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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 नवंबर, 2016

साथी डॉ संजीव की कुछ कविताएँ ।

साथियों आइये आज पढ़ते है समूह के साथी डॉ संजीव की कुछ कविताएँ ।
पढ़कर अपने बेबाक विचार रखें ।

1. परिक्रमा
कहाँ कहाँ जाता मन
कभी खामोश 
कभी मदहोश
कभी झूमता
कभी गाँव शहर घूमता
कभी झाँकता
यादों के झरोखे में
कभी उलझता
जिन्दगी के धोखे में
छाया या माया
समझ ही नहीं आया।

परिक्रमा
किस ओर
किस छोर
चलते जाना है
स्वयं को सप्रयास
जाने कौन सी आस
एक दिन
उखड़ती साँस
बस और क्या ?

2.  जिन्दगी तो एक भटकाव है?
न जाने किस लक्ष्य के भरोसे 
चलते जाने का नाम ।
कभी कोई आया
कभी कोई गया
पर लक्ष्य तो नही मिला?
जब भी लगा
कि लक्ष्य के करीब हूँ
लक्ष्य बदल गया
और भटकता रहा
लक्ष्यों की भीड़ में।।

3. मेरी साधना
तुम्हारे लिये
हो सकती है
एक क्षुद्र प्रयास
क्योंकि तुम
समझते हो
स्वयं को दिव्य,
सर्वशक्तिमान
तुम समझते हो
स्वयं को विधाता।

पर कौन पूछेगा तुम्हें
यदि मेरी साधना
तुम्हें दिव्यता न दे।

यह तो संभ्रम था मेरा
अन्यथा करता मैं
उपासना भी स्वयं की
और हो जाता मै भी
दिव्य और शक्तिमान
किन्तु यही न समझ सका
मेरा विश्वास।।

4.  जिन्दगी का सपना
और सपनों की जिन्दगी।

एक ताना बाना बुनता मन
उसी में उलझा तन
सपनों की होड़ में
दुनियादारी में
जोड़ तोड़ में
जाने कब
कहाँ से कहाँ 
पहुँच जाती जिन्दगी
क्या कुछ करके
जीके मर मर के
जाने किस मोड़ पर
खिसक जाती जिन्दगी।

जीवन की यात्रा में
जब तक समझता है मन
तब तक बिखर जाता है
सबका अपनापन।।

5. माँ अब बँट जाती है
हर बेटे-बेटी के हिस्से में
तब वह कुछ दिन एक के पास
कुछ दिन दूसरे के पास रहती है
क्योंकि उसके कोख के हिस्से
अब एक नहीं होते
और उन पर होता है
किसी और का अधिकार
इसलिये वह डोलती रहती है
अपनी कोख के हिस्से 
सहेजने के लिये
जो शायद ही कभी
एक स्थान पर होते हैं। 
जीवन की यही विसंगति
जीवन का सत्य है
और माँ विवश है।।

6. कल आओगे न तुम !
सोचता हूँ
ढलते सूरज को देख कर
जो अभी भी टँगा है
आम के पेड़ की टहनी पर,
सच बताओ
उम्मीदों पर ही तो 
रोशन है जिन्दगी
वरना तो समय
अब कितना कठिन 
हो चला है।
अगर रात ढलने की
उम्मीद न हो
सूरज निकलने की
उम्मीद न हो
तो अँधेरों में सिमटा 
यह संसार
निस्सार सा हो जायेगा-
रोशनी की उम्मीद में
हम काट लेते हैं 
घना से घना अँधेरा।।

7. पतझड़ में
पेड़ों से गिरे पत्ते
मासूम से देखते हैं
उन शाखों को
जहाँ से 
वह विलग होकर गिरे हैं
और वह जो शाखों पर
अभी अटके हैं
वह पीले पड़ चुके चेहरे लिए
काँपते हैं
अपने सहोदरों को देख कर
कि कल उन्हें भी
उसी तरह गिरना होगा।

8. कितना कठिन है
किसी के 
टूटते सपनों की
तस्वीर पढ़ना-
जैसे प्याज के
छिलके उतारना;
किन्तु
परत दर परत
उघाड़ने के प्रयास में
हाथ आते हैं
केवल आँसू।

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियां:-

रेणुका:-
आज की कविताएँ अत्यन्त भावुक कर गयीं। ख़ास कर पहली और तीसरी।

फ़रहत अली खान:-
बहुत अच्छी कविताएँ हैं, ख़ासकर पहली वाली। संजीव जी को बधाई।

प्रदीप मिश्रा:-
इन कविताओं में निजता बहुत सघन है। इसे एक सामान्य व्यक्ति की डायरी से ज्यादा मैं नहीं समझ पा रहा हूँ। यह एक कवि की डायरी जैसा भी नहीं है। क्योंकि कवि के निज में उसका समकाल भी शामिल होता है। वस्तुतः एक कवि की निजता उसके समग्र समाज की निजता होते है। भाषा और शिल्प में कविता ठीक चल रही है। कथ्य भारतीय वाङ्ग्मय के आध्यात्मिक चेतना केंद्रित है, लेकिन उसके सरोकारों तक नहीं पहुँच पा रही है। हमारे यहाँ अध्यात्म के माध्यम कबीर, नाभादास, मलूक दस आदि जहाँ एक तरफ अध्यात्म के माध्यम से सामाजिक विमर्श की भूमि तैयार करते हैं तो दूसरी तरफ मीरा जैसे व्यक्तित्व हैं जो दलित विमर्श की भूमि रचते हैं। इन कविताओं की चेतना में नवाचार की अपेक्षा बनती है।जो पूरी नहीं हो रही है।
संजीव जी के पास कंटेंट है लेकिन कविताई सीखनी होगी।

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