

लक्ष्य बदल गया तो......

*****


पॉंच 

स्थानापन्न सूरज


पूरब की दिशा में प्रकाश नहीं आया

समय बीता फिर भी निकला नहीं सूरज

कहीं राह बदल गया होगा

यहाँ हर तरफ कोलाहल

बिन आवाज की तड़पाहट

बांबी में रहे सांप जैसे

मुरझे श्वासबंध सपने

पंखुडियों को खिलाने रुकी कलियाँ

आकाश देख रहे आतंक से

ध्वनियाँ पिघली अंधकार में

निःश्वास की धुन कैलास पहुँचे

शिव ने देखा झुककर

मगर आघात हुआ!

बिनरोशनी की धरती अंधकार कीचड़

मुरझे राख बनी हरियाली

विचलित करोड़ों आँखें

तदेक दृष्टि से हैं देखती।

शिव उठकर छुए त्रिशूल से 

पाताल के विकरालों को

पंचभूतों की ध्वनि कंपन कर रहीं।

अपने अक्ष से दूर निकले सूर्य को

लंगर डालकर खींचता,मस्त।

सूर्य को पकडा हथेली में

'यह देखो आप का सूर्य'

कहते बढ़ा दिए नभ में

सकल चराचर भीग गए

सूर्य प्रकाश में। मगर

प्रज्ञान ही नहीं पुराने सपनों के

सूर्य बदल गयाथा।

*****


छः 

सजीव घड़ी


कल के दिन यहाँ

मिट्टी की गंध थी

उसके साथ हरियाली आमोद

कमल के परिमल भी था

संभ्रम से खिलने वाले पूल

पंखुडियों के निनाद।

पंछियों का कलरव ध्वनि

समीर में बहते गूंजरही थी।

अब वह सारा इतिहास।


अब मुझे सुनाई दे रही है

सिंमेंट की धरती में धंसकर

हिंडोल करती पानी की लहरें,

चटपटाती शोरगुल से 

मछलियाँ जमीन के अंदर

जान बचाने के लिए।

रंगीन पंख के पुस्तक के

पृष्ठ पर सालों से सुभद्र है।


सभी शब्द निःशब्द में शामिल 

दिख रहे विचित्र मौन।

संचलन भी मौन... मौ...न...

छिप गई लहरों की ताड़न 

मार्दनी बनकर रात में

सुनाई देती। नीर की छाँव

भवनों पर नाच रही हैं।

विनाशकारी नाच।


अनदिखे पंछियों के रखवाले

आंखों के पीछे पड़े हैं

चुभ रहे हैं। सता रहे हैं।

वहाँ, उस खाई में फेंकी घड़ी

अभी भी जीवित है....

टिक... टिक... टिक... टिक...

*****

चित्र फेसबुक से साभार 


अनुवादक का परिचय 

परिचयः- कर्नाटक के वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में विशेषकर अनुवाद क्षेत्र में विशेष नाम के डॉ.प्रभु उपासे संप्रति सरकारी महाविद्यालय, चन्नुट्टण, जिला रामनगर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ.प्रभु उपासे जी का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा


जिला, तहसील इंडी के ग्राम अंजुटगी में हुआ। पिता श्री विठ्ठल उपासे तथा माता श्रीमती भोरम्मा उपासे। गांव में ही प्राथमिक शीक्षा पाकर श्री गुरुदेव रानडे ज्ञानधाम प्रौढ़शाला, निंबाळ, आर.एस. में हाइस्कूल की शिक्षा प्राप्त की। कर्नाटक विश्वविद्यालय से एम.ए तथा बेंगलोर विश्वविदायलय से डॉ.टी.जी प्रभाशंकर प्रेमी के मार्गदर्शन में "समकालीन काव्य प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में दिविक रमेश की काव्य कृतियों का अध्ययन" शोध प्रबंध के लिए पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की। आप ने कर्नाटक मुक्त विश्वविद्यालय, मुक्त गंगोत्री मैसूरु से एम.एड. की उपाधि प्राप्त की है।  

आपने विविध छत्तीस राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया एवं शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। अनुवाद क्षेत्र में गणनीय सेवाएं की है। कर्नाटक में हिंदी के प्रचार वं प्रसार एक अध्ययन विषय पर यूजिसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रैजेक्ट (20025-2007) पूर्ण की है। बसव समिति बेंगलूरु द्वारा प्रकाशित बसव मार्ग पत्रिका के ले पिछले बत्तीस वर्ष से लेख लिखते रहे हैं। इनकी अनूदित कृति "आत्महत्या, समस्याएँ एवं समाधान" कृति के लिए बेंगलूर विश्वविद्यालय द्वारा 2021 वर्ष का लालबहादुर शासत्री अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ है। नव काव्य प्ज्ञा फाउंडेशन द्वारा कई राष्ट्य पुरस्कारों से नवाजा गया है। प्रतिभारत्न-2023, साहित्य रत्न-2024, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2024 उल्लेखनीय हैं।

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