आठवीं कड़ी
डॉ. जयश्री सी. कंबार वर्तमान में के.एल.ई.एस निजलिंगप्पा कॉलेज, बेंगलुरु में अंग्रेजी विषय के सहायक प्राध्यापक पद पर
कार्यरत हैं। उन्होंने 3 यूजीसी प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया है और विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों और सम्मेलनों में शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने 02 कविता संग्रह - 'विस्मय' और 'हसिद सूर्य', 03 नाटक- माधवी और एकलव्य और 1 अनुवाद- बुद्ध, कन्नड़ से अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। उनके पास 2 अप्रकाशित नाटक, 2 अनुवादित नाटक और कविताओं का एक संग्रह है। उनकी लघु कथाएँ और कविताएँ कर्नाटक की प्रमुख समाचार पत्रिकाओं और जर्नलों में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपने नाटक माधवी के लिए इंदिरा वाणी पुरस्कार जीता है। कन्नड़ में यात्रा वृत्तांतों पर उनके लेख प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं।
उन्होंने केरल में आयोजित तांतेडम महोत्सव- अखिल महिला लेखिका सम्मेलन में मुख्य भाषण दिया है, त्रिशूर में मध्यम साहित्य उत्सव में एक पैनेलिस्ट के रूप में, लिटिल फ्लावर कॉलेज, गुरुवायूर में राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य भाषण दिया है। इसके अलावा उन्होंने 9 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हैदराबाद में आयोजित ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली द्वारा आयोजित कवियों की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कविता प्रस्तुत की है। उन्होंने पंजाब, तिरुपति, बैंगलोर, शोलापुर, शिमोगा, मैसूर, कालीकट, लक्षद्वीप और कर्नाटक में कई स्थानों पर आयोजित लेखक-कवि सम्मेलन में भाग लिया है। रंगमंच पर उनकी बातचीत ऑल इंडिया रेडियो, बैंगलोर द्वारा प्रसारित की गई थी। उन्होंने कई अवसरों पर दूरदर्शन पर अपनी कविताओं को भी प्रस्तुत किए हैं। आप 'कन्नड़ सेवा रत्न', 'इंदिरा वाणी राव पुरस्कार' दो बार कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए प्राप्त कर चुकी हैं।
०००
कविताऍं
प्रिय अंबेडकर
मैंने सोचा इस सभ्यता का सबसे बुरा अल्सर था
"क्या तुम भूखे हो?' किसी ने नहीं पूछा
'क्या तुम्हें चोट लगी है?' किसी ने नहीं पूछा
'मैं भी इंसान हूं' किसी को विश्वास नहीं हुआ।
उन्हें नहीं पता था कि गंदगी उठाने वाले
हाथों को क्या महसूस होता है, न ही हमें पता था सदियों से रुकी हुई सांसें
मेरी फती हुई झोपड़ी में रोती गति को,
हमारे चारों ओर के कान मौन होकर हमारी दुखद कहानियों का विरोध कर रहे हैं।
बिना छत की झोपड़ी से भूखी आँखों ने क्या देखा, तारे, खाने को वे नहीं मिले।
लाखों करोड़ों आँखों को पहले
सपनों की भनक तक नहीं थी।
अब तुमने हमें अपने सपने दे दिए।
प्रिय अम्बेडकर, तुम घावों को
भरते हुए देख रहे हो न?
*****
गारंटी नहीं देता
दिन शाम तक पहुंचने तक,
आप का परकीय बनना अभी भी एक रहस्य हैं। सुबह के गर्म सूरज के स्पर्श औ
शाम के सूरज के स्पर्श के बीच जैसे अंतर है। इस दिन, यादें मेरे कमरे के अंदर
सड़क से परे फैली हुई हैं।
दरवाजे के अंदर कदम भी नहीं रख सकता।
चारों दीवारें हटा दी जाएं और
इस सड़क को खुले में खींच लिया जाए,
तो शायद बुद्ध की तरह मैं भी शांत हो जाऊंगा। जब चार दीवारें मैदान में समा जाती हैं,
तो पाप की चेतना कहां से आती है,
विश्वास करने वाले मन को त्यागने की
गलती का एहसास नहीं होता है।
मेरी मुस्कान में मिश्रित हो सकती है,
मैं इसकी गारंटी नहीं दे सकता।
*****
जो बात भूल जाते हैं
ऊपर आसमान में
पक्षियों की परछाइयाँ
सुस्त दिखने वाले लोगों का
शिकार करने उड़ रही हैं।
इनका दिमाग अत्यधिक
गणनाओं से ग्रस्त रहता है।
निश्चल ख्वाबों का बोझ लेकर
इनके पैरों में जड़ नहीं है।
वे भुलक्कड़ हैं।
इनके टंकित शब्दों के लिए
भाषा का इतिहास नहीं है।
व्याकरण सम्मत है ही नहीं।
हँसी भी चुपचाप व्यक्त व्यक्त करने वाले
इनकी आवाज खो गयी।
भले ही उनका नाम हो मगर अर्थ नहीं,
सड़कों पर मार्च करने वाले इन्हें
लैब में चलने की ट्रेनिंग तो नहीं मिली,
ऊपर परिंदों की छाया
शिकार करने की योजना
इनके ध्यान में आता ही नहीं।
दूर क्षितिज पर एक घड़ी
उसकी लेंस आँखें
इनकी ओर मुड़कर घूरने लगा है।
*****
घर की तलाश में हूँ
मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ
क्या कोई मदद कर सकता है?
बिल्कुल! पता क्या है?
मुझे घर का नंबर याद नहीं है क्योंकि
मैं नंबरों को लेकर भ्रमित नहीं हूं।
तो सड़क का नाम, आदि...?
वो भी याद नहीं। लेकिन
उस लंबी सीधी सड़क के
अंत में एक इंद्रधनुष था।
जैसे-जैसे घर में चहल-कदमी करते,
फर्श से खुशियाँ छलक रही थीं।
हंसी की एक खूबसूरत लहर दौड़ गई।
रात को मेरे घर के आंगन में
तारे उतर आते थे।
यक्षिणियाँ बैठ के कहानियाँ सुना करती थीं। 'समय' तो पूरे घर में
अपनी लंबी भुजाएँ फैला के आराम करने लगा।
मुझे वह घर ढूंढने में
क्या कोई मदद कर सकता है?
अब मेरा वह घर कहाँ है?
किस धूल में ढका हो गया होगा?
अपने घर की तलाश कर रहा हूँ।
क्या कोई मदद कर सकता है?
*****
सूर्य रूपी भ्रम
मेरे दादाजी के घर की छत से
हर दिन, सूरज की
रोशनी का एक टुकड़ा सीधे प्रवेश करता था जमीन को स्पर्श देता था।
पकड़ने की कोशिश करके हार गया।
उस प्रकाश का भ्रम
हाथ से छूटता रहा।
एक दिन, छत की दरार से
किरणें झाँकने से पहले,
मेरे हाथ के कटोरा बढ़ाया
और कुछ देर तक उसकी
रोशनी और गर्मी इकट्ठी की।
जैसे-जैसे समय ढलता गया,
किरणें छत छोड़कर आगे बढ़ने लगीं।
मैंने प्रकाश का वह बीज
अपने हाथ में लेकर पिछवाड़े में बोया
एक और सूर्य उगने हेतु।
*****
हे कवि सुनो
जब मैंने कविता पढ़नी ख़त्म की
तालियों की गड़गड़ाहट तेज़ हो गई,
जैसे बारिश की मोटी बूंदें
चादर की छत पर गिर रही हों।
जब मंच से नीचे जा रही थी
मुझमें उसकी ओर देखने की
हिम्मत नहीं हुई जो दूर से
मुझे घूर रही थी, इसलिए मैं
कहीं और जाकर बैठ गया।
वह बिना किसी की मौजूदगी के
पास आकर बैठ गयी और बोली-
अपनी कविताओं में मेरे पापों का
दर्द याद दिलाकर मुझे
पीड़ा देना बंद करो, मुझे सीता बनाकर
अपमान की आग मत भड़काओ,
खोदना बंद करो और मुझे मत बताना
माधवी बनाकर धोखा दिया गया है।
मुझे द्रौपदी मत बनाओ
और बार-बार खींचकर
सबके सामने खड़ा कर
मेरे वस्त्र और मान को
खींचकर नीलाम के लिए न रखो।
मेरे अंतरतम रहस्यों को
तुम्हारे रूपकों उजागर मत करो।
नाना परी में मैं युगों से नंगी होती रही हूँ।
मेरी यादों को परेशान मत करो।
घावों को बार-बार छीले बिना
अपने आप ठीक होने दें।
मुझे कुछ रहस्यों का सहारा लेना होगा।
तो सुनो, हे कवि,
मुझे कविता न बनाते
स्त्री बनकर ही रहने दो।
*****
मुस्कुराना आसान नहीं है
मुस्कुराना आसान नहीं है,
पहले भौंहों के बीच की
नीली नसों को आराम देना पड़ता है।
प्रच्छन्न चेहरे में ब्रह्मांड की चमक
पकड़ के रखनी चाहिए,
गर्मियों में बहने वाली नदी की
हजारों छोटी लहरों के अंत की
चांदी की चमक को आँखों में
कैद करनी चाहिए।
होंठों को क्षितिज की तरह
फैला होना चाहिए जो
दोनों किनारों को छूता है।
नहीं, मुझे यकीन है कि
हंसना इतना आसान नहीं है।
सबसे पहले स्मृति की दागदार
पहाड़ी को खोखला करना होगा
अनिश्चित भय के कल को
रसातल में धकेलना होगा
इस प्रकार, क्या वे बादल
माथे की नीली नसों को आराम दे सकते हैं?
क्या आंखें ब्रह्मांडीय प्रकाश को पकड़ सकती हैं? सत्य, हँसना उतना आसान नहीं है।
*****
निजी दुनिया में
सुनो,
अब कहने की बारी मेरी है, सुनो।
हमारी इस निजी दुनिया में खिलते
शब्दों को देखो, सारे रास्ते छुपाती इन
मुस्कुराती पुष्प पंक्तियों के बीच
इंद्रधनुष के बीच में मत खो जाना।
ऋतुएँ, चलते बादलों की तरह
आती हैं और चली जाती हैं।
तो चलो हम दोनों यहीं बैठते हैं।
जड़ें हमारे पैरों के नीचे
अंधेरा फैलने से रोकती हैं।
सुनो,
चाँद को यहाँ नहीं ला सकते
उपमा रूपकों पर चमक डालने है।
हमारी लालसा भरी आँखें झुकी हैं
तारों को पकड़ के नहीं रख सकतीं।
डूबते सूरज की किरणों से
आग के लाल धागे तेज़ हो रहे हैं।
विचलित मत होइए!
उस आग की तलहटी में,
मत भूलो कि राख का नया ढेर उठ रहा है।
इस रोशनी में हमें आंखों के कोरों में दिखते चिंगारी को चुराना हमें नहीं भूलना चाहिए।
सच है,
हर मौसम की पहली बारिश की बूंद
पुरानी मिट्टी की नई खुशबू बिखेरती है,
हर बूंद के साथ काले बादल का टुकड़ा
आसमानी रंग मिट्टी की धूल में घुल जाता है। बारिश की बूंदें हमारे दिल के तालाब को भर गुफ्तगू की लहर,
तरंगों की लहर पैदा कर देती हैं।
अब,
धीरे-धीरे यादों के हाथ को
एक पन्ने की तरह खुलते हुए देखें,
रेखाएँ उंगलियों की नोक तक खिंच रही हैं।
लंबी रेखा, सीधी रेखा, घुमावदार रेखा, छोटी रेखा, मोटी रेखा, छोटी रेखा, महीन रेखा,
कहीं त्रिकोणीय रेखा,
सारी यादों को समेटे हुए रेखाएं,
तुम्हारे हाथ की रेखाएं अलग हैं,
मेरी रेखाओं की दिशा अलग है।
दोनों को कुछ देर बैठने दीजिए
समय के अंतराल में इन
रेखाओं को जोड़ देंगे, मेल करेंगे
तब तक लीजिए...
हमारी निजी दुनिया में शब्दों को पनपने दें।
*****
अनुवाद : डॉ.प्रभु उपासे
अनुवादक परिचय
परिचयः- कर्नाटक के वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में विशेषकर अनुवाद क्षेत्र में विशेष नाम के डॉ.प्रभु उपासे संप्रति सरकारी महाविद्यालय, चन्नुट्टण, जिला रामनगर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ.प्रभु उपासे जी का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा
आपने विविध छत्तीस राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया एवं शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। अनुवाद क्षेत्र में गणनीय सेवाएं की है। कर्नाटक में हिंदी के प्रचार वं प्रसार एक अध्ययन विषय पर यूजिसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रैजेक्ट (20025-2007) पूर्ण की है। बसव समिति बेंगलूरु द्वारा प्रकाशित बसव मार्ग पत्रिका के ले पिछले बत्तीस वर्ष से लेख लिखते रहे हैं। इनकी अनूदित कृति "आत्महत्या, समस्याएँ एवं समाधान" कृति के लिए बेंगलूर विश्वविद्यालय द्वारा 2021 वर्ष का लालबहादुर शासत्री अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ है। नव काव्य प्ज्ञा फाउंडेशन द्वारा कई राष्ट्य पुरस्कारों से नवाजा गया है। प्रतिभारत्न-2023, साहित्य रत्न-2024, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2024 उल्लेखनीय हैं।
बहुत ही प्रभावित करने वाली कविताएं
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