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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 अप्रैल, 2025

प्रेम रंजन अनिमेष की कविताऍं

 

स्त्री अशेष..

          

1          

                                

कुछ उसी तरह

                                

कुछ उसी तरह

जैसे कहते 

समाचार के

आखिर में 


कहा भी कहाँ 

बंद कमरे में 

रहा गूँजता 


इस जिंदगी के लिए 

केवल इतना...

                            








2


स्त्री की बात

                                

भोथरा कुठार

धारदार तलवार

बम गोले बारूद

अस्त्रों का भंडार

शस्त्रागार 


संसार के सारे हथियार

क्या बनाये गये इसीलिए 

कि रखा जाये  

किसी तरह बरकरार 

पौरुष का अहंकार 


या कि खत्म करने के लिए 

हर जगह से

स्त्री की जात

स्त्री की बात 


बात जो

अपने चरमोत्कर्ष पर

हो जाती 


एक बहस

कोई दलील

कहीं गवाही...

                               


3


बंद दरवाजे के पीछे

                                

कोई दरवाजा

हो बाहर से लगा 

तो उसे खाली

एक कपाट मत समझो 


कान लगा कर सुनो

हो सकता है

उसके भीतर 

कोई धड़कन हो 


कोई मासूम जान

जिंदगी के लिए 

जूझती हुई 


मुमकिन है 

यह भी

कि आरक्षियों को 

खबर हो 


पर वे अपनी सहूलियत से

या किसी इशारे पर

देर से पहुँचें 


समय पर पहुँचने से

कोई जान बच सकती है

कई जानें बच सकती हैं 


दीवारों के बीच 

दरवाजा तो बना ही 

इसी के लिए 


इसलिए कोई चीख सुनायी दे

तो अनसुनी मत करो 

और न रहो ठिठके 


चाहे वह निकली हो कहीं से

कौन जाने अपने ही भीतर से 


बाहर जो ताला झूल रहा 

उसे तोड़ा जा सकता 


ताले तो बने ही 

कभी न कभी 

टूटने के लिए 


और वह समय

है आज

और अभी ...

                              


4


परिहार

                               

क्या ऐसा कभी होता है 


कि दो पहियों की गाड़ी में 

एक पहिया एक दिन उठे

और दूसरे को अलग कर दे

कि वह अकेला काफी है 


जिंदगी में 

ऐसा होते देखा है...

                              


5


रुखसती

                               

जो बरसों बरस साथ रहा

एक दिन सहसा

उसी ने कर दिया जुदा 


न जाने क्या

तकलीफ ऐसी

होने लगी थी

होने से उसके 


कोई बात नहीं 

खास या नयी 


इस तरह स्त्रियों की

विदाई की परंपरा

सदियों से चली आ रही 


क्योंकि हर घर यह कहता

वह किसी और का 


बस उसके सिवा

अपने को होम कर जिसने

उसे बनाया बसाया...

                             


6


कलम की ताकत

                               

लेखनी

कोई  

कितनी

बड़ी 


और कलम की

काट कैसी 


क्या नोक उसकी

देखते चुभने लगती

आँखों को कई 


रोशनाई 

जो उसमें भरी

कितनी पक्की

किस कदर गाढ़ी  


क्या किसी 

स्त्री के हाथ लग कर

हो जाती वह और सुंदर

और धारदार 


इतनी असरदार 

कि तोड़ देने के लिए  

बलवंत कोई कापुरुष कोई 

उठाये हथियार 

करे प्रहार...?

                             











7


विडंबना

                                

स्त्री तो

सदा से ही

रचयिता 


सबसे सपनीली

और सच्ची 


फिर क्यों 

किसी को 

रचने की 

सजा 

ऐसी भारी 


अपराधियों को भी जैसी

दी नहीं जाती


रचना 

हालाँकि हमेशा

जोखिम से भरा 


और यही

इस समय समाज की

सबसे बड़ी विडंबना 


कि जो रचता है

कहाँ बचता है...?

                              


8


कुछ करने चलती स्त्री

                                 

कुछ करने चलती स्त्री 


घर संसार सँभार

उससे परे

उसके पार 


वह जो आधार 

और आकार 

होकर भी

निराधार निराकार 


सोचती रहती 

कोई स्वप्न उसके लिए भी 

तो हो साकार 


पर जीवन भर

तन से मारी जाती

मन मार कर जीती

न जाने औरतें कितनी 


और किसी तरह भी

होने जीने की 

कोशिश करते ही 

होने लगतीं 

हटाने मिटाने समेटने की

साजिशें कई 


कुछ करने चलती स्त्री 

तो अकसर 

ऊपर आसमान से

होता नहीं वज्रपात 


बल्कि बहुत पास से 

कोई कहने को 

बिलकुल अपना 

करता कुठाराघात

हठात...

                              


9


स्त्रियोचित                           

                                🌀

झाड़ू पोंछा छोड़ कर 

बने कलम जो हाथ

सिलवट सिलवट हो गया

कैसा प्रभु का माथ 


दी लकड़ी किस पेड़ ने

किस लोहे ने धार

करता जिससे आदमी

औरत पर यूँ वार...

                              


10


असहजीवन

                               

बात दीगर 

कि शब्दों में 

रही अमर 


मारने की

कोशिश तो की गयी

मीरा को भी 


और जनश्रुतियाँ जैसा बतातीं

प्याला विष का

भेजा था

राणा जी ने ही 


मध्ययुग था तब

काल आथुनिक अब

खूब उद्घोषित हर ओर

उन्नति प्रगति अपार


किंतु स्त्री के साथ 

उसके विरुद्ध 

वही विषम व्यवहार

अमानुषिक अत्याचार 


और आदमी के वैसे ही 

आदिम हथियार...

                              


11


रिक्तता

                                

एक और औरत

उठ गयी

भेज दी गयी

इस असार संसार से

वह भी असमय 


स्त्रियाँ भेजी जातीं 

इसी तरह से

कई बार तो

जन्म से भी 

पहले ही 


चलता रहा यही

तो रुक न जाये कहीं

एक दिन यह दुनिया 

जीवन सत से खाली 


रिक्तता की वह खाई गहरी

और बढ़ाती 

हमेशा खलेगी

कमी उसकी


किसी स्त्री के जाने से बनी  

जगह कभी

भरी कहाँ जा सकी...

                                 


12


बिसात                           

                                

कितनी सदियों का

यह अँधेरा 

कितनी रातों की

एक रात 


किसी घास को तो

जड़ से उखाड़ नहीं सकते

मिल कर दुनिया के

बवंडर बवाल झंझावत सारे


फिर औरत के आगे

क्या बिसात

कैसी औकात 


जड़ से जुड़े

और बढ़े 

अगर वह साथ


जोड़ ले

थाम ले 

हाथ में हाथ...

   ०००                                                       

   

                                                                                                                

 संक्षिप्त परिचय

*देश के सर्वाधिक सशक्त, नवोन्मेषी एवं बहुआयामी रचनाकारों में अग्रगण्य 

* जन्म 1968 में आरा (भोजपुर), बिहार में  

* बचपन से ही साहित्य कला संगीत से जुड़ाव, विविध विधाओं में अनेक पुस्तकें प्रकाशित 

* कविता हेतु भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार  तथा 'एक मधुर सपना' और 'पानी पानी' सरीखी कहानियाँ प्रतिष्ठित कथा पत्रिकाओं  'हंस' व 'कथादेश' द्वारा  शीर्ष सम्मान से सम्मानित 

*कविता संग्रह* : मिट्टी के फल,  कोई नया समाचार, संगत, अँधेरे में अंताक्षरी, बिना मुँडेर की छत, संक्रमण काल, माँ के साथ, स्त्री सूक्त, 'कुछ पत्र कुछ प्रमाणपत्र और कुछ साक्ष्य', 'जीवन खेल' आदि बहुचर्चित 

**ईबुक* :  'अच्छे आदमी की कवितायें', 'अमराई' एवं 'साइकिल पर संसार' ईपुस्तक के रूप में ( क्रमशः 'हिन्दी समय', 'हिन्दवी' व 'नाॅटनल' पर उपलब्ध)

*अनेक बड़ी कविता श्रृंखलाओं के लिए सुविख्यात 

*कहानी संग्रह*  'एक स्वप्निल प्रेमकथा' ('नाॅटनल' पर उपलब्ध) तथा  'एक मधुर सपना' पुस्तकनामा से प्रकाशित, 'लड़की जिसे रोना नहीं आता था', 'थमी हुई साँसों का सफ़र', 'पानी पानी', 'नटुआ नाच', 'उसने नहीं कहा था', 'रात की बात', 'अबोध कथायें' आदि शीघ्र प्रकाश्य । 

*उपन्यास* ' 'माई रे...', 'स्त्रीगाथा', 'परदे की दुनिया', ' 'दि हिंदी टीचर', आदि 

*बच्चों के लिए कविता संग्रह* 'माँ का जन्मदिन' प्रकाशन विभाग से प्रकाशित, 'आसमान का सपना' प्रकाशन की प्रक्रिया में। 

*ग़ज़ल संग्रह* 'पहला मौसम' और ग़ज़ल की और किताबें

संस्मरण, नाटक, पटकथा,  आलोचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद तथा गायन एवं संगीत रचना भी । अलबम *'माँओं की खोई लोरियाँ'*,*'धानी सा'*, *'एक सौग़ात'* ।

*ब्लॉग* : 'अखराई' (akhraai.blogspot.in) तथा 'बचपना' (bachpna.blogspot.in)

*स्थायी आवास*: 'जिजीविषा', राम-रमा कुंज, प्रो. रमाकांत प्रसाद सिंह स्मृति वीथि, विवेक विहार, हनुमाननगर, पटना 800020  

*वर्तमान पता* : 11 सी, आकाश, अर्श हाइट्स, नाॅर्थ ऑफिस पाड़ा,  डोरंडा, राँची 834002 

ईमेल : premranjananimesh@gmail.com 

दूरभाष : 9930453711, 9967285190

2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम जी, आपकी कविताएं प्रभावी हैं...स्त्री विमर्श की परतें खोलती हैं...

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