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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 अप्रैल, 2019

कहानी


दिन ढले की धूप


विपिन कुमार शर्मा




सबसे पहले मुझे ही मिला था प्रिया दी के विवाह का कार्ड। मैं कॉलेज़ जा रहा था तो बीच रास्ते में डाकिए ने पुकारकर कार्ड थमा दिया था। पिताजी की वजह से वह मुझे पहचानने लगा था। पिताजी वहीं, मतलब भागलपुर में ही स्टेट बैंक में कैशियर थे। कार्ड देख लेने के बाद थोड़ी देर तक तो मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि इस विवाह पर मुझे कितना प्रसन्न होना चाहिए!

तब मैं शायद पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था जब पहली बार प्रिया दी के विवाह के बारे में सुना था। पता नहीं यह कैसा विवाह था कि हम लोग उसमें जा भी नहीं पाए थे। घर में इस बारे में ज़्यादा बातें भी नहीं होती थीं। वरना तो परिवार में चाहे किसी का भी विवाह हो, महीनेभर पहले से लेकर महीनेभर बाद तक उसकी चर्चा चलती रहती थी।



बिपिन कुमार शर्मा


मेरी उम्र मुश्किल से 6 साल की रही होगी जब पहली बार मैं प्रिया दी से मिला था। एक बार मौसा घर आए थे और माँ को मनाकर मुझे अपने साथ लेते चले गए थे। मौसा जवानी के दिनों में अपने इलाके के नामी पहलवान हुआ करते थे और बाद में पशुओं का व्यापार करने लगे थे। उसी सिलसिले में वे हफ्ते-दो हफ्ते में एक बार भागलपुर ज़रूर आ जाते थे।
मौसा के आते ही घर में मानो हंगामा-सा मच जाता था। वे बहुत ज़ोर-ज़ोर से बोलते थे और अपने इस नायाब हुनर को खुलकर आज़माते रहते थे। उनके बात करने का लहजा दबंग था और आवाज़ रोबीली थी। माँ से उन्होंने मेरी तरफ इशारा करते हुए मौसी के बारे में बताया था कि वह इसे देखना चाहती है। मौसी के दिखाने के लिए माँ ने मुझे मौसा के साथ उनके गाँव रवाना कर दिया था। उसे भरोसा था कि अगले हफ्ते वे जब आएँगे तो वापस लेते आएँगे। तभी पहली बार मैं प्रिया दी से मिला था। और मिला भी इतना था कि रात-दिन उन्हीं के पल्लू से बँधा-बँधा फिरता था। मौसी तो माँ को बाद तक कहती रही थीं कि “पिरिया तो सोनू को अपना बच्चा जैसा मानती है।”
उस बार ऐसा हुआ था कि मौसा तीन हफ्ते तक भागलपुर नहीं जा सके थे। तब तक मैं प्रिया दी और मौसी का दुलरुआ बनकर उनके गाँव में ही मज़े करता रहा था। वापसी में मौसा ने मुझे जमालपुर के बाज़ार से बहुत सुन्दर कपड़े और खिलौने दिलवाए थे। वापस आने पर रजनी दी ने बताया था कि पिताजी रोज गुस्सा करते थे माँ पर कि उसे वहाँ क्यों भेज दिया! असल में पिताजी हमेशा अपनी थाली में ही मुझे खाना खिलाते थे। मेरे बिना उन्हें बहुत अखरता होगा।
प्रिया दी के विवाह की चर्चा कुछ दिनों से घर में दुबारा होने लगी थी जो मेरी समझ में आने से पहले ही फुसफुसाहटों में कहीं खो जाती थी। फिर भी मैं इतना तो समझ ही लेता था कि उनके साथ कुछ बुरा हुआ है। पिताजी ने माँ को कई बार डपट दिया था कि बच्चों के बीच इस तरह की खुसर-फुसर न किया करें। लेकिन माँ परवाह नहीं करती थी। घर में जब भी किसी मामू या मौसी का आगमन होता तो वैसी फुसफुसाहटें कान फाड़ने लग जातीं। रजनी दी और बबिता दी उस दौरान माँ के पास ही घुसी रहतीं और बाद में दोनों देर तक कुछ उदास-उदास-सी दिखतीं। मैं उन दिनों फुसफुसाहटों की रहस्यमयी दुनिया में दिन-रात भटका करता था। मुझे कोई कुछ नहीं बताता और किसी न किसी बहाने वहाँ से हटा देता था।
उन्हीं दिनों में एक दिन प्रिया दी घर आ पहुँचीं थीं। अकेली। किसी कपड़े की दुकान के नाम छपे प्लास्टिक के एक थैले में दो-तीन कपड़े टांगे हुए। माँ और मेरी दोनों बहनें प्रिया दी को देखकर बिलख उठी थीं। प्रिया दी भी माँ से लिपटकर जाने कितनी देर तक रोती रही थीं। मैं तब 10-11 साल का हो गया था। 4-5 साल पहले की स्मृतियों को जोड़कर मैं खुद को प्रिया दी के निकट नहीं ले जा पा रहा था। प्रिया दी पहले से बहुत बड़ी लग रही थीं। और खूब सुन्दर भी। मुझ पर नज़र पड़ते ही वे रोते में भी ज़रा-सी मुस्करा पड़ी थीं। मैं शरमा गया था कि उन्हें रोते हुए में देख रहा था। उनसे नज़र मिलते ही मैं अचकचाकर बाहर निकल आया था।
शाम में पिताजी लौटे थे। उन्हें प्रिया दी का यूँ आ जाना शायद अच्छा नहीं लगा था। माँ जब रात में खाना देने आई तो पिताजी ने बहुत बेरुखी से पूछा था, “ये यहाँ क्यों आई है?” माँ पिताजी का रुख देखकर एकदम सकपका गई थी। बहुत धीरे-से उसने बस इतना ही कहा था “दुखियारी है बिचारी!” जवाब में पिताजी ने बिना कुछ कहे खाने की थाली अपने और मेरे दरमियान चौपड़ की भाँति जमा ली थी। मुझे महसूस हो रहा था कि प्रिया दी के आने में कुछ ऐसा ज़रूर है जो पिताजी को खल रहा है।
सुबह जब पिताजी ऑफ़िस के लिए निकल रहे थे तो माँ ने बहुत मनुहार करते हुए-से पूछा था “मनोहर बाबू तो आजकल यहीं हैं न?” पिताजी ने बिना कोई जवाब दिए हैरानी से माँ की ओर आँखें तरेर दी थीं। माँ ने बहुत संभालकर कहा था “प्रिया कह रही थी कि अगर उनका दबाव पड़े तो वे लोग तुरत मान जाएँगे...” पिताजी शायद माँ को मना कर देते, लेकिन उनकी निगाह दरवाजे के एक किनारे खड़ी प्रिया दी पर पड़ गई थी। वे धीरे-से “देखते हैं” कहकर निकल गए थे।
पिताजी के जाने के बाद प्रिया दी उम्मीद की पींगें भरती हुईं माँ से कहने लगीं थीं “देखिएगा मौसी, मनोहर बाबू के कहने के बाद जाके बाबूजी के पैरों में लोटेगा। बड़ा घमण्ड हुआ है उसको कॉलेजिया बनने का... जज और नेता से बनाकर कौन नहीं रखना चाहता है!” माँ को शायद पिताजी से मदद की बहुत उम्मीद नहीं थी। उसने अनमने-से जवाब दिया था “देखो, क्या होता है!”
मनोहर बाबू पिताजी के बचपन के एक मित्र के पिता थे और पटना हाईकोर्ट के जज से रिटायर हुए थे। रिटायरमेंट के बाद वे सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी में सक्रिय हो गए थे और पुश्तैनी घर होने के नाते भागलपुर आते-जाते रहते थे। पुराने ज़मीन्दार और ऊपर से जज रहने के कारण गाँव से लेकर शहर तक उनका बहुत रूतबा और दबदबा था।
शाम में पिताजी लौटे तो माँ पर नज़र पड़ते ही धीरे-से बता दिया “आज बैंक में बहुत भीड़ थी। निकलने का मौका ही नहीं मिला। कल कोशिश करेंगे।” प्रिया दी पिताजी की इस सूचना से थोड़ी-सी निराश लगीं। हालाँकि उन्हें पिताजी की मदद पर बहुत भरोसा था।


बिपिन कुमार शर्मा का कहानी संग्रह
अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित



रात में खाना खाते समय पिताजी माँ के ऊपर खूब बरसते रहे थे। वे मौसा पर आरोप लगा रहे थे कि “अपनी बेटी को सिखा-पढ़ाकर भेजा है... नहीं तो इसे क्या पता था कि मनोहर बाबू कौन हैं और कहाँ हैं!” माँ ने बहुत दबी आवाज में पिताजी को याद दिलाया था कि कभी आपने ही उनके आगे अपनी बड़ाई छाँटते हुए बताया था कि मेरे बचपन के दोस्त के पिताजी जज और बड़े नेता हैं। कोई काम पड़े तो बताइएगा। अब उन्होंने मज़बूरी पड़ने पर इसे सिखा-पढ़ाकर भेजा भी तो क्या बुरा किया?
पिताजी बहुत चालाकी से अपनी बात को टाल गए थे और अन्य दूसरे मुद्दे कुरेदकर मौसा को बुरा-भला कहने लगे थे। वे मौसा को कभी पसन्द नहीं करते थे और यथासंभव उनसे दूरी बनाकर रखते थे। मुझे लगता है कि मौसा यह सब भाँपते हुए भी अनजान बने रहते थे। मुझे पिताजी की बातें बहुत खराब लग रही थीं। मौसा से मुझे ज़्यादा सरोकार न था, लेकिन प्रिया दी की समस्या का मैं हर हाल में निदान चाहता था। जब पिताजी का कोसने और खाने, दोनों से जी भर गया और उन्होंने जब खाने से हाथ खींच लिया तो माँ ने विनती के तौर पर थाली उठाते-उठाते लगभग कल वाली बात ही दुहरा दी थी “दुखियारी है बिचारी। इसमें इस बच्ची का क्या कसूर है? अगर इसके लिए कुछ कर सकते हैं तो ज़रूर करना चाहिए।”
पिताजी को भी प्रिया दी से थोड़ा मोह था। शायद इसलिए भी कि मेरी भी दो बहनें थीं। अगले दिन वे शाम में बहुत देर से लौटे थे। आने पर बताया कि मनोहर बाबू से मिलकर आ रहे हैं। प्रिया दी और माँ के अंदर उम्मीदें कुलबुला उठी थीं, लेकिन पिताजी के चेहरे पर सख्त नाउम्मीदी थी। उन्होंने कुछ और पूछने का अवसर दिए बिना चाय की माँग दुहरा दी। प्रिया दी वहाँ से हटकर चाय बनाने के लिए चली गई थीं। प्रिया दी के जाने के बाद पिताजी ने माँ से धीरे-से कहा “यह ऐसा मामला है कि लगता है मनोहर बाबू से भी काम नहीं बनेगा।”
माँ को इस बात से बहुत आश्चर्य हुआ। उसे लगता था कि मनोहर बाबू से कुछ भी कराया जा सकता है। वह धीरे-से पूछी “मना कर दिया क्या कुछ कहने से?”
“मना तो नहीं किया, मगर कह रहे थे कि लड़के का बाप भी कुछ दिन पहले उनके पास आया था और वह पुलिस केस करने की धमकी दे रहा था। किसी तरह समझा-बुझाकर उन्होंने उसके बाप को पुलिस में जाने से रोक दिया है। उनका कहना है कि जिस घर में बेटी को भेजना है वहां दूसरे से दबाव डलवाना ठीक नहीं होगा। पता नहीं बाद में वे लोग इसके साथ क्या करें!”
माँ इस बात पर एकदम चुप लगा गई थी। शायद इस बिन्दु पर उसने पहले विचार ही नहीं किया था। कुछ देर बाद धीरे-से बोली “वे थोड़ा डरा-धमका दें तो काम नहीं चल सकता है?”
“वह क्या बच्चा है जो कोई डरा-धमका देगा? तुम्हारे बहनोई से बड़ी हैसियत है उसके बाप की।” माँ की बात पर पिताजी कुछ खीझ-से गए थे इसीलिए उनकी आवाज़ भी तेज़ हो गई थी। मैं तब उसी कमरे में बैठा पढ़ने का नाटक कर रहा था ताकि इस बातचीत को सुन सकूँ। मुझे इनकी बातें समझ में नहीं आ रही थीं, लेकिन कुछ पूछने की भी स्थिति नहीं थी। तभी प्रिया दी चाय लिए आईं। उनकी दोनों आँखें डबडबाई हुई थीं। शायद पिताजी की बातें उनके कान में भी पड़ गई थीं। प्रिया दी पर पिताजी की भी नज़र पड़ गई थी और वे अपनी बेरुखी पर सकुचा गए थे।
उसके बाद प्रिया दी एक-दो दिन और रुककर अपने गाँव लौट गई थीं। जाते-जाते वे माँ से लिपटकर ढेरों आँसू बहा गई थीं और उनके जाने के बाद माँ उन्हें याद कर-करके बरबस ही रो पड़ती थी। प्रिया दी के चेहरे की उदासी गाहे-बगाहे हमारे घर में भी पसर जाया करती थी।
उन्हीं दिनों में एक दिन मौसा आए थे। पता नहीं कहाँ से थके-माँदे आए थे कि आते ही माँ से कुछ खाने के लिए माँगा था। पिताजी उन्हें देखकर खिन्न-से हो गए थे और सुबह का पढ़ा अखबार उठाकर फिर से पढ़ने लगे थे। माँ ने बस खाना बनाकर खत्म ही किया था सो मौसा के लिए गर्मागर्म रोटी-सब्ज़ी निकाल लाई थी। रजनी दी और बबिता दी भी वहीं आ गई थीं। मौसा शायद बहुत भूखे थे इसलिए खाना देखते ही सब कुछ भूलकर खाने पर टूट पड़े थे। यों भी उन्हें माँ के हाथ का बना भोजन बहुत पसन्द था। मौसा का यह आनन्द पिताजी से शायद देखा नहीं जा रहा था। उन्होंने खाते हुए में ही मौसा को टोक दिया था “बेटी का जीवन बर्बाद करके कौर कैसे निगला जाता है? एकदम नरक करके रख दिए अपनी इकलौती बेटी का जीवन...”
पिताजी की बात सुनकर माँ का चेहरा अचानक ही बुझ-सा गया था। लेकिन मौसा ने खाना जारी रखते हुए सहजता से जवाब दिया था “सब ठीक हो जाएगा। पैसा धराने के लिए नाटक कर रहा है उसका बाप।”
पिताजी को मौसा की सहजता खल गई थी। उन्होंने पहले से भी अधिक बेरुखी से कहा था “वह नाटक कर रहा है तो आप क्या कर रहे हैं? बेटी भार हो गई थी जो रायफल लगाके लड़का उठा लाए? यही काम है शरीफ आदमी का? ऐसे होता है बियाह?”
मैं पिताजी की बात सुनकर स्तब्ध रह गया था। तो मौसा ने लड़के को डरा-धमका कर प्रिया दी से उसकी शादी करवा दी है? क्या इसीलिए हमलोग उनकी शादी में नहीं जा पाए थे? और अब वह लड़का शायद प्रिया दी को अपने घर नहीं ले जा रहा है! क्या इसीलिए प्रिया दी मनोहर बाबू की मदद चाहती थीं?
कुछ महीनों से घर में चल रही फुसफुसाहटों की चाभी आज अनायास ही मेरे हाथ लग गई थी। मौसा ने थाली में बची आखिरी रोटी को सब्ज़ी में लपेटते हुए एक बड़ा-सा कौर बनाकर मुँह में ठूँस लिया था और गुरगुराते हुए-से गरजे थे “भार नहीं हुई थी बेटी। लेकिन हमारी भी लाचारी थी। लड़के के बाप के मुँह पर फेंकने के लिए आपके जितना रुपया नहीं है हमारे पास।”
“तो जितना था उतने में निबाह देते। बड़े घर में ब्याहना ज़रूरी था? बेटी का जीवन तो बच जाता!”
मौसा ने धीरे-से जवाब दिया था “सब माँ-बाप अपने से बड़े घर में बेटी को ब्याहना चाहते हैं। इसमें हमारा कसूर क्या है?”
“बड़े घर में ब्याहकर ही क्या मिल गया, जब ससुराल वाले बेटी को विदा कराने को ही राजी नहीं हैं?” पिताजी ने पूर्ववत तैश में जवाब दिया।
इस गरमागरमी के बीच माँ ने मौसा को और रोटी देनी चाही लेकिन उन्होंने एकदम से मना कर दिया और हाथ धोने को उठ गए। हाथ धोते-धोते नाली के पास से ही मौसा गरजकर बोले “रखेगा कैसे नहीं? भूमिहार की बेटी है। बियाह कोई मजाक है कि छोड़ देगा? बर्बाद कर देंगे साले को...”
“आप भूमिहार हैं तो वह क्या है? रंगदारी भूलकर समधी को मनाइए। बेटी के जीवन का सवाल है।” पिताजी ने मौसा को समझाना चाहा। लेकिन मौसा जैसे समझने को तैयार ही नहीं थे ‘‘नहीं मानेगा तो उसके बाप को भी उठा लेंगे...”
“बाप को उठा लेने से अगर बेटी का घर बसता हो तो ज़रूर उठा लीजिए... पता नहीं आपसे बेटी का मुँह कैसे देखा जाता है! हमारा तो पाँच दिन में ही कलेजा फट गया।”
मौसा कुछ नहीं बोले और गमछे से हाथ पोंछते-पोंछते यह कहकर निकल गए थे कि गाड़ी का टाइम हो गया है।
अगली बार मौसा लगभग दो महीने बाद आए थे। सबसे पहले बाहर चबूतरे पर बैठे पिताजी से ही उनकी मुलाकात हो गई थी। पिछली मुलाकात की कड़वाहटों का नामोनिशान तक न था उनके चेहरे पर। वे हमेशा की ही तरह प्रफुल्लित दिख रहे थे और सबसे बड़े तपाक से मिल रहे थे। अगले दिन उन्हें भागलपुर में ही कुछ काम था, इसलिए रातभर वे घर पर ही रुक गए थे।


प्रस्तुत कहानी ' बया' से साभार है।


पिताजी ने उस दिन अपने ऊपर बहुत हद तक संयम रखा था लेकिन खाते समय शायद उनका सब्र जवाब दे गया था। उन्होंने कौर चबाते-चबाते धीरे-से पूछा था “लड़के वालों से मिलने गए थे?”
मौसा ने सिर हिलाकर ‘हाँ’ में जवाब देकर खाने में मशगूल हो गए थे। कभी सब्ज़ी माँगते, कभी चावल तो कभी दाल। हम लोग भी जानना चाह रहे थे कि उधर से क्या जवाब मिला है! लेकिन मौसा अपनी तरफ से कुछ बता ही नहीं रहे थे। अंत में दुबारा पिताजी ने ही पूछा था “तो अब क्या कह रहे हैं वे लोग?”
“क्या कहेगा साला... बहुत लालची है! पाँच लाख माँगता है।”
इतनी बड़ी रकम सुनकर हम सभी का दिमाग ठनक गया था। कुछ देर रुककर पिताजी ने आश्चर्यजनक उदारता बरतते हुए कहा था “थोड़ी मदद हम भी करते हैं। बाकी रिश्तेदारों से भी कहिए... अब गलती हो गई है तो भुगतना ही होगा। वह आपकी लाचारी जानकर ही इतना माँग रहा है।”
“इतना रुपया तो हम कैसे भी करके नहीं दे पाएँगे।” मौसा उल्टे पिताजी पर ही बमक गए थे “इतना ही रुपया होता तो बेटी का पकड़ौआ बियाह करते? हमको शौक नहीं था ड्योढ़ी पर बारात देखने का?”
“नकद रुपया भले नहीं है लेकिन खेत तो है ही? खेत बेचकर दे दीजिए।” पिताजी ने मौसा से आग्रह किया।
“बेटे के रहते खेत कैसे बेच दें? एक ही तो बेटा है...” खेत के नाम पर मौसा भड़क गए थे। पिताजी ने भी उसी तैश से जवाब दिया था “तो बेटी भी तो एक ही है! बेटी की चिन्ता नहीं है?”
“है चिन्ता। बेटी की भी बहुत चिन्ता है। लेकिन उसके लिए खेत नहीं बेच सकते।”
“बेच नहीं सकते तो गिरवी रख दीजिए।” पिताजी किसी भी तरह से प्रिया दी के लिए समाधान तलाश रहे थे, लेकिन मौसा कुछ मानने को तैयार ही नहीं थे। पिताजी के इस सुझाव से तो वे और ज़्यादा पिनक गए थे “आप जैसा रिश्तेदार हो तो घर-खेत सब बिक जाए... रहने दीजिए हमारी बेटी की चिन्ता। अभी हम जिन्दा हैं।”
पिताजी को मौसा का जवाब अपमानजनक लगा था। वे खाना छोड़कर उठ गए थे। मौसा शायद पहले ही खा चुके थे, इसलिए पिताजी के उठते ही वे थाली में ही हाथ धोने लगे थे। घर का माहौल कुम्हला-सा गया था। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि अब प्रिया दी का क्या होगा।
इसके बाद कई महीनों तक मौसा नहीं आए थे। लगभग चार-पाँच महीने बाद एक दिन फिर प्रिया दी आ पहुँची थीं। पहले की ही तरह बिल्कुल अकेली। कोई नहीं समझ पा रहा था कि इस बार वे क्यों आई हैं! वे खुद भी बहुत झेंपी हुई सबसे मिल रही थीं। उसके दो दिन बाद मैं जब सुबह में नाली के पास बैठा मंजन कर रहा था तो प्रिया दी को माँ से कहते सुना कि “मौसी, सोनू को आज ज़रा हमारे साथ कॉलेज़ जाने को कह दीजिए न!”
माँ से प्रिया दी ने शायद पहले ही बात कर ली थी। क्योंकि माँ ने उनसे यह पूछा नहीं था कि वहां क्या काम है? उसने मेरे पास आकर लगभग रिरियाते हुए-से आग्रह किया था “ज़रा प्रिया के साथ कॉलेज़ तक चले जाओगे बेटा? चले जाओ न!”
“और स्कूल?” मैंने बस जिज्ञासा प्रकट की थी! जबकि भीतर से मुझमें एकबारगी ही स्कूल न जाने की ऐसी खुशी समा गई थी कि मैं उछल पड़ना चाहता था। इसके अलावा मैं प्रिया दी के लिए कुछ करना भी चाहता था... बल्कि कुछ भी कर जाना चाहता था।
ताकि पिताजी न सुन लें, माँ ने धीरे-से कहा था “आज भर छोड़ दो...”
मैंने भाँप लिया था कि इस अभियान को पिताजी से गुप्त रखना है। अपनी तरफ से इसलिए अतिरिक्त सतर्कता दिखाते हुए मैंने माँ की ओर देखकर बस आँखों से इशारा कर दिया था। फिर प्रिया दी की ओर देखकर मुसकराया था। प्रिया दी भी आश्वस्त होकर मुसकराती हुई भीतर चली गई थीं।
भागलपुर का वह कॉलेज़ बिहारभर में प्रसिद्ध था। विद्यार्थी वहाँ एडमिशन के लिए तरसते थे। जिससे प्रिया दी का ब्याह हुआ था वह उसी कॉलेज़ में पढ़ता था। प्रिया दी ने रास्ते में बताया था कि वे कॉलेज़ में उनसे मिलने की कोशिश करेंगी। उनके आगे शायद इस प्रयास के अलावा अब और कोई रास्ता नहीं बचा था।
कॉलेज़ गेट के पास एक दरख्त की ओट लेकर हम खड़े हो गए थे और हर आते-जाते लड़के में उसे तलाश रहे थे। एक-दो घण्टे बाद धीरे-धीरे प्रिया दी निराश होने लगी थीं। उस दिन शायद वह नहीं आए थे। कई घण्टे तक वहाँ खड़े रहने के बाद हम वापस लौट आए थे।
जब मैं हाथ-मुँह धोकर कुछ खाने की इच्छा लिए रसोई में घुस रहा था तो भीतर से माँ और प्रिया दी के बतियाने की आवाज़ सुनाई पड़ी थी। मैं ऐन दरवाज़े पर ही ठिठक गया था। माँ प्रिया दी से पूछ रही थी कि उन्हें ठीक से पहचानती तो हो न? प्रिया दी ने धीरे-से ‘हाँ’ में जवाब दिया था।
“कितने दिन रुके थे शादी के बाद?”
“तीन...” प्रिया दी ने अपने उत्तर को अधिकतम संक्षिप्त बनाकर प्रस्तुत किया था।
“रात में भी साथ ही रहते थे?” माँ ने पूछा था। जवाब में प्रिया दी ने स्वीकृति में सिर्फ़ सिर हिला दिया था। उसके बाद माँ एकदम-से चुप हो गई थी। मैं वहाँ से हट गया था। उन दिनों मुझे इन बातों का ज़्यादा मतलब समझ में नहीं आता था। बस यही लगता था कि कुछ ऐसा हो गया है जो बहुत तकलीफ़देह है।
अगले दिन फिर हम उसी तरह पिताजी से छुपाकर कॉलेज़ गए थे और उस दिन भी तीन-चार घण्टे तक कभी इधर तो कभी उधर खड़े रहकर लौट आए थे। कभी-कभी किसी लड़के को आते देखकर प्रिया दी की आँखें चमक उठतीं, लेकिन उसके करीब आते-आते उसी तेज़ी से आँखों की चमक बुझ भी जाती थीं! दूसरे दिन भी असफलता मिलने पर माँ निराश हो गई थी और प्रिया दी पर थोड़ी खीझ भी रही थी। यही कारण था कि आज फिर माँ ने प्रिया दी से वही सवाल कर दिया था कि तुम पहचानती तो हो न उनको? प्रिया दी ने इस बार भी बहुत सहजता से जवाब दिया था “हाँ मौसी।”
“लेकिन हज़ारों लड़कों में तुम उन्हें ढूँढ़ोगी कैसे?”
प्रिया दी माँ के इस सवाल पर चुप लगा गई थीं। उन्होंने यह नहीं कहा था कि वह हज़ारों में एक हैं! माँ ने ही फिर कुनमुनाते हुए-से कहा था कि दो दिनों से सोनू के स्कूल का भी हर्जा हो रहा है... प्रिया दी इस बात पर भी कुछ जवाब नहीं दे सकी थीं।
अगली सुबह मैंने सुना, प्रिया दी बहुत दीन स्वरों में माँ को मना रही थीं, “बस आज भर मौसी। आज भर सोनू को जाने दीजिए। आज नहीं मिले तो हम कभी नहीं कहेंगे, चाहे जो हो जाए...”
“दो दिन से उसका स्कूल नागा हो रहा है। इनको पता चला तो बहुत गुसायेंगे।” माँ को पिताजी का भी डर था।
“बस आज ही भर मौसी... फिर नहीं कहेंगे कभी।” प्रिया दी की मिन्नतों से माँ पिघल गई थी। मैं नहाने जा रहा था तभी माँ ने रोककर पूछा था, “एक दिन और प्रिया के साथ चले जाओगे बेटा? बस आज भर?” मैं भला क्या कहता! हालाँकि दो दिनों से वहाँ पेड़ के नीचे खड़े-खड़े बहुत उकता चुका था। लेकिन प्रिया दी की सहायता से हाथ भी नहीं खींच सकता था।
उस दिन संयोग अच्छा था। अभी पहुँचे घण्टा भर भी न हुआ था कि एक लड़के को स्कूटर पर आते देखकर प्रिया दी खिल उठीं थीं और आँखों से इशारा करते हुए मुझे बता था दिया था कि यह वही हैं। उन्होंने हम दोनों को नहीं देखा था और सीधा सायकिल स्टैण्ड की ओर चला गए थे। अब हम दोनों किंकर्तव्यविमूढ़-से खड़े थे। अब तक प्रिया दी ने शायद सोचा ही नहीं था कि वे मिल गए तो आगे क्या करना है! मैं यों ही अपने को मुस्तैद दिखाने के लिए उसी तरफ उचक-उचककर देखने लगा था जिधर स्कूटर गया था।
प्रिया दी ने मुझे आगे की ओर ज़रा धकेलते हुए-से कहा था “जाओ न, मिल आओ।” वह शर्म के मारे लाल हुई जा रही थीं।
मैं अचकचा गया था, “मैं तो पहचानता भी नहीं, मैं कैसे मिलूँगा?”
“हम बता तो रहे हैं, वही हैं... सच में।” प्रिया दी बस इतने भर से संतुष्ट थीं कि वे वही हैं। वे मेरी मुश्किल नहीं समझ पा रही थीं कि मैं उनसे मिलूँगा कैसे? मैं आज तक किसी अपरिचित व्यक्ति से अपनी तरफ से नहीं मिला था। मुझे तो कुछ पता ही नहीं था कि किसी से मिला कैसे जाता है? प्रिया दी ने फिर से धकेला था, “जल्दी जा न! फिर निकल जाएँगे वहाँ से...”
“लेकिन जाकर मैं उनसे कहूँगा क्या? वे मुझे पहचानते थोड़े ही हैं!” मैंने खीझते हुए कहा था। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था कि अब जब वे मिल गए हैं तो प्रिया दी खुद न जाकर मुझे भेज रही हैं। यह मुझे पहले से पता होता तो मैं कभी न आता।
प्रिया दी ने कहा कि “जाकर पहले प्रणाम करना और कहना कि जमालपुर से तीस कोस उत्तर जिस गाँव में आपका ब्याह हुआ है वहाँ मेरी मौसी रहती हैं। उनको घर आने को भी कहना। जल्दी जा।” अभी ज़रा आगे बढ़ा ही था कि प्रिया दी ने मुझे पुकारकर बुलाया और लजाते हुए कहा, “सुनो सोनू, उन्हें जीजाजी कहना, अच्छा?”
प्रिया दी ने मुझे धकेल-धकेलकर भेज दिया था। हम दोनों जहाँ खड़े थे वहाँ से सायकिल स्टैण्ड की दूरी मुश्किल से डेढ़-दो सौ मीटर की थी लेकिन मुझे पाँव उठाने का मन ही नहीं हो रहा था। मैं भीतर से चाह रहा था कि जब वहाँ पहुँचूँ तो कोई न मिले। सायकिल स्टैण्ड से ठीक पहले एक मोड़ था जहाँ से मुड़ने से पहले मैंने पीछे देखा था, प्रिया दी मुझे ही देख रही थीं। अब कोई चालाकी नहीं चल सकती थी। मैं मोड़ मुड़ गया था। मुड़ते ही वे दिख गए थे। उसी स्कूटर के पास खड़े थे। उनके साथ तीन-चार और भी लड़के थे। उन सब ने एक बच्चे को कॉलेज़ में आया देख लापरवाह-सी नज़र मेरी ओर डाली और फिर बातों में मशगूल हो गए थे। मैं उन सबके कुछ पास जाकर ठिठक गया था। उनकी नज़र एक बार फिर मुझ पर पड़ गई थी। वे अच्छे लग रहे थे। क्रीम कलर की शर्ट और कोका कोला कलर की पैंट पहने थे। शर्ट पैंट के अंदर दबी थी और पैंट में बेल्ट भी लगाए हुए थे। पैरों में नई सैंडिल थी। खूब गोरे, लम्बे और स्वस्थ थे। मैंने उन्हें देखते ही सोच लिया था कि बड़े होकर मैं भी ऐसे ही कपड़े पहनूँगा।
वहाँ खड़ा रहना बहुत अजीब लग रहा था, लेकिन आगे जाने में भी जान जा रही थी। बहुत हिम्मत करके आगे बढ़ा था लेकिन उनकी गहरी नज़र पड़ते ही घिग्घी बँध गई थी। उनकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं। मुझसे कुछ बोला नहीं जा रहा था, मैंने आगे झुककर उनके पैर छू लिए थे। वे मुझे पैर छूते देख हड़बड़ा गए थे “कहाँ से आए हो बाबू? मुझे पहचानते हो?”
मैंने लजाते हुए कहा, “आप जीजाजी हैं मेरे।”
मेरे यह कहते ही आस-पास खड़े लड़कों ने ठहाका लगा दिया था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इसमें हँसने की क्या बात है! उनके मित्र उन्हें विजय कह रहे थे जिससे मैंने भी उनका नाम जान लिया था। मेरे जीजाजी कहते ही उनका चेहरा उतर गया था। वे बेमन से पूछे थे “कौन गाँव के हो?”
जैसा प्रिया दी ने सिखाया था वही मैंने दुहरा दिया था “जमालपुर से तीस कोस उत्तर जिस गाँव में आपका ब्याह हुआ है न, उसी गाँव में मेरी मौसी रहती हैं...”
“फालतू बात सिखाकर तुम्हें किसने भेजा है? अभी कहीं मेरा ब्याह नहीं हुआ है... जाओ घर।”
मेरा मन टूट गया था। प्रिया दी ने ठीक से पहचाना भी नहीं और भेज दिया मुझे! मेरा चेहरा ऐसा हो रहा था जैसे अभी रो दूँगा। मैं सोच ही नहीं पा रहा था कि अब यहीं खड़ा रहूँ या लौट जाऊँ। उन्होंने मेरी हालत पर तरस खाते हुए पूछ लिया था “किसके साथ आए हो?”
“प्रिया दी के साथ।”
मेरे इतना कहते ही जीजाजी के दोस्तों ने फिर से अपनी बकवास शुरु कर दी थी, “ओहो, भाभी जी अपने रुठे बलम को मनाने खुद चलकर आई हैं?”
मैं लाज से गड़ा जा रहा था। जीजाजी ने अपने दोस्तों को बरजा, “बच्चे से बेकार की बातें मत करो।”
“साले पर तो बड़ा प्यार आ रहा है?” एक दोस्त ने कटाक्ष करते हुए कहा था।
“क्यों न आएगा भला? सारी खुदाई एक तरफ...” अभी दूसरे दोस्त ने अपनी बात खत्म भी नहीं की थी कि बाकी के तीन एक साथ चीख उठे थे “जोरू का भाई एक तरफ।”
मुझे उनकी बातें ठीक से समझ में ही नहीं आ रही थीं। उनके एक दोस्त ने मुझे अपनी तरफ बुला लिया और मेरे गाल मसलते हुए बोला, “गाल तो बड़े फूले-फूले हैं! तुम्हारी दीदी के भी ऐसे ही हैं क्या?”
तभी दूसरे ने ज़रा प्यार जताते हुए मुझसे पूछा था “किस क्लास में पढ़ते हो बाबू?” मैंने समझदार बनते हुए तुरंत बता दिया था “‘छ्ट्ठे में।”
“कितने भाई-बहन हो?”
उनकी बातों में मुझे कुछ भी गलत नहीं लगा था इसलिए मैं बताता चला गया था “दो बहन, भाई में मैं अकेला हूँ।”
उन्हें जवाब देकर अभी मैं साँस भी नहीं ले पाया था कि तीसरे दोस्त ने हँसते हुए एक कहकहा जड़ दिया था “अपने मौसा से कहना कि हम दोनों को भी उठवा लें। हमें तो कोई उठाता ही नहीं!”
पहले दोस्त ने भी सहमति जतायी थी “हाँ, मुझे भी उठवा लो। भाई सुन्दर है तो बहन भी मस्त होगी...”
मुझे वहाँ पर और ठहरना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। मैंने जीजाजी के पास जाकर धीरे-से कहा, “घर चलिए न...”
“नहीं, मेरा क्लास है। अभी तुम जाओ, और यहाँ मुझसे मिलने फिर कभी मत आना।”
मुझे उनकी बेरुखी अच्छी नहीं लगी थी। मैं वापस लौटने लगा तो उन्होंने गुस्से में भरकर ज़ोर से कहा था “मेरा कहीं ब्याह नहीं हुआ है, किसी से नहीं। समझे? अपने मौसा को भी यह बात बता देना और दीदी को भी।”
उनकी बात सुनकर मैं अपमान के मारे रो पड़ा था। उनके दोस्त मेरे जाने की दिशा में पीछे-पीछे आने लगे थे लेकिन जीजाजी न जाने किधर निकल गए थे। प्रिया दी ने मुझे सिसकते हुए आते देखा तो बहुत बेचैन होकर आगे बढ़ आई थीं और मुझे अपने से सटा लिया था। मेरी नज़र जब उनके दोस्तों पर पड़ी तो मैंने प्रिया दी को वहाँ से तुरत चलने के लिए कहा। मगर वे अपना ही राग अलापने में लगी थीं “उनको घर चलने के लिए नहीं कहे थे सोनू? क्या बात हुई उनसे?”
मुझे जीजाजी के दोस्तों द्वारा कही गई गन्दी-सन्दी बातें याद आ रही थीं और वही सब लोग थोड़ी दूर पर खड़े हम दोनों को देखकर हँसे जा रहे थे। मैंने बहुत गुस्से में भरकर प्रिया दी से कहा “आप पहले चलिए यहाँ से। आपको कुछ समझ में क्यों नहीं आता...” प्रिया दी से कभी मैंने इस तरह बात नहीं की थी। वे मेरे चीखने से सहम गई थीं। मैं उनके चलने की प्रतीक्षा किए बिना ही गेट की ओर बढ़ गया था। प्रिया दी भी पीछे-पीछे आने लगी थीं, एकदम बेमन से घिसटती हुईं-सी। पास आकर मेरा सिर सहलाते हुए बोलीं “कुछ देर और रुको न सोनू... वापस जाते समय भी उनसे मिल लेना! हो सकता है घर चलने को मान जाएँ।”
प्रिया दी को क्या पता था कि थोड़ी देर पहले मेरे साथ क्या-क्या हुआ था! मुझे उनकी बातों से और ज़्यादा गुस्सा आ गया था और मैंने अपनी चाल तेज़ करते हुए कहा था, “आपको कुछ पता भी है? आपके बारे में गन्दी-सन्दी बातें कर रहे थे उनके दोस्त। मुझे भी बहन की गाली दे रहे थे...”
प्रिया दी के होंठों पर मुस्कान छलक आई थी, “तुम बुद्धू हो। वे सब मज़ाक़ कर रहे होंगे। तुम साले हो न...”
“तो क्या हुआ? अब मैं यहाँ कभी नहीं आऊँगा।” मैंने अपनी गति बनाए रखी थी।
“इन्होंने भी कुछ कहा था क्या?” मेरे चुप रह जाने पर प्रिया दी ने फिर से अपनी बात दुहराई थी “जीजाजी ने भी कुछ कहा था क्या सोनू?”
मैं फट पड़ा था, “हाँ, वे भी बहुत खराब बोल रहे थे...” वहाँ हुए अपमान को याद करके मेरी आँखें फिर से छलछला गई थीं। प्रिया दी मुझे रोककर मेरे गाल सहलाने लगी थीं और मेरी आँखों को पोंछती जा रही थीं। उसके बाद वे थोड़ी देर तक चुपचाप चलती रहीं थीं। एक मिठाई की दुकान पर रुककर उन्होंने मुझे जलेबी खिलाई और पावभर पेड़ा खरीदा था। कहा था कि कल काली माय पर प्रसाद चढ़ाएँगे। वे सबके बावजूद खुश दिख रही थीं और मुझे उनकी खुशी पर आश्चर्य हो रहा था।
प्रिया दी की मुस्कान से ही माँ ने भाँप लिया था कि आज मुलाकात हो गई है। घर पहुँचते ही उन्होंने हड़बड़ाकर माँ के पाँव छू लिए थे और शर्म से लाल हुई बाथरूम में घुस गई थीं। माँ ने तब मुझसे पूछा था कि मेहमान जी मिले थे? मैं अनमना-सा ‘हाँ’ कहकर वहाँ से हट गया था। मेरा मिजाज़ अभी तक बिगड़ा हुआ था। प्रिया दी जब बाथरूम से निकलीं तो माँ से लेकर रजनी दी और बबिता दी तक एक ही सवाल बार-बार किए जा रही थीं कि जीजाजी मिले थे या नहीं? प्रिया दी हर बार संक्षिप्त-सा ‘हाँ’ कहकर झेंप जा रही थीं। माँ ने ज़ोर देकर पूछा कि कुछ बात हुई उनसे? प्रिया दी ने इन्कार में सिर हिला दिया था?
“क्यों? बात क्यों नहीं हुई?” रजनी दी चौंक गई थीं।
“सोनू गया था मिलने। हम तो दूर ही खड़े रहे... वहाँ बहुत लड़के थे मौसी। हम कैसे जाते सबके आगे?” प्रिया दी के जवाब से सभी सहमत थे।
अब सारा मजमा मुझे तलाशने लगा था। मैं तो दूसरे कमरे में बैठा सारी बातें सुन ही रहा था। जब अंदाज़ा हुआ कि अब सब मेरे पास आने वाले हैं तो मैं तुरत चादर खींचकर लेट गया था और थककर सोने का नाटक करने लगा था। लेकिन बबिता दी ने जब मेरे मुँह पर पड़ी चादर खींची तो मेरी हँसी छूट पड़ी।
खैर, अब सवालों की बौंछार से अकेले मुझे ही गुज़रना था। प्रिया दी भी दरवाज़े से टेक लगाए हरेक शब्द को सोखती जा रही थीं। माँ ने ही पहले पूछा कि क्या बात हुई थी मेहमान जी से? मैंने बहुत संक्षेप में बता दिया कि कुछ खास बात नहीं हुई। उन्होंने आते-आते बहुत गुस्से में कहा था कि अपने मौसा और दीदी को बता देना कि मेरा कहीं भी, किसी से भी ब्याह नहीं हुआ है। यह भी कहा कि अब यहाँ कभी मुझसे मिलने मत आना।
मेरी बात से सबका चेहरा उदास हो गया था। लेकिन प्रिया दी शायद इसी में संतुष्ट थीं कि इतने बड़े शहर के इतने बड़े कॉलेज़ में अकेले दम उन्हें ढूँढ़ निकाला था। उन्होंने धीरे-से कहा, “कोई ये भी कैसे कहेगा मौसी कि हमसे मिलने आना... मना तो किया ही जाता है न!” प्रिया दी की बात से माँ भी सहमत दिखी।
फिर रजनी दी ने मुझसे पूछा था “जीजाजी कैसे हैं देखने में?”
“हैं तो सुन्दर!” मेरी बात पर प्रिया दी खिल उठी थीं और मुस्कराकर मुझे देखने लगी थीं। मैंने उन्हें खुश करने की गरज से नहीं बल्कि सचमुच में अपना मन खोलकर रख दिया था, “खूब सुन्दर हैं। लम्बे और एकदम गोरे। कपड़े भी बहुत सुन्दर पहने थे और स्कूटर से आए थे। जितेन्दर जैसा लग रहे थे...” उस समय मुझे और कोई फ़िल्म अभिनेता याद ही नहीं आया था। मेरी इस बात से सबको थोड़ी राहत मिली थी और पिछली बातों की कड़वाहट बहुत हद तक समाप्त हो गई थी।
मुझे यह अच्छा नहीं लगा था कि मुख्य बात दरकिनार की जा रही है। मैंने अपनी तरफ से बिना पूछे ही जड़ दिया था, “लेकिन उनके दोस्त लोग गन्दी-गन्दी बातें कर रहे थे, प्रिया दी और आप दोनों के बारे में भी। कह रहे थे कि अपने मौसा से कहना हम लोगों को भी उठवा लें...”
माँ मेरी बात पर हँसते हुए बोली “साला से मज़ाक़ किया ही जाता है। तुम्हारा मुँह क्यों नहीं खुला था? तुम भी कुछ मज़ाक़ कर देते...”
प्रिया दी ने हँसते हुए माँ से कहा था “यह तो रोते हुए आया था मौसी। समझ ही नहीं पाया कि मज़ाक़ है!”
मुझे प्रिया दी पर बहुत गुस्सा आ रहा था। इन्हीं के कारण इतना अपमानित हुआ और उल्टे यही मुझ पर हँस रही हैं! उस समय मन ही मन ठान लिया था कि अब कभी इनके साथ कॉलेज़ नहीं जाऊँगा।
माँ ने धीरे-से कहा “ई तो घरघुस्सा है एकदम। इसका मुँह केवल घर में खुलता है।”
अब सब मुझ पर पिल पड़े थे। उन सबको पलटकर गाली न दे पाने की मेरी कमज़ोरी मेरी कायरता के रूप में प्रचारित की जा रही थी। मैं भूख का बहाना करके जब माँ के साथ रसोई में आ गया तब जाकर वह मजमा खत्म हुआ था।
उसके बाद कई दिनों तक ऐसी कोई बात नहीं हुई थी कि उसे याद रखी जाए! हाँ, एक दिन बाहर चबूतरे पर जब मैं अकेला बैठा था तो प्रिया दी ने आकर ज़रूर पूछा था कि ‘उन्होंने’ हमारे बारे में कुछ भी नहीं पूछा था सोनू? मेरे इन्कार पर वे कई दिनों तक उदास रही थीं।
अगले हफ्ते फिर से वे मुझे समझा-बुझाकर कॉलेज़ ले गई थीं। उस हफ्ते भी तीन दिन हमलोग घण्टों गेट पर खड़े-खड़े टटाते रहे, लेकिन जीजाजी उस बीच शायद कॉलेज़ ही नहीं आ रहे थे। उसके बाद एक दिन मौसा आए तो प्रिया दी को साथ लेते चले गए थे।
मौसा के आने पर प्रिया दी बार-बार मुझसे कसम लेती रही थीं कि “सोनू, कॉलेज़ जाने वाली बात दादा से कभी नहीं बताओगे न?” मैं हर बार उन्हें भरोसा दिलाता कि नहीं बताऊँगा, लेकिन उन्हें संतोष ही नहीं होता था। जाते-जाते भी कहती गईं थीं कि “अगर दादा को पता चला न सोनू, तो वो हमको जित्ता नहीं छोड़ेंगे। यदि तुम हमको जित्ता देखना चाहते हो तो वह बात कभी मत बताना दादा को।” वे अपने पिताजी को दादा कहती थीं।
प्रिया दी के कॉलेज़ जाने की बात जैसे मुझे मौसा से छुपानी थी उसी तरह घर में पिताजी से भी। प्रिया दी के जाने के बाद भी घर में उनकी चर्चा चलती रहती थी। स्कूल से लौटने पर खाना परोसती हुई माँ कई बार पूछ देती कि आते-जाते हुए रास्ते में मेहमान जी कभी दिखते नहीं हैं? मेरे इन्कार करने पर कई बार वह खीझ भी जाती और कहती कि तुम तो रास्ते में आँख घुसाए चलते हो, तुम्हें कोई क्या दिखेगा? मैं चुप रह जाता। उन दिनों अकेले में मैं अकसर सोचा करता कि जीजाजी अचानक कहीं मिल जाएँ और मैं उन्हें किसी भी तरह मना लूँ तो प्रिया दीदी और माँ की नज़रों में हीरो हो जाऊँ। लेकिन मेरा स्कूल उनके कॉलेज़ से एकदम उल्टी दिशा में था।
उन दिनों मौसा का घर आना बहुत कम हो गया था। आते भी तो पहले की तरह हँसते-बोलते नहीं थे। पाँच-छह महीने बाद एक दिन फिर प्रिया दी आई थीं। उसी तरह अकेली, प्लास्टिक के थैले में कुछ कपड़े लटकाए हुए।
मैंने बड़े जोश में उन्हें बताया था कि अब मैं सातवीं कक्षा में आ गया हूँ। मेरी बात सुनकर उन्होंने मुस्करा भर दिया था। इस बार प्रिया दी पहले से कुछ दुबली और बीमार लग रही थीं। माँ ने तो देखते ही टोक दिया था कि “क्या हो गया है तुम्हें प्रिया? कैसी लग रही हो!” प्रिया दी ने धीरे-से मुस्कराकर बताया था कि कुछ दिनों से रोज़ बुखार हो जाता था। लेकिन अब ठीक है।
जैसा कि मेरा भी अनुमान था, अगले दिन माँ ने प्रिया दी के साथ कॉलेज़ जाने का अपना निवेदन मेरे सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था। मेरी खुशी तो थी ही प्रिया दी की खुशी में!
उस दिन हमलोग कॉलेज़ गेट पर पहुँचकर कहीं खड़े होने के लिए अभी जगह ही ताक रहे थे कि जीजाजी आते दिख गए थे। उन्होंने भी हम दोनों को देख लिया था और उनका मुँह हमें देखने के बाद टमाटर जैसा लाल भी हो गया था। वे शायद पहले ही आकर स्कूटर पार्क कर चुके थे, क्योंकि उस समय पैदल और अकेले थे। हम दोनों को देखकर भी अनदेखा करते हुए वे एक तरफ को बढ़ गए थे। प्रिया दी ने मुझे कोहनी से कोंचकर उस ओर चलने का इशारा किया था जिधर जीजाजी तेज़ी से बढ़े जा रहे थे, और खुद भी मेरे साथ-साथ चल पड़ी थीं।
इस बार हमें रणनीति तय करने का अवसर ही नहीं मिला था, इसलिए मुझे पता ही नहीं था कि प्रिया दी भी मेरे साथ चलेंगीं! और मुझे इस बार क्या बोलना है यह तो अभी उन्होंने बताया ही नहीं था। मैं जीजाजी के पीछे-पीछे बढ़ने लगा था, थोड़ी दिलेरी दिखाते हुए, ताकि घर जाकर मेरा मज़ाक़ न बने कि डर गया था! मेरे ठीक पीछे-पीछे साये की तरह प्रिया दी लगी हुई थीं।
जीजाजी समझ चुके थे कि हमलोग उनसे मिले बिना टलेंगे नहीं, इसलिए थोड़ा फाका देखकर वे एक जगह थम गए थे। मैं समझ नहीं सका था कि वे रुक गए हैं, इसलिए अपनी रौ में मैं बढ़ता ही चला जा रहा था और अचानक ही खुद को उनके एकदम सामने पाया। वे बुरी तरह खीझे हुए थे, मेरी तरफ देखकर दाँत पीसते हुए-से गुर्राये “मैंने कह दिया था न कि यहाँ मत आना?”
इब्तिदा में ही उनसे ऐसे बर्बर बर्ताव की मुझे उम्मीद नहीं थी! पिछली बार तो उन्होंने अंत में ऐसा किया था। मुझे कोई उपयुक्त जवाब समझ में नहीं आया तो मैंने पलटकर प्रिया दी की ओर देखा था ताकि कुछ इशारा मिले। प्रिया दी ने दूसरी ओर देखते हुए जीजाजी को सुनाकर मुझसे कहा था, “इनसे पूछो कि फिर कहाँ जाएँ?”
मुझे लगा कि जब उन्होंने डायरेक्ट प्रिया दी के मुँह से सुन ही लिया है तो मैं क्यों पूछूँ? जीजाजी ने मेरे पूछने की प्रतीक्षा भी नहीं की। वैसे ही तैश में जवाब दिया था उन्होंने “इससे मुझे क्या मतलब? जहाँ मर्जी हो जाइए।”
“इनसे कहो कि यहीं मर्जी है।” प्रिया दी ने भी मेरे कन्धे पर रखकर तड़ाक से बन्दूक दाग दी थी।
“क्यों नहीं! यही ज़बर्दस्ती तो माँ-बाप ने सिखाई है। फिर कुछ कहने या पूछने की ज़रूरत ही क्या है, उठवा लीजिए आज भी।” जीजाजी ने ज़हर बुझी मुस्कान के साथ कहा।
मुझे तो घबराहट हो रही थी। इतने महीनों बाद कितनी मुश्किल से तो आज मुलाकात हो पाई थी और मिलते ही ऐसा घमासान! तभी जीजाजी का वही दोस्त अचानक वहाँ आ पहुँचा जो पिछली मुलाकात में मेरा गाल मसल रहा था। आते ही उसने मुद्दा भाँप लिया और प्रिया दी की ओर अतिरिक्त विनम्रता प्रदर्शित करते हुए बोला, “नमस्ते भाभी जी!”
प्रिया दी ने दूसरी ओर नज़र फेर ली थी। लेकिन वह बाज आने वाला नहीं था “विजय को लेने आई हैं क्या भाभी जी? यह नहीं जा रहा है तो मैं चलूँ? अभी मुझसे ही काम चला लीजिए...”
“रवि, ज़्यादा बकवास मत करो।” जीजाजी ने उसे बरजा।
“बकवास क्या है इसमें? भाभी से मज़ाक़ भी नहीं कर सकते? तुम मना करते रहो लेकिन हमारा तो रिश्ता बनता है भाई...”
प्रिया दी को बात आगे बढ़ाने का सिरा मिल गया था। उन्होंने तपाक से कहा “जिनसे हमारा रिश्ता बँधा है वे तो कुछ रिश्ता ही नहीं समझते...”
प्रिया दी का इतना कहना था कि जीजाजी सिरे से उखड़ गए “कौन-सा रिश्ता है मेरा आपसे? कनपटी पर रायफ़ल लगाकर कोई रिश्ता बनाया जाता है? रिश्ता नहीं समझते...”
मुझे लगा था कि जीजाजी ने चूँकि इस खेल का सबसे बड़ा पत्ता फेंक दिया है इसलिए हमारी मात भी अब तय है। इसके आगे जवाब ही क्या हो सकता था!
लेकिन प्रिया दी ने भी उतने ही तैश में जवाब दिया था, “तो इसमें हमारा क्या कसूर है? क्या हमने कहा था दादा को कि आपको उठा लाएँ? हम पहले से आपको जानते भी थे क्या? लड़की से कोई माँ-बाप कुछ पूछता है कभी? कॉलेज़ में पढ़ते हैं लेकिन इतना भी नहीं समझते! हम इसलिए यहाँ नहीं आते हैं कि आपको किसी ने उठाया था...” अंतिम बात कहते-कहते लगा कि प्रिया दी अभी रो देंगी।
प्रिया दी की आवाज़ में इस कदर आवेश और लाचारी थी कि जीजाजी को कोई जवाब देते नहीं बन रहा था। लगा कि उनके गुब्बारे में भरी हवा अचानक ही निकल गई हो। उन्होंने धीरे-से कहा था “मैं भी लाचार था... मुझसे भी किसी ने नहीं पूछा था।”
“तो अब हम क्या करें?” प्रिया दी ने उनसे सीधे ही पूछ लिया था। उन्हें अब मेरी मध्यस्थता की ज़रूरत नहीं रह गई थी।
“मुझे क्या पता? अपने दादा से ही पूछिए। मेरे साथ तो आपका कोई रिश्ता नहीं है।”
“रिश्ता कैसे नहीं है?” प्रिया दी बुरी तरह बिफर उठीं थीं “शादी के बाद जो संबंध आपने हमारे साथ बनाए थे, उसके लिए क्या दादा ने जबर्दस्ती की थी? या हमने की थी? किस मुँह से कहते हैं आप कि कोई रिश्ता नहीं है? उस संबंध के प्रति आपकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती है?”
जीजाजी को शायद प्रिया दी से इस तरह के सवाल की उम्मीद नहीं थी। या शायद उस बात की गंभीरता उन्होंने कभी समझी ही नहीं थी। उनका चेहरा फक्क सफ़ेद पड़ गया था। उनकी अकड़ की एक-एक पेच पलक झपकते ज़मीन पर कीड़े-मकोड़े की भाँति रेंगने लग गई। कुछ देर तक कोई भी कुछ न बोल सका। कुछ देर बाद जीजाजी ने ही धीरे-से कहा “जैसे आप अपने दादा के आगे मज़बूर थीं वैसे ही अब मैं भी अपने माँ-बाप के आगे मज़बूर हूँ। उनके विरुद्ध जाकर मैं कुछ नहीं कर सकूँगा। आप मुझे गलत मत समझिए...”
“तो आप भी हमको गलत मत समझिए। आपके सिवा हमारा अब कहीं कोई ठौर नहीं है...”
मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि प्रिया दी ऐसा भी कर जाएँगी। वे सिसकती हुई-सी नीचे झुकीं और जीजाजी के पैर पकड़कर वहीं बैठ गईं “या तो हमको अपना लीजिए या कहीं से ज़हर लाके दे दीजिए। जो होना है आज हो जाए। ऐसे तो हमसे अब और नहीं जिया जाएगा...” इतना कहकर वे धाड़-धाड़ रोने लगी थीं। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें कैसे सांत्वना दे। इतने दिनों का सब्र आज अचानक ही टूट गया था। जीजाजी का वह दोस्त जो थोड़ी देर पहले बढ़-बढ़कर मज़ाक़ कर रहा था, वह भी अकबका गया और कुछ बहाने बनाकर वहाँ से खिसक गया। आते-जाते लोग पास आ-आकर थम जा रहे थे। किसी को समझ में ही नहीं आ रहा था कि यहाँ किस बात के लिए मजमा लगा हुआ है! मुझे खुद भी बहुत अजीब-सा लग रहा था। मैंने पास जाकर प्रिया दी को उठाने का प्रयास किया तो उन्मादग्रस्त-सी उन्होंने मेरा हाथ झटक दिया। जीजाजी भी पैर छुड़ाना चाह रहे थे लेकिन दीदी ने कसकर जकड़ रखा था। या वे भी शायद ज़ोर-जबर्दस्ती करना नहीं चाह रहे थे।
अंत में लाचार होकर जीजाजी ने कहा था “मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है। लेकिन मैं भी अपने वश में नहीं हूँ। इस विवाह से मेरा भी जीवन पूरी तरह बर्बाद हो गया है... खैर, इस बार घर जाने पर मैं पापाजी से बात करुँगा इसके बारे में।”
जीजाजी के आश्वासन के बावजूद दीदी वैसे ही नीचे बैठी रहीं। हालाँकि उन्होंने हाथों की जकड़बन्दी शायद ढीली कर दी थी, क्योंकि जीजाजी ने अपने पैर छुड़ा लिए थे और अब थोड़ी दूर जाकर खड़े हो गए थे। दीदी को न उठता देख जीजाजी ने मुझसे आग्रह किया “सुनो बौआ, अभी अपनी दीदी को लेकर घर चले जाओ। मैंने बोल दिया है... जितना मुझसे हो सकेगा मैं पूरी कोशिश करुँगा। इससे ज़्यादा अभी और कुछ नहीं कर सकता, चाहे ये रातभर बैठी रहें।”
मैंने पास जाकर प्रिया दी का हाथ धीरे-से खींचा तो वे उठ खड़ी हुईं। इस बीच वहाँ कई लड़के तमाशा देखने के लिए जमा हो गए थे। जीजाजी बहुत शर्मिन्दा महसूस कर रहे थे। उन्होंने हमारे पास आकर धीरे-से लेकिन बहुत सख्ती से कहा “मैं पूरी कोशिश करुँगा यह बोल चुका हूँ। लेकिन एक बात और कहना है। अगर यह नाटक यहाँ दुबारा हुआ तो फिर कभी मेरा जीवित मुँह नहीं मिलेगा देखने को...” इतना कहकर वे तेज़ी से निकल गए। प्रिया दी आवाक रह गई थीं। उन्होंने शायद सोचा ही नहीं था कि यह बात इतनी बड़ी हो जाएगी कि दुबारा मिलने का रास्ता ही बंद हो जाएगा!
उस समय हम ऐसी मन:स्थिति में रह भी नहीं गए थे कि सोच पाते हमें कितने लोग यहां देख रहे हैं! कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि आज अच्छा हुआ है या बुरा! प्रिया दी का तो मुँह ऐसा हो रहा था जैसे अभी फिर से फटकर रो पड़ेंगी। हमलोग वहाँ से सरपट घर के रास्ते पर बढ़ चले थे। जब घर बहुत करीब रह गया तो प्रिया दी ने मुझे रोककर आग्रहपूर्वक कहा था “सुनो सोनू, घर में किसी से आज के बारे में कुछ मत बताना। कभी भी मत बताना। कोई पूछे तो यही कहना कि वे नहीं मिले थे। ठीक है न हमारे अच्छे भैया?”
मैंने जल्दी से स्वीकृति में सिर हिला दिया। उसके दो-तीन दिन बाद ही प्रिया दी जैसे आई थीं वैसे ही चली गईं। एकदम अकेली।
मेरे हृदय पर इस मुलाकात के बहुत गहरे निशान रह गए थे। कई महीने बीत गए थे, लेकिन न प्रिया दी आती थीं और न उनकी कोई सूचना। अनजाने में ही मैं उनका राजदार बन गया था और वह राज मैं सबसे कीमती चीज़ की भाँति अपने मन की सौ परतों के नीचे सँभालकर रखता था। जीजाजी के पैरों पर रोती हुई एकदम अनाथ-सी प्रिया दी का चेहरा मुझे जब भी याद आता तो मन बेचैन हो जाता था। माँ के साथ जब कभी मैं मन्दिर जाता तो भगवान से प्रिया दी की खुशी के सिवा और कुछ न माँग पाता था।
पिताजी से उस रात हुई बहस के बाद से मौसा का आना वैसे ही बहुत कम हो गया था। थोड़ी देर के लिए कभी आते भी तो सबसे बहुत अनमने-से मिलते-जुलते थे। औपचारिक बातों के अलावा पिताजी भी उनसे कुछ कहने-सुनने से बचने लगे थे। विश्वास नहीं होता था कि यही मौसा कितनी-कितनी बातें किया करते थे और रसोई में घुसकर खुद ही अपने लिए खाना निकाल लाते थे।
इस बीच रजनी दी का ब्याह तय हो गया था और उस दिन उनका फलदान था। तभी प्रिया दी आई थीं। शायद डेढ़-पौने दो साल बाद। साथ में मौसी और विनय दा भी थे, प्रिया दी के छोटे भाई। मौसा नहीं आए थे। मौसी ने बताया था कि खेत में कटनी चल रहा है।
प्रिया दी ने मुझे देखते ही तरल मुस्कान के साथ पूछा था, “अब आठवीं क्लास में आ गए होगे?”
मैंने तपाक से कहा था, “नहीं, नौवीं में। दो महीने बाद तो मैट्रिक में चले जाएँगे।”
“वाह!” प्रिया दी ने बहुत खुश होकर कहा था- “ऐसे ही मन लगाकर पढ़ना भाई। अब बड़े भी लग रहे हो! मूँछ की रेखानी फूट आई है।” मैं अपने बड़े होते जाने की वजह से शरमा गया था और मुँह दूसरी ओर घुमा लिया था। प्रिया दी अब बहुत कमज़ोर और उम्रदराज लगने लगी थीं। उन्हें देखकर मन उदास हो गया था।
मैं भी रजनी दी के फलदान में जाना चाहता था। मैंने कभी पटना नहीं देखा था। लेकिन पिताजी ने मुझे यह कहकर समझा दिया था कि तुम शादी के बाद रजनी को लाने के लिए चलना। परिवार और रिश्ते के सभी पुरुष फलदान में जा रहे थे इसलिए मुझे घर में ही रहने को कहा गया ताकि आकस्मिक समस्याओं में काम आ सकूँ।
अगले दिन अचानक ही मौसा आ पहुँचे थे। हमलोग उनके आने पर एकदम से चौंक गए थे। पूरा घर औरतों से खचाखच भरा हुआ था। दो मौसियाँ, तीन मामियाँ तथा प्रिया दी और मेरी दो दीदियों के अलावा तीन अन्य ममेरी बहनें। मैं मौसा को बाहर ही मिल गया था और मैंने ही सबको उनके आने की सूचना दी थी। मेरे पीछे-पीछे मौसा भी परदा उठाकर अन्दर घुस आए थे और आते ही प्रिया दी के बारे में पूछा था। माँ ने वहाँ बैठी बबिता दी से पानी लाने को कहकर मौसा से बैठने का आग्रह किया, लेकिन मौसा ने माँ की बातों पर ध्यान दिए बिना मौसी से दुबारा प्रिया दी के बारे में पूछा। माँ ने रसोई घर की तरफ इशारा करते हुए बताया कि अंदर कुछ काम कर रही है। मौसा उधर ही चले गए थे। प्रिया दी और रजनी दी रसोई में खाना बनाने में लगी थीं।
मौसा के उधर जाते ही अचानक हड़कम्प-सा मच गया। रसोई से प्रिया दी के बहुत तेज़ चीखने की आवाज़ आई और अगले ही पल रजनी दी थरथर काँपती हुई आकर माँ से प्रिया दी को बचाने की गुहार लगा रही थीं कि जल्दी आओ नहीं तो मौसा प्रिया दी को मार देंगे।
बताते हैं कि किसी बच्चे के ऊपर से फाँदकर नहीं जाना चाहिए नहीं तो उसकी बाढ़ रुक जाती है। लेकिन मुझे उस समय कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था। छोटी मौसी की बेटी का तीन साल का बच्चा गुड्डू वहीं बीच में सोया हुआ था और मैं उसी के ऊपर से छलाँग लगाकर सबसे पहले रसोई में पहुँच गया। वहाँ का दृश्य देखकर तो मुझे काठ मार गया था। मौसा प्रिया दी का गला अपने मज़बूत पंजों से दबाए हुए थे और दूसरे हाथ से पास पड़ा चाकू उठाने का प्रयास कर रहे थे। प्रिया दी के होंठ फट गए थे जिससे खून रिसकर ठुड्डी से होते हुए नीचे टपक रहा था।
उनकी निगाह मुझ पर पड़ी... जैसे कोई खस्सी देवी के थान पर बलि के लिए तानकर पकड़ लिया गया हो! न कोई याचना न गुहार। बस एक बेबस-सी रिरियाहट उनके मुँह से निकल रही थी जो शयद उनकी सहनशक्ति से बाहर हो गई थी। मैं आपे से बाहर हो गया था और उस पल एकदम से भूल गया था कि ये मेरे मौसा हैं। मैं एक लम्बी छलाँग मारकर रसोई में जा पहुँचा और चाकू के पास पहुँच रहे उनके पंजे पर उसी चाकू से वार कर बैठा। वे बुरी तरह भन्ना गए और प्रिया दी की गर्दन उनकी घातक पकड़ से आज़ाद हो गई। अगले पल माँ, दोनों मौसी, मामी आदि सब भागी-भागी आ पहुँची थीं।
माँ प्रिया दी को मौसा के आगे से खींचकर आँगन में ले आई थी। प्रिया दी माँ से सटकर खड़ी अपने होठों से बहता हुआ खून पोंछने लगी थीं। वे रो नहीं रही थीं लेकिन उनकी आँखों से आँसू बहे जा रहे थे। मैं अभी तक रसोईघर में ही मौसा के बगल में खड़ा डर और घबराहट के मारे काँप रहा था। चाकू अभी तक मेरे हाथ में ही था जिसमें खून लगा हुआ था। मौसा ने चाकू लगने के बाद केवल एक बार मेरी ओर आश्चर्य से भरकर देखा था और एक ही बार अपनी घायल हथेली को भी। उन्हें न मुझसे कोई मतलब रह गया था और न ही अपने हाथ से।
मौसी ने बहुत घृणा से देखते हुए मौसा से पूछा, “इसने ऐसा क्या किया है जो इसे मार रहे हैं आप?”
मौसा दहाड़ते हुए रसोई से निकल आए थे “रंडी बनकर अपने दुल्हा को लुभाने कॉलेज़ जाती है ये हरामज़ादी! इसीलिए रोज दौड़-दौड़कर यहाँ आती थी...” और बोलते-बोलते मौसा ने आगे बढ़कर प्रिया दी की कमर पर एक ज़ोर की लात जमा दी थी। प्रिया दी तो वैसे ही बीमार-सी थीं, मौसा के शक्तिशाली प्रहार से भरभराकर नीचे गिर पड़ी थीं। मैं चीख मारकर रसोई से निकल आया लेकिन मौसा को मेरी ज़रा भी परवाह नहीं थी।
माँ ने फिर से प्रिया दी को सँभाल लिया और मौसा को बुरी तरह दुत्कारते हुए कहा “जवान-जहान बेटी पर हाथ उठाते हुए आपको लाज भी नहीं आई? कसूर क्या है इसका?”
“आप लोगों को कैसे कसूर दिखेगा? सब तो आप ही लोगों का सिखाया-पढ़ाया है! आपके बिना जाने यह कॉलेज़ में रासलीला करने जाती थी? ...लगता है लाज से अपनी जान दे दें कि इस कुतिया की ले लें!” मौसा अब पंजों और पैरों से ज़्यादा अपने शब्दों से चोट पहुँचाने में लगे थे। प्रिया दी लाज से गड़ी जा रही थीं। भरे घर में सबके आगे मौसा ने उन्हें तमाशा बना दिया था।
माँ मौसा की बातों पर उबल पड़ी “आप जब किसी को रातों-रात उठा लाए थे और गाय समझकर बेटी को उसके साथ बाँध दिए थे उस समय लाज नहीं लगी थी? आज बड़े आए हैं लाज वाले... अपना दोष नहीं दिखता तो बेटी पर पहलवानी दिखा रहे हैं!”
माँ को कभी भी मैंने मौसा से इस तरह बात करते नहीं सुना था। मौसी भी मौसा को कोसने लगी थीं कि बेटी का जीवन नरक में झोंक दिए हैं। ऐसे बियाहने से तो अच्छा था कि ज़हर दे देते। ऐसे ही यह बेचारी दुख में मरी जा रही है और ऊपर से कोई कुछ बात कान में फुसक दे तो आ जाते हैं मारने-पीटने। रोज़ इनको शक होता रहता है कि आज इसे काहे देख रही थी तो कल उससे काहे बोल रही थी...
मौसा ने बीच में ही मौसी की बात काट दी थी, “कोई शक नहीं हुआ है। आज ही इसके ससुर की चिट्ठी आई है कि अपनी बेटी को सँभालकर रखो। वह कॉलेज़ में मेरे बेटे को फुसलाने के लिए जाती रहती है।”
इस पर मामी ने मौसा से पूछा “तो इसमें क्या बुरा लगा? जिससे मिलने जाती है उससे आपने ही इसका पल्लू बाँध दिया है।”
इस बार मौसा की आवाज़ दब गई। उन्होंने धीरे-से कहा “उसका बाप अपने लड़के का ब्याह कहीं और करवा रहा है और उससे मिलने जाकर यह हमारी पगड़ी गिराने में लगी है।”
मौसा की बात सुनकर सभी स्तब्ध रह गए थे और प्रिया दी सिसकने लगी थीं। शायद उन्हें मुलाकात का वह अन्तिम दिन याद आ गया था और जीजाजी के द्वारा किया गया वादा भी। मुझे भी इस सूचना से बहुत चोट पहुँची थी।
बड़ी मामी ने मौसा से आगे बढ़कर कहा “ऊ बियाह कर रहा है अपने बेटे का और आप मुँह ताक रहे हैं? निकल गई सब पहलवानी?”
“हम भी देखते हैं साला कैसे करता है बेटे का बियाह...” मौसा गरजे थे। मौसा ने अपनी बात अभी खत्म भी नहीं की थी कि मौसी ने बहुत घृणा से भरकर मौसा के मुँह पर लगभग थूकते हुए-से जवाब दिया “आप बस देखते रहिएगा... इतने बरस से देख ही रहे हैं न? बस, अपनी बेटी नहीं दिखती इन्हें...”
थोड़ी ही देर में पासा पूरी तरह पलट चुका था। सब मौसा पर थू-थू कर रहे थे और प्रिया दी को दुलार रहे थे। रजनी दी ने प्रिया दी का चेहरा गीले तौलिए से पोंछकर ज़ख़्म पर बोरोलीन लगा दिया था। वे सबसे किनारे वाले छोटे रूम में लेट गई थीं। रजनी दी, माँ, मौसी और बड़ी मामी वहाँ पर बैठी थीं, बाकी लोग पूर्ववत विराज चुके थे। मैं बाहर निकल गया था। कुछ देर बाद देखा कि घर के पिछवाड़े में मौसा अपने ज़ख़्म पर पेशाब कर रहे थे। फिर वे उधर से ही चले गए थे।
मैं भीतर आकर प्रिया दी के सिरहाने बैठ गया था। प्रिया दी की आँखें मुँदी हुईं थीं। सोते हुए में उनकी आँखें काली खाई में गड़ी हुई लग रही थीं। मैं उन्हें बचा नहीं सका था। उन्हें मेरी उपस्थिति का आभास हो गया था। उन्होंने चादर से अपना एक हाथ चुपके से निकालकर मेरी हथेली को कस के पकड़ लिया था। मैंने सहमकर उनके चेहरे की ओर देखा। उनकी आँखें फिर से बहने लगीं थीं। मैं पत्थर सा वहीं बैठा रह गया।
घर में कुछ देर पहले खुशी का जो माहौल था वह लगभग मातम में बदल गया था। प्रिया दी के विवाह की बर्बादी की खबर से रजनी दी के विवाह की खुशी ग्लानि में बदल गई थी। मौसी माँ को बता रही थीं कि ये अब ऐसे ही हो गए हैं। किसी की खुशी इनसे सहन ही नहीं होती है। पहले यही कितना हिल-मिलकर रहते थे!
फलदान से अगले दिन सबके लौट आने के बाद मौसी और प्रिया दी को छोड़कर सभी लोग चले गए थे। प्रिया दी के चेहरे की चोट चेहरे पर पूरी तरह नुमायाँ हो रही थी। उसकी वजह से चेहरे पर सूजन तो आई ही थी, बुखार भी आ गया था। मौसी इसीलिए प्रिया दी के साथ रुक गई थीं। विनय दा जिस दिन लौटे उसी दिन चले गए थे कि दादा अकेले होंगे। उस बार की गई प्रिया दी फिर कभी नहीं आईं। रजनी दी की शादी में भी नहीं। शादी में केवल मौसी और विनय दा आए थे।
मुझे प्रिया दी की बहुत याद आती थी लेकिन उनकी कोई खबर हमें नहीं मिल पाती थी। मौसा का आना-जाना पूरी तरह से बंद हो गया था। वे आते भी किस मुँह से! रजनी दी का शादी के सवा साल बाद ही गौना हो गया था और वे अब ज़्यादातर अपनी ससुराल में, मतलब जीजाजी के साथ लक्खीसराय में रहती थीं। जीजाजी रेलवे में टीसी थे और कुछ सालों से किउल जं. में पोस्टेड थे। यह अच्छी बात थी कि वे अपने घर-परिवार में बहुत खुश थीं। तीन-चार महीने पहले उन्हें एक बेटा भी हुआ था।
मैं मैट्रिक पास करने के बाद इंटरमीडिएट में उसी कॉलेज़ में एडमिशन पा गया था जिसमें जीजाजी पढ़ते थे। कॉलेज़ में मुझे प्रिया दी की हद से ज़्यादा याद आती थी। मैं अकसर उस जगह पर मँडराया करता जिस जगह पर प्रिया दी ने रोते हुए जीजाजी के पैर पकड़ लिए थे। अब मैं बच्चा नहीं रह गया था और प्रिया दी का वह अपमान हर क्षण मेरी छाती में गड़ता रहता था। ज़िन्दगी की भीख माँगी थी प्रिया दी ने! वह किस अर्थ में पुरुष था जो याचना कर रही अपनी स्त्री का हाथ न थाम सका? क्या कोई अपने माँ-बाप से इस कदर डर सकता है! मुझे कॉलेज़ आते हुए डेढ़ साल हो गए थे लेकिन न कभी जीजाजी मिले थे और न उनके वे मित्र। वे लोग शायद तब तक कॉलेज़ छोड़ चुके थे। मेरे लिए यह अच्छा भी था, अन्यथा मैं कॉलेज़ में सहज नहीं रह पाता। जबकि अब मैं उसी कॉलेज़ में पढ़ता हूँ तो भी माँ कभी नहीं पूछती कि मेहमान कहीं दिखे थे या नहीं? अब सभी उन बातों से कतराते थे।
कक्षा की मीयाद पूरी हो चुकी थी और अब परीक्षा फॉर्म भरे जा रहे थे। मैं भी उस दिन उसी काम से कॉलेज़ गया था और चलान बनवाने के लिए लाइन में लगा था। अचानक फीस काउंटर पर लगी दूसरी पंक्ति में खड़े एक व्यक्ति पर मेरी नज़र ठहर गई। वे लगातार मुझे ही देख रहे थे और मुझे पहचानने का प्रयास कर रहे थे। मेरे मुँह से अस्फुट-सा निकला, जीजाजी! मैंने अनायास ही वहीं से खड़े-खड़े प्रणाम में हाथ जोड़ दिए थे। उनका सन्देह दूर हो गया था। वे अपनी पंक्ति छोड़कर निकल आए थे और पास आकर मुझे गले से लगा लिया था। मेरे मन का कई वर्षों का जमा रोष उनके गले लगाने-भर से पिघलकर पानी हो गया था। हम दोनों की आँखें अनायास ही छलक आई थीं।
उन्होंने मुझे देखते हुए कहा, “मैं तो तुम्हें पहचान ही नहीं पा रहा था। तुम तो मुझसे भी लम्बे हो गए हो!” मैं संकोच से उन्हें देख रहा था। उम्र का असर उन पर भी हो गया था। पेशानी पर सिलवटें पड़ गई थीं, बालों में भी कुछ सफेदी आ गई थी और चेहरे की कुछ गलियों में झुर्रियों ने डेरा डाल दिया था। वे कुछ खुश भी नहीं लग रहे थे। उन्होंने मेरे पढ़ने-लिखने के बारे में पूछा और अपने बारे में बताया कि एम.एससी. की डिग्री निकालने आए हैं। ज़िला स्कूल मुंगेर में उन्हें हाई स्कूल टीचर की नौकरी मिल गई थी। उन्होंने कहा कि फीस जमा कर लो उसके बाद मिलते हैं। वे फिर से उसी लाईन में अपनी जगह पर जाकर खड़े हो गए थे। जब भी मेरी नज़र उनसे मिलती, वे हल्के-से मुस्करा देते।
जब मैं चालान बनवाकर निकला तो देखा कि वे स्कूटर खड़ी करके मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे देखते ही बोले, “आओ कहीं चाय पिया जाए। अब तुम इतने बड़े तो हो ही गए हो कि तुम्हें चाय पिलाई जाए!” मैं कुछ बोले बिना उनके स्कूटर के पीछे बैठ गया था। वे एक अच्छे रेस्टॉरेंट में ले गए और बैठते ही रसगुल्ला-समोसा और चाय का आर्डर दे दिया।
मुझे अजीब-सा लग रहा था। जब रिश्ता था तब तो तमीज़ से बात तक नहीं करते थे और अब, जब सब खत्म हो गया था तो वे आवभगत में लगे थे। मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने तनिक व्यंग्य में उनसे पूछ ही लिया, “अपनी दूसरी शादी की पार्टी दे रहे हैं क्या?”
“दूसरी शादी? तुम्हें कैसे पता?” उन्होंने सहजता से हँसते हुए पूछा। मुझे तो लगा था कि वे इस बात पर तमक उठेंगे!
“लगभग तीन साल पहले मौसा ने ही बताया था कि आपकी दूसरी शादी की बात चल रही है?”
“हाँ, पापा ऐसा चाहते हैं। लेकिन जिसे भी पता चलता है कि मेरी शादी कहीं हो चुकी है वह रिश्ता तोड़ लेता है। कई जगह उन्होंने बात बढ़ाई लेकिन हर बार यही हुआ।”
बोलते-बोलते वे मुझे देखकर रुक गए थे। पता नहीं मेरे चेहरे पर कैसा भाव था! कुछ देर चुप रहने के बाद वे बोले, “सोनू बाबू, मैं कोई दूसरी शादी नहीं चाहता हूँ। पापा-मम्मी चाहते हैं। वे मेरे लिए सब कुछ हैं। उनसे लड़कर हम कैसे रह सकेंगे?”
मैंने जीजाजी को कई बरस पहले हुई पिछली मुलाकात की बात याद दिलाते हुए संकोच सहित पूछा, “आपने वादा किया था कि शादी के बारे में अपने घर में बात करेंगे?
“तो तुम्हें क्या लगता है, मैंने बात नहीं की होगी? ...जब मैंने उसी शादी को मान लेने की जिद की तो पापा जी ने गुस्से में खाना-पीना तक छोड़ दिया था। शायद उन्होंने तुम्हारे मौसा को कोई चिट्ठी-उट्ठी भी लिखी थी। ...तुम्हीं बताओ, ऐसे में तुम क्या करते? एक जबरन कर दी गई शादी के लिए माँ-बाप को छोड़ देते?”
जीजाजी की बात का मुझे कोई जवाब समझ में नहीं आया था। कुछ देर तक चुप रहने के बाद मैंने ही दुबारा बात छेड़ी थी, “आपको पता भी है, प्रिया दी की क्या हालत है?”
“तुम्हारी दीदी को पता है कि मैं किस दशा में हूँ? सबको लगता है कि भूत की तरह दुख भी केवल लड़कियों को पकड़ता है... मैं भी पढ़-लिखकर जीवन में कुछ बनना चाहता था। लेकिन इस विवाह ने मेरा जीवन तहस-नहस कर दिया। घर-समाज में जो भी देखता है वही मुझ पर हँसता है। जब भी अकेले में कभी अपने जीवन के बारे में सोचता हूँ तो लगता है टेंशन से मेरा सिर फट जाएगा। मुझे नहीं मालूम कि मेरा क्या भविष्य है! बताओ क्या कसूर था मेरा? तुम्हारे मौसा की रंगबाजी और अपने पापा के अहंकार के नीचे मेरा पूरा जीवन नष्ट हो गया। प्रिया दी तुम्हारी अपनी हैं इसलिए उनका दुख तुम्हें समझ में आता है। मेरा क्यों कुछ समझ में आएगा...”
मैं जीजाजी की बातें सुनकर सन्न रह गया था। वास्तव में मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि उनकी भी कोई मज़बूरियाँ होंगी। उन्हें मैं हमेशा फ़िल्म का विलेन ही मानता आया था। उस दिन जब उन्होंने अपना मन खोलकर रखा तो मैं ग्लानि से गड़ गया था। मेरी भाषा की सारी ध्वनियाँ हथियार डाल चुकी थीं जबकि मैं अपनी बात उन तक पहुँचाना चाहता था। इस बार उनका बर्ताव मुझे अच्छा लगा था। वे मुझसे एक मित्र की तरह मिले थे। जबकि लगभग जवान हो जाने के बावजूद मैं उनके आगे तो अभी भी वही “बौआ” ही था!
जब कुछ समझ में नहीं आया तो मैंने जीजाजी की हथेली को अपनी हथेली से हल्का-सा दबाते हुए बोला “पहले मेरे मन पर प्रिया दी के दुख का भार था, अब थोड़ा आपका भी होगा।”
उन्होंने स्नेह से मेरी आँखों में देखा और हौले से मुस्करा दिए।
थोड़ी देर बाद उन्होंने ही चुप्पी तोड़ी थी “सच कहूँ तो मुझे तुम्हारी दीदी अच्छी लगी थीं। सुन्दर भी। लेकिन सिर्फ मेरे लगने से क्या होना था? अगर यही शादी परिवार की इच्छा से होती तो...”
मैंने उनकी बातों से हौसला पाकर कहा था “लेकिन इन दुखों को अलग-अलग सहते जाने से क्या फायदा जीजाजी? यह कोई समाधान तो नहीं है?”
जीजाजी शायद इस मुद्दे पर अभी और बहस नहीं चाहते थे इसलिए कुर्सी खिसकाकर उठते हुए बोले, “समाधान तो महादेव ही जानते होंगे!”
वे काउंटर पर पहुँचकर पैसे देने लगे थे। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि और क्या बोलें। तभी उन्होंने पता नहीं किस प्रेरणा से अपने पॉकेट से सादे कागज़ का एक टुकड़ा निकालकर मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले “इस पर अपना पता लिख दो। मैं जब मुंगेर में रहने लगूँगा तो तुम्हें अपना पता भेजूँगा।”
उस दिन जब मैं घर पहुँचा तो भीतर से एकदम भरा हुआ था। जी में आ रहा था कि आज किसी तरह प्रिया दी से मिल पाता और उन्हें इतना-सा कह पाता कि अभी जीवन खत्म नहीं हुआ है प्रिया दी, आप खुद को बचाए रखिएगा।
रात को सोने से पहले जब माँ रसोई का काम समेट रही थी तो मैंने उसके पास जाकर पूछा, “आज पता है कॉलेज़ में कौन मिला था?”
माँ बिना कोई उत्सुकता दिखाए मुझ पर ही बरस पड़ी “तुम जाकर सोते क्यों नहीं? फिर झींकते रहोगे कि नींद नहीं आती है!”
हारकर मैंने उसकी उत्सुकता के बगैर ही बता दिया, “आज कॉलेज़ में जीजाजी मिले थे।”
“क्या?” माँ मेरी बात पर पहले चौंकी, फिर उदासी में डूबती हुई बोली, “अब कौन-से जीजाजी! जब थे तब थे।”
मैंने माँ को जब सारी बात बताई तो वह भी बहुत खुश हुई और बोली कि बेटा, कुछ भी करके प्रिया का जीवन बचा लो। अगली बार मेहमान जी मिलें तो कहना गौना करवा लें। जिसकी मांग में सिन्दूर भरा उसे बेसहारा छोड़ देना ठीक बात नहीं है।
लगभग दो महीने बाद जीजाजी का एक साधारण-सा पत्र मिला था जिसमें उन्होंने औपचारिक बातों के अलावा अपना पता भी भेजा था और मुझे घुमने के लिए मुंगेर बुलाया था। यह देखकर मैं प्रभावित था कि विज्ञान के विद्यार्थी होते हुए भी जीजाजी की भाषा और लिखावट बहुत अच्छी थी। मैंने उस छोटे-से पत्र को कविता की तरह कई-कई बार पढ़ा था और जवाब में मैंने भी उन्हें एक पत्र लिख दिया था। हाँ, माँ जो-जो लिखवाना चाहती थी उनमें से कोई बात मैंने नहीं लिखी थी। फिर तो उनका पत्र महीने-दो महीने पर आता रहता था और मैं भी उसका जवाब लिखता रहता था। उन्होंने मुझसे अलग से एक रिश्ता कायम कर लिया था, पता नहीं क्यों!
उसके लगभग सालभर बाद विनय दा की शादी का न्योता मिला था। तब मैं उसी कॉलेज़ में बी.एससी. फ़र्स्ट ईयर में पढ़ता था। हमलोग खूब तैयारी के साथ मौसी के यहाँ पहुँचे थे। लगभग चार साल बाद हम प्रिया दी और मौसी से मिलने वाले थे।
वहाँ पहुँचकर मैं सिर्फ प्रिया दी को तलाश रहा था क्योंकि उन्हें अचंभित करने के लिए मेरे पास बहुत सारी बातें थीं। मैंने देखा कि प्रिया दी नहाकर बालों में तौलिया लपेटे अपने कमरे में जा रही थीं। थोड़ी देर की प्रतीक्षा के बाद मैं सबकी नज़र बचाकर उनके कमरे में घुस गया था। जब मैं भिड़ाया हुआ किवाड़ धकेलकर उनके कमरे के अंदर दाखिल हुआ तो वे बल्ब की हल्की रोशनी में पाटी-चोटी करने के उपरांत अपनी माँग में सिन्दूर भर रही थीं। मुझे अचानक सामने देखकर उनका मुँह मुस्कराने के बावजूद विकृत हो गया था। वे ज़रा तंज़ से बोलीं “देख रहे हो न सोनू, हमको पता भी नहीं है कि हम विधवा हैं या सधवा... फिर भी रोज सुहागन की तरह सिंगार रचाते रहते हैं!”
“ठीक ही तो है प्रिया दी। जीवन अभी खत्म नहीं हुआ है। क्या पता आगे कितनी खुशियाँ बाकी हैं?”
“तुम नहीं समझ सकते सोनू। किसी के न होने का दुख बहुत बड़ा होता है। यह सबको आसानी से दिख जाता है। लेकिन किसी के होते हुए भी न होना उससे भी बड़ा दुख है... कितना अपमानजनक लगता है यह तुम कैसे समझ सकोगे?”
मैंने जल्द से जल्द उन्हें निराशा से उबारने की गरज से बोला, “उदासी का मौसम अब बीतने वाला है प्रिया दी। मैं आपको कुछ अच्छी बातें बताऊँगा। आप जल्दी से तैयार होकर बाहर आइए।”
उनके चेहरे पर असमंजस के भाव थे। वे तब कुछ न बोल सकीं। जब मैं वहाँ से जाने लगा तो उन्होंने पीछे से कहा, “तुम कितने लम्बे हो गए हो!” तब तक मैं सिर निहुराकर दरवाज़े से बाहर निकल आया था।
यह बात मौसा-मौसी और प्रिया दी, सबको मालूम था कि उनकी अभी तक कोई दूसरी शादी नहीं हुई है। तीन-चार जगह उस लड़के की शादी तुड़वाने में मौसा की भी बड़ी ज़ोरदार भूमिका रही थी। जीजाजी के पिता द्वारा लिखे गए उस पत्र के बाद से दोनों परिवारों में कैसा भी संवाद नहीं रह गया था। इसीलिए प्रिया दी को यकीन ही नहीं हो रहा था कि जीजाजी से मेरी इतनी निकटता हो गई है! वे बार-बार मुझसे पूछती जातीं, “सच में उन्होंने ऐसा कहा था सोनू... कि हम उन्हें अच्छे लगते हैं? ठीक से याद करके बताओ। हमको खुश करने की गरज से तो नहीं कह रहे हो न?”
मैं भी बार-बार उन्हें आश्वस्त करता कि “मैं ज़रा भी झूठ नहीं बोल रहा प्रिया दी। मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि उनका पत्र साथ लेता चलूँ। पत्र दिखा देता तो आपको विश्वास होता कि वे मुझसे अब कितनी बातें करते हैं!”
“हमारे बारे में भी कुछ लिखा है क्या?” प्रिया दी ने सहज उत्सुकता से पूछा था। मुझे ध्यान था कि पत्र में उन्होंने ऐसा कुछ नहीं लिखा था। मेरे इन्कार करने पर वे थोड़ी मायूस हो गई थीं।
विनय दा की शादी की खुशी इस खबर के बाद दुगुनी हो गई थी। सबको फिर से प्रिया दी का घर बसाने का हौसला होने लगा था। मौसा मेरे चाकू के वार को पूरी तरह भूल चुके थे और मुझसे बहुत प्यार जता रहे थे। उनके यहाँ मैं सबसे खास मेहमान हो गया था। प्रिया दी तो ज़रा भी फुर्सत पातीं कि मेरे करीब आ बैठतीं। बारात में भी मौसा ने मेरा बहुत ध्यान रखा था। शादी के बाद जब हम लोग लौटने लगे थे तो मौसा स्टेशन तक छोड़ने आए थे। लग रहा था कि उन्हें कुछ कहना है जो अब तक रह गया है। ट्रेन जब एकदम आने वाली थी तब उनके सब्र का बांध टूट चला। मेरे दोनों हाथ पकड़कर वे फूट-फूटकर रो पड़े थे “सोनू बेटा, अब सब कुछ तुम पर है। प्रिया का ब्याह बचा लो बेटा। तुम्हारे प्रयास से उसका घर बस सकता है...”
इतने लम्बे-तगड़े पहलवान व्यक्ति का भीड़ भरे प्लैटफ़ार्म पर इस कदर टूटकर रोना हमें दहला गया था। माँ पास आकर उनकी पीठ थपकने लगी थी। मैं कभी मौसा को देखता तो कभी आसपास खड़े लोगों को जो हमें ही देख रहे थे। मौसा अभी भी मेरे हाथ थामे हुए थे और रोते-रोते उनकी घिग्घी बंध रही थी। मैंने विह्वल होकर कहा, “मौसा, आपको भला कुछ कहने की ज़रूरत है? मुझसे जो भी हो सकेगा मैं ज़रूर करुँगा।”
“तुम अब हमारी अंतिम उम्मीद हो बेटा। हमसे जो भी गलती हुई हो उसे माफ कर दो। बेटी के दुख से हमारा दिमाग खराब होता जा रहा है। अपने पिताजी से भी कहना कि हमें माफ कर दें...”
मौसा की रुलाई रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। बरसों से दिल पर पड़ा मलाल वे अपने आँसुओं में बहा देना चाह रहे थे। उनकी ऊँची और रोबीली आवाज़ रुँधे गले से गड़गड़ाहट की तरह निकल रही थी। वे कुछ और भी बोलना चाह रहे थे लेकिन उनसे बोला ही नहीं जा रहा था। उसी बीच हमारी ट्रेन आ गई और मौसा साथ मिलकर सामान चढ़ाने में लग गए थे। बीच-बीच में वे कंधे पर लटक रहे गमछे से अपनी आँखें और नाक भी पोंछते जा रहे थे।




फिर तो पूरे सफर में हम मौसा की ही बातें करते आए। पिछले कुछ सालों में हमने कितना-कितना कोसा था उन्हें! हमें ज़रा भी अहसास नहीं था कि पत्थर जैसे उस बदन में कहीं कुछ मोम-सा भी पिघलता होगा! घर आकर जब पिताजी को बताया तो उनकी आँखों में भी थोड़ी तरलता आ गई थी।
लेकिन सबसे बड़ी चुनौती थी जीजाजी से उस संबंध को स्वीकारने की बात करना जिसके लिए दोनों परिवारों में संवाद तक की गुंजाइश नहीं रह गई थी। मुझे यह बात करने में बहुत झिझक भी हो रही थी कि जीजाजी को कहीं यह न लगे कि मैं उनके स्नेह का गलत फायदा उठा रहा हूँ। लेकिन यह बात तो हमारे रिश्ते में एक न एक दिन उठनी ही थी! ख़ैर, मैंने सारी बातों को समेटते हुए उन्हें एक भावुक-सा पत्र लिख भेजा और जवाब की प्रतीक्षा करने लगा।
उसी दौरान एक दिन मौसा आए। हम सब भीतर कमरे में थे जब पिताजी ने बड़े प्रसन्न भाव से बाहर चबूतरे पर से माँ को आवाज़ दी कि साढ़ू आए हैं! मैंने बाहर आकर देखा था कि मौसा पिताजी की बगल वाली कुर्सी पर सिर झुकाए शर्मिन्दा-से बैठे थे। मैंने उन्हें बताया कि एक पत्र भेजा तो है। मौसा के पूछने पर ध्यान आया था कि पन्द्रह-बीस दिन हो गए थे पत्र भेजे हुए। इतने दिन में तो मुंगेर से पाँच बार जवाब आ सकता था। जीजाजी ने उतनी ज़रूरी बात का भी जवाब अभी तक क्यों नहीं दिया? क्या उनका मन इस रिश्ते से पूरी तरह हट चुका है?
मौसा ने मुझसे निवेदन किया कि मैं कल मुंगेर चला जाऊँ और मिलकर बात करुँ। उनकी समझ से ऐसी बातें पत्र में नहीं हो सकती थीं। पिताजी ने जब मौसा से कहा कि मेरे साथ वे भी चले जाएँ तो वे सकुचा गए थे, “हमको बात करने नहीं आता है। हमारे जाने से कहीं गड़बड़ न हो जाए!”
अगले दिन मेरे साथ पिताजी का जाना तय हुआ। मौसा अहसान से दुहरे हुए जा रहे थे। हम दोनों जीजाजी के स्कूल ही पहुँच गए थे। जीजाजी पिताजी से बहुत सम्मान के साथ मिले थे। उन्होंने मुझे बताया कि स्कूल में छुट्टियाँ चल रही थीं इसलिए वे गाँव चले गए थे। परसों लौटे तो उन्हें मेरा पत्र मिला और कल उन्होंने जवाब भेज भी दिया है। हमारे हर प्रस्ताव और निवेदन को उन्होंने विनम्रतापूर्वक परे कर दिया और हर बार एक ही जवाब देते रहे कि इसका फैसला केवल पापा ही करेंगे। अपने माता-पिता की अवहेलना करके उन्हें कैसा भी रिश्ता मंजूर नहीं था। पिताजी के बहुत कहने पर उन्होंने अगले रविवार का दिन तय कर लिया कि उस दिन वे भी गाँव में उपस्थित रहेंगे।

शाम से पहले ही हमलोग वापस भागलपुर लौट आए थे। पिताजी ने मौसा से कह दिया था कि शनिवार की रात तक वे यहाँ आ जाएँ ताकि रविवार को वहाँ जाया जा सके। मौसा जाने में झिझक रहे थे लेकिन पिताजी के हौसला देने पर मान गए। मौसा डर रहे थे कि अब तो लड़के की नौकरी भी हो गई है इसलिए उसका बाप अब और ज़्यादा रुपया माँगेगा। लेकिन पिताजी आशान्वित थे।
अगले रविवार हम तीनों स्टीमर से गंगाजी पार करके जीजाजी के गाँव गए थे। गाँव के हिसाब से देखा जाए तो जीजाजी का घर बहुत बड़ा और सुन्दर था। देखकर ही लग गया था कि परिवार बहुत समृद्ध है। जीजाजी के पिता बिजली के इंजीनियर से रिटायर हुए थे। वे मौसा को देखते ही बुरी तरह भड़क गए और बुरा-भला कहने लगे। यह अच्छा था कि मौसा ने पिताजी की सलाह मानकर एक भी बार जवाब नहीं दिया और जब उनका कोसना कुछ थमा था तो उनके आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गए कि सारी गलती हमसे ही हुई है और अब माफी माँगने आए हैं। हो सके तो माफ कर दीजिए...
उन्हें मौसा से विनम्र व्यवहार की शायद ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। वे गुस्से में ज़रा कन्फ्यूज होते हुए बोले “आपके बेटे को भी कोई ऐसे ही उठवा लेता तो कैसा लगता? अपने बेटे में तो बड़ा धूम-धाम कर लिए...” मौसा ने जवाब में बस इतना ही कहा कि वह भी आप ही का बेटा है।
खैर, जीजाजी हम सबके बीच आकर कुछ देर बैठे और पिताजी तथा मौसा को उचित सम्मान भी दिया। उसके बाद वे मुझे अंदर बुलाकर ले गए और अपनी माँ से मिलवाया।
पिताजी का यह अनुमान सही था कि वे लोग भी अब इस रिश्ते को बहाल करना चाहते होंगे। लेकिन ‘बेटे का बाप’ वाला अहंकार और दहेज का लालच आड़े आ रहा था। मौसा ने गालियाँ बर्दाश्त करके उस अहंकार को तुष्ट कर दिया था और अब दहेज की बारी थी। तीन लाख पर जाकर बात खत्म हुई, साथ में बारात का खर्च भी मौसा को ही उठाना था। मरता क्या न करता!
वापसी में मौसा ने बताया कि उन्होंने पहले से सोच रखा था कि विनय के दहेज में मिले रुपए से प्रिया को दहेज दे देंगे। उनके हिसाब से लगभग दो लाख तो विनय दा के दहेज से बच रहे थे, बाकी का इन्तज़ाम करना था।
और आज जब प्रिया दी की शादी का कार्ड मिला तो सारी घटनाएँ फ़िल्म के रील की तरह दिमाग में तेज़ी से घुम गईं। एक ही शादी दो-दो बार! मानो पहली बार शादी नहीं उसका रिहर्सल था।
चूँकि जीजाजी के पापा को भी अपने सारे अरमान निकालने थे, इसलिए शादी में बहुत धूमधाम हुई। प्रिया दी को ससुराल की तरफ से एक से बढ़कर एक गहने और कपड़े मिले थे। लगता था कि सौभाग्य उनसे अतीत में हुई हर तकलीफ के लिए क्षमाप्रार्थी था! मौसा-मौसी के तो खुशी के मारे आँसू ही नहीं सूख रहे थे। एक दुखद शुरुआत का यह बेहद सुखद अंत था।
विदा के समय प्रिया दी मुझसे लिपटकर बुरी तरह रो पड़ीं थीं। जीजाजी ने भी अपनी बाँहें बढ़ाकर मुझे दूसरी ओर से लिपटा लिया था “विदा कराने आप ही आइएगा सोनू बाबू। आपके बिना इनकी विदाई नहीं होगी।” जीजाजी की इस बात पर प्रिया दी ने नेह से भरकर उन्हें देखा।
मैंने कार में दोनों को बिठाते हुए प्रिया दी से कहा कि “देखिएगा प्रिया दी, आप दोनों का संबंध लाखों लोगों से ज़्यादा प्रगाढ़ होगा। एक इन्सान से दो-दो बार शादी कहीं सुना है क्या?” वे दोनों मेरी बात पर मुस्कराने लगे थे।
उस दिन पहली बार मैं प्रिया दी के लिए खुशी में रोया था।
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साभार: बया

संपर्क:

बिपिन कुमार शर्मा
6393349449/7619014236
bipinjnu@gmail.com


8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!डूब कर लिखा आपने । गज्जब का प्रवाह ,एक अद्भुत रवानगी है कथ्य में ।पूरी कहानी एक सांस में पढ़ गई।
    एक बच्चे के बचपन से लेकर उसके किशोर और युवा मन तक का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण बखूबी किया गया । साथ ही पकड़ौआ ब्याह जैसी कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करते हुए लेखक ने युवकों की पीड़ा को समाज के समक्ष रखने का सफल प्रयास किया है और एक मैसेज दिया है कि समाज की इन कुरीतियों से सिर्फ एक लड़की का ही जीवन बर्बाद नहीं होता बल्कि एक लड़का भी उतना नारकीय जीवन भोगता है।
    बिना किसी लाग-लपेट के कहानी सीधे दिल यक पहुंचती है। एक बेहतरीन कहानी के लिए विपिन जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ।

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  2. रुला दिए मित्र। बहुत बहुत अच्छी कहानी।

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  3. The way you have presented this, it makes the reader see it through sonu's eye and one could feel the pain of every character. Loved it. You are awesome.

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  4. अति सुन्दर और सुखद। मार्मिक।

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