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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 जुलाई, 2016

स्त्री विमर्श : वीर भारत तलवार

नमस्कार मित्रो...  आज आपके वैचारिक मंथन के लिए प्रस्तुत है प्रोफेसर वीर भारत तलवार द्वारा प्रस्तुत यह विमर्श, जो भारत में स्त्री विमर्श की अवधारणा पर उंगली उठाता है, उसे अपर्याप्त ठहराता है, वैश्विक परिवेश में उसकी घिसटती चाल से इत्तेफाक़ न रखते हुए उसमें यथेष्ट अद्यतन की हिमायत करता है। इस विषय पर आपके विचारों का स्वागत है साथियों...

विमर्श :

"स्त्री विमर्श: इससे दयनीय कोई दूसरा विमर्श नहीं है हिंदी में- वीर भारत तलवार"

मैं स्त्री सवाल पर आपसे कुछ बातें करना चाहता हूं। दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श ऐसा विमर्श है, जो हिंदुस्तान में ही चला,  किस वैश्विक आंदोलन या विचारधारा का अंग नहीं बन पाया। लेकिन स्त्री-विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है। लेकिन विडंबना कि  बात यह  है कि हिंदी में जो स्त्री विमर्श चल रहा है, उसका इस वैश्विक विचारधारा से बहुत कम लेना-देना है, नहीं के बराबर है। एक-दो अकादमिक लोगों की बात नहीं करता हूं, जो इस चीज के बारे में ज्यादा जानकारी रखते हैं। हिंदी में जो स्त्री-विमर्श चलता है, जिसमें मैत्रेयी पुष्पा और लता शर्मा और मनीषा और रोहिणी अग्रवाल जैसे लोगों को हम पढ़ते रहते हैं। ये लोग सबसे ज्यादा मुखर हैं स्त्री विमर्श पर, तो लगता है कि स्त्री विमर्श से दयनीय कोई दूसरा विमर्श नहीं है हिंदी में। यानी एक तो इस स्त्री विमर्श का कहीं भी उस वैश्विक विचारधारा के विकास से, उसकी सैद्धांतिकी से जो इतने वर्षों से विकसित हुई है दुनिया में, कुछ भी लेना-देना नहीं है। पश्चिम में नारीवादी आंदोलन की एक लंबी पंरपरा रही है, सैकड़ों वर्ष की। मताधिकार आंदोलन (Suffragist movement) उन्निसवीं सदी से चला आ रहा है। आज वहां इतना जो कुछ भी हासिल किया गया है, लड़ कर किया है, समाज लड़ाई से बदलता है, आंदोलन से बदलता है, सिर्फ कानून बनाने से नहीं बदलता है समाज। इसलिए पश्चिम में स्त्री के अधिकार की चेतना बिल्कुल नीचे तक गई है। हिंदुस्तान में स्त्री-मताधिकार के लिए 1918 ई. में कांग्रेस ने एक बैठक बुलाई और एक प्रस्ताव पारित कर दिया कि स्त्रियों को भी मताधिकार दिया जाएगा और पारित हो गया,  मदन मोहन मालवीय को छोड़कर सबने उसका समर्थन किया। पारित हो गया। यहां किसी स्त्री में यह चेतना जगाने की जरूरत ही नहीं पड़ी कि तुम्हें मताधिकार हासिल करना है और इसके लिए तुम्हें लड़ना है। बैठे-बैठाए सब मिल गया। रावण न मरा, लंका न जली, खुद घर लौट आई जनकनंदिनी। तो इस प्रकार का जहां आंदोलन होगा, वहां कोई चेतना नहीं हो सकती है। स्त्री विमर्श को लेकर इतनी महत्वपूर्ण सैद्धांतिकी का विकास हुआ, 1970 के दशक में ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ नाम की एक किताब लिखी गई थी और अभूतपूर्व क्रांतिकारी किताब थी। ये जो स्त्री पुरुष आपस में सेक्स संबंध बनाते है, सेक्स करते हैं, वो सेक्स संबंध असल में एक पावर डिस्कोर्स होता है उसके बीच। पुरुष किस प्रकार से इंटरकोर्स करता है, उसका क्या नजरिया होता है, क्या हरकतें होती हैं उसकी,  कौन से शब्द बोलता है उस समय, किस भाषा में बात करता है, यह सब एक पावर डिस्कोर्स है। पहली बार इतने डिटेल में उन्होंने इस चीज को रखा, कि सेक्स सिर्फ का आनंद नहीं, उसके अहं की तुष्टि का, उसके पुरुषार्थ की तुष्टि का भी आनंद है और वह स्त्री को एक पैसिव चीज समझता है जिसका खंडन बहुत पहले सिमोन द बोउवा कर चुकी थीं- सेकेंड सेक्स लिखकर कि सेक्स में स्त्री पैसिव नहीं होती है। लेकिन पुरुष उसी को मानना चाहता है कि पैसिव ही है। और वो एक पावर डिस्कोर्स करता है। इस तरह की किताब 1970 में लिखी गई। हिंदी में कोई इस चीज की चर्चा नहीं करता कि सेक्सुअल बिहैवियर में हमारा पावर डिस्कोर्स क्या है?

इसी प्रकार से 1980 के दशक में मुझे याद है, जब मैं नारीवादी विचारों की ओर झुका, तो बड़ी महत्वपूर्ण किताब आई थी और हम सब वामपंथी उसको पढ़ते थे, Sheila Rowbotham की किताब थी- Beyond The Fragments. Sheila Rowbotham की किताब थी। Sheila Rowbotham एक यूरोपियन मार्क्सवादी हैं और यूरोपियन मार्क्सवादियों ने नारीवाद को लेकर भी बहुत सारी सैद्धांतिकी का विकास किया। दुर्भाग्य से कुछ भी जानने की जरूरत हम महसूस नहीं करते। उन्होंने एक नई कान्सैप्ट दी। उन्होंने कहा- Prefigurative movement यानी प्रारूप आंदोलन। हम कैसा समाजवाद लाना चाहते हैं, उस समाजवाद में स्त्री-पुरुषों के हम कैसे संबंध बनाना चाहते हैं, उसका प्रारूप आंदोलन हमें करना चाहिए। हम अपने संगठन में पहले उसके प्रारूप का प्रयोग करें, अगर हम उसको लाना चाहते हैं तो। इस  Prefigurative movement की कान्सैप्ट उन्होंने दी थी। हिंदी के नारीवाद में, नारी विमर्श में कहीं भी इस तरह की किसी अवधारणा का जिक्र आपको नहीं मिलेगा।

हिंदी में जो नारी विमर्श है उसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह सिर्फ साहित्यिक दायरे तक सिमटा हुआ है। उसके बाहर कुछ एनजीओ स्त्रियों के नाम पर चल रहे हैं, वो चल रहे हैं, लेकिन कोई नारीवादी आंदोलन उनके बाहर नहीं दिखाई देता है। सामाजिक आंदोलनों से इस चल रहे नारीवादी विमर्श का क्या संबंध है? कोई संबंध नहीं है। इतना बड़ा जो अभी आंदोलन हुआ दिल्ली में 16 दिसंबर के रेपकांड के बाद उसमें स्त्री संगठनों की क्या भूमिका थी? मैं आपको एक तुलनात्मक उदाहरण देता हूं। 1970 के दशक में महाराष्ट्र में मथुरा रेप केस हुआ, एक मशहूर रेपकेस है, जहां पुलिस कान्सटेबल ने मथुरा के साथ रेप किया, एक दलित स्त्री के साथ, और सुप्रीम कोर्ट तक ने बरी कर दिया उन कांस्टेबलों को कि ये लड़की जो है, चरित्रहीन है। उसी के बाद कानून में बदलाव हुआ कि लड़की के चरित्र का सवाल नहीं उठाया जाएगा। इस केस के खिलाफ बड़ी जागृति हुई और उसमें वो सारी जागृति का श्रेय बंबई के नारीवादी संगठनों को था। उन्होंने रेप और ऑपरेशन के खिलाफ एक फोरम बनाया और उस फोरम को आधार बनाके डेढ़ सौ-दो सौ कर्मठ नारीवादी कार्यकर्ताओं ने मिलकर इस आंदोलन को खड़़ा किया जिसका प्रभाव बाद में दिल्ली, कलकत्ता सब जगह पड़ा और 8 मार्च वीमेन्स डे के दिन वह आंदोलन देश में भी फैला। स्त्री संगठनों की वजह से फैला। इस बार दिल्ली में जो आंदोलन हुआ इतना बड़ा, इसमें स्त्री संगठन थी नहीं, फिर भी यह आंदोलन इतना फैल कैसे गया, जबकि महाराष्ट्र का मथुरा केस का आंदोलन इतना नहीं फैला। उसकी बहुत बड़ी वजह थी ये कि वो सिर्फ स्त्री संगठनों का आंदोलन, जिसको कोई राजनीतिक सपोर्ट नहीं था महाराष्ट्र में। लेकिन इस आंदोलन में ये जो भारत की कम्युनिस्ट पार्टी- माले है, इसका जो स्त्री मोर्चा है, ऐपवा, उसकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका थी, खासकर उसकी नेता कविता कृष्णन की। तो इस राजनीतिक समर्थन की वजह से यह  आंदोलन इतने बड़े जनांदोलन में बदल गया और पूरे देश में फैला। तो पोलिटिकल सपोर्ट एक मूवमेंट को कितना फैला सकता है, अगर वो मिल जाए उसको, इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है यह मूवमेंट।
बिना स्त्री संगठन के ये हिंदी में नारीवादी विमर्श जो लोग चला रहे हैं, वो कहीं इस आंदोलन के नेतृत्व में नहीं थे, जो कि दिल्ली में हुआ। जुलूस रोज-रोज नहीं निकलते हैं, लेकिन विचारधारात्मक संघर्ष रोज-रोज होता है और होना चाहिए। विचारधारात्मक संघर्ष कई रूपों में होता है। साहित्य में होता है, कला में होता है, संगीत में होता है,  तरह-तरह के सृजनात्मक प्रयोगों में होता है। नारीवादी विमर्श उसी प्रकार का विमर्श है।

महाराष्ट्र में मैं आपको बहुत हाल का उदाहरण दूं। डॉक्टर अंबेडकर की बनाई हुई एजुकेशन सोसाइटी का एक कॉलेज है, कॉलेज ऐंड कॉमर्स ऐंड इक्नोमिक्स, वडाला में। वहां की जो वाइस प्रिन्सिपल हैं डॉक्टर ललिता, उनहोंने एक कैलेंडर बनाया है, जो मेरे पास भेजा गया है और जिसको मैंने सबसे आगे बढ़के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले आइसा को भेंट किया। वह कैलेंडर जेंडर इक्विलिटी के सवाल पर उन्होंने बनाया। हर महीने के पेज पर स्त्री से संबंधित मुद्दों को उठाया गया। उसकी क्लिपिंग दी गई और फिर मांग रखी गई और नीचे तारीख दी गई। बारह महीने आपको याद दिलाया जाएगा, स्त्रियों के सवाल पर आपका नजरिया कितना गलत है और क्या होना चाहिए। और उन्होंने एक नारा भी दिया, बहुत अच्छा, जिस प्रकार आइसा ने एक नारा दिया स्त्री आंदोलन के बारे में- बेखौफ आजादी, स्त्री के लिए बेखौफ आजादी होनी चाहिए, जहां भी वो जाए वहां वो सुरक्षित रहे, तो फ्रिडम विदाउट फीयर, उसी प्रकार से उस कैलेंडर में भी एक नारा दिया गया, वो भी उतना ही सही है- वीमेन्स राइट इज ह्यूमन राइट। स्त्री के अधिकार मनुष्य के अधिकार हैं, इस नारे के साथ वो पूरा कैलेंडर है।

अभी महाराष्ट्र में एक कार्यक्रम हुआ, ज्योतिबा फुले की पत्नी सावित्री बाई कविताएं लिखती थीं। स्त्री-चेतना जगाने के लिए, बहुत सारी कविताएं उन्होंने लिखी हैं। उन कविताओं पर महाराष्ट्र की एक स्त्रीवादी कलाकार झेलम परांजपे ने एक नृत्य नाटिका बनाई। हिंदी में किसी नारीवादी कलाकार ने बनाई हो एक भी नृत्य नाटिका इस प्रकार की या एक भी कैलेंडर इस प्रकार का बनाया हो, तो बताइएगा! महाराष्ट्र की एक नारीवादी मित्र कहती हैं कि स्त्री विमर्श तो बहुत हुआ, अब पुरुष विमर्श होना चाहिए। पुरुषों को भी बहुत कुछ बताने-समझाने की जरूरत है। दरअसल उन्हीं को बहुत कुछ समझाने-बताने की जरूरत है। ये बात हंसी की लग ही है आपको, लेकिन ये बात बहुत ही गंभीर है और बहुत वास्तविक है। महाराष्ट्र में जब 80 के दशक में मथुरा रेप केस को लेकर स्त्रीवादी आंदोलन या संगठनों ने आंदोलन किया, उनके बहुत से वामपंथी पुरुष मित्र बहुत प्रभावित हुए और इन वामपंथी पुरुषों ने मैन अगेंस्ट वायलेंस अंगेस्ट वीमेन- स्त्री पर होने वाली हिंसा के विरोधी पुरुषों का संगठन बनाया। काउंसलिंग एक चीज होती है, जो देखिए बहुत जरूरी होती है, और वैचारिक संघर्ष को आगे बढ़ाती है। एक-एक इनडिविजुअल से संपर्क करके स्त्रियों ने रेप के खिलाफ फोरम बनाया। उसमें वो क्या करती थीं? उससे मिलती थीं, उससे बात करती थीं, उसके अंदर की हीनता को दूर करती थीं, उसके अंदर के शर्म को दूर करती थीं, उसके गौरव को जगाती थीं- तुम्हारा कुछ नुकसान नहीं हुआ, तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है, अपराध हुआ है, तुम लड़ोगी, हम तुम्हारे साथ हैं, ये सब काउंसलिंग करती थीं उसकी। और ये पुरुष क्या करते थे, जिन पुरुषों ने संगठन बनाया? जो पुरुष औरतों से इस प्रकार बर्बरता से पेश आते हैं, उन पर हिंसा करते हैं, अपनी पत्नियों को पिटते हैं, बलात्कार करते हैं, उनके घर जाकर उन पुरुषों से मिलकर उनकी काउंसलिंग करते थे, कि तुम क्या गलत कर रहे हो? तुमको समझना चाहिए। मैं इसी चीज की बात कर रहा हूं कि एक वैचारिक संघर्ष को आगे ले जाने के लिए पचासों तरीके होते हैं। वो तरीके हिंदी क्षेत्र में, हिंदी के नारी विमर्श में कहां हैं? हम कितनी उथली और सीमित जमीन पर खड़े होकर ज्यादा बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं?

हिंदुस्तान में संस्कृति को बदलने की लड़ाई शुरू हुई है 16 दिसंबर के आंदोलन के बाद से। हमारे देश के समाज की जो संस्कृति है, इसमें बहुत गहरी बुनियादी तब्दीलियों की जरूरत है। खासकर संस्कृति की सबसे बड़ी समस्या स्त्री के बारे में नजरिया है। उस नजरिये के बारे में कोई चेतना नहीं है हिंदी के स्त्री विमर्श में। हिंदी का स्त्री विमर्श, कुछ स्त्रियों की जिनका मैंने नाम भी लिया, इनके अपने पूर्वाग्रहों, विश्वासों और इनकी मांगों का एक विस्फोट होकर रह गया है। मैत्रेयी पुष्पा जिस तरह के लेख लिखती हैं और हम उनको पढ़ते रहते हैं, जिस प्रकार की वो आलोचना करती हैं, कौन संस्कृति है जो नारीवादी कहलाएगी? कोई औब्जैकटिव कैरेटेरिया नहीं है। आपको अच्छा लगा और आपके मन में यही बात है, तो वो नारीवादी है। मैत्रेयी पुष्पा ने हिंदी में जो नारीवादी आलोचना लिखी है, उसमें कामायनी को उन्होंने हिंदी की सबसे प्रगतिशील कृति बताया,  जो कामायनी बहुत सारे स्तरों पर सामंती संस्कारों से ग्रस्त कृति है। उस ‘कामायनी’ को आपने साबित कर दिया, आपको वो पसंद आया, आपके नारीवाद के कुछ तर्क हैं जिससे आपको लग गया। तो इसी प्रकार की आलोचना है। जो बुनियादी सवाल है, जो स्त्री की स्थिति को हमारे समाज में नियंत्रित और निर्धारित करते हैं, हिंदी के नारीवादी विमर्श में उनको नहीं उठाया जाता। ये कौन सी संस्थाएं हैं जो हमारे समाज में औरत बनाने का काम करती है? परिवार है, शिक्षा प्रणाली है, राज्य है, कानून है,धर्म है, कलाएं हैं, मीडिया है- ये सारी संस्थाएं हैं समाज की, जो मादा को स्त्री बनाती हैं। आप सभी जानते हैं कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है, मार-मार के बनाया जाता है उसको स्त्री। और ये संस्थाएं है जो स्त्री बनाती हैं उसको, स्त्री की स्थिति को तय करती हैं ये। इनकी कोई चेतना हिंदी के नारीवादी विमर्श में अगर हो तो कोई कहीं दिखा दे मुझे।

स्त्री विमर्श का एक बहुत बड़ा सवाल है मर्दवाद। इसकी क्या आलोचना है हिंदी में? मैं आपको बताउंगा कि कैसे अच्छे-अच्छे नारीवादियों ने मर्दवाद को कैसे आत्मसात कर रखा है। मर्दवाद जो स्त्री प्रश्न की एक सबसे बड़ी बुनियादी विरोध की अवधारणा है और उसके साथ स्त्रीत्व के सवाल पर आऊंगा। रोहिणी अग्रवाल हिन्दी की बड़ी नारीवादी आलोचक समझती जाती हैं। उन्होंने कई किताबें लिखी हैं। तस्लीमा नसरीन की एक कविता को उन्होंने उद्धृत किया है कि ये पुरुष जो है न स्त्रियों को खरीद के लाते हैं, घर में उसका मनमाना इस्तेमाल करते हैं और उसके बाद लात मारकर भगा देते हैं उसको। उसने कहा, मेरी भी इच्छा होती किसी लड़के को ऐसे ही लाऊं। और ऐसा ही उसका उपभोग करूं, मेरी बड़ी इच्छा होती है, लड़के खरीदने की, जवान लड़के, छाती पर उगे घने बाल, उन्हें खरीदकर, पूरी तरह रौंदकर, उनके सिकुड़े हुए अंडकोष पर जोर से लात मारके कहूं- भाग साले। ये कविता तस्लीमा नसरीन ने लिखी, एक नारीवादी ने। दूसरी नारीवादी ने आलोचना लिखी- कैसी आग उगलती कविता है, फायर गर्ल है तस्लीमा। अब तो उल्टा खेल खेलने की जरूरत है। पुरुषों को समझ में नहीं आता कि स्त्रियों को ऐसे रौंदकर जब हम लात मारकर भगाते हैं, तो कैसा महसूस होता है। हम उनको महसूस कराएंगे ऐसे। उनकी दुनिया में तभी हाहाकार मचेगा। मगर जरा ठहर के सोचिए कि ये एक स्त्री शोषण के सवाल पर एक तात्कालिक आवेगपूर्ण प्रतिक्रिया, एक उग्र प्रतिक्रिया के अलावा इसमें और क्या है? किस लड़के को खरीदकर ले आएगी तस्लीमा नसरीन? हमें आपको तो नहीं खरीद सकती? किसी कमजोर गरीब घर के, किसी आदिवासी-दलित लड़के को लेके आएगी, क्योंकि लड़कियां भी तो उसी प्रकार की पाते हैं पुरुष। तो आप एक कमजोर और गरीब लड़के को वैसे ही खरीद के ले आओगे, जैसे कमजोर और गरीब लड़कियों को लेकर कोई ले आता है? ये कोई नारीवाद नहीं है। ये एक घटना की प्रतिक्रिया हो सकती है, लेकिन इसी उग्र प्रतिक्रिया में आप उस मर्दवादी अवधारणा को आत्मसात कर ले रही हैं, जो मर्दवादी धारणा शरीर का इस प्रकार का उपभोग करके लात मारके उसको भगा देती है।
मर्द को मुक्त समझना और मर्द के जैसा बनने की कोशिश करना नारीवाद नहीं है। मर्दवाद अपने आप में घृणित चीज है। पुअर बॉय्ज़ डोंट क्राई- लड़के रोते नहीं हैं। हममें से कोई नहीं होगा, जिसने बचपन में एक-दो बार ये वाक्य न सुना हो। खेल से लौट के या झगड़े से घर जब भी हम आते थे, हमारी मां बहने कोई न कोई हमसे जरूर कहता था- ए लड़का होके रोता है। लड़कियों की तरह से रोने बैठ गया। हमें जो मर्द होना सिखाया जाता है बचपन से। ये मर्दवाद सबसे ज्यादा खतरनाक अवधारणा है, नर को मर्द बनाना, मादा को स्त्री बनाना, ये हमारे समाज की संस्कृति की बहुत बुनियादी समस्या है। न लड़के रोते हैं, न लड़कियां रोती हैं, मनुष्य रोता है। मनुष्य होने के कारण हम रोते हैं। ये स्त्री पुरुष का विभाजन सबसे झूठा और मिथ्या विभाजन है। ये उतना ही मिथ्या विभाजन है जितना मिथ्या विभाजन जाति का विभाजन है। तुमी देखो नारी-पुरुष, आमी देखी सिगोई मानुष- तुम हर जगह स्त्रियों और पुरुषों को देख रहे हो, मैं तो सिर्फ मनुष्यों को देख पा रहा हूं।

स्त्री पुरुष की अवधारणा एक झूठी अवधारणा है। दोनों मनुष्य हैं, दोनों ही की जरूरत एक है। दोनों की भावना एक है। शरीर की बनावट से इस चीज में कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए मैं समझता हूं कि हमारे देश में और पूरी दुनिया में संस्कृति को बदलने की जो लड़ाई है, उसका एक बुनियादी मुद्दा होना चाहिए स्त्री और पुरुष के विभाजन को खत्म करना। जहां भी स्त्री और पुरुष का विभाजन आप देखें, उसका विरोध करें। जिस प्रकार मर्दवाद एक झूठी अवधारणा है, जो नर को खूंखार बनाती है, उसी प्रकार स्त्रीत्व की अवधारणा भी इतनी ही गलत और बेबुनियाद अवधारणा है, जो स्त्री को घुटनाटेकु बनाती है। उन्हें स्त्री-पुरुष बनाके हम उनकी मनुष्यता को उनसे छीन लेते हैं।

आप जानते हैं ये रेप वगैरह जो है कैसे मर्दानगी का काम समझा जाता है। सावरकर ने एक किताब लिखी- Six Golden Epochs of Indian History भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम अध्याय। शिवाजी पर उन्होंने लिखा है कि शिवाजी जैसे महान प्रतापी राजा ने भी कैसी गलतियां कीं, जब उन्होंने मुगलों को हरा दिया और मुगल सेना भाग गई और उन सबकी स्त्रियां हमारे चंगुल में आ गई थीं, तब शिवाजी ने उनको अपने हरम में लाने और सबके साथ आनंद लेने के बजाए उनको मुक्त कर दिया। ये पुरुषार्थ की कमी शिवाजी ने क्यों दिखाई? आप सोचिए कि शिवाजी ने स्त्रियों का आदर किया, मुस्लिम स्त्रियों को, उनको छोड़ दिया, कुछ भी नहीं किया उनके साथ, बल्कि अपने सैनिकों से कहा कि वे इज्जत के साथ इनको घर पहुंचा आएं। तो ये शिवाजी ने पुरुषार्थ का काम नहीं किया! पुरुषार्थ का काम होता अगर वे उन सबसे बलात्कार करवाते अपने सैनिकों से। ये पुरुषार्थ की अवधारणा है! लेकिन ये पुरुषार्थ की अवधारणा हमेशा ऐसी खूंखार नहीं होती है। जो लोग बलात्कार की बात नहीं करते हैं, जो लोग यौन हिंसा की बात नहीं करते हैं, वे भी उतने ही मर्दवादी हैं। समाज में ऐसी संस्थाएं हैं, बहुत सी संस्थाएं, भद्र लोग, हमारे घर के लोग, वो थोड़े कहते हैं कि स्त्रियों से बलात्कार करो या उन पर हिंसा करो। वो कहते हैं- स्त्रियों के साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिए। मर्यादा का पालन करना चाहिए और स्त्रियों को भी मर्यादा में ही रहना चाहिए। सबको अपनी मर्यादा का पालन करना चाहिए। ज्यादातर पुरुष समाज जो है यही बात करता है, इससे मर्दवाद में कोई फर्क नहीं पड़ता। ये भी वही बात कह रहे हैं लेकिन बहुत दूसरे तरीके से। मर्दवाद का मतलब ये नहीं कि वो जो बलात्कार करेगा और हिंसा करेगा, खूंखार रूप में तभी वो मर्दवाद होगा, नहीं, वो स्त्री से बहुत अच्छा बर्ताव करते हुए भी….

तुम घर में रहो, काम करो, बाहर भी जाओ, समय पर आ जाया करो बेटे। ज्यादा अंधेरे में बाहर नहीं रहना और देखो दोस्तों के साथ ज्यादा नहीं जाना, तुम आ जाओ घर में, हमलोग सब तुम्हारे साथ हैं। ये भी उसी चीज को बहुत अच्छे ढंग से कह रहे हैं। और बाहर जाओगी तो फिर…..अगर ये हमारी बातें नहीं मानोगी,  मर्यादा को नहीं मानोगी, तो फिर वही होगा जो बाहर होता है और जिसके लिए वीर सावरकर ने कहा। तो एक ही सिक्के के दोनों पहलू हैं। इसी प्रकार से मैं कहना चाहूंगा कि स्त्रीत्व की धारणा भी उतनी ही बेबुनियाद है, जिसमें बहुत सारी स्त्रियां स्वाभाविक रूप से विश्वास करती हैं। स्त्रियों के अंदर करुणा होती है, स्त्रियां ममतामयी होती हैं। उनके अंदर अपने बलिदान की भावना भरी होती है- ये सब स्त्रियों को बनाया जाता है। इस प्रकार से उनकी मनुष्यता को, उनकी स्वाभाविक आकांक्षाओं को, उनकी स्वाभाविक प्रकृति को उनसे ही छीन लिया जाता है। उनको स्त्री के रूप मे ढाला जाता है। तो यह  मनुष्य की संस्कृति की बहुत बुनियादी समस्या है। और ये खाली समाजवाद के आ जाने से, खाली बुनियादी आधार बदल जाने से हल नहीं हो जाएंगी। संस्कृति की लड़ाई बहुत लंबी लड़ाई है। जब तक आप विचारधारात्मक संघर्ष इस पर नहीं चलाएंगे, आपसे वो कभी हल होने वाली नहीं हैं। माओत्से तुंग का जो आखिरी इंटरव्यू एडगर स्नो ने लिया था 72-73 के आसपास, उसमें उन्होंने माओ से पूछा- चीन में समाजवाद तो आ गया, ये बताइए स्त्री और पुरुष की बराबरी चीन में कब तक आएगी, आपको क्या लगता है? माओत्से तुंग ने कहा- चार-पांच सौ साल से पहले नहीं आने वाली।

मैं समझता हूं कि उसे आप चार-पांच सौ साल से भी ज्यादा सोच सकते हैं। क्योंकि यह संस्कृति की लड़ाई है। स्त्री विमर्श पूरे समाज के लोकतांत्रिक रूपांतरण और समाजवाद की भी एक बहुत बुनियादी लड़ाई है। अगर स्त्री विमर्श इस सवाल का सामना नहीं करता है, दो-चार नहीं होता,  तो वो कितना संकीर्ण रह जाएगा, हम समझ सकते हैं।

( हैदराबाद में दिये गए व्याख्यान का अंतिम अंश)

[ प्रो.  वीर भारत तलवार,  प्रख्यात हिन्दी आलोचक, जेएनयू में प्राध्यापक।
सम्पर्क - virbharattalwar@gmail.com  ]

( प्रस्तुति-बिजूका)
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टिप्पणियाँ:-

संजीव:-
हिन्दी में स्त्री विमर्श बहुत दयनीय स्थिति में है यह कथन भी अपने आप स्वीकार योग्य नहीं है। यदि हिन्दी क्षेत्र पश्चिम का अनुकरण नहीं कर रहा तो इसमें बुरा क्या है। हमारी परंपरा और स्थितियों में उस तरह का विद्रोह और विरोध की चेतना नहीं जैसी पश्चिम में है। किसी भी क्षेत्र में नहीं है। क्या पुरूषों ने लेनिन का, चे ग्वारा या फिदेलकास्त्रो की परंपरा को अपनाया या कोई मार्क्स या सार्त्र या काफ्का या देरिदा या बोद्रिया या इसी तरह का कोई लेखन किया? नहीं तो उन पर कभी सवाल नहीं उठाया जाता।

स्त्री विमर्श पर महत्वपूर्ण आलेख है। बहुत से अनटच मुद्दे उठाए हैं कई की बखिया उधेडी है। हम मानुषीकरण करने के लिए संघर्ष करें यह अच्छी बात है। परन्तु भेद- स्त्री पुरुष का - मिटाने की राजनीति में से भी मर्दवाद की बू आती है। पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था में भेद मिटाए नहीं जाते उन्हें स्वीकार किया जाता है। उनकी तमाम वैशिष्ट्यगत वस्तुताओं के साथ।
स्त्री का वर्ग भेद मिटने का मतलब मर्दवाद की पूर्ण सत्ता की स्थापना भी होता है। मनुष्य की संकल्पना में स्त्री बाहर ही रह जाती है। मनुष्य शब्द का प्रयोग हमारे शास्त्रों में पुरूष के अर्थ में ही अधिक हुआ है। भाषा में मर्दवादी संरचनायें भरी पडी हैं। स्त्री को अपनी मुक्ति के लिए अलग भाषा संरचनाओं का अविष्कार करना होगा उसकी मुक्ति के लिए कोई स्वतंत्र शब्द ही नहीं है।
मर्दवाद की जडें बहुत गहरी हैं। वीर भारत जी की मंशा पर सवाल नहीं है पर यह भी एक तरह की गूढ मर्द वादी विचारधारा है।
मानुषीकरण होना आवश्यक है पर पहले पुरूष का पुरूष रहते मानुषीकरण हो और स्त्री का स्त्री रहते। मानुषीकरण की प्रक्रिया में न सांस्कृतिक भेद मिटते हैं न प्राकृतिक और न अन्य । सब अपनी जगह यथावत रहते हैं बस उनके बीच के संबंधों की संरचना का आधार बदल जाता है। वह उत्पीडक और उत्पीडित बडे छोटे अधिकारी और अधीनस्थ के स्थान पर दो बराबरी के व्यक्तियों का संबंध में बदल जाता है। अब उनके बीच संवाद दो पूर्ण स्वतंत्र मनुष्यों के बीच होने वाले संवाद में बदल जाता है।
दरअसल मर्दवादी विमर्श की नहीं मर्द को पूर्ण स्वतंत्र मनुष्य में रूपांतरित होना आरंभ करना चाहिए जिसमें दूसरे मनुष्य भी पूर्ण स्वतंत्र मनुष्यों की तरह होने स्वीकृत होते हैं।
स्त्री विमर्श पर महत्वपूर्ण आलेख है। बहुत से अनटच मुद्दे उठाए हैं कई की बखिया उधेडी है। हम मानुषीकरण करने के लिए संघर्ष करें यह अच्छी बात है। परन्तु भेद- स्त्री पुरुष का - मिटाने की राजनीति में से भी मर्दवाद की बू आती है। पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था में भेद मिटाए नहीं जाते उन्हें स्वीकार किया जाता है। उनकी तमाम वैशिष्ट्यगत वस्तुताओं के साथ।
स्त्री का वर्ग भेद मिटने का मतलब मर्दवाद की पूर्ण सत्ता की स्थापना भी होता है। मनुष्य की संकल्पना में स्त्री बाहर ही रह जाती है। मनुष्य शब्द का प्रयोग हमारे शास्त्रों में पुरूष के अर्थ में ही अधिक हुआ है। भाषा में मर्दवादी संरचनायें भरी पडी हैं। स्त्री को अपनी मुक्ति के लिए अलग भाषा संरचनाओं का अविष्कार करना होगा उसकी मुक्ति के लिए कोई स्वतंत्र शब्द ही नहीं है।
मर्दवाद की जडें बहुत गहरी हैं। वीर भारत जी की मंशा पर सवाल नहीं है पर यह भी एक तरह की गूढ मर्द वादी विचारधारा है।

मानुषीकरण होना आवश्यक है पर पहले पुरूष का पुरूष रहते मानुषीकरण हो और स्त्री का स्त्री रहते। मानुषीकरण की प्रक्रिया में न सांस्कृतिक भेद मिटते हैं न प्राकृतिक और न अन्य । सब अपनी जगह यथावत रहते हैं बस उनके बीच के संबंधों की संरचना का आधार बदल जाता है। वह उत्पीडक और उत्पीडित बडे छोटे अधिकारी और अधीनस्थ के स्थान पर दो बराबरी के व्यक्तियों का संबंध में बदल जाता है। अब उनके बीच संवाद दो पूर्ण स्वतंत्र मनुष्यों के बीच होने वाले संवाद में बदल जाता है।
दरअसल मर्दवादी विमर्श की नहीं मर्द को पूर्ण स्वतंत्र मनुष्य में रूपांतरित होना आरंभ करना चाहिए जिसमें दूसरे मनुष्य भी पूर्ण स्वतंत्र मनुष्यों की तरह होने स्वीकृत होते हैं।

हिन्दी में स्त्री विमर्श बहुत दयनीय स्थिति में है यह कथन भी अपने आप स्वीकार योग्य नहीं है। यदि हिन्दी क्षेत्र पश्चिम का अनुकरण नहीं कर रहा तो इसमें बुरा क्या है। हमारी परंपरा और स्थितियों में उस तरह का विद्रोह और विरोध की चेतना नहीं जैसी पश्चिम में है। किसी भी क्षेत्र में नहीं है। क्या पुरूषों ने लेनिन का, चे ग्वारा या फिदेलकास्त्रो की परंपरा को अपनाया या कोई मार्क्स या सार्त्र या काफ्का या देरिदा या बोद्रिया या इसी तरह का कोई लेखन किया? नहीं तो उन पर कभी सवाल नहीं उठाया जाता।

आशीष मेहता:-
"स्त्री विमर्श"

'तलवार', 'वीर', 'मार्क्सवाद', 'यहवाद', 'वहवाद', जैसे पैने और भारी भरकम शब्दों से लेस आलेख पढ़ कर हासिल सिर्फ 'मानुषीकरण' की 'सतह' हुई। धन्य हो संजीवजी की कुछ पोस्ट्स् का, जो 'मानुषीकरण' को सुलझे प्रारुप में साझा किया।

तेरा -मेरा, ' वो आगे -हम पीछे' के बोझ तले, आत्मविश्लेषण के परमउद्देश्य को साधते हुए लेख 'तस्लीमा की रचना' को जिस तरह ट्रीट कर रहा है, वह मुझे (गैर -साहित्यिक पृष्ठभूमि से हूँ) हैरान करता है। (जाहिराना तौर पर प्रोफेसर के उद्बोधन का विषय 'अभिव्यक्ति की आजादी' नही रहा होगा।)

अक्सर 'आँदोलन / क्रांति ' की विभिन्न विवेचनाएं 'बिजूका' जैसे चिन्तक एवं ओजस्वी समूह पर साझा होती रहीं हैं, यह आलेख भी घिसे-पिटे सिद्धांतों का 'कूपमंडूकता से' विवेचन करते हुए 'हिन्दी क्षेत्र', नारीवाद और 'समाजवाद' के अपने बुने मकड़जाल में उलझ जाता है। जागरुक साहित्यकार एक सटीक जुमला अक्सर इस्तेमाल करते हैं कि 'किसानों, मजदूरों के नीतिकार वातानुकूलित कक्ष में विचार करते हैं '। यहाँ भी कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है।

बाज़ार, आज स्त्री को ऊपर.... राइड करते हुए देख रहा है ( हाँ, यहाँ हम जरूर पश्चिम का पुरजोर अनुकरण कर रहे हैं।), और आलेख पावर डिस्कोर्स, सिमोन द बोइवा एवं 'शिवाजी पुरुषार्थ' पर 'सावरकर प्रश्न' को अहमियत देता है। अब तो, ले ही लीजिए.....और दे भी दीजिए.......आजादी।

रेपकेस के लिए 'मशहूर' शब्द का  'सलमानी' उपयोग, थोड़ा अखरा।

रविवार उपलब्धियाँ साझा करने का दिन है, सो कुछ आजादी ले रहा हूँ :-

१) सन् २००० में जब मेरे रिश्ते की पारंपरिक खोजबीन हो रही थी, तब बमुश्किल अपने परिवार को राजी कर पाया था कि यदि परिवार एवं बाकी मापदंड सकारात्मक हैं, तो मैं 'अकेला' ही लड़की से मिल (देखना नहीं) सकूँ।उस दो-ढाई घंटे के द्वी-पक्षीय साक्षात्कार में उस 'सुलभ ग्रहस्थ जीवनाकाँक्षी, अमहत्वाकाँक्षी लड़की' से बस एक कौल लिया था ....... अपने आप को दिन में चार से पांच घंटे व्यस्त रखने का। आज उसकी आर्थिक स्वतंत्रता देख  कर तसल्ली होती है।

२) दूसरी उपलब्धि, बस कल की है। मेरी नौ वर्षीय बेटी 'उड़ता पंजाब' देखने की जिद कर रही थी। A सर्टिफ़िकेट और खालिस गालियां, मुझे रोक रही थी। पर उसने कहा कि "गलत पता नहीं होगा, तो उससे बचेंगे कैसे?" । मैं, सशर्त राजी हुआ कि वह फिल्म अपनी 'दादी' के साथ देखेगी और बताएगी कि फिल्म में क्या अच्छा था और क्या नहीं। [इस उपलब्धि का श्रेय मैं समूह के साथी को देता हूँ, जिनके बच्चों के साथ मैंने 'मातृभूमि' (भयानक कथानक) देखी थी।]

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