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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 दिसंबर, 2024

कानजी पटेल की कविताऍं


 

इन कविताओं का अनुवाद करते हुए...

अनुवाद: नरेश चन्द्रकर 


हर बार ही यह माना जाता है कि कविता का अनुवाद लगभग असम्भव-कार्य है । दरअसल कविता का अर्थ भाषा में होते हुए भी भाषा के पार से आता है। कानजी पटेल की कविताओं का

अनुवाद करते हुए अक्सर यह अनुभव हुआ है कि कविता केवल शब्द में ही अपना कार्य नहीं कर रही हैं बल्कि अक्सर शब्दों के आपसी सम्बन्धों और उन शब्दों के बीच छूटी हुई जगहों में भी उनकी कविता अपना घर बसाये हुए हैं ।  कानजी पटेल की कविता शब्दों के पार से भी चली आती है इसलिए मुझे अनुवाद करते हुए कथन की भंगिमाएं, संवेदनाओं की जगहें, भाषा की लय, ताल,शब्द और अर्थ की गूंज , भाव-सम्पदा, उपमाएँ और उपमान, कल्पना की उड़ान इन सब की परवाह करते हुए आगे बढ़ना पड़ा है । 

ऐसे नहीं है कि कानजी पटेल आदिवासी और लोक-जीवन शैली में ही रहते हैं और वे सीमावर्ती पहाड़ियों के आसपास रहने वाले लोगों जैसा ही जीवन जीते हैं । बल्कि कानजी पटेल भी हमारी तरह भरपूर शहरी-जीवन की काजल की कोठरी में रहते हैं । पर, उनकी कविता में आदिवासी सभ्यता का एक नवीन और सापेक्ष रूप अस्तित्व में आया है । वह रूप हमारे आसपास के सवालों के साथ एकमेक है। यही कारण है कि उनकी इन कविताओं का अनुवाद करते हुए मुझे लगता रहा है कि प्रत्येक कविता अनुवाद के बाद भी अपने कुछ अंश के साथ गुजराती में बची रह गई हैं और मैं अनुवादक की वफादारी नही निभा सका हूँ । 


कविताऍं

गुजराती भाषा से अनुवाद: नरेश चंद्रकर 


हम विदा हुए

(बो भाषा बोलने वाली अंडमानी स्त्री माँ बोआ के 2010 में विदा होने पर)


वह अकेली और अंतिम थी

अंडमानी-मोर सरीखी माँ बोआ 

बो भाषा बोलती हुई


उसके साथ ही 

चार बीसा और पांचवे बरस में 

साठ हजार बरस पुरानी जिह्वा 

हमेशा के लिए सो गई 


बो आकाश के अनंत से मुख़ातिब होती थीं

पवन, वानर, सांप से बतियाती थीं 

हृदय में उसके पंछी गुनगुनाते थे

वह समुद्री लहरों से हाँकार भरती थीं  


टर्रर्र कुर्रर्र फ़ुर्र....

स्वर सुननेवालों 

तुम आगे इस गीत को गुंजा देना 

हर सिम्त में 

जीवन का यह प्यारभरा गीत


बो कहती थी :


आकाश प्रकाश और धरती  के

मोहपाश में बंधना तुम 

परखना 

दो पैर वालों, 

चार पैरवालों, बहु-पैरवालों की दाहक पीड़ाएं


बो कहती थी :


क्या तुमने सुनी है

हवा में उड़ती

पंखधारी, नपंखधारी, सरिसृपों की चीख

सर पर दो कच्ची आंखों वाले ने खाई हरियाली 

उसने रीढ के तले रही बंकनाल को चीन्हा

पर न चीन्हा जठराग्नि और हृदय की ज्वाला को

ज्वाला पी रही धरती को, 

जल को, 

वायु को, 

आकाश को,

वाणी के मूल को


बो कहती थी :


हमारी भाषायें विदा होने लगी 

ज्यों ज्यों हरियाली घटती गई


ज्यों ज्यों उठता गया जल

हम भाषाएं भी उड़ने लगीं

हृदय में मेलों के तंबू-डेरे उड़ गये

घटते जा रहे जल के पीछे

रुपयों के चाबुक की चमक से

मन के नक्शों से

भूमि पर की गई लकीरों के मानिंद 


हम कटती गईं हैं  !!

०००


चाॅंद तक तैरने चले


उस रात

चांद चला गया था

जल और हरियाली में


सूरज दिखा तो था

पर गहरी धरा के तल में 

जगमग झीनी परत जैसा


उस रात चांद

जल में तिर गया था  


जलाशय दिख रहे थे 

छलकती आंखों की तरह 


उस रात

धरती ने करवट भी नही बदली थी


वनस्पति की नसों में घूम रहा था

चांद का पारा


मुर्गे की बांग 

सांप की जीभ की तरह 

पूरब के अंधेरे गर्भ में घूमती रही


कढ़ाई में चमकती रही

जल और चांद से बनी हुई राब


थिरकता रहा आसमान

तारों में चल रहा नृत्य-गान 


और हम लट्ठे पर बैठकर 

चांद तक तैरने चले


आसमानी कमान से छूटा तीर 

पानी को 

बींध नहीं रहा था !!

०००


हम हैं


अभी हम हैं

यहीं पृथ्वी पर 

धरती के गोलार्ध से आधी उम्र के हम


हरी छांव को पालने पोसने वाले

पहले पहल नाम देने वाले

पुरातन मन को आंकने वाले

गले में घूंट लेने वाले

अभी हम हैं


जब पानी मरेगा

तब मरेंगे हम !!

०००











आना तुम मेले में


उसे एकबार का  विचार  आया

गर्म अंगारे-सा विचार 


विचार के ताप से पिघलता गया अंधकार

ताप की चिंगारियाँ अँधेरे में बहने लगीं

आकाश चिनगारियों की गोल कमान में ढलने लगा

अधखुले अंधकार से रात सजने लगी

ऐसे में रात ने कहा:

मुझे क्यूं रचाये हो ?


उसे  दूसरी बार का विचार आया

उसमें से पंछी चहक उठे

पंछी एकदम उजले

इधर उधर  उड़ते पंछी

उनकी चक् चक् चक् चक् से

पूरी कमान उभर आई

पंछी फुदकते फुदकते थक गये

तभी पंछियों  ने पूछा: 

हमे बस फुदकते ही रहना है ?


उसे तब तीसरी बार विचार कौंधा

तो उसने रच दिया धरती  को 

उसने वन उपजाए, 

मैदान तैयार किये, 

पर्वत, रण और नदियां रच दी 

और तब पंछी उस नये घर में फुदकने लगे 

धरती ने पूछा : 

मुझे केवल यही करते रहना है ?


प्रभु को तब चौथी बार विचार कौंधा

उसमें से स्त्री और पुरुष उभर आए

वे घूमते फिरते रहे और थक हारकर  लौटे तो

स्त्री-पुरुष ने पूछा: 

बस, इतना ही हमारे हिस्से में ?


प्रभु ने तब पांचवी बार विचार किया

उस बार उसने चीकट की रचना की


आदमी को जन्मा

उसे वाणी दी

व्यवहार दिया

आदमी ने  व्यवहार आजमाए 


तब प्रभु ने पूछा :

तुझे  इतना  पर्याप्त तो है न?


आदमी ने कहा: 

रंग करेंगे  

खाएंगे 

पियेंगे 

गाएंगे 


प्रभु ने पूछा :

मुझे आमंत्रित करोगे उसमे ?

आदमी ने कहा :

मेले में आना मेरे पास !!

०००


माटी भी न परख पाए


अनंत अथाह में उतरे

सूर्य तारा-नक्षत्र आकाशगंगा के नाम-पते लिखे गए

वे बीने और गिने गये

सरोवर में सजाए गए

तरह  तरह के पानी परखे गए

वायु को मथा गया

अंगारवायु का मक्खन किया गया

भ्रम बेपर्दा किये गए

ब्रह्मांड़ का गान  गाया गया

कृष्ण विवर का जरामरन  पढा गया


एक समय में मिट्टी और आकाश एकमेक थे

तब हमने परे हो चुके आकाश की आराधना की

अब आकाश को ही गाकर सुनाने लगे :


आकाश बापा !

हम

इस धरती की  सेरभर माटी भी न परख पाए

०००


धरती


जल-प्रलय हुआ है

अब?

कच्छप जी 

अब आप जाओ 

और वापस धरती ले आओ


ओ...हाँ मैं लाता हूँ ले आता हूँ धरती

यह लो ... ले आया


भ्रमर जी

तुम अपनी सांस भर लो 

और पानी के बुलबुले पर

पैर रखने जितनी धरती बनाओ


बलिया जी

आप धरती को समतल बना दो

इसमे पांच भू-खण्ड

और नौ सागर बना दो


फिर यह धरती तुम्हारी होगी

इसे एक नाम भी दे दो

इधर उधर से सभी को आने का न्योता दो 


फिर ये धरती तुम्हारी होगी !!

०००


कोने


घर के दो कोने

अंधियारा और उजियारा


अंधियारे कोने में

सौगान के पत्ते पर

मिट्टी के गारे से

हमने दो आकार

अंग और भंगिमा के साथ रचाये

उनमें जान भी फूंक दी


प्रभु तो बहुत बाद में आये थे


उजियारे कोने में

हमने माटी के अवतार बनाए


खम्माघणी 

अखंड़ धरती को  खम्माघणी , 


आंख मूंदते ही प्रभु ने तो 

अखंड़ के 

नवखंड़ में हिस्से कर किये 

बीच-बीच में

पानी भरा


हम देखते रहे


प्रभुने कहा :

बीच बीच में पानी तो रखना ही होता है


बनते-बनते हुआ  ऐसा 

कि पानी बढता ही चला गया 

कोने दूर से दूर होते चले गये


प्रभुने कहा :

दोनो कोने मिलकर 

इतना पानी पी जाओगे  न तुम ❓

०००

कवि का परिचय 

कानजी पटेल गुजराती भाषा के अग्रणी कवि,उपन्यासकार,

कहानीकार, संपादक व संस्कृतिकर्मी है।ग्रामीण, आदिवासी व घुमन्तू समाजकेंन्दी कविता,कहानी,

उपन्यास के लिए वे सुख्यात है।4 कविता-संग्रह, 4 उपन्यास,1 कहानी संग्रह के कर्ता है।

 कविता ,लोकविधि व समाजका बहुभाषी कविता सामयिक 'वही' के संपादक और गुजरात, दीव,दमण,दादरा ,नगर हवेली की भाषाओं के सर्वेक्षण-ग्रंथ के संपादक है।

देश-विदेश की अनेक भाषाओं में उनकी कविता,उपन्यास अनूदित है। आदिवासी,घुमन्तू समाजों के सांस्कृतिक, मानवीय अधिकारों के लिए गुजरात में कलेश्वरी मेला स्थापित किया।भारत की 140 आदिवासी भाषाओं की समकालीन कविता का  मूल भाषा,हिन्दी,अंग्रेजी अनुवाद का उनके द्वारा किया संचय  तुरन्त प्रकाश्य है।

०००

अनुवादक का परिचय 

कविता-संग्रह

(1) बातचीत की उड़ती धूल में   (2002) सारांश प्रकाशन दिल्‍ली

(2) बहुत नर्म चादर थी जल से बुनी  (2004) परिकल्पना प्रकाशन लखनऊ

(3) अभी जो तुमने कहा   (2015) ज्ञानपीठ प्रकाशन दिल्ली

(4) लौट चुकी बारिशें (चयनित कविताएं) (2021) नोशनल प्रेस,दिल्ली 

(5) सुनाई देती थी आवाज़ (चयनित कविताएं) (2023 ) न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ,दिल्ली

(6) नए शब्द सुनूँगा (2024 ) न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ,दिल्ली

०००

गद्य पुस्तके

(7 ) सहित्य की रचना-प्रक्रिया   (1995) पार्श् प्रकाशन अहमदाबाद

(8) चली के जंगलों से पाब्लो नेरुदा का गद्य (2007) संवाद प्रकाशन,मेरठ

(9) जनबुद्धिजीवी एडवर्ड सईद का जीवन व रचना-संसार (2022) संवाद प्रकाशन,मेरठ

(10) कागज़ पर लिखी बातचीत (2023 ) न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ,दिल्ली

(11) कुछ कवि कुछ किताबें (2023 ) लोकमित्र प्रकाशन ,दिल्ली

०००


जयश्री सी. कंबार की कविताऍं

  

आठवीं कड़ी 

डॉ. जयश्री सी. कंबार वर्तमान में के.एल.ई.एस निजलिंगप्पा कॉलेज, बेंगलुरु में अंग्रेजी विषय के सहायक प्राध्यापक पद पर

कार्यरत हैं। उन्होंने 3 यूजीसी प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया है और विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों और सम्मेलनों में शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने 02 कविता संग्रह - 'विस्मय' और 'हसिद सूर्य', 03 नाटक- माधवी और एकलव्य और 1 अनुवाद- बुद्ध, कन्नड़ से अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। उनके पास 2 अप्रकाशित नाटक, 2 अनुवादित नाटक और कविताओं का एक संग्रह है। उनकी लघु कथाएँ और कविताएँ कर्नाटक की प्रमुख समाचार पत्रिकाओं और जर्नलों में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपने नाटक माधवी के लिए इंदिरा वाणी पुरस्कार जीता है। कन्नड़ में यात्रा वृत्तांतों पर उनके लेख प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं।

उन्होंने केरल में आयोजित तांतेडम महोत्सव- अखिल महिला लेखिका सम्मेलन में मुख्य भाषण दिया है, त्रिशूर में मध्यम साहित्य उत्सव में एक पैनेलिस्ट के रूप में, लिटिल फ्लावर कॉलेज, गुरुवायूर में राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य भाषण दिया है। इसके अलावा उन्होंने 9 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हैदराबाद में आयोजित ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली द्वारा आयोजित कवियों की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कविता प्रस्तुत की है। उन्होंने पंजाब, तिरुपति, बैंगलोर, शोलापुर, शिमोगा, मैसूर, कालीकट, लक्षद्वीप और कर्नाटक में कई स्थानों पर आयोजित लेखक-कवि सम्मेलन में भाग लिया है। रंगमंच पर उनकी बातचीत ऑल इंडिया रेडियो, बैंगलोर द्वारा प्रसारित की गई थी। उन्होंने कई अवसरों पर दूरदर्शन पर अपनी कविताओं को भी प्रस्तुत किए हैं। आप 'कन्नड़ सेवा रत्न', 'इंदिरा वाणी राव पुरस्कार' दो बार कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए प्राप्त कर चुकी हैं।

०००

कविताऍं 


 प्रिय अंबेडकर


मैंने सोचा इस सभ्यता का सबसे बुरा अल्सर था 

"क्या तुम भूखे हो?' किसी ने नहीं पूछा 

'क्या तुम्हें चोट लगी है?' किसी ने नहीं पूछा  

'मैं भी इंसान हूं' किसी को विश्वास नहीं हुआ। 


उन्हें नहीं पता था कि गंदगी उठाने वाले 

हाथों को क्या महसूस होता है, न ही हमें पता था सदियों से रुकी हुई सांसें 

मेरी फती हुई झोपड़ी में रोती गति को, 

हमारे चारों ओर के कान मौन होकर हमारी दुखद कहानियों का विरोध कर रहे हैं। 

बिना छत की झोपड़ी से भूखी आँखों ने क्या देखा,  तारे, खाने को वे नहीं मिले। 

लाखों करोड़ों आँखों को पहले 

सपनों की भनक तक नहीं थी। 

अब तुमने हमें अपने सपने दे दिए। 

प्रिय अम्बेडकर, तुम घावों को 

भरते हुए देख रहे हो न?

*****


गारंटी नहीं देता


दिन शाम तक पहुंचने तक, 

आप का परकीय बनना अभी भी एक रहस्य हैं।  सुबह के गर्म सूरज के स्पर्श औ

शाम के सूरज के स्पर्श के बीच जैसे अंतर है। इस दिन, यादें मेरे कमरे के अंदर 

सड़क से परे फैली हुई हैं। 

दरवाजे के अंदर कदम भी नहीं रख सकता। 

चारों दीवारें हटा दी जाएं और 

इस सड़क को खुले में खींच लिया जाए, 

तो शायद बुद्ध की तरह मैं भी शांत हो जाऊंगा। जब चार दीवारें मैदान में समा जाती हैं, 

तो पाप की चेतना कहां से आती है, 

विश्वास करने वाले मन को त्यागने की 

गलती का एहसास नहीं होता है। 

मेरी मुस्कान में मिश्रित हो सकती है, 

मैं इसकी गारंटी नहीं दे सकता।

*****

जो बात भूल जाते हैं


ऊपर आसमान में 

पक्षियों की परछाइयाँ 

सुस्त दिखने वाले लोगों का 

शिकार करने उड़ रही हैं।

इनका दिमाग अत्यधिक 

गणनाओं से ग्रस्त रहता है।

निश्चल ख्वाबों का बोझ लेकर

इनके पैरों में जड़ नहीं है।

वे भुलक्कड़ हैं।

इनके टंकित शब्दों के लिए

भाषा का इतिहास नहीं है।

व्याकरण सम्मत है ही नहीं।

हँसी भी चुपचाप व्यक्त व्यक्त करने वाले

इनकी आवाज खो गयी।

भले ही उनका नाम हो मगर अर्थ नहीं, 

सड़कों पर मार्च करने वाले इन्हें 

लैब में चलने की ट्रेनिंग तो नहीं मिली, 

ऊपर परिंदों की छाया 

शिकार करने की योजना

इनके ध्यान में आता ही नहीं।

दूर क्षितिज पर एक घड़ी

उसकी लेंस आँखें

इनकी ओर मुड़कर घूरने लगा है।

*****


घर की तलाश में हूँ


मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ 

क्या कोई मदद कर सकता है? 

बिल्कुल! पता क्या है? 

मुझे घर का नंबर याद नहीं है क्योंकि 

मैं नंबरों को लेकर भ्रमित नहीं हूं। 

तो सड़क का नाम, आदि...? 

वो भी याद नहीं। लेकिन 

उस लंबी सीधी सड़क के 

अंत में एक इंद्रधनुष था। 

जैसे-जैसे घर में चहल-कदमी करते, 

फर्श से खुशियाँ छलक रही थीं। 

हंसी की एक खूबसूरत लहर दौड़ गई। 

रात को मेरे घर के आंगन में

तारे उतर आते थे। 

यक्षिणियाँ बैठ के  कहानियाँ सुना करती थीं। 'समय'  तो पूरे घर में 

अपनी लंबी भुजाएँ फैला के आराम करने लगा।

मुझे वह घर ढूंढने में 

क्या कोई मदद कर सकता है? 

अब मेरा वह घर कहाँ है? 

किस धूल में ढका हो गया होगा?

 अपने घर की तलाश कर रहा हूँ। 

क्या कोई मदद कर सकता है?

*****


सूर्य रूपी भ्रम


मेरे दादाजी के घर की छत से 

हर दिन, सूरज की 

रोशनी का एक टुकड़ा सीधे प्रवेश करता था  जमीन को स्पर्श देता था। 

पकड़ने की कोशिश करके हार गया। 

उस प्रकाश का भ्रम 

हाथ से छूटता रहा। 

एक दिन, छत की दरार से 

किरणें झाँकने से पहले, 

मेरे हाथ के कटोरा बढ़ाया 

और कुछ देर तक उसकी 

रोशनी और गर्मी इकट्ठी की। 

जैसे-जैसे समय ढलता गया, 

किरणें छत छोड़कर आगे बढ़ने लगीं। 

मैंने प्रकाश का वह बीज 

अपने हाथ में लेकर पिछवाड़े में बोया

एक और सूर्य उगने हेतु।

*****


हे कवि सुनो


जब मैंने कविता पढ़नी ख़त्म की 

तालियों की गड़गड़ाहट तेज़ हो गई, 

जैसे बारिश की मोटी बूंदें 

चादर की छत पर गिर रही हों। 

जब मंच से नीचे जा रही थी 

मुझमें उसकी ओर देखने की 

हिम्मत नहीं हुई जो दूर से 

मुझे घूर रही थी,  इसलिए मैं 

कहीं और जाकर बैठ गया। 

वह बिना किसी की मौजूदगी के 

पास आकर बैठ गयी और बोली-


अपनी कविताओं में मेरे पापों का 

दर्द याद दिलाकर मुझे 

पीड़ा देना बंद करो, मुझे सीता बनाकर 

अपमान की आग मत भड़काओ, 

खोदना बंद करो और मुझे मत बताना

माधवी बनाकर धोखा दिया गया है। 

मुझे द्रौपदी मत बनाओ 

और बार-बार खींचकर 

सबके सामने खड़ा कर

मेरे वस्त्र और मान को 

खींचकर नीलाम के लिए न रखो। 

मेरे अंतरतम रहस्यों को 

तुम्हारे रूपकों उजागर मत करो।


नाना परी में मैं युगों से नंगी होती रही हूँ। 

मेरी यादों को परेशान मत करो। 

घावों को बार-बार छीले बिना 

अपने आप ठीक होने दें। 

मुझे कुछ रहस्यों का सहारा लेना होगा। 

तो सुनो, हे कवि, 

मुझे कविता न बनाते 

स्त्री बनकर ही रहने दो।

*****


मुस्कुराना आसान नहीं है


मुस्कुराना आसान नहीं है, 

पहले भौंहों के बीच की 

नीली नसों को आराम देना पड़ता है। 

प्रच्छन्न चेहरे में ब्रह्मांड की चमक 

पकड़ के रखनी चाहिए, 

गर्मियों में बहने वाली नदी की 

हजारों छोटी लहरों के अंत की 

चांदी की चमक को आँखों में 

कैद करनी चाहिए।

होंठों को क्षितिज की तरह 

फैला होना चाहिए जो 

दोनों किनारों को छूता है। 

नहीं, मुझे यकीन है कि 

हंसना इतना आसान नहीं है। 

सबसे पहले स्मृति की दागदार 

पहाड़ी को खोखला करना होगा 

अनिश्चित भय के कल को 

रसातल में धकेलना होगा 

इस प्रकार, क्या वे बादल 

माथे की नीली नसों को आराम दे सकते हैं? 

क्या आंखें ब्रह्मांडीय प्रकाश को पकड़ सकती हैं? सत्य, हँसना उतना आसान नहीं है।

*****


निजी दुनिया में


सुनो,

अब कहने की बारी मेरी है, सुनो। 

हमारी इस निजी दुनिया में खिलते 

शब्दों को देखो, सारे रास्ते छुपाती इन 

मुस्कुराती पुष्प पंक्तियों के बीच 

इंद्रधनुष के बीच में मत खो जाना। 

ऋतुएँ, चलते बादलों की तरह 

आती हैं और चली जाती हैं। 

तो चलो हम दोनों यहीं बैठते हैं।

जड़ें हमारे पैरों के नीचे 

अंधेरा फैलने से रोकती हैं।


सुनो,

चाँद को यहाँ नहीं ला सकते 

उपमा रूपकों पर चमक डालने है। 

हमारी लालसा भरी आँखें झुकी हैं

तारों को पकड़ के नहीं रख सकतीं। 

डूबते सूरज की किरणों से 

आग के लाल धागे तेज़ हो रहे हैं। 

विचलित मत होइए! 

उस आग की तलहटी में, 

मत भूलो कि राख का नया ढेर उठ रहा है। 

इस रोशनी में हमें आंखों के कोरों में दिखते चिंगारी को चुराना हमें नहीं भूलना चाहिए।


सच है,

हर मौसम की पहली बारिश की बूंद 

पुरानी मिट्टी की नई खुशबू बिखेरती है, 

हर बूंद के साथ काले बादल का टुकड़ा 

आसमानी रंग मिट्टी की धूल में घुल जाता है। बारिश की बूंदें हमारे दिल के तालाब को भर गुफ्तगू की लहर, 

तरंगों की लहर पैदा कर देती हैं।


अब,

धीरे-धीरे यादों के हाथ को 

एक पन्ने की तरह खुलते हुए देखें, 

रेखाएँ उंगलियों की नोक तक खिंच रही हैं। 

लंबी रेखा, सीधी रेखा, घुमावदार रेखा, छोटी रेखा, मोटी रेखा, छोटी रेखा, महीन रेखा, 

कहीं त्रिकोणीय रेखा, 

सारी यादों को समेटे हुए रेखाएं, 

तुम्हारे हाथ की रेखाएं अलग हैं, 

मेरी रेखाओं की दिशा अलग है। 

दोनों को कुछ देर बैठने दीजिए 

समय के अंतराल में इन 

रेखाओं को जोड़ देंगे,  मेल करेंगे 

तब तक लीजिए...

हमारी निजी दुनिया में शब्दों को पनपने दें।

*****


अनुवाद : डॉ.प्रभु उपासे 

 अनुवादक परिचय 

परिचयः- कर्नाटक के वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में विशेषकर अनुवाद क्षेत्र में विशेष नाम के डॉ.प्रभु उपासे संप्रति सरकारी महाविद्यालय, चन्नुट्टण, जिला रामनगर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ.प्रभु उपासे जी का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा


जिला, तहसील इंडी के ग्राम अंजुटगी में हुआ। पिता श्री विठ्ठल उपासे तथा माता श्रीमती भोरम्मा उपासे। गांव में ही प्राथमिक शीक्षा पाकर श्री गुरुदेव रानडे ज्ञानधाम प्रौढ़शाला, निंबाळ, आर.एस. में हाइस्कूल की शिक्षा प्राप्त की। कर्नाटक विश्वविद्यालय से एम.ए तथा बेंगलोर विश्वविदायलय से डॉ.टी.जी प्रभाशंकर प्रेमी के मार्गदर्शन में "समकालीन काव्य प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में दिविक रमेश की काव्य कृतियों का अध्ययन" शोध प्रबंध के लिए पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की। आप ने कर्नाटक मुक्त विश्वविद्यालय, मुक्त गंगोत्री मैसूरु से एम.एड. की उपाधि प्राप्त की है।  

आपने विविध छत्तीस राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया एवं शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। अनुवाद क्षेत्र में गणनीय सेवाएं की है। कर्नाटक में हिंदी के प्रचार वं प्रसार एक अध्ययन विषय पर यूजिसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रैजेक्ट (20025-2007) पूर्ण की है। बसव समिति बेंगलूरु द्वारा प्रकाशित बसव मार्ग पत्रिका के ले पिछले बत्तीस वर्ष से लेख लिखते रहे हैं। इनकी अनूदित कृति "आत्महत्या, समस्याएँ एवं समाधान" कृति के लिए बेंगलूर विश्वविद्यालय द्वारा 2021 वर्ष का लालबहादुर शासत्री अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ है। नव काव्य प्ज्ञा फाउंडेशन द्वारा कई राष्ट्य पुरस्कारों से नवाजा गया है। प्रतिभारत्न-2023, साहित्य रत्न-2024, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2024 उल्लेखनीय हैं।