image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

27 अप्रैल, 2025

रीता दास राम की कविताऍं


एक

सर्वसामान्य 

------ 

ठगे से रह गए 

इच्छाओं का इंतजार बना रहा  


समय आया चलता चला गया 

कुछ भी किसी का ना हुआ न हो सका 


रणनीति की नीति दोहरी तिहरी कटीली मात 

राजनीति की मार कडक अमीरी साजिश के साथ 


किसने सोचा 

किसका गया 

सर्वसामान्य पिसता रहा 


लड़े मरे मारे चाहे जो करे 

सर्वसामान्य के हक का हक भी गलता रहा 


जनता क्या जाने मस्तानी चाल,

हाल, बिसात, रंगीली ढाल 


जमीन में गढ़े जख्मी राज 

छुपे सरताज, अपनी शक्ति, अपनी चौखट 

अपनी मिल्कियत को तरसते आज 


जनता जहाँ थी रही वहीं 

नेतृत्व आता जाता रहा 

नोटों की गिनती चलती रही 

वोटों का राज चलता रहा  










दो

भेदभाव 

----- 

भेदभाव ने 

नहीं छोड़ी कोई जगह 

सभी ओर अपने पैर पसारे 

अपना क़ब्ज़ा किया 


भेदभाव ने बटवारे किए 

आपस में लडाया 

कूटनीति पैदा की 

भाई को भाई से अलग किया 


समाज में लकीर खींची 

देशों का बटवारा किया 


बड़ी बड़ी संस्थाएँ बनी 

बटने के तरीके ने बकायदा

इस्तेमाल करना सीखा और सीखाया 

 

सांचे की ढलवाई से 

उत्कृष्ट बनाया और गढाया गया 


भेदभाव भी 

साफ साफ स्पष्ट दिखाई देने ज़रूरी लगे 


भेदभाव विश्वरचना की नियति रही 

मानवता 

समता 

समानता 

अपना रास्ता देखती रही 


तीन 

नग्नता 

----- 

नग्न होने के तरीके और उसका इस्तेमाल 

शान की बात समझी जाती है 


आदिम युग में 

मानव का नग्न होना 

अज्ञानता दर्शाता है


नंगापन आज वीरता का द्योतक है 


यूँ तो हमाम में सभी नंगे हैं 

सभी जानते हैं 


फिर भी नग्नता का दर्शन/प्रदर्शन 

जैसे उच्चतम पराकाष्ठा 


नग्न होने के अर्थ बदलते हैं जब जब 

नई दुनिया परिलक्षित होती है 


शारीरिक और मानसिक नग्नता के मायने 

अलग ही समझ आते है 


वैचारिक नंगापन यानी निकृष्ट सोच का 

धड़ल्ले से होता प्रयोग चौंकाता है 

भोतर राजनीति उच्चतम प्रमाण है 


नग्नता की रेस जारी है 


बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते लोग 

अपने समय के विकृत अंदाज की माकूल अभिव्यक्ति है 


चार

अपनी रफ्तार 

------ 

व्यस्तताओं की 

अलग अपनी रफ्तार थी 


बहस चर्चा गोष्ठियों के दौरान 

पेट की भूख का उदास चेहरा 

नाराजगी की फेहरिस्त पेश करता 


विचारों की अभिव्यक्ति अपनी स्वतंत्र अपेक्षाओं के परे 

सघन वैचारिकता की कवायद तय करती 


आने और जाने वाले 

रह रह कर गुजरते समय के 

बीते जाने का एहसास कराते 


व्यस्तताएं, 

वार्तालाप के दौर, 

दृष्टि, 

समय, 

के बाद खुद का सिकुड़ना 

खिलना और 

उग आना, याद आता रहा 


समय का सच उधडता रहा 

अपनी रफ्तार में जुटे बँधे 

आत्म को जोड़ते 

भीतरी कड़वाहट को सच्चाई के साथ पाटने की कोशिश करते रहे। 













पाॅंच

बाँटना 

----- 

राज की चाहत और नीति की नैतिकता ने 

बाँट दिया लोग को 

विचारों को 

संबंधों को 


बटते और बाँटते 

रहने की कवायद ने  

अपने फायदे देखे 

नुकसान की परवाह नहीं की 


बाँटने के भाव ने 

नफरत के बीज बोए 

अपमान और हिंसा 

हाथ की कठपुतली बनती चली गई 


दंगे फसाद ने नए अलगाव को परिभाषित किया 

भाईचारे, आत्मीयता, अपनेपन ने दम तोडा 

नफरत ने बाँटने की होली खेली 

इस तरह राज करना मुनासिब हुआ 


समझ ने अपनी जुगत में 

समाज, देश, विदेश को तुलनात्मक दृष्टि से देखा 


खंगालते विचारों के बावजूद 

जोडना जुड़ना जोडने की चाहत ने 

इंतजार का सालो साल साथ दिया 


धर्म जाति ईश्वर में लोगों ने 

सुविधानुसार बटना स्वीकारा 


राज और सत्ता की मनमानी चलती रही 

जिस में किसी का हित न सधा 


छः 

गिरना-गिराना 

------- 

कुछ गिरने की हद है 

कुछ गिराने की 


गिरते हुए लोग 

अपने साथ साथ 

लोगों को गिराने में लगे हैं 


गिरना सुविधानुसार 

कभी जरूरी हो जाता है 

कभी मजबूरी 


गिरते हुओं को उठाना 

मुश्किल है खासकर तब 

जब गिरना उनके फायदे के लिए हो 


गिरने के फायदे और नुकसान 

का तुलनात्मक अध्ययन 

बड़ी पैनी परख है  


समय की नब्ज 

फायदे और नुकसान का भाव तौल 

अच्छे अच्छों की बोलती बंद कर देती है  


बोलना तभी मुमकिन है 

जब बात फायदे की हो 


नुकसान झेलने से तो बेहतर है 

चुप रह जाना 


वरना घुन की तरह पिस जाना 

किसे अच्छा लगता है


सात

कविता 

----- 

कविता में 

नहीं बची कविता 


सिर्फ भाव और संवेदना से अटी पडी धुंध 

सहेजती पंक्तियों को 

कविता कहा जा रहा 


कविता से समाज गुम है

लोग गुम है

लोगों की चिंता गुम है


चमत्कार की पूजा सी है बस 

मुट्ठी भर लोगों के स्वार्थ 

कला को तय कर रहे हैं 


कला गूंगी हो चुकी है 


कला की समझ रखते लोगों ने 

सुनना बंद कर दिया है 


सच देखने की शक्ति 

कुछ नहीं, बचे होने का प्रमाण है 


भेड़चाल में सभी उमड पड़े बिखर रहे हैं 


न समझ है 

ना समझा जा रहा है 

कहना कुछ था 

कहा कुछ और ही जा रहा है 


एक वाहवाही की तूती जैसी गूँज सुनाई दे रही है 

जिसने सभी की अवाजें निगल ली है 


कहने वाला .... कहन के अर्थ से अंजान है 

यह ऐसा समय है... जो अपने समय से अंजान है 


आठ

एक शाम 

------- 

एक बीच पर बितानी है लंबी शाम जिसमें ना हों कोई ऐसी शाम जिसका कोई मतलब न हो  


लौटती लहरें हों पूछती हुईं प्रश्न जिसके उत्तर की ललक बनी रहे 

जाती हुई शाम हो भरी भरी दिन के लिए प्रतीक्षित 


तुम में तुम ना हो हो जो तुम सा लगे 

रहो तुम ही लेकिन तुम से थोड़ा बहुत अलग अलग 


हो प्यास बरकरार जिसमें जीने की आरजू हो बसी 

कहता सुनता चमकता सा हो आँखों में कौतुहल सधा बधा   


रोशनी रोशनी सी हो 

बगैर अंधेरे के भी पहचानी जाय 


एक शाम सागर किनारे ख़ामोशियों की उठे गूँज 


ना कुछ कहते तुम सुनो 

ना कुछ कहते सुने गुने हम 


रहस्य खुलते रहे रह रह के

मिलते रहे मन गह गह के 

ना तुम में सधे बचे तुम रहो 

ना मुझ में बची पड़ी रहूँ मैं 

एक बीच पर बितानी है लंबी शाम जिसमें .... 

०००

परिचय 

डॉ. रीता दास राम (कवयित्री / लेखिका),1968 नागपूर में जन्म, वर्तमान आवास मुंबई, महाराष्ट्र में। एम.ए., एम फिल, पी.एच.डी. (हिन्दी) मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई। 

पता : 2602, टॉवर 8, मैगनोलिया, रुणवाल फोरेस्टस, कांजूर मार्ग पश्चिम, मुंबई - 400074. मो नं : 9619209272. 

मेल : reeta.r.ram@gmail.com               

प्रकाशित पुस्तकें – 

* कविता संग्रह: 1 “तृष्णा” 2012 (अनंग प्रकाशन, दिल्ली). 

             2 “गीली मिट्टी के रूपाकार” 2016 (हिन्दयुग्म प्रकाशन,दिल्ली) 

* कहानी संग्रह - “समय जो रुकता नहीं” 2021 (वैभव प्रकाशन, रायपुर) 

* उपन्यास : “पच्चीकारियों के दरकते अक्स” 2023, (वैभव प्रकाशन, रायपुर) 

* आलोचना - “हिंदी उपन्यासों में मुंबई” 2023 (अनंग प्रकाशन, दिल्ली) 

* आलोचना - आलोचना और वैचारिक दृष्टि 2024 (अनंग प्रकाशन दिल्ली) 

* संयुक्त संपादन : “टूटती खामोशियाँ” 2023 (त्रिभाषीय काव्य संकलन) विद्यापीठ प्रकाशन, मुंबई विश्वविद्यालय के पत्रिका की पुस्तक। 

* संपादन – “कविता में स्त्री : समकालीन पुरुष कवि” (2024) आपस प्रकाशन अयोध्या से प्रकाशित।   

* संपादन - “हमारी अम्मा : स्मृति में माँ” - भाग 1 और भाग 2 (2025) पुस्तकनामा दिल्ली से प्रकाशित। 


कविता, कहानी, लघु कथा, संस्मरण, स्तंभ लेखन, साक्षात्कार, लेख, प्रपत्र, आदि विधाओं में लेखन द्वारा साहित्यिक योगदान। 

* उपन्यास : “पच्चीकारियों के दरकते अक्स” पर लघु शोध प्रबंध सम्पन्न। 

हंस, नया ज्ञानोदय, शुक्रवार, दस्तावेज़, पाखी, नवनीत, वागर्थ, चिंतनदिशा, आजकल, लमही, कथा, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ मित्र के अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, साझा काव्य संकलनों, वेब-पत्रिका, ई-मैगज़ीन, ब्लॉग, पोर्टल, में कविताएँ, कहानी, साक्षात्कार, लेख प्रकाशित। काव्यपाठ, प्रपत्र वाचन, संचालन द्वारा मंचीय सहभागिता। 

सम्मान – 

* काव्य संग्रह ‘तृष्णा’ को ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान’ 2013, 

* ‘अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ 2016, 

* काव्य सग्रह ‘गीली मिट्टी के रुपाकार’ को ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ 2017, 

* ‘शब्द मधुकर सम्मान' 2018, दतिया, मध्यप्रदेश, 

* साहित्य के लिए ‘आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र राष्ट्रीय सम्मान’ 2019, 

* ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ का ‘महिला रचनाकार सम्मान’ 2021, 

* ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ का “शिक्षा भूषण सम्मान” 2022, 

* ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ का “अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सेतु सम्मान” 2023 लंदन पार्लियामेंट में।

* उपन्यास ‘पच्चीकारियों के दरकते अक्स’ को ‘कादंबरी सम्मान’ 2024 जबलपुर से।  

20 अप्रैल, 2025

अनिता रश्मि की कविताऍं

 

 युद्ध आधारित कविताऍं


बुद्ध और युद्धकामी 

--------------


अब बुद्ध कहीं दूर जा 

मुस्काते हैं हौले-हौले 

उन देशों में भी 

जहाँ उनकी 

विशाल प्रतिमाएँ चमचमा रही हैं

बारूदी उड़ान तले। 


बुद्ध की मुस्कुराहट में 

छिपी दर्द की गहरी परत

कभी खुलती नहीं

बस सोच उदास हो जाते कभी,

इस इंद्रधनुषी 

मासूम दुनिया को 

उसी के पेट जायो ने 

बना डाला क्या से क्या  










ठठाकर हँसने को आतुर 

मुस्कान बुद्ध की 

बदल जाना चाहती 

व्यंग्य में 

नारंगी सम गोलाकार वृत्त में 

आना चाहती घूमकर 

औ 

चाहती है कहना, 

तुम्हारे बम, मिसाइलों, परमाणुओं से 

ज्यादा ताकत थी है 

हमारी मुस्कान में, 

समझ सके नहीं क्यों 

जीत वैसे भी दर्ज 

की है हमने? 


फिर तुम हो उठे 

कैसे इतने ताकतवर 

हे युद्धकामी? 

****


यूक्रेन संकट

---------------


सबको सब कुछ 

ऊपरवाले ने  

दिया बराबर


न बँटी हुई जमीं 

न टुकड़ों में आस्मां,


लाशों की नई 

खेप उगाने की 

फिर जिद कैसी? 


फिर ये युद्ध 

किसलिए??

( 24 फरवरी 2022 )

****


युद्ध औ स्त्री 

--------------


स्त्री के लिए 

दुनिया वैसी नहीं 

जैसी वह चाहती रही, 

सदा रही दुनिया वह 

जो चाह पाती नहीं स्त्री 

कभी भी, कहीं भी। 


युद्ध में लिपटी 

उसके ख्यालों के परे 

प्यार, स्नेह से कटी 

बारूद के ढेर पर 

लेटी 

खूँ में डूबी दुनिया 

वह कब चाहती है?  


फिर भी सबसे ज्यादा 

भोगती है स्त्री ही  

युद्ध की विभीषिका, 

काँधे पर थामे अपने 

स्वप्नों का सलीब, 

क्षत-विक्षत बच्चों को 

पीठ पर बाँधे हुए 

देखती रह जाती है 

लुट गई अपनी 

भरी-पूरी मासूम दुनिया। 

*****


युद्धकाल में

-----------


सारे ध्वस्त मकान 

सोए हुए थे

पुरजोर सुकून के साथ 

बस, 

जग रहे थे 

प्रहरी सजग

वर्दियाँ दोनों तरफ


जगी थी

एक पत्नी

एक बहन

एक बहू

एक बेटी 

एक माँ

और 

आग उगलते 

बारूद! 

 *****


शब्दातीत 

------------


कहीं दो चूड़ियाँ

कहीं आईने पर चिपकीं

छोटी-बड़ी, गोल-चौकोर

रंगीली बिंदियाँ

कहीं तकिए के नीचे

सुस्ताता चश्मे का कवर

कभी कहीं

मेज पर अखबार के 

अधखुले पन्ने से

आधे झाँकते

समाचार,

अनपढ़े पृष्ठ किताबों के,


मेडलों का भरा-पूरा संसार

वर्दी औ शान की जुगलबंदियाँ 

तहाए गए यत्न से 

राष्ट्रध्वज के ऊपर रखी 

गई शानदार टोपियाँ, 

कोने में धूल नहान की

चुगली करती लाठी

रूमाल का भीगा कोना

दिल में अपार सम्मान,

ये ही बचीं रह जाती हैं

निशानियांँ

खो गई जिदंगी की।

****









असर

-------


हारती हुई कौम की 

अनगिनत चिकनी

नारी देह पर 

गुजरता टैंक

घायल रक्तरंजित मन, 

युद्ध ऐसे भी 

जीता जाता है 

****


हार

-----


हर लड़ाई का 

हासिल 

जीत नहीं होता,

बाँझ हो चुकी

टुकड़ेभर 

मानवहीन जमीन की 

जीत को 

जीत नहीं कहते।


******



पगडंडी 

----------

जहाँ कोई रस्ता उगता नहीं 

वहाँ उग आती है 

लचीली-लजीली 

टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी 

गुजरते जिससे मन भर बोझा 

अँजुरी भर बेर 

भरपेट मकई

मिठास गन्ने की 

बच्चों के बस्ते 

यूनिफाॅर्म, जूते 

गाँव की गोरी की अथक मेहनत 

साथी संग खिल-खिल हँसी 


पगडंडी अपने साथ लाती है 

गाँव को शहर में 

औ 

शहर को गाँव में 

थोड़े चौड़े रस्ते की 

धूल संग, 

या 

कोलतार की काली चमक

उस चौड़ी चिकनी सड़क के 

घमंड को तोड़ती हुई।

*******



परिचय

अनिता रश्मि बहुविध रचनाकार हैं। उपन्यास , कहानी , लघुकथा, कविता और यात्रा वृत्तांत सहित चौदह किताबें प्रकाशित हैं।

दो पुरस्कृत उपन्यास "गुलमोहर के नीचे, पुकारती जमीं"।

छः कहानी संग्रह "उम्र-दर-उम्र, लाल छप्पा साड़ी, बाँसुरी की चीख, संन्यासी, सरई के फूल, हवा का झोंका थी वह"।

लघुकथा संग्रह "कचोट, रास्ते बंद नहीं होते"।

 यात्रा वृत्तान्त "ईश्वर की तूलिका, एक मुट्ठी जलधर"

काव्य संग्रह "जिन्दा रहेंगी कविताएँ, अब ख़्वाब नए हैं"

साहित्य अकादमी से "झारखंड कथा परिवेश" में कहानी, झारखण्ड कविता परिवेश में कविताऍं।

रचनाऍं प्रतिष्ठित राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होती रहती हैं।

रचनाओं पर अनुवाद एवं शोध कार्य भी हो चुके हैं और अनेक सम्मान भी मिल चुके हैं।

उनका लेखन मौजूदा वक्त के सवालों से तीखी मुठभेड़ करता है और लोक चेतना को जगाने का काम करता है।

1 सी, डी ब्लाॅक, सत्यभामा ग्रैंड, कुसई, 

डोरंडा, राँची, झारखण्ड -834002

ईमेल : rashmianita25@gmail.com

11 अप्रैल, 2025

प्रेम रंजन अनिमेष की कविताऍं

 

स्त्री अशेष..

          

1          

                                

कुछ उसी तरह

                                

कुछ उसी तरह

जैसे कहते 

समाचार के

आखिर में 


कहा भी कहाँ 

बंद कमरे में 

रहा गूँजता 


इस जिंदगी के लिए 

केवल इतना...

                            








2


स्त्री की बात

                                

भोथरा कुठार

धारदार तलवार

बम गोले बारूद

अस्त्रों का भंडार

शस्त्रागार 


संसार के सारे हथियार

क्या बनाये गये इसीलिए 

कि रखा जाये  

किसी तरह बरकरार 

पौरुष का अहंकार 


या कि खत्म करने के लिए 

हर जगह से

स्त्री की जात

स्त्री की बात 


बात जो

अपने चरमोत्कर्ष पर

हो जाती 


एक बहस

कोई दलील

कहीं गवाही...

                               


3


बंद दरवाजे के पीछे

                                

कोई दरवाजा

हो बाहर से लगा 

तो उसे खाली

एक कपाट मत समझो 


कान लगा कर सुनो

हो सकता है

उसके भीतर 

कोई धड़कन हो 


कोई मासूम जान

जिंदगी के लिए 

जूझती हुई 


मुमकिन है 

यह भी

कि आरक्षियों को 

खबर हो 


पर वे अपनी सहूलियत से

या किसी इशारे पर

देर से पहुँचें 


समय पर पहुँचने से

कोई जान बच सकती है

कई जानें बच सकती हैं 


दीवारों के बीच 

दरवाजा तो बना ही 

इसी के लिए 


इसलिए कोई चीख सुनायी दे

तो अनसुनी मत करो 

और न रहो ठिठके 


चाहे वह निकली हो कहीं से

कौन जाने अपने ही भीतर से 


बाहर जो ताला झूल रहा 

उसे तोड़ा जा सकता 


ताले तो बने ही 

कभी न कभी 

टूटने के लिए 


और वह समय

है आज

और अभी ...

                              


4


परिहार

                               

क्या ऐसा कभी होता है 


कि दो पहियों की गाड़ी में 

एक पहिया एक दिन उठे

और दूसरे को अलग कर दे

कि वह अकेला काफी है 


जिंदगी में 

ऐसा होते देखा है...

                              


5


रुखसती

                               

जो बरसों बरस साथ रहा

एक दिन सहसा

उसी ने कर दिया जुदा 


न जाने क्या

तकलीफ ऐसी

होने लगी थी

होने से उसके 


कोई बात नहीं 

खास या नयी 


इस तरह स्त्रियों की

विदाई की परंपरा

सदियों से चली आ रही 


क्योंकि हर घर यह कहता

वह किसी और का 


बस उसके सिवा

अपने को होम कर जिसने

उसे बनाया बसाया...

                             


6


कलम की ताकत

                               

लेखनी

कोई  

कितनी

बड़ी 


और कलम की

काट कैसी 


क्या नोक उसकी

देखते चुभने लगती

आँखों को कई 


रोशनाई 

जो उसमें भरी

कितनी पक्की

किस कदर गाढ़ी  


क्या किसी 

स्त्री के हाथ लग कर

हो जाती वह और सुंदर

और धारदार 


इतनी असरदार 

कि तोड़ देने के लिए  

बलवंत कोई कापुरुष कोई 

उठाये हथियार 

करे प्रहार...?

                             











7


विडंबना

                                

स्त्री तो

सदा से ही

रचयिता 


सबसे सपनीली

और सच्ची 


फिर क्यों 

किसी को 

रचने की 

सजा 

ऐसी भारी 


अपराधियों को भी जैसी

दी नहीं जाती


रचना 

हालाँकि हमेशा

जोखिम से भरा 


और यही

इस समय समाज की

सबसे बड़ी विडंबना 


कि जो रचता है

कहाँ बचता है...?

                              


8


कुछ करने चलती स्त्री

                                 

कुछ करने चलती स्त्री 


घर संसार सँभार

उससे परे

उसके पार 


वह जो आधार 

और आकार 

होकर भी

निराधार निराकार 


सोचती रहती 

कोई स्वप्न उसके लिए भी 

तो हो साकार 


पर जीवन भर

तन से मारी जाती

मन मार कर जीती

न जाने औरतें कितनी 


और किसी तरह भी

होने जीने की 

कोशिश करते ही 

होने लगतीं 

हटाने मिटाने समेटने की

साजिशें कई 


कुछ करने चलती स्त्री 

तो अकसर 

ऊपर आसमान से

होता नहीं वज्रपात 


बल्कि बहुत पास से 

कोई कहने को 

बिलकुल अपना 

करता कुठाराघात

हठात...

                              


9


स्त्रियोचित                           

                                🌀

झाड़ू पोंछा छोड़ कर 

बने कलम जो हाथ

सिलवट सिलवट हो गया

कैसा प्रभु का माथ 


दी लकड़ी किस पेड़ ने

किस लोहे ने धार

करता जिससे आदमी

औरत पर यूँ वार...

                              


10


असहजीवन

                               

बात दीगर 

कि शब्दों में 

रही अमर 


मारने की

कोशिश तो की गयी

मीरा को भी 


और जनश्रुतियाँ जैसा बतातीं

प्याला विष का

भेजा था

राणा जी ने ही 


मध्ययुग था तब

काल आथुनिक अब

खूब उद्घोषित हर ओर

उन्नति प्रगति अपार


किंतु स्त्री के साथ 

उसके विरुद्ध 

वही विषम व्यवहार

अमानुषिक अत्याचार 


और आदमी के वैसे ही 

आदिम हथियार...

                              


11


रिक्तता

                                

एक और औरत

उठ गयी

भेज दी गयी

इस असार संसार से

वह भी असमय 


स्त्रियाँ भेजी जातीं 

इसी तरह से

कई बार तो

जन्म से भी 

पहले ही 


चलता रहा यही

तो रुक न जाये कहीं

एक दिन यह दुनिया 

जीवन सत से खाली 


रिक्तता की वह खाई गहरी

और बढ़ाती 

हमेशा खलेगी

कमी उसकी


किसी स्त्री के जाने से बनी  

जगह कभी

भरी कहाँ जा सकी...

                                 


12


बिसात                           

                                

कितनी सदियों का

यह अँधेरा 

कितनी रातों की

एक रात 


किसी घास को तो

जड़ से उखाड़ नहीं सकते

मिल कर दुनिया के

बवंडर बवाल झंझावत सारे


फिर औरत के आगे

क्या बिसात

कैसी औकात 


जड़ से जुड़े

और बढ़े 

अगर वह साथ


जोड़ ले

थाम ले 

हाथ में हाथ...

   ०००                                                       

   

                                                                                                                

 संक्षिप्त परिचय

*देश के सर्वाधिक सशक्त, नवोन्मेषी एवं बहुआयामी रचनाकारों में अग्रगण्य 

* जन्म 1968 में आरा (भोजपुर), बिहार में  

* बचपन से ही साहित्य कला संगीत से जुड़ाव, विविध विधाओं में अनेक पुस्तकें प्रकाशित 

* कविता हेतु भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार  तथा 'एक मधुर सपना' और 'पानी पानी' सरीखी कहानियाँ प्रतिष्ठित कथा पत्रिकाओं  'हंस' व 'कथादेश' द्वारा  शीर्ष सम्मान से सम्मानित 

*कविता संग्रह* : मिट्टी के फल,  कोई नया समाचार, संगत, अँधेरे में अंताक्षरी, बिना मुँडेर की छत, संक्रमण काल, माँ के साथ, स्त्री सूक्त, 'कुछ पत्र कुछ प्रमाणपत्र और कुछ साक्ष्य', 'जीवन खेल' आदि बहुचर्चित 

**ईबुक* :  'अच्छे आदमी की कवितायें', 'अमराई' एवं 'साइकिल पर संसार' ईपुस्तक के रूप में ( क्रमशः 'हिन्दी समय', 'हिन्दवी' व 'नाॅटनल' पर उपलब्ध)

*अनेक बड़ी कविता श्रृंखलाओं के लिए सुविख्यात 

*कहानी संग्रह*  'एक स्वप्निल प्रेमकथा' ('नाॅटनल' पर उपलब्ध) तथा  'एक मधुर सपना' पुस्तकनामा से प्रकाशित, 'लड़की जिसे रोना नहीं आता था', 'थमी हुई साँसों का सफ़र', 'पानी पानी', 'नटुआ नाच', 'उसने नहीं कहा था', 'रात की बात', 'अबोध कथायें' आदि शीघ्र प्रकाश्य । 

*उपन्यास* ' 'माई रे...', 'स्त्रीगाथा', 'परदे की दुनिया', ' 'दि हिंदी टीचर', आदि 

*बच्चों के लिए कविता संग्रह* 'माँ का जन्मदिन' प्रकाशन विभाग से प्रकाशित, 'आसमान का सपना' प्रकाशन की प्रक्रिया में। 

*ग़ज़ल संग्रह* 'पहला मौसम' और ग़ज़ल की और किताबें

संस्मरण, नाटक, पटकथा,  आलोचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद तथा गायन एवं संगीत रचना भी । अलबम *'माँओं की खोई लोरियाँ'*,*'धानी सा'*, *'एक सौग़ात'* ।

*ब्लॉग* : 'अखराई' (akhraai.blogspot.in) तथा 'बचपना' (bachpna.blogspot.in)

*स्थायी आवास*: 'जिजीविषा', राम-रमा कुंज, प्रो. रमाकांत प्रसाद सिंह स्मृति वीथि, विवेक विहार, हनुमाननगर, पटना 800020  

*वर्तमान पता* : 11 सी, आकाश, अर्श हाइट्स, नाॅर्थ ऑफिस पाड़ा,  डोरंडा, राँची 834002 

ईमेल : premranjananimesh@gmail.com 

दूरभाष : 9930453711, 9967285190