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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 दिसंबर, 2024

मीता दास की कविताऍं


एक 


मैं कोई खेत हूँ 













मैं कोई खेत हूँ ...

मैं कोई युद्ध भूमि हूँ

मैं कोई सीमा रेखा हूँ 

मैं कोई जमीन हूँ 

मैं कोई पुश्तैनी जायदाद हूँ


कि मुझे चीरा जाए 

फाड़ा जाए , लकीर खींच कर 

तेरा मेरा किया जाए 

पासे फैंक कर मेरा भविष्य निर्धारित किया जाए 


मेरे ही जन्मने से धरा पर 

अजन्मे से बुद्धि - विवेकहीन 

भीड़ बन जुटे रहे 

लक्ष्मण रेखा खींचते 

सीमा रेखा बनाते 

पासे पर दाॅंव लगाते 


हे वीर पुरुष 

मेरी ही गलती थी कि 

तुम्हे जन्म देते वक्त बल के संग जो वीर्य भी तुम्हें सौंपा था

उसे जल बना क्यों न दिया !!


गलत निगाह उठते ही तुम्हारी पुष्ट भुजायें

लिथड़ कर अवश हो जातीं और

वीर्य का नाचन 

खून बन तुम्हारी ही देह से झरे 

और देह नारी की अपने नाखूनों में इतना बल भर ले कि 

तुम्हारी देह से उस अंग को नोच ले 

चील - कौओं को खिलाने के लिए


हे नारी तुम उनकी देवी नहीं 

खुद की देवी बनो 

तुम पुरुषों को जन्म देना ही निरस्त कर दो 


तुम बाॅंझ बन जाओ 

तुम बाॅंझ बन जाओ 

तुम यकीनन बाॅंझ बन जाओ ....!!

०००

दो


मगरमच्छ माथा टेकता है 


माथा टेक 

रोने वाले  और  मगरमच्छ में भेद नज़र नहीं आता जनाब !


रिरिया कर , गरिया कर , नीचा दिखाकर 

खुद को काबिल बताने वाले 

दुम दबाकर कहाँ छुपे हैं नज़र नहीं आते आज जनाब ! 


स्कूल , ऑफिस कॉर्पोरेट जगत सब खुले 

पर दिन भर संसद में टेबल ठोंकने वाले 

चुने हुए परिंदे अब नज़र नहीं आते जनाब ! 


ठंड बीती , गर्मी की मार सही 

पैरों के मवाद सूख गए 

राह पर प्रसव पीड़ा झेलती माँ गुजर गई कईं 

मुर्दे अपने कफ़न को तरसते गल गए कई 

नाकामियों से पस्त हैं धन्वन्तरियाँ भी 


मगरमच्छ से बैर भी तो गुनाह है इस दलदल में

जैसे झेल रहे हैं वरवर और कई अर्बन नक्सली ।

०००











तीन 

मासूमों का स्वर्ग 

                  

अरकान से यमन , 

फ़िलिस्तीन ये सीरिया ,

सिर्फ और सिर्फ शिशु हत्याओं का उत्सव 

सीरिया के शिशु जब बनकर शरणार्थी 

समंदर के नमकीन जल में 

नाव सहित डूबकर मर रहे थे 

तब यमन के शिशु मर रहे थे 

सऊदी- अमेरिकी गठबंधन के बमबारी से 

जब सीरियाई बच्चे आईएस-विद्रोही-पश्चिमी गठबंधन 

और सीरियाई सरकारी बलों के क्रॉस फायर में मर रहे थे, 

तब यमन के बच्चे अकाल पर खाई में पड़ 

बिना आहार के मर रहे थे।

पृथ्वी पर स्वर्ग का एक टुकड़ा,

होता है दुनिया के बच्चों का शुद्ध , मासूम, मन

जिसे दूषित करने में , मृत्यु के भय को जिन्दा रखकर 

और भी वीभत्स और भयावह बनाने में हमने कोई कसर नहीं छोड़ी 

क्या कहेंगे हम की दोबारा जन्म लो 

दोबारा घुटनो - घुटनो चलो और हम बम दाग कर 

राइफल कानों से सटाकर 

तुम्हारे ही नन्हे अबूझ निगाहों के सामने 

तुम्हारी मां - बहनो को उठा लें और उनका बलात्कार करें 

जिससे और भी मासूम अवैद्य संतान जन्म लें 

फिर किसी ताकतवर के इशारे पर 

वापस गहरी , मूर्छित नींद तुम्हें सुलाकर 

अपनी ताकत का परचम लहरायें | 


पश्चिमी कद्दावर देशों के क्लस्टर बम, 

रासायनिक बम, विमान बम, तोप बम, 

ड्रोन के बमबारी से थर्राये मासूमों के चेहरे और चीथड़े 

क्या तुम सह पाते हो ? 

ऐ शर्मसार होती मानवता 

मासूमों को दो बख़्श दो यार | | 


मासूमों का स्वर्ग है उनकी माँ की गोद 

बख़्श दो उन्हें | | 

०००


चार

जवाहर टनल पर हो रही है बर्फबारी 

एक


जवाहर टनल पर हो रही है बर्फ बारी 

बेनिहाल के द्वार रुद्ध कर 

खड़े हैं हिम् हुए प्रश्न  !

खोजी दस्ते लगे हैं खोज में 

अलार्म बज रहा है खतरे का

सिपाही हैं तैनात 

और जवाहर टनल पर हो रही है बर्फबारी ।


बजेगा सायरन ( अलार्म )

पूरे पौने चार किलोमीटर लंबी सुरंग के भीतर 

पर आवाज मुहाने तक आकर जम जाएगी 

क्योंकि बेनिहाल के द्वार है रुद्ध 

जवाहर टनल पर हो रही है बर्फबारी ।।


आग उगलते अक्षरों और हिमालय पर सूर्योदय को 

जमता हुआ देख रहे हैं अखबारों में सुर्खियों में हम

रक्त पिपासु है कलम मीडिया की

जमाखोरी में लीन जमाखोर 

कौन भागा बर्फ बेच 

उस पार ...........

और किसकी गली हुई देह आई 

`इस पार ............


खामोश है भाषा का दानव 

अपनी - अपनी आत्मा छुपाये 


नर्म - नर्म बर्फ बारी में 

आग उगलते अक्षर 

रो रहे हैं 

सड़ी गली देह पर 


जवाहर टनल पर हो रही है बर्फ बारी 

बेनिहाल के द्वार रुद्ध हैं 

खड़ी है , खड़े ही रहेंगे 

हिम् हुए प्रश्न 


खोजी दस्ते भी आज 

जमी बर्फ में गुम हैं !!

०००



दो

   

हटा है तीन सौ सत्तर

और 

जवाहर टनल पर हो रही है बर्फबारी 

गुलमर्ग है स्वर्ग 

बर्फ का ठंडा एहसास 

इन बर्फ़ों के तले 

धधकती हैं ज्वालायें 

जब - जब हो रही होती है बर्फ बारी 

बढ़ जाती है भीतरी तपिश इनकी भी 


चिनार सफेदी ओढ़

झेलम में कूद कर ली आत्महत्या 

ऐसा महसूस होता है 

घरों के ढलुआ छत पर जमी हुई है बर्फ 

बंदूकों की नली में बर्फ उदास बर्फ 

डरी - सहमी फ़ातिमा 

दो चोटी गुंथा हुआ है महीनो से 

स्कूल जाने को तरसती 

गले में बर्फ का गोला रख  

चुनमुन ठुमकता 

फौजी वाली गन चाहिये 

सफेद बर्फ के गोले के बदले 

उसे नहीं समझ 

होता क्या है 

कर्फ्यू  .... 

पर बंदूकची ढेर समझते हैं 

लाल - लाल निगाहों वाले पर 

अब उन लाल आँखों में भी 

जमी हुई है बर्फ   .... और 

होंठों पर बर्फ जमा ली है उन्होंने 


जल में बर्फ 

     नल में बर्फ 

          डल में बर्फ 

            शिकारों ने भी डल में कूद कर ली आत्महत्या ।।


स्तब्ध सी रूह उन शरणार्थियों की 

क्या यही है 

उनका स्वर्ग ! 

तीन सौ सत्तर का या 

तीन सौ सत्तर के बाद का !!

०००




चित्र 

आदित्य चड़ार









पॉंच 

 कविताऍं बतियाती हैं, चुपचाप ! 


कविताऍं बतियाती भी हैं, 

गुनती भी हैं इतिहास , 

चुपचाप ! 


कब किस इतिहास के पन्ने पर था बिम्बिसार 

कहाँ थीं मोहन जुदाड़ो की खंडित मूर्तियाँ 

या 

किस क्षण सिन्धु शब्द परिवर्तित हुआ 


हिन्दू शब्द में 

राम जन्म अयोध्या में और बाबर ने 

कब विध्वंस किया मंदिर 


मुझे क्यूँ महसूस होता है कि 

वहॉं एक झील थी 

शायद वहां खिलते थे कमल , फ़ैल जाती थी जलकुम्भियाँ 

क्या वहॉं किसी ने जलाये थे दिये ? 

क्या किसी ने सुनी थी अजान शांत मन से ??

कविताएँ बतिया रही हैं 

गुन रही हैं इतिहास  .... चुपचाप 

०००

 


स्टालिन , बुद्ध , मुसोलिनी न सद्दाम 


लिखो 

यदि लिखनी ही पड़े 

हिटलर की मूॅंछों के बारे में नहीं 

लिखो उसकी प्रेमिका के टूटे हृदय की झॅंकार लिखो 

लिखो हिटलर के जहर मिले भोजन को खाने वाली उस महिला के साहस की व्याख्या,

चिन्हित करो 

बुद्ध के वियोग में यशोधरा का विलाप 


उद्धरण हैं बिखरे 

मार्क्स , माओ , लातिन या मार्किन युग

हंगेरियन  या कह लें हंगरी युग  ...... अकाल 

अकालेर सॉनधाने के  सत्यजीत रे  ...... ... 

कभी सद्गति में प्रेमचंद को पुकारते रहे 


रवि बाबू के चार अध्याय की एला

खुले पन्नों से झांकती है

जिसे देश की स्वाधीनता के साथ ही 

नारी मन की भी स्वतंत्रता चाहिए 

और नष्ट नीड़ की माधवी दूरबीन के छोटे से लैंस से 

देखती बाहरी अंजान विस्तृत जगत को 

विस्फारित नजरों से 

दर्शक मन्त्र मुग्ध से गहरे उतरते - चढ़ते 

साहेब बीबी और गुलाम का वह भग्न स्तूपों तले दफ़न 

जर्जर , धूल धूसरित हाथ का कंगन और कंकाल 

यह सब चित्र नहीं शब्द हैं 

इन्हे शब्दों में चित्रित किया हैं

ये इतिहास हैं या कविता - कहानियों की शब्द - कलियाँ 

लोर्का , गार्शिया मार्खेज़ , नजीम हिकमत 

कविताओं के

पन्नों में

 करते है आवाजाही  ..... चुपचाप !

और वह

 इथोपिया का नग्न क्षुधार्थ शिशु की तस्वीर 

पुलित्ज़ार पुरष्कार प्राप्त केविन कार्टर

दुखित हो अनगिनत रातें 

जिसने

जाग कर काटी

और आत्महत्या कर ली 

लिखना है तो लिखो यह पाशविकता 

या उससे ज्यादा लिखो उसके मन में

उपजी मानवता को | 

बार - बार हम लिखते हैं इतिहास और क्यों लिखते है वर्तमान ?

लिखो उस क्षुधार्थ नग्न शिशु की बात 

लिखो उस भूखे गिद्ध की बात 

लिखो उस नग्न बच्चे की घटित होती मृत्यु 

लिखो उस गिद्ध की भूख को 

लिखो उसकी तृप्ति को


लिखो केल्विन की कलात्मकता को 

भूख को परिभाषित करते दृश्य को

लिखो

वह पाशविक था या मानवीय

इसे इतना लिखो कि

स्याही ही शेष न रहे || 

०००

छः 


गुल्लक


बड़ा कठिन समय है यह 

जब मुनिया 

मुन्नू - चुन्नु की गुल्लक तोड़ी जा रही है 


शताब्दी खड़ी है सम्मुख 

देना पड़ रहा है हिसाब 

अपनी जमा राशि का ही नही 

उन मुस्कुराहटों का भी जब 

पापा दफ्तर से लौटकर रेजगारियां धर देते थे मुस्कराहट के संग 

देखने को आतुर रहते चुन्नू की मासूम मुस्कुराहट 

गिनता मुन्नू भी अपनी हथेलियों की गर्माहट को 

यह गर्माहट उस मजदूर के पसीने की थी 

जिसे आज दिहाड़ी मिली थी 

कहता बापू बस इत्तो सेई ?

दुलारता हुआ ठंडी सांस का हिसाब रखता है गुल्लक भी 

हाँ बाकी अगले सनीचर को 

मुनिया रोई 

माँ तुमने चुपके से मेरी गुल्लक क्यों तोड़ी 

कब ? माँ ने इंकार किया बेमन से 

उस दिन जब बुआ लोग आये थे 

माँ की आँख में आँसू तैर गये 

मुनिया बोली अब न कहूँगी 

बाबा एक तारीख को नई गुल्लक लाएंगे 

लाएंगे न माँ ?

गुल्लक चुप 

इतना लंबा इंतजार 


गुड़िया की हर माह , हर हफ्ते नई गुल्लक 

पिगी बैंक सब फुल्ल ! 

गुड़िया की पिगी बैंक नहीं खँगाली गई

नहीं तोड़ी गई गुड़िया की गुल्लक ,

गुड़िया आज फ्लाईट से जा रही है अमेरिका 

डिज़्नीलैंड , उसके हाथों में है गुल्लक 

खड़ी है सिक्युरिटी चैकिंग के लिए 

चैकिंग बेल्ट पर नही हुई कोई आवाज 

गुल्लक में सिक्के नही , नोट थे 

चिल्हरों को बेल्ट पकड़ लेती है 

नोट को बाहर धकेल देता है 

गुड़िया खुश है अपनी गुल्लक पाकर 

गार्ड बोला बेबी जाओ 

गुड़िया ने थेंक्स कहा 

उसका चेहरा दिपदिपा रहा था 

डिज़्नीलैंड , डिज़्नीलैंड 

गुल्लक अभी तक उसके नन्हे कोमल हाथों के घेरे में थी 

आँखों में एक तसल्ली की चमक । 


मुनिया 

चुन्नू - मुन्नू 

की ही गुल्लक क्यों ???


प्रश्न है 

शताब्दी से ! 

०००



चित्र 
शशिभूषण बढ़ोनी 










सात 

एक बैठी - ठाली औरत  


जरा बैठी है 

एक बैठी - ठाली औरत 

 

क्या कहा सुनाई नही पड़ा ?

जरा बैठी हूँ  ...... करीब आकर कहो 

बैठी हो ? ..... तुम तो अंट - शंट किताब पलट रही हो 

और यह टीवी भी बेमतलब म्यूट कर रखा है , 

जब देखना ही नही तो कर दो ऑफ 

खामख्वाह ही .....


जरा बैठी ही थी सुकून से वह बैठी - ठाली 

लेकिन यह कैसा शोर 

बिल्ली हो शायद !

देखा दूध जमीन में फैलकर जगह बना रहा था 

दिशा ढूॅंढ नही रहा था धार देख हम बता ही सकते है कि

उधर ढाल है 

बैठी - ठाली ने सोचा मन ही मन 

क्या हम दूध भी नही !

सिर्फ स्तन दायिनी भर हैं ,

पर हम किसी सार्वजनिक स्थल पर सुकून से 

स्तनपान भी तो नही करा सकते बैठे - ठाले 

ढूंढना होता है एक सुरक्षित कोना , 

एक भूखे रिरियाते बच्चे को चुपाते हुए 

न .... न ... बेटा रोते नई हैं न .... एक मिनट 

यह सब दुधमुंहा कहाँ बूझता है , यह इशारा होता है 

उन बेशर्म, नासमझ उद्भट कापुरुष जत्थों  के लिए 

उठकर वे फिर भी नही जाते 

जाती हैं ये बैठी - ठाली ही 

घूरते हैं ऐसे जैसे व्यंग बाण के संग चूस जाना चाहते हैं 

वे भी 

दूध मुंहे के हिस्से की चंद बूँदें 

बैठी - ठाली बूझती है सब कुछ 


बैठी - ठाली बैठे - बैठे ही 

बूझ लेती है अम्मा की गठिया , ससुर की खांसी , ननद का पीटा जाना 

बैठी - ठाली गुल्लक गिन लेती है मन ही मन 

अबकी बेटा लौटेगा तो गिनकर चंद रुपये धर देगी उसके हाथ 

कहेगी अपना भी जमा इसमें जोड़कर भेज देना बुआ को 

बैठी - ठाली ने सोच रक्खा है इस बार अम्मा को लिवा लाएगी कात्तिक में 

०००


परिचय 

जन्मतिथि - 12 जुलाई सन 1961, जन्मस्थान - जबलपुर मध्यप्रदेश, स्थाई पता 63/4 नेहरू नगर वेस्ट , भिलाई, छत्तीसगढ़ 490020 

सम्प्रति - जसम भिलाई पूर्व अध्यक्ष एवं तत्कालीन संरक्षक , बंगीय साहित्य संस्था भिलाई की संरक्षक , मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की सदस्य , भारतीय अनुवाद साहित्य की सदस्य | 

पुरस्कार और सम्मान--खूबचंद बघेल सम्मान , राष्ट्रभाषा प्रचार प्रसार समिति से महात्मा गांधी सम्मान , बांग्ला में - कवि रवींद्र सूर सम्मान । बांग्ला साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ से सम्मानित , प्रेमचंद अगासदिया सम्मान , अनुवाद के लिए सप्तपर्णी सम्मान। 

अब तक मेरी बांग्ला भाषा से हिंदी में नवारुण भट्टाचार्य की प्रतिनिधि कविताओं के अनुवाद प्रकाशित  बांग्ला से हिंदी और हिंदी से बांग्ला में कई काव्य संग्रहों और कहानियों, उपन्यासों का अनुवाद किया है ।

1. नवारुण भट्टाचार्य की प्रतिनिधि कविताओं का बांग्ला से हिंदी अनुवाद किया, ज्योति पर्व प्रकाशन से प्रकाशित हुई।

2. हिंदी के चुनिंदा कवियों की कविताओं के अनुवाद बांग्ला में भाषा बंधन (कोलकाता ) प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

3. जोगेन चौधरी की कविताओं का अनुवाद - अंधेरे में उजाले का फूल, बांग्ला से हिंदी में इण्डिया टेलिंग प्रकाशन से प्रकाशित हुई।

4. जोगेन चौधरी का संस्मरण का अनुवाद बांग्ला से हिंदी में मेरे गांव की पूजा इण्डिया टेलिंग प्रकाशन से प्रकाशित हुई।

5. सुकांत भट्टाचार्य का समग्र अनुदित... प्रकाश की ओर 

6. अग्निशेखर की हिंदी कविताओं का बांग्ला में अनुवाद, संकलन का नाम संग्रहालय काटा पा भाषा संसद (कोलकाता) से प्रकाशित।

7. उर्मिला शिरीष का हिंदी उपन्यास "खैरियत है हुज़ूर" का बांग्ला अनुवाद भाषा संसद (कोलकाता) प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।

8. चुनिंदा हिंदी कहानियों का संकलन बांग्ला में " काठेर स्वप्न " भाषा संसद (कोलकाता)प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

9. चुनिंदा हिंदी कहानियों का संकलन बांग्ला में "समकालीन हिंदी गल्प" भाषा संसद (कोलकाता ) प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

10. "खोई हुई चीजों का शोक " सविता सिंह के हिंदी काव्य संकलन का बांग्ला अनुवाद भाषा सांसद ( कोलकाता से प्रकाशित हुई है।

11. "एक नारीवादी की कहानी " बांग्ला उपन्यास हिंदी में अनूदित की है, प्रकाश की ओर 

12 . सियार पंडित की राम कहानी ( बच्चों के लिए ) बांग्ला के प्रसिद्ध रचनाकार उपेन्द्रकिशोर राय चौधुरी के कुछ कहानियों  के अनुवाद प्रकाशित हुआ है । 

13 .  स्वयं की 2 काव्य संकलन बांग्ला भाषा में प्रकाशित हुई है ।

14 . देश द्रोह की हांड़ी काव्य संकलन { हिंदी में स्वयं की }

इसके अलावा हिंदी और बांग्ला के अनेकों पत्र - पत्रिकाओं में मेरे अनुवाद छपते हैँ यहाँ तक की  बांग्लादेश की पत्रिकाओं में भी हिंदी से बांग्ला में अनुवाद किये और वे प्रकाशित हुए है ।

विशेष -- हिंदी शार्ट फ़िल्म -**आभा** में अभिनय भी किया है ।

स्थाई पता - 63/4 नेहरू नगर, भिलाई, छत्तीसगढ़। पिन - 490020

फोन नम्बर - 9329509050

25 दिसंबर, 2024

सुनील कुमार की कविताऍं


एक 


स्त्री का जाना 


साधारण नहीं है 

स्त्री का जाना मानों 

हरे पेड़ पर 

गाज का गिर जाना हो

पहाड़ का टूट जाना हो 

आकाश का टूट जाना हो

सूरज का डूब जाना हो 













स्त्री का जाना 

साधारण नहीं है 


स्त्री का जाना मानों 

खिले हुए कमल का 

सरोवर सूख जाना हो

नदी का प्रवाह रुक जाना हो 

हवा का टूट जाना हो

सुबह में घनी धुंध का छा जाना हो 


स्त्री का जाना 

साधारण नहीं है 


स्त्री का जाना मानों 

घूमती हुई पृथ्वी की 

कील के पहिए का उतर जाना हो

मर्द की छाती का उखड़ जाना हो

संसार का उजड़ जाना हो


स्त्री का जाना 

साधारण नहीं है

०००


दो


शहर



पान खा रहा 

पगुरा रहा

शहर 


मार रहा जहर की

लंबी पीच

नदियों पर 

शहर 


धुल रहा हर सुबह 

घाट पर अपना मुंह 

शहर 


दे रहा तिलांजलि अपनी

हर रोज आंसुओ से 

 शहर 

०००


तीन 


गीत 


बतियाती नदी थी

हंसती गाती जेठ में 

आती नदी थी 

गेहूं धान सरसों से 

बतियाती नदी थी


चिरइ चुरुंगु चउआ

आके प्यास बुझाते

रेत खोद के किनारे 

पंख तानके नहाते 


अपना आंचल खेत में

ओढ़ाती नदी थी


मंथर मंथर नाव चलती

मोड़े धारा से पतवार

क्लांत श्रांत पथिकों को 

पार कराता था घटवार


गांव नगरी की तासीर को

जान जाती नदी थी


कट गयी जड़े उद्गम की

सूख रहीं हैं सारी नसें 

छटपटाये रह-रह कर

कांकर के बीच धंसे 


चिरचुप्पी हो गयी तब से 

उफनाती नदी थी

०००


चार


वृक्ष गीत



चल रही आरी

जंगल से भागे बाघ सभी 

चल रही आरी

मच गया हाहाकार वहां 

पेड़ मारे गोहारी


पत्ता-पत्ता डाली-डाली 

तना खून से रंग गये

अंडे फूटे बच्चे बेघर 

जंगल छोड़ विहंग गये 


कांपते पेड़ सोच रहे हैं 

अब मेरी बारी


चित्ती कोबरा अजगर 

गांव शहर सरक गये 

मेघ सूखे पवन मरी 

नग्न पर्वत दरक गये


नभ में छेद बढ़ता जा रहा है 

दिखे नाशकारी


विछी पेड़ो की लाशे 

मानों हुआ नरसंहार 

अपनी सांसें काट रहा

यही मानव की हार


ताकतवरों के सामने 

विवश धनुषधारी

०००










पॉंच 


विंटीलेटर में है पहुज नदी



पहले दौड़ती थी अंधेरे में 

दिया लेकर हथेली में गुनगुनाती पहुज नदी

पेड़ में अटके हुए सूरज को उतारकर 

खिलाती रोज चीनी भात

चूमकर माथा 

करती विदा 


चलता था झांसी का इंजन 

भोर की भाप से 

दिखता था चुल्लू में सूर्याकाश की परतें 

झुंक कर पानी पी लेते पेड़ पत्तों को 

दोना बनाकर 

नहा लेते पखेरू पंखों से बूंदे उछालकर 

 

भरी थी पहुज नदी घिनौची घड़ों में 

झांसी की नसों में 

बह‌ जाती आंखों से भी 

किरकिरी समेटकर


झांसी की थी श्वासनली

अब बन गयी संकरी गली 

बिंटीलेटर में है पहुज नदी

सुसुक रही है 

धीमी है धड़कन 

बोल नहीं पा रही

लुंज हो गई धार 

गल गया आकार


दबी है पहुज नदी की छाती और मुंह 

कूड़े की बोरियों से

माटी की मूर्तियों से 

मानों कोई हत्यारा 

कत्ल कर रहा हो तकिया से मुह दबाकर 

जहरीला इंजेक्शन लगाकर


बजबजा रही 

बन गयी कूड़ागाह

मानो उग आया हो कूड़े का पहाड़

जिसमें तलाश रहे हैं संजीवनी बूटी 

कूड़ा बीनने वाले बच्चे


घिनाते हैं छूने से 

मुंह बनाते

बिचकते हैं 

पहन लेता है मास्क 

सभ्य समाज पहुज नदी को देखकर 

बना दिया अछूत 

बसा दिया 

दक्षिण में बसी बस्ती की तरह 

०००


छः 


पियरा माटी


चला जाता है ओदार के 

चउमास हर साल

चउटी

अंगनाई

दीवारें

पटनई फोर के भर जाता पानी बरोठ में


भखल जाती दीवारें 

उधिर जाते पपरा

छपट जाते छपरा

सरक जाते खपरा

खुल जाता मथौथ

सांसा हो जाते ठाठ में

जहां से झांकने लगता सूर्याकाश 

 

खोद लाती है अम्मा

भीटा से 

ताला से 

पियरा माटी

जिसे गोबर में सानकर

छापती/लीपती /पोतती है

दीवारें

चउटी

अंगनाई 

पटनई 

बनाती है पुतरा कुंआर में

मुहारा के अगल बगल 


लगने लगता है पियार 

अपना माटी का महल सोंधाई लिए 

कातिक की उंजेरिया रात में

अंगनाई लेती है अंगड़ाई

उतर आता है आकाश 

जी जुड़ाने 

चुंबन लेने


जड़ जाती हैं सगल

तैरने लगती हैं तरईया घिनौची में 

टंग जाती है शीशे की तरह ओरिया में जुंधईया

जिसमें दिखाई देता है जीवन सौंदर्य साफ-साफ 

सतर से तर कर देती गंध मीठी नीम/गेंदा की


लेटे -लेटे खटिया में गिनते थे तरईया

आगे बढ़ते तो भटक जाते

पीछे आते तो अटक जाते

कोई नहीं गिन पाया अभी तक तरईया

फेल हैं सब गणितबाज इस गणित में 


खेलमंडल था सबसे बड़ा 

जिसमें कई खेल समाये थे

चंदापउआ

बड़ीमार

खेल‌ लेते थे

मन और आंखों से तरईया उछालकर

पहेलियां जनाते

'टाठी भर लाई, सगल बिथराई'


सुकुवा जब उगता तो

पंडित पुरोहितों के पत्रा फड़फड़ाने लगते

ऐसे दिखता मानों 

पास के पेड़ में दिया जल रहा हो


हन्नी हन्ना का रागरस छिटक जाता 

घुल जाता पियरा माटी में

गदरा जाती 

गमक उठती लेकर सोंधाई

जिसके सामने फीके हो जाते उपवन और सब्जबाग 

समा जाती हमारे सांसो में

लेकर महासुख 

०००


सात


सीला


बाजरा अंट पाता तो कभी नहीं 

बनी से 

अगहन पूस माघ तक

खाने के लिए 


महुआ की डोभरी खा-खाकर 

होरा भूंज-भूजकर

शिलिया काट लेती थी

फागुन के रंग में बदरंग घरी 

जठराग्नि के अंगार में चलकर


पेट दाबकर अपना शिलिया 

दो चार झापड़ मारकर बालकों को

सुला देती थी

छूंछ स्तनों को

चुभुर -चुभुर करता था दुधमुंहा 

सुबह होते ही छिटवा लेकर

डहरा ले जाती साथ में बालकों को

महुआ बीनने और चूसने 


चैत में पहुंचते ही

मिलने लगता अधियां बंटाई में 

सीला बीनने को 

चना की घेंटी

कठिया की बाली 

बिनती मांग पकड़कर

जुहाती 

लगा देती ढेर बरोठ और चउपार में

जब तक चना और कठिया कटता


कूट फटककर 

पीसकर जांत में 

प्याज और डरा नून से

जो हीरे की तरह था

पहले निवाले से बच्चों का पेट भरती

फिर आधा पेट अपना 

टांचके एक लोटा पानी पीती 

पेट डम्म


अगली सुबह फिर वहीं ले जाती

साल भर अंटाने के लिए

सूनी मांग लिए 

शिलिया को सीला बीनने

मांग पकड़कर

०००

आठ


तुम्हारी स्मृति ही तुम हो 


एक


तुम्हारी स्मृति ही 

अब संसार है 

जीवन है 

दुःख का सागर कहो 

या सुख का पोखर


तुम्हारी स्मृति ही 

पहिया है जिसकी गति 

अपने पहिया में करके समाहित 

करुंगा तेज सूर्य की तरह 

चलूंगा 

दौड़ूंगा 

चल रहा था जिस रास्ते में 


तुम्हारी स्मृति ही 

मेरे पंख हैं

उड़ूंगा आकाश में 

तुम्हारी तीनों निशानी लेकर 


तुम्हारी स्मृति ही 

शक्तिसौंदर्य है 

गढ़ूंगा स्वपन 

जो तुमने देखे थे मेरे साथ मिलकर 

उसी में खोजूंगा 

अपनी और तुम्हारी मनात्म की शांति 


तुम्हारी स्मृति ही 

तुम हो

जिसे दबा कर छाती में 

रहूंगा जिंदा अपने समय तक 

क्योंकि तुम्हारा प्रेम 

अथाह से आगे उतर गया 

अनंत प्रेमकुंड में 

०००












दो


तुम्हारी देह गयी है 

तुम नहीं 

मिली हो मुझमें 

पानी में पानी की तरह

सांसों में पायल खनका के

निरंतर आवाजाही है तुम्हारी 

छाती में खनकती हैं चूड़ियां 


रात में खाली विस्तर 

पर दिखती हो 

शाम सुबह शांत किचेन में 

दिखती हो

बच्चों के तेल काजर कंघी के वक्त 

खालीपन में दिखती हो

कालेज जाते वक्त 

टिफिन भूल जाने पर दिखती हो 

कालेज से आकर तखत पर ढह जाने बाद 

दरवाजे मे दिखती हो


दिखती हो 

बाजार जाते- आते 

थके हारे समय 

जब जाड़े में 

पसलियों में ठंड का होता हमला

किसी परेशानी में होता

दिखती हो हर वक्त 


किससे कहूं अपना दर्द 

लिखता हूं इसलिए 

कविता से कह देता हूं 

किंतु बच्चे न लिखते 

न कह पाते 

स्कूल से आने बाद 

मां की छाती न मिलने से 

चीर कर अनंत सन्नाटे में भांय-भांय की ध्वनि

मेरी छाती में खोजते मां की अनुभूति

फिर भी तुम निरंतर उनके साथ हो

मां की तरह अदृश्य निराकार 

जिससे वे खेलते खिलखिलाते हैं

०००



परिचय 

पिता-श्री मुंशीलाल, माता -कुसुम देवी,पत्नी -कृतिका देवी,ग्राम -अतरौली माफी जनपद चित्रकूट में जन्म। शिक्षा: स्नातक ,इलाहाबाद
विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, स्नातकोत्तर (हिन्दी) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी, पी-एच.डी. , महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय, चित्रकूट (म.प्र.),

 यू.जी.सी. नेट, नई दिल्ली।

शोध प्रबंध : संजीव के कथा साहित्य में चिंतन के विविध आयाम: एक अध्ययन।

रचनाकर्म: कविता, गीत, कहानी, नाटक, उपन्यास, संस्मरण आदि।

काव्य संग्रह: 'वेंटिलेटर में है नदी' (प्रकाश्य)

गीत संग्रह: 'चल रही आरी'( प्रकाश्य)

बघेली गीत संग्रह: 'दारू मा डूब गे गांव रे' (प्रकाश्य)

संस्मरण: 'माटी का महल' (प्रकाश्य)

कहानी संग्रह: पंगत (प्रकाश्य)

 'पंगत', 'परिकथा' पत्रिका में जनवरी 2025 अंक में प्रकाशित। 

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर अनेक लेख एवं रचनात्मक साहित्य प्रकाशित। झांसी आकाशवाणी में कविताओं 

का प्रसारण।

अध्यक्ष, प्रगतिशील लेखक संघ जिला इकाई चित्रकूट। इप्टा से जुड़ाव

मई 2023 में तिरहार जनपद चित्रकूट में 'नशा छोड़ो शिक्षा जोड़ो' अभियान चलाकर दस गांव की पैदल यात्रा की। एक जगह हमले का शिकार भी हुआ।

हाशिए में पड़े लोगों को मुख्य धारा से जोडने के लिए  सामाजिक संगठनों में सक्रिय भूमिका।‌

'कृतिका कोख सुरक्षा फाउंडेशन' का संचालन। सर्जरी प्रसव उन्मूलन अभियान 

संप्रति: हिन्दी शिक्षक, श्री गांधी ग्रामोद्योग इंटर कॉलेज, भरोसा, झांसी(उत्तर प्रदेश)

मोबाइल:9219301138

 sunilchitrakooti80@gmail.com

22 दिसंबर, 2024

भानु प्रकाश रघुवंशी की कवाताऍं

 

एक


न मिले कोई और जन्म 


गाॅंव खेत परदेश मैं जहा भी मरूॅं

खेत की मिट्टी ही बनू


नदी कुऑं तालाब का पानी बहता रहे मेरी देह पर 

बारिश लौटती रहे बार-बार

मेरी आत्मा की तृप्ति के लिए




चित्र 

रमेश आनंद 










सूरज के ताप से हो जाऊॅं और अधिक उर्वरा

और अधिक उपज के लिए ,

फसलों में रहूॅं सत बनकर ,लहलहाऊॅं हवा के स्पर्श से

मेढ़ पर हरियाते पेड़ों से हो मेरी पहचान


मैं रोज-रोज चाॅंद की रोशनी में नहाऊं

ओस से भीग जाऊॅं

मेरे वंशज मेरी छाती पर हल चलाते हुए

किसान होने पर गर्व महसूस करें 


जबतक आदमी के पेट में भूख रहे,

गांव खेत परदेश मैं जहाॅं भी मरूॅं 

खेत की मिट्टी ही बनू।

०००

       

दो


 मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है 


ख़ुद ही ख़ुद से बात करना

बड़बड़ाते हुए ख़ुद ही ख़ुद को देना

अपने प्रश्नों के जवाब 

खीझना ख़ुद पर ही

और फिर

खुद ही खुद को साॅंत्वना देना,

ऐसा कितनी बार हुआ है आपके साथ

मैं नहीं जानता

पर मेरे साथ तो अक्सर ऐसा होता है।


दिसम्बर की सबसे ठंडी रात में

जब पाइप लाइन में पानी जम जाए 

और ठिठुरन भरे हाथों से अलाव जलाने में

ख़त्म हो जाएं सारी तीलियाॅं

तब खीझ पड़ता हूॅं बर्फ़ बन चुके पानी पर

रीत गई दियासलाई पर

गीली जलावन की लकड़ियों पर

और उस लाइनमैन पर भी 

जो ठीक रात बारह बजे ही करता है 

पावर सप्लाई ऑन।


जब एक-एक पौधे को सींचता हूॅं

एक-एक दाना बीनता हूॅं खेतों से 

छटका-फटका अनाज बचाकर 

पहुॅंचता हूॅं गल्ला मंडी

जब सेर दो सेर अनाज परखने के नाम पर ही 

बिखरा दिया जाता है ज़मीन पर

जब लागत से भी कम दाम पर

अनाज,फल,सब्जियाॅं ख़रीदने को 

आतुर दिखते हैं व्यापारी

तब खीझ तो होती है न

इस दोगली व्यवस्था पर 

इस व्यवस्था को चलाने वाली सरकार पर,

ख़ुद ही ख़ुद से पूछता हूॅं एक सवाल कि 

माॅंग और पूर्ति का नियम हमारी फ़सलों पर

क्यों हो जाता है बेअसर।


कार्पोरेट के अदृश्य षडयंत्र में उलझकर

इतना अंधविश्वासी और आस्तिक हो चुका हूॅं 

कि मंडी जाते हुए रीते घड़े लिए कोई स्त्री गुजरती है

सामने से 

या काली बिल्ली रास्ता काट जाती है

या छींक दे कोई अगल-बगल

तो खीझ पड़ता हूं उसपर भी

या उस भगवान पर 

मेरे कोसने से जिसके होने का दावा 

और मजबूत हो जाता है।


ख़ुद ही खुद से बात करते हुए

कुरेदता हूॅं अपने ज़ख्म 

मरहम भी लगाता हूॅं अपने ही हाथों

सोचता हूॅं मैंने क्यों अपना हक़ नहीं छीनना सीखा,

क्यों नहीं कहा कि मेरा भी एक परिवार है खेती भरोसे 

मेरे बाल-बच्चों के तन पर भी पेट है 

जिसकी तस्वीर टाइम्स मैगजीन के मुखपृष्ठ पर छपती है

यदाकदा 

मैंने नहीं कहा कि किसान औरतें 

एक साड़ी में गुजार देती हैं दो-तीन वर्ष

खीझ तो होती है जब कोई नायिका स्क्रीन से बाहर आकर 

पत्नी से पूछती है 

मेरी साड़ी तुम्हारी साड़ी से सफेद क्यों?

जबकि मैंने उससे कभी नहीं कहा 

कि फास्फोरस से नहीं 

अपनी हड्डियां घोलने से बनते हैं 

अन्न के दाने चमकदार।


खीझ तो होती है जब 

चौदह-पंद्रह किताब पढ़ा बेटा घर आ बैठता है 

गोबर उठाने में शरम आती है उसे 

कहता है राजनेता बनूगा, खूब पैसा कमाऊॅंगा।

मैं बेटे से पूछता हूॅं 

वही बनेगा जो बंदरों-सी उछल-कूद करते हैं 

गालियाॅं बकते हैं 

स्वार्थ , लिप्साओं और बहुमत की दम पर 

कानून पलटते हैं संसद में जाकर 

क्या वही बनेगा तू 

जिनका आमजन के प्रति दीमकों-सा आचरण हो जाता है 

संविधान की शपथ लेकर।


मैं अपने खेतों में सपने बोता हूॅं 

सपने ही काटता हूॅं 

जो आप तय करें उस दाम पर बेचता हूं सपने ही 

पर खीझ तो होती है जब हर उत्पाद का 

मूल्य तय करता है उत्पादक ही 

तब हमारी फसल के दाम 

सरकार और आढ़तियों के रहमो-करम पर क्यों?


ख़ुद ही ख़ुद से बात करना 

ख़ुद ही ख़ुद से जवाब पूछना 

मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है 

आपके साथ कितनी बार हुआ, मैं नहीं जानता 

पर किसानी के भविष्य को लेकर मेरा उत्तर 

आपको चिंता में डाल सकता है 

कि डायनासोर के होने तक 

जितनी उम्मीद डायनासोर के बचे रहने की रही होगी 

मुझे इतनी ही उम्मीद है किसानी के बचे रहने की।

०००


तीन


किसान 


मैं, सिर्फ एक शब्द हूॅं 

जिसके दम पर बनती-गिरती हैं सरकारें।


मैं एक योजना हूॅं 

जिसे लागू करते ही सवर जाता है

कितने ही राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी

कर्मचारी और चपरासियों का भविष्य।


ठूॅंठ होता जा रहा एक पेड़ हूॅं मैं

जिसकी जड़ों से चूस लेता है कोई और 

मेरे हिस्से की नमी

ओढ़ लेता है मेरे हिस्से का उजास।


मैं एक बाजार हूॅं 

जहां नयी-नयी कंपनियां,नये-नये आविष्कार आते हैं

लोन पाॅलिसी के कांधे पर चढ़कर,

विधवा के ब्लाउज का ऊपरी बटन हूॅं 

जिसके जल्द टूटने की आस लगाए

बैठा रहता है साहूकार।


तिरंगे में सबसे नीचे

मध्य चक्र की कई तीलियों का भार सहता

हरे रंग की पट्टी /मैं इस भूमि पर

आबादी का सत्तर प्रतिशत भार हूॅं।


अन्नदाता...?

नहीं! नहीं!!

किसान हूॅं मैं।

०००




चित्र 

आदित्य चढ़ार









चार 


यांत्रिक अभिलाषाऍं

------------------------

यांत्रिक जंगल के ऊंचे दरख्तों पर

पुष्प लताओं सी लिपटी हुई हैं मेरी अभिलाषाऍं

बेहतर से बेहतर फसल उत्पादन की

जरूरत के नीचे दब-कुच गई बैल-बछड़ों की जरूरत

पुरानी मशीनों को चला सकने की इच्छाशक्ति

दम तोड रही है

नई तकनीक से बने कृषि औजारों के आगे


जब नहीं सजता था किसानों के लिए कोई बाजार

जब नहीं बने थे उन्नत कृषि औजार 

कि पलट सकें जमीन की कठोर परत

तब जमीन भी नहीं हुई थी आज के जितनी कठोर

कि एक जोड़ी बैल ही उठा लेते थे

एक हल की जमीन का भार


खाद का भंडारण गोबर के रूप में

घर के पिछवाड़े ही होता रहा

सारे कीट, मित्र ही होते थे फसलों के

यों कि कीटनाशक दवाओं के नाम भी नहीं जानता था मैं

नीम की पत्तियां मिलाकर ही मां

साल भर तक सुरक्षित रखती थी कुठिया में अनाज

गोबर की मोटी परत से बारिश में बच जाता था दीवारों का क्षरण

एक चौंतरी काफी होती थी आगंतुक को बैठाने के लिए


आज विकास की पटरी के नीचे स्लीपर से बिछे हैं

हलबैल,ऊंटगाड़ी,लोटाडोर, गोबर खाद

मकानों की भव्यता में समा गई वह पीढ़ी

जो गंभीर बीमारियों का इलाज न होने पर भी जी जाते थे सौ के पार


पृथ्वी गाय तो नहीं कि अवशिष्ट पदार्थ पचाकर भी

दूध की शुद्धता बचा सके

कम समय में अच्छे परिणाम की उत्सुकता

उपचारित बीज और अधिक उपज के लोभ में

ज़हरीले कीटनाशकों का छिड़काव से संभव है, कल मेरे खून में

पाये जायेंगे प्रोफेनोफोस,सायपरमेथ्रिन क्लोरोपायरीफॉस या कार्बेंडाजिम


मेरी अभिलाषाऍं 

मुझे अल्पायु की खाई में धकेल रही हैं।

०००


बेस्वाद


मार्च-अप्रैल की पीठ पर

जब पक रही होती हैं फसलेंं

उल्लासित मन हॅंसिया उठाये

जा बैठता है मेंड़ पर 

वसंत सिर्फ धरती पर ही नहीं 

किसान की देह पर भी दमकने लगता है

कि अचानक,

क्षणभर में रक्तिम होता आसमान 

पश्चिम से घुमड़ आये बादल

अंधड़, ओले और बेमौसम बारिश

तहस-नहस कर देती है फसलें

कर देती है

एक-एक दाने को मोहताज


यूॅं ही नहीं कहा/पूर्वजों ने

ओलों को -बेस्वाद।

०००


आपदा और नकली फ़रिश्ते 


जैसे अल्पावधि मध्यावधि चुनाव

देश की अर्थव्यवस्था के लिए संकट है

ठीक वैसे ही अल्पवृष्टि अतिवृष्टि

आपदा है किसानी के लिए।


आपदा,निकटता दिखाने का मौका देती है 

सरकार खुश होती है आपदा आने पर,

मैं बीज मांगता हूं अगली फसल के लिए 

सरकार कहती है- कोई पाबंदी नहीं 

पूरा बाजार खुला है तुम्हारे लिए

जहां से चाहो बीज खरीदो

फिलहाल राशन का थैला पकड़ो

और फोटो खिचवाओ।


फोटो जरूरी होता है विज्ञापन से चलने वाली

सरकार के लिए

चुनाव के समय तो वह

झोंपड़ी में अन्दर तक घुस आते हैं

कहते हैं खाना यहीं बैठकर खायेंगे

फिर फोटो भी खिंचवायेंगे।


आपदा आती है मां के जेवर ले जाती है

बहन का ब्याह टल जाता है 

भूख चिकोटी काटती है खाली आंत में

रुला जाती है पूरे गाॅंव को

तब सरकार आती है गुदगुदाने

फिर झूठमूठ हॅंसाते हुए फोटो ली जाती है

फोटो जरूरी है

गांव गरीब की ख़ुशहाली दिखाने के लिए।

अगले दिन यही फोटो अख़बार के

मुखपृष्ठ पर छपती है 

कोई अपना सामान्य ज्ञान 

कोई कविता कहानी लिखने को

पाना चाहता है जानकारियाॅं

ख़ूब बिक्री होती है 

जिस दिन किसान की तस्वीर छपती है

अख़बार में।


आपदा आती है,छान छप्पर उड़ जाते हैं 

घर ढह जाते हैं

पशु मर जाते हैं खूॅंटी पर बॅंधे हुए

बिजली गुल हो जाती है हफ्ते दो हफ्ते के लिए

आपदा प्रबॅंधन टीम से पहले पहुंचते हैं

मीडिया कर्मी, माननीय नेतागण

हवाई सर्वेक्षण के बाद

पाॅंच हजार के नुकसान पर

पचास रुपए के चेक थमाते हुए

फोटो खींचे जाते हैं काॅंधे पर हाथ रखकर

कोई अपना वोट बैंक मजबूत करना चाहता है

कोई भरना चाहता है लाॅकर और तिजोरियाॅं।


आपदा से सबके अपने फायदे हैं

वे दुआ करते हैं कि आपदा आती रहे

यह पाॅंचवाॅं मौसम होता है 

इन नकली फरिश्तों के लिए।

०००

छः 


जहाॅं मैं रहता हूॅं 


जहाॅं मैं रहता हूॅं 

वहाॅं नही हैं गगनचुंबी इमारतेंं

नही हैं सलीके से बसी कलोनियाॅं 

उन कालोनियों में एक ही डिजाइन के घर 

चमचमाती सड़कें,प्रतिमाओं से सुसज्जित चौंक-चौराहे

पर शांति बहुत है।


अगर कोई शाम तक न जुटा पाये 

दो जून की रोटी के लिए दाना 

ठंडी पड़ गई हो चूल्हे में दबी आग

और माचिस में न बची हो एक भी तीली 

या आटा गूंथते समय ही पता चले 

कि डिब्बे में नहीं बचा एक चौंटी नमक 

तब पड़ोस के घर से मिल जाता है

यह सबकुछ उधार

बापिस करने की गारंटी के बगैर

लोग गरीब हैं पर दिल बहुत बड़ा है

यहाॅं रहने वालों लोगों का।


बेशक यहाॅं नहीं हैं उत्सवों की धूम

पर औरतें गोवर उठाते

चक्की पीसते फसल काटते 

गाती हैं डोला मारू,हीर राॅंझा, सोनी महिवाल 

की प्रेम गाथाऍं

और पुरुष शाम ढले ढोलक की तान पर

खूब नाचते हैं।


यहाॅं तंगहाल हैं लोग

इतने तंगहाल की चबूतरे पर गुदड़ी ही बिछा देते हैं

पाहुनों के लिए 

दो जून की रोटी के लिए खटते हैं सारी उम्र

पर रिश्तों से बड़े अमीर हैं

इतने अमीर कि 

बच्चे, युवा और बुजुर्ग

तीन-तीन पीढियाॅं रहती हैं एक साथ

एक ही घर में

थामें एक दूजे का हाथ।

०००


सात




चित्र 

शशिभूषण बढ़ोनी 








एक महामारी के निशान 


पिता के चेहरे पर चेचक के निशान थे 

एक महामारी के निशान 

उम्र भर उनके साथ रहे 

अब वह मेरी स्मृतियों में उभर आये हैं 

गहरे काले धब्बों के शक्ल में।


प्राण वायु के अभाव में लोगों को मरते देखा 

लाशों के नदी में तैरने की ख़बर 

छप गई बेटे के मानस पटल पर।


एक महामारी के बाद नानी 

और चार-पाॅंच लोग ही बच सके थे गाॅंव में 

यह बात 

किसी रहस्यमय कहानी की तरह 

लगती थी,हम बच्चों को 

कि लाशें ढोने के लिए काॅंधे नहीं बचे 

ईंधन नहीं बचा 

तब कुऍं पाट दिये गये बैलगाड़ियों में 

लाशें भर-भरकर।


इस तरह एक महामारी 

पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रही साथ 

हर दुःख,हर क्रूरता को सहने का 

हौंसला देते हुए।

०००


आठ


बेढंगा नाच 


कान की लौंड़ी पकड़ कोई छेड़ता है तान 

जैसे ही बजता है मधुर संगीत 

बजने लगता है लयबद्ध कोई वाद्य यंत्र।

एक आदमी

या एक औरत 

या दोनों ही प्रतिस्पर्धा करते हुए 

या कई जन एक साथ समूह में

बगैर पूर्वाभ्यास के नाचने लगते हैं।


कभी-कभी तो बगैर गाये हुए

सिर्फ़ ढोलक की धुन पर

गले में पड़े गमछे के दोनों सिरों को

मुॅंह में दबाकर

या उसी गमछे को कमर में बाॅंध

दोनों हाथ हवा में लहराते हुए 

पाॅंव पटकते है जमीन पर 

तरह तरह की मुख मुद्राओं के साथ

कोई गर्दन हिलाता है मुर्गे की तरह

सींग/मोरपंख/बिजना

यहां तक कि झाड़ू भी बांध लेते हैं

सिर पर।


वे नहीं जानते एक भी डांस स्टेप

अंग-अंग तरंगित होता है 

और वे नाचने लगते हैं

उनके लिए नाच,आनन्द की अनुभूति है ।

०००


नौ


बाबूजी,समय बदल गया है 


जब भी गंभीर मसलों पर बात शुरू करता हूॅं 

कोई नौजवान हॅंसकर कहता हैं 

बाबूजी,समय बदल गया है।


सोचता हूं क्या वाकई समय बदल गया है 

या बदल गया है आदमी 

या खान-पान

या वातावरण 

या पेड़-पौधे

या समूची प्रकृति ही बदल गई है


मिट्टी से अब नहीं उठती वह पहले सी सौंधी गंध

जो पहली बारिश के साथ उठती थी धरा से

और सारी प्रकृति को करती थी उन्मत्त,

जो करते थे ऊतकों का निर्माण और मरम्मत

ऊष्मा से भर देते थे देह को 

नहीं बचे अनाज में वह पहले से पोषक तत्व


मृत शरीर के अपघटन में शामिल 

वह जीव जो माॅंस-मज्जा के बोझ से हल्का करते हैं पिंजर को 

और मल भक्षण करने वाले कीड़े, कवक और बैक्टीरिया

आखिर मर क्यों जा रहे हैं मृत देह या मलभक्षण के बाद

क्या सचमुच भोजन हो गया है इतना विषाक्त?


तुम्हें तो याद भी नहीं होगा कि

कब,कौन-सा फल खाने से बीमार हुए थे 

और कौन-सी हरी सब्जियाॅं खाने से उल्टियां होती रही थीं रात भर,

डाक्टरी सलाह के बाद

काली मूॅंग की दाल और दलिया खाने से 

चकत्ते बनने लगे थे शरीर में जगह-जगह 

जिनके होने के निशान अब भी बचे हैं 

तुम्हारे कोमल अंगों पर

इलाज के बाद भी न बच सके

बीमार पशुओं को खाकर ही तो मर गये कितने ही कुत्ते और कौउये

खत्म हो गई गिद्धों की समूची प्रजाति,

क्या उन जरूरी गुणों से रहित हो रही है पृथ्वी

जिनके बगैर चांद या मंगल ग्रह पर

रहने का आभास होगा हमें इसी धरती पर रहते हुए?


यह कैसा जहर है जो रगो में दौड़ता है खून के साथ

और आदमी मर जाता है शनै शनै

कौन दे रहा है इतनी आसान मौत

कि सीने का दर्द अस्पताल की चौखट भी पार न करने दे

और पार कर भी गये

तब भी परिजनों के हाथ में होता है हमारा मृत्यु प्रमाण पत्र

क्या अपने ही हाथों जहर खाने को अभिशप्त हैं हम?


जब मुझे टोकते हुए कोई नौजवान हॅंसकर कहता है

बाबूजी समय बदल गया है

तब सोचने पर विवश हो जाता हूॅं 

कि समय ही बदला है

या बदल गई है समूची प्रकृति ही।

०००


परिचय:

जन्म - एक जुलाई उन्नीस सौ बहात्तर

शिक्षा -कला स्नातक, स्नातकोत्तर (हिन्दी)

प्रकाशन - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लगातार रचनाएं प्रकाशित।

साहित्य धरा अकादमी से "जीवन राग" एवं न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से चयनित कविताओं का संग्रह 'समकाल की आवाज' प्रकाशित।

-दस साझा काव्य संग्रहों में कविताएं प्रकाशित।

-कुछ कविताओं का अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती और नेपाली भाषा में अनुवाद।

-आकाशवाणी और अन्य मंचों से काव्य पाठ का प्रसारण।

-प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा इकाई अशोकनगर में सक्रिय सदस्य।

- कुछ नाटकों में अभिनय।

संप्रति -कृषि कार्य 

सम्पर्क -ग्राम -पाटई पोस्ट -धुर्रा,तहसील -ईसागढ़ जिला -अशोकनगर (मध्यप्रदेश) पिन -473335, मोबाइल -9893886181