युद्ध आधारित कविताऍं
बुद्ध और युद्धकामी
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अब बुद्ध कहीं दूर जा
मुस्काते हैं हौले-हौले
उन देशों में भी
जहाँ उनकी
विशाल प्रतिमाएँ चमचमा रही हैं
बारूदी उड़ान तले।
बुद्ध की मुस्कुराहट में
छिपी दर्द की गहरी परत
कभी खुलती नहीं
बस सोच उदास हो जाते कभी,
इस इंद्रधनुषी
मासूम दुनिया को
उसी के पेट जायो ने
बना डाला क्या से क्या
ठठाकर हँसने को आतुर
मुस्कान बुद्ध की
बदल जाना चाहती
व्यंग्य में
नारंगी सम गोलाकार वृत्त में
आना चाहती घूमकर
औ
चाहती है कहना,
तुम्हारे बम, मिसाइलों, परमाणुओं से
ज्यादा ताकत थी है
हमारी मुस्कान में,
समझ सके नहीं क्यों
जीत वैसे भी दर्ज
की है हमने?
फिर तुम हो उठे
कैसे इतने ताकतवर
हे युद्धकामी?
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यूक्रेन संकट
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सबको सब कुछ
ऊपरवाले ने
दिया बराबर
न बँटी हुई जमीं
न टुकड़ों में आस्मां,
लाशों की नई
खेप उगाने की
फिर जिद कैसी?
फिर ये युद्ध
किसलिए??
( 24 फरवरी 2022 )
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युद्ध औ स्त्री
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स्त्री के लिए
दुनिया वैसी नहीं
जैसी वह चाहती रही,
सदा रही दुनिया वह
जो चाह पाती नहीं स्त्री
कभी भी, कहीं भी।
युद्ध में लिपटी
उसके ख्यालों के परे
प्यार, स्नेह से कटी
बारूद के ढेर पर
लेटी
खूँ में डूबी दुनिया
वह कब चाहती है?
फिर भी सबसे ज्यादा
भोगती है स्त्री ही
युद्ध की विभीषिका,
काँधे पर थामे अपने
स्वप्नों का सलीब,
क्षत-विक्षत बच्चों को
पीठ पर बाँधे हुए
देखती रह जाती है
लुट गई अपनी
भरी-पूरी मासूम दुनिया।
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युद्धकाल में
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सारे ध्वस्त मकान
सोए हुए थे
पुरजोर सुकून के साथ
बस,
जग रहे थे
प्रहरी सजग
वर्दियाँ दोनों तरफ
जगी थी
एक पत्नी
एक बहन
एक बहू
एक बेटी
एक माँ
और
आग उगलते
बारूद!
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शब्दातीत
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कहीं दो चूड़ियाँ
कहीं आईने पर चिपकीं
छोटी-बड़ी, गोल-चौकोर
रंगीली बिंदियाँ
कहीं तकिए के नीचे
सुस्ताता चश्मे का कवर
कभी कहीं
मेज पर अखबार के
अधखुले पन्ने से
आधे झाँकते
समाचार,
अनपढ़े पृष्ठ किताबों के,
मेडलों का भरा-पूरा संसार
वर्दी औ शान की जुगलबंदियाँ
तहाए गए यत्न से
राष्ट्रध्वज के ऊपर रखी
गई शानदार टोपियाँ,
कोने में धूल नहान की
चुगली करती लाठी
रूमाल का भीगा कोना
दिल में अपार सम्मान,
ये ही बचीं रह जाती हैं
निशानियांँ
खो गई जिदंगी की।
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असर
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हारती हुई कौम की
अनगिनत चिकनी
नारी देह पर
गुजरता टैंक
घायल रक्तरंजित मन,
युद्ध ऐसे भी
जीता जाता है
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हार
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हर लड़ाई का
हासिल
जीत नहीं होता,
बाँझ हो चुकी
टुकड़ेभर
मानवहीन जमीन की
जीत को
जीत नहीं कहते।
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पगडंडी
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जहाँ कोई रस्ता उगता नहीं
वहाँ उग आती है
लचीली-लजीली
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी
गुजरते जिससे मन भर बोझा
अँजुरी भर बेर
भरपेट मकई
मिठास गन्ने की
बच्चों के बस्ते
यूनिफाॅर्म, जूते
गाँव की गोरी की अथक मेहनत
साथी संग खिल-खिल हँसी
पगडंडी अपने साथ लाती है
गाँव को शहर में
औ
शहर को गाँव में
थोड़े चौड़े रस्ते की
धूल संग,
या
कोलतार की काली चमक
उस चौड़ी चिकनी सड़क के
घमंड को तोड़ती हुई।
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परिचय
अनिता रश्मि बहुविध रचनाकार हैं। उपन्यास , कहानी , लघुकथा, कविता और यात्रा वृत्तांत सहित चौदह किताबें प्रकाशित हैं।
दो पुरस्कृत उपन्यास "गुलमोहर के नीचे, पुकारती जमीं"।
छः कहानी संग्रह "उम्र-दर-उम्र, लाल छप्पा साड़ी, बाँसुरी की चीख, संन्यासी, सरई के फूल, हवा का झोंका थी वह"।
लघुकथा संग्रह "कचोट, रास्ते बंद नहीं होते"।
यात्रा वृत्तान्त "ईश्वर की तूलिका, एक मुट्ठी जलधर"
काव्य संग्रह "जिन्दा रहेंगी कविताएँ, अब ख़्वाब नए हैं"
साहित्य अकादमी से "झारखंड कथा परिवेश" में कहानी, झारखण्ड कविता परिवेश में कविताऍं।
रचनाऍं प्रतिष्ठित राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होती रहती हैं।
रचनाओं पर अनुवाद एवं शोध कार्य भी हो चुके हैं और अनेक सम्मान भी मिल चुके हैं।
उनका लेखन मौजूदा वक्त के सवालों से तीखी मुठभेड़ करता है और लोक चेतना को जगाने का काम करता है।
1 सी, डी ब्लाॅक, सत्यभामा ग्रैंड, कुसई,
डोरंडा, राँची, झारखण्ड -834002
ईमेल : rashmianita25@gmail.com
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