श्रीधर करुणानिधि |
(1)
बच रही मनुष्यता का गीत...
कई-कई बार भीतर की रेत से मरते हैं फूल
वे अगर खिलते भी हैं रात के आखिरी पहर
तो अपनी ही सुगंध से
सुगंध जो रेत को चीर कर निकलती है
सब कुछ आबाद रखने के ठेकेदार
उन देवताओं के वरदान से नहीं!
फूल सी यह दुनिया भी कितनी बार मरी है
खुद की राख की बोझ से दबकर..
कितनी बार गायब हुई है गंध पसीने की और
मनुष्य की?
किसी पशु की पूँछ
किसी जानवर का सींग
किसी पक्षी का रंग और आवाज और उड़ान
कितनी बार गायब हुई है?
जो चलते थे सफर पर अनवरत
उन्हें गीत में ढालने के लिए कैसे
मिलती थीं
गायब हुई चीजें?
दुनिया जब मर रही होती है खुद के भीतर
के रेगिस्तान से
तब कौन पानी देता है उसे?
कौन फिर मरी हुई दुनिया की कोख में बीज
डालता है?
सूरज को कौन कहता है अपने हिस्से की
धूप को
अपनी पूरी ताकत के साथ दुनिया को फिर
से उगाने में खर्च करो...
वरना फिर कौन कहेगा कि
वो जो गीत है जिसे मनुष्यता का गीत
कहते हैं
तुम्हारे ताप से ही लिखा जाएगा
कैसी भली थी वो दुनिया
दुनिया इतनी करीब नहीं थी
कि बासी सांस की आदिम गंध से लुट जाए
भीड़ की छींक से फैल जाए मधुमक्खी
होंठों के पराग कण
और फिर बेमौत मारा जाए रिश्तों का
घनत्व...
उस भली दुनिया में
चूल्हे पर अदहन से उठती भाप
पड़ोस तक पहुंच पाती थी...
भात के सीझने का विज्ञान खुशबू की तरह
उड़ता हुआ
चाँद तक नहीं बस भूख तक पहुंच जाता था
खेतों में जो बिड़वे रोपे गए थे
छुअन के जादू से दूध पैदा करते थे और
गीत गाती औरतों के हाथों धनशीष में
बदल जाते थे
चावल मंडियों में जाने से पहले
मन के किसी कोने में गमकते थे....
दुखों के लिए चिट्ठियां थी
आग के लिए उपले थे
जिन्हें दीवारों पर एक थाप की तरह
पटकना था
फिर एक रोज
गुल्लक में थोड़ा-थोड़ा बचाकर रखी
दुनिया से
दुनिया बड़ी होती गई
औरतों ने अंचरे में जो कुछ संभालकर रखा
था
उसे निकाला
मंडियों के साहूकारों ने कहा
अब और फैलना होगा
चाँद की मिट्टी में चमक है बड़ी
मिट्टी से घड़ा बनाना होगा
घड़े में धरती की सारी नदियों के मीठे
जल को
चुरा कर रख लेना होगा
फिर व्यापारियों ने कहा
धरती को खोद कर सारा सोना निकाल लाना
होगा
समुद्र के सारे नमक को बोरे में बंद कर
लेना होगा
जंगल के सारे हरे को कैद कर लेना होगा
पंछी की आवाज को
आवाज़ लगानी होगी कि वे मुहैया करा
सकें रंग..
कवियों ने कहा
रात भर रोते रहने से सुबह की चौखट पर
ओस के निशान पड़ गए हैं
इसलिए अब बारूद के ढेर पर कविता लिखने
के लिए
उनके पास शब्द नहीं
जैसे हवा में हवा नहीं
आग में आग नहीं
जंगल में जंगल नहीं
नदियों में नदियाँ नहीं
और सबसे अधिक मनुष्यता के चेहरे पर
पानी नहीं
रोज कुछ न कुछ बचाकर पहुंची यात्रा के
एक छोर पर पहुंचकर दुनिया के सबसे उन्मादी मनुष्य ने कहा
युद्ध... युद्ध और युद्ध...
उन्मादी के लालच और पराजितों की भूख से
कांपता हुआ
आदमी और विज्ञान का सफर वहां जाकर पीछे
लौटता है
जहां कोई नहीं कह पाता
ऐसे बचायी जा सकी मनुष्यता....
(2)
रुलाई की शब्द शक्ति...
वह रो रही है...
रोने की वजह
उसकी गोद में सुस्त पड़ा
कोई मुहावरा नहीं
न व्यंजना की भाषा है..
उसकी चीत्कार
मौत की भाषा में है
जो अभिधा है...
उसकी गोद में एक बेजान फूल है
कोई खोंइछा नहीं...
सरकारें कभी नहीं समझ पाएँगी
रुलाई की शब्द शक्ति को...
यह फूल नहीं उसका बेटा है
जो मर चुका है...
यह भाषा की पथरीली जमीन है
जहाँ पैदल ही जाना होता है
हर मरे शब्द को मरियल सरकारी बहाने के
कंधे पर...
उदासीनता की भाषा
जो हर बार
व्यंजना होने का दावा करती है
खांटी अभिधा भर होती है...
(3)
दर्द नहीं लिख सकतीं अंगुलियाँ..
भाषाओं की सीमाएँ होती हैं..
मैं दर्द के लिए
कितने भी शब्दों की अदला-बदली कर लूँ
पैरों के छाले नहीं लिखे जा सकते
सिर्फ घर लौटते पैर ही जानते हैं छाले
भूख नहीं लिखी जा सकती
सिर्फ अन्न के बिना बेचैन पेट ही जानते
हैं भूख
सिर्फ मौत ही लिख सकती है एक
सन्नाटा...
लाखों लोगों की उनींदी आँखें
नहीं लिखी जा सकतीं अंगुलियों से
लिखा जा सकता है बस एक खाली स्थान
एक वीरानगी
एक उदासी
और एक इंतजार की प्रतीक्षा में
एक और इंतजार...
(4)
चाँद समय का पहिया हो जाए...
एक बड़े से पुल के ऊपर से निकल कर
चल रहे हो तुम...
नदी के गहरे तल में हो या
नाव बन कर फिसल रहे हो
इस शांत दिखती दुनिया की अशांति में!
अपनी छत से उगते भर देखा तुम्हें
मन न भरा तो अपनी बालकनी से बढ़ते देखा
तुम बड़े हो गए हो
और चमकदार भी..
हर वो चीज जिसे हमने छोटा समझा था
अब बड़ी हो गई है
हमने कहीं भी जगह नहीं छोड़ी
धरती हमारे पैरों की हलचल से काँपने
लगी
चिड़िया, हिरण, बत्तख, सोंस, कछुए ने
कहा
बहुत डर है आदमी के भीतर
बहुत शोर है इस दुनिया में
बहुत डरा रहा है धुआँ...
पहिया घूम गया
सिक्का बदल गया
तुम्हारी रोशनी में
अब ज्यादा हो तुम
तुम्हारे अधिक होने से जंगल चहकने लगे
हवा तुम्हारी खुशबू महसूस कर महकने लगी
समुद्र बछड़े की तरह उछलने लगा
सड़कें वीरान हैं
दंभ और हसरतों की गाड़ियां नहीं दौड़
रहीं
अच्छा है तुम इस वक्त पहियों की तरह
दौड़ो
कोई बच्चा लकड़ी के डंटे से
साइकिल की टायर ठेलकर छुप गया है
और तुम मुर्दे सी शांत नगरों के
कैदखानों के बीच से
सुनसान सड़कों पर दौड़ रहे हो...
(5)
मेरे रास्ते में...
कभी नहीं आएगा रास्ता मेरे रास्ते में
जब नदी होकर जाऊँ तो भी
कोई नदी नहीं आएगी मेरे भीतर..
पुल आएँगे बहुत
वैसे नहीं जैसे कि नावों को एक दूसरे
में बाँधने से बनते हैं
कि वै तैरते रहते हैं मछलियों की तरह
वो आएंगे
नदियों की छातियों में गहरे धंसे खंभों
पर चढ़कर
मैं सिर्फ पुल देखूँगा
उसकी आवाज सुनूँगा
नहीं छू पाऊँगा रास्ते को रास्ते में
नहीं सुन पाऊँगा
एक नदी को
उसकी छाती में घाव कर...
(6)
उम्मीद में घिरता रहता हूँ
हत्यारों से नहीं घिरना चाहता
पेड़ों के घने घेरे में घिरना चाहता
हूँ
हरे पत्तों से खुद को ढकता हूँ
इस तरह घर के छप्पर को याद कर लेता हूँ
बेवजह मौत की खातिर क़ातिल भीड़ को
लानत भेजकर
यह सोचता हूँ
कि वक्त नहीं है कुछ भी सोचने का
उम्मीद की तरह...
बस अपनी ही उम्मीद के घेरे में घिरता
रहता हूँ...
(7)
शहर की नदी में शार्क का प्रवेश...
शहर साथ रहने के लिए होता है
नदियाँ साथ बहने के लिए...
शहर की एक नदी होती है
और शहर खुद में एक नदी...
नदी जैसे शहर में
मछलियाँ सोती-जागती
घूमती रहती हैं...
नदियों के मीठे चैन में
सबके रोजगार चमक रहे हैं..
अचानक आग लगती है
बहते हुए पानी में...
कोई शहर जलाता है..
खौफनाक दांतों वाला
समुद्री शार्क
नदियों के मिलन स्थल से घुसकर
निगल लेता है शहर का चैन
और बेदम मछलियों से कहता है
'मत हो बेचैन
अब हमीं हम होंगे दिन-रैन!'..
(8)
अंधेरे के खिलाफ
मैंने दिन गिने
पहर दर पहर
और ठहरे हुए वक्त को
कुम्हार के चाक पर गूंथी हुई मिट्टी की
तरह रखकर
पहिए को जोर से घुमा दिया
मैंने रात में
यादों को जोड़ने की ख्वाहिश लिए
तारों से शुरू कर
गिनने का अंत जुगनू से किया
फीके थे रंग
फीकी रोशनी और उम्मीद
बस जुगनू झिलमिलाते रहे
रात के बया नुमा घोंसले में
ठहरने की क्रिया में
अंत का रुझान आने की तरह
मैंने रात के अंधेरे पर
छोड़ दिए अपने क़दमों के निशान
और उजाले के ख़त भेजे
भोर के संदेशवाहक से...
तुमने मेरे ख़त को
अंधेरे के सात तहों से उधेड़ कर
निकाला...
सफेद कबूतर
तुम्हारी हथेली पर अब भी हैं
उड़ा देना उसे
रोशनी की तरह
अंधेरे के खिलाफ...
(9)
रात के जायके में अंधेरा शामिल होता है
शाम के पंछी जब लौट रहे होते हैं
उजाड़े गए घोंसलों के ऊपर
तब उजाड़ में बार-बार
पंख तौलती उदासी भी
लौट रही होती है....
रात के जायके में
खटाई की तरह अंधेरा हमेशा शामिल रहता
है
जंगल देह में उठती हुई झुरझुरी का नाम
नहीं
बेचैन जली-ऐंठी लाशों से उठते धुंए का
भी नाम है
जहाँ झुरमुट में एक चाँद के अलावा
सब-कुछ उदास और उजाड़ है
खिले हुए चाँद के उजास में
पंख तौलती उदासी ही लौटती है अक्सर...
उदासी दिन गिन कर नहीं लौटती
कि फलां दिन उदास करने का दिन है
फलां रात घरों के धू-धू कर जलने की रात
है
यह भी कहां सोचती है उदासी?
रात अपने जायके में
अंधेरे को शामिल करने के पहले
यह नहीं सोचती
कि थक-हारकर पंछी लौटे हैं अपने घोंसले
में...
(10)
सुनना बेआवाज उदासियाँ
जिनके घर नहीं
उनके सामने मत कहना
'मेरा घर ऐसा है कि समुद्र झांकता है
मेरी खिड़कियों से....'
बहुत पानी है वहाँ समुद्र में
दरिया का सारा पानी बहकर
एक दिन चला जाएगा उसके पास
हजारों हजार कमरे वाले घर हैं
जिन समुद्र जैसे लोगों के पास
क्या करते हैं वे उन कमरों का?
उनकी नींद कहाँ-कहाँ करवटें बदलती हैं!
लगता है बाढ़ के पानी में छिने हुए घर
बहते-भंसते आ गए हैं इन्हीं के पास
और लोग इधर-उधर भटक रहे हैं
उनींदे और बेघर..
लाखों लोगों के बटुए से सारा धन
निकलकर जा रहा है कुछ ही महासागर के
पास
महासागरों को तब भी चैन नहीं...
उन्हें और अधिक चाहिए
हजारों-हजार बीघा जमीनें
हजारों-लाखों पेड़, पहाड़
बस्तियाँ..
कौन निगल रहा है इनको?
जब भी आसमान ठानता है
बेघरों की सूची को और बढ़ा देता है
कौन मरता है ठनके से
धन रोपनी के वक्त
कौन खदानों में दबकर रह जाता है
कौन बेदखल होता है
पहाड़ों से
नदियों के किनारों से
राजपथें जब अपनी बाहें फैलाती हैं
तब किनकी झुग्गियां आती हैं उनके चपेटे
में
किसी बेघर के सामने मत सुनाना
दरिया किनारे घर की आवोहवा के किस्से.
बस सुन लेना उनकी बेआवाज उदासियाँ..
0000
परिचय
श्रीधर करुणानिधि
राज्य - बिहार
जन्म - पूर्णिया जिले के दिबरा
बाजार गाँव में
शिक्षा - एम॰ ए॰(हिन्दी साहित्य) स्वर्ण पदक,
पी-एच॰ डी॰, पटना
विश्वविद्यालय, पटना।
प्रकाशित रचनाएँ - दैनिक हिन्दुस्तान‘,
‘ दैनिक
जागरण’
’उन्नयन‘(जिनसे उम्मीद है कॉलम में) हंस ,’पाखी‘, ‘‘वागर्थ’ ’बया‘ ’वसुधा‘, ’परिकथा‘ ’साहित्य अमृत’,’जनपथ‘ ’नई धारा’ ’छपते छपते‘,
’संवदिया‘, ’प्रसंग‘, ’अभिधा‘‘ ’साहिती सारिका‘, ’शब्द प्रवाह‘, पगडंडी‘, ’साँवली‘,
’अभिनव मीमांसा‘’परिषद् पत्रिका‘ आदि पत्र-पत्रिकाओं, लिटेरेचर प्वाइंट’, ‘बिजूका’ ‘अक्षरछाया’
वेब मेगजीन आदि में कविताएँ, कहानियाँ और आलेख
प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शन, पटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें -
1. ’’वैश्वीकरण और हिन्दी का बदतलता हुआ स्वरूप‘‘(आलोचना पुस्तक, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार
2. ’’खिलखिलाता हुआ कुछ‘‘(कविता-संग्रह, साहित्य संसद प्रकाशन, नई दिल्ली)
संप्रति -
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, गया
कालेज, गया( मगध विश्वविद्यालय)
पता- श्रीधर करुणानिधि, द्वारा-
श्रीमती इंदु शुक्ला,
आलमगंज चौकी, पोस्ट-
गुलजारबाग, पटना- 800007
संपर्क - मोबाइल- 09709719758, 7004945858, Email id- shreedhar0080@gmail.com
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