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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

10 अप्रैल, 2025

अपने समय के सम्मुख

  

 एस.एस.पंवार

कहते हैं कि कविताओं का मूल्य बोध कवि के भोगे या जांचे-परखे जीवन का निचोड़ होता है। रश्मि भारद्वाज के कविता संग्रह 'सम्मुख' की कविताएं भी इसी ओर इशारा करती हैं। कवयित्री रश्मि की आत्मस्वीकारोक्ति है कि स्त्री होने और कविता लिखने की अपनी क्षतियाँ भी हैं। ये निश्चय ही कविता लिखने वाली हर स्त्री महसूस करती ही होंगी। वे कहती हैं एक स्त्री की कविता को उसके स्त्री होने में ही बांध दिया जाता है। रचनाओं के प्रति

पाठक वर्ग या समाज के किसी भी वर्ग की अवधारणाओं के प्रति कवयित्री की नजर पैनी है। वे शुरू में ही पाठक को सचेत करती हैं कि किसी भी झुकाव में बंधकर उसकी रचनाओं को न पढ़कर इन कविताओं की एक तटस्थ स्वीकार्यता जरूरी है। स्त्री चिंतन रश्मि की कविताओं में जोर-शोर से अपनी पैठ दर्ज कराता है। आत्मानुभूति, आत्मस्वीकारोक्ति के साथ-साथ सजगता और मनन का एक अन्य भाव, जो कि कविताओं के मूल्य का पक्ष है; बराबर उनकी कविताओं में परिलक्षित होता रहा है। पाठक की सजग और महीन दृष्टि ही इस भाव को हूबहू ग्रहण कर पाती है। दर्शन और मूल्य उनकी ऐंद्रजालिक गूढ़ शैली में साथ साथ चलते हैं। एक कविता में पूर्व की किसी स्मृति के मार्फ़त वे लिखती हैं


बचपन की एक साइकिल 

जिसे सीखते हुए जाना कि रास्ते सीधे-सरल नहीं 

बहुत घुमावदार होते हैं

सन्तुलन साधते काँटों की झाड़ पर गिर गयी थी 

काँटों से बचना अभी भी सीख ही रही हूँ 

रास्ते अब भी छल जाते हैं


निश्चय ही यह भौतिक घटना के जरिये जीवन की कटु सच्चाई को उद्घाटित करता हुआ पद्य है। व्यक्तिगत न होकर यह पूरी स्त्री वर्ग की पीड़ा है। वह बार-बार छली जाती रही है। एक अन्य जगह वर्कपैलेस पर काम करती हुई स्त्री को लेकर पंक्तियां हैं


नौकरी पर जाते हुए मैं आत्मसम्मान 

घर की दराज में बन्द कर आती हूँ 

घर लौटकर छिपा देती हूँ अपनी बाहर वाली चप्पलें 

इस तरह मैं दोनों जगह पूरी हो पाती हूँ


समानता की दुहाई देते हुए समाज में स्त्री निजी क्षेत्रों में नौकरी के लिए जरूर पुरुषों के साथ आई है। लेकिन पुरुष दृष्टि जिस नजर से उसे देख रही है। कवयित्री उसे बखूबी समझती है। जिस रूप में, जिस किरदार में स्त्री को उतरना पड़ता है; कवयित्री उसे सजगता के साथ अभिव्यक्त करती है।


कवयित्री रश्मि भारद्वाज को समझौतों के भ्रमजाल में जीना बर्दास्त नहीं। वह अपने जीवन के फैसले सजगता से लेती है और उसी से निर्मित चट्टान की तरह मजबूत व्यक्तित्व उनकी प्रतिबद्धताओं से भरी कविताओं में भी नजर आता है। 'एक पुरुष वाला घर' इसी की परिचायक कविता है। कवयित्री के पास उसके पद्य में, मार्मिकता, सजगता और भविष्य दृष्टि सब कुछ है।

'एक विचार की तरह' एक टुकड़ों में बंटी हुई कविता है। एकबारगी यह एक अधूरी सी प्रतीत हो सकती है, लेकिन यह वास्तव में अपने अधूरे होने के दर्शन में अधूरी; लेकिन एक मुकम्मल कविता है जो किसी की अनुपस्थिति को मुक़म्मल बयां करती है और हमें भावुकता से नम कर देती है। हिंदी के बहुचर्चित उपन्यास 'आपका बंटी' सरीखा बाल मनोविज्ञान और उसके इर्द गिर्द का तमाम घटा-जोड़ कवयित्री इसके मार्फ़त  संजीदगी से दर्ज करती है। 'नक्षत्रविहिन है अगस्त का आकाश' कविता में कवियित्री अपनी बेटी को संबोधित पंक्तियों में हिदायत लिखती है। उसे मजबूत करती है। इस कविता की कुछ पंक्तियां हैं


मैं उससे कहूँगी 

उसे किसी हार का भय नहीं होना चाहिए

दुख का नहीं 

विरह का नहीं 

मृत्यु का भी नहीं, 

भय तो इस जीवन का है 

जिसके छल से 

जो पराजित नहीं हुआ 

बिखरा नहीं 

वह भी एक दिन 

क्लान्त हो जाता है।


पशु पक्षी प्रेम और हमदर्दी उनकी कविता में बराबर चलती है। 'गहन वृष्टि की रातों में' कविता की पंक्तियां हैं


ज्यों काँपती है नन्हीं चिड़िया 

किसी वाहन तले छिपा कुनमुनाता है श्वान


वहीं एक याचित मृत्यु के साथ कविता में भी ठीक ऐसे दृश्य यकायक बन पड़ते हैं।


यह कैसा करुण विलाप 

एकाएक उचटती है नींद 

सफेद झब्बेदार पूँछ वाली उसकी साथिन को 

कल बेरहमी से कुचल गया था कोई गाड़ी वाला 

अकेला छूट गया वह श्वान रोता है


पत्तों की ओट से चिहुँकी है 

वह एकाकी चिड़िया 

घायल है उसका एक पैर,


निश्चित रूप से ये दृश्य इस मत को प्रबल करते हैं कि एक सच्चे कवि में अपने परिवेश को लेकर संजीदगी होती है। वह अपने आसपास के सजीव और निर्जीव तमाम वस्तुओं को बारीकी से देखता महसूसता है। प्रकृति के मानवीकरण और उसे आत्मसात कर लेने की बखूबी झलक 'काशी' कविता में दिखती है। 


मैं शिव को खोजने गयी भी नहीं थी 

मुझे एक नदी के वक्ष पर सर टिका

उसकी सिहरती धड़कन सुननी थी 

मुझे एक शोर की लय में 

कहीं डूब जाना था।


रश्मि संभावनाओं की कवयित्री है। वह अपने सुखों-दुखों के साथ जीवन के तमाम पक्षों पर विमर्श करती हैं। अपनी अब तक की साहित्यिक यात्रा में वह नवीनता खोजती रही है। अपनी कविता 'सर्व मंगल मांगल्ये' वे कहती हैं 


कवियों ने ईश्वर को मृत घोषित कर दिया वियोगियों ने प्रेम को 

दोनों का ही कोई विकल्प 

वे कभी नहीं दे सके


अर्थात आम जन की तरह वह साहित्य में इस जिज्ञासा और संभावना को बराबर किसी परिणाम की उम्मीद से देखती रही हैं।

देवियों के व्रत-अनुष्ठान करने वाली अधिकतर स्त्रियों के पास महज एक अंधी श्रद्धा और एक पारंपरिक रीत होती है जिसमें वे महज देवियों का गुणगान करती हैं, उन्हें मनाती हैं। रश्मि की कविताएं दुर्गाओं के तमाम रूपों पर सजगता से अपनी बात कहती है। कवयित्री रश्मि भारद्वाज का मानना है कि नवदुर्गा कोई और नहीं, हमारी आन्तरिक शक्ति है, हम स्त्रियाँ में अन्तर्निहित चेतना, संकल्प शक्ति, प्रेम और तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी हमें उबार ले जाने वाली हमारी जिजीविषा। वे परम्परा से मिली धरोहर हैं और वहीं से आधुनिक स्त्री का स्वरूप भी मिलता है। ऐसी आधुनिक स्त्री जो गढ़े गये रूपकों और मिथकों के बाहर सन्धान करती है अपना अस्तित्व। हम सबके अन्दर स्थित दुर्गा महाकाव्यों के पार जाकर आम जीवन में खोजती है अपने स्त्री होने के मायने। एक आम स्त्री की तरह पराजित होती है, भयभीत होती है लेकिन अपनी सारी ताक़त बटोर पुनः अपनी यात्रा आरम्भ करती है। वही नवदुर्गा मेरा हाथ गह अपना यह नया स्वरूप लिखने के लिए मेरी अन्तः प्रेरणा बन जाती है। नव दुर्गाओं में प्रथम रूप शैलपुत्री के मार्फ़त कुछ पंक्तियां हैं 


शैलपुत्री, पिता से रखना अनुरक्ति 

कोई आस मत रखना 

प्रथम मोहभंग सदैव पिता ही करते हैं 

जब उनके गृह में ही नहीं 

हृदय में भी तुम आगन्तुक हो जाती हो 

मिलेंगे तुम्हें ऐसे पिता भी 

गर्भ में वीर्य डाल आने के अतिरिक्त 

एक जीवन में वे कहीं नहीं होते, 

मात्र अपनी काया का अंश हो तुम 

अपनी ही योनि से जन्म लेती हो


इस तरह निश्चय ही उनकी कविता दुर्गा-भक्तिन स्त्रियों को एक नई दृष्टि प्रदान करती हैं। रश्मि की ये कविता पितृसत्ता को लेकर मजबूती से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। कविता के अंत में कवयित्री नारी शक्ति को इंगित कर कहती हैं


योगिनी, तुम करो अपना आह्वान 

गाओ केवल अपनी स्तुति के मन्त्र 

तुम जिसे बाहर खोजती चली आयी हो सदियों से 

वह तिलिस्म सदैव तुम्हारे भीतर ही है। 


इस कड़ी में देवी के अष्टम रूप महागौरी पर एक कविता के माध्यम से वह पूरे वर्तमान की व्यवस्था को भी उद्घाटित करती है, समग्र अस्तित्व के प्रति उनका प्रश्न है कि 


यह किसकी गणना रही 

काला तम का प्रतीक हो गया

घोर उजाले की ओट में जबकि

होते रहे अधर्म ।


इसी तरह कवयित्री नव दुर्गाओं के माध्यम से उनके समस्त रूपों-गुणों की जानकारी रखते हुए बेहतरी से स्त्री मन को खोलती है।

सम्मुख कविता संग्रह अपने समय और समाज पर संवेदनशील दृष्टि रखने वाले ऐसी स्त्री नागरिक की अभिव्यक्ति है जो सिर्फ़ अपने सम्मुख ही नहीं है, अपने सामने घटित दृश्यों की भी सचेत साक्षी है और धर्म, समाज, राजनीति, बाज़ार के सम्मुख असहाय पड़ते जा रहे व्यक्ति के संघर्ष और जिजीविषा को कलमबद्ध कर रही हैं।

०००

एस.एस पंवार 

युवा कवि व समीक्षक 



3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही संजीदा और सटीक समीक्षा ।
    समीक्षा पढ़कर ही पुस्तक में छिपी स्त्री की पीड़ा और उसका संघर्ष दोनों ही परिलक्षित हो रहे हैं ।लेखिका को बहुत बहुत बधाई! समीक्षक की पैनी नज़र से लिखी समीक्षा के लिए साधुवाद!

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  2. मुझे रश्मि भारद्वाज जी की कविताएँ
    और भाई एस एस पंवार की समीक्षा बहुत

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  3. आपका बहुत आभार साथियो 😊😊

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