image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 अप्रैल, 2020

कोरोना-काल के कुछ दोहे : जीवन सिंह




जीवन सिंहअलवरराजस्थान


  

दुबके दुबके घर रहा,  बदल गई सब चाल।
पूछा सूरज ने अभीकैसे बाल-गुपाल ।।

मनुआ अब तो मान जा, कर कुछ सोच-विचार।
कुदरत के आगे कभी, चले नहीं हथियार ।।

धरती पर केवल फिरा, कोरोना स्वछंद ।
ग्रह गोचर सब ज्योतिषी, घर में हो गये बंद।।

अब्दुल भी घर में घुसा, घर में घुसा गिरीश।।
कोरोना के सामने, डटकर खिला शिरीष।।

साबुत सूरज ही बचा, चंदा भी संपूर्ण।
मानव ही केवल दिखा, कितना यहां अपूर्ण।।

औषधि भी कोई नहीं, नहीं कारगर योग।
चींटी जैसे मर रहे, अमरीका में लोग।।

वीर न कोई सूरमा, धरती पर धनवान।
कोरोना से बड़ा भी, नहीं कहीं विद्वान ।।

निकल गई सब  हेकड़ी, चित्त रहा रणखेत।
अकड़ रहा किस बात पर, अब तो मनुआ चेत ।।

भूला किरकिट कबड्डी, भूल गया फुटबॉल ।
ओलंपिक के गाल पर, मल गया लाल गुलाल ।।

तोप नहीं कोई चली, ना दूजा हथियार।
एटम बम भी फेल है, कोरोना के वार ।।

सोने जैसी संपदा, मरुधर निकला तेल ।
धरा रह गया देख लें, यह कुदरत का खेल।।

कुदरत ही है करिश्मा, कुदरत ही भगवान ।
मानेगा क्या सत्य को, भीतर का शैतान।।

फ़ौज पुलिस तेरी कहां, रणभेरी मिरदंग।
हंसी खुशी से खेलते, देखो कीट पतंग ।।

नहीं कहीं एटम बचा, धन का धरा गुमान ।
घर का पीपल कह रहा, बन जा तू इंसान ।।

नहीं बची ताकत प्रबल, नहीं बची तक़दीर।
कोरोना ने छीन ली, अमरीकी शमशीर ।।

खूब हो गया अब तलक, एटम बम का खेल।
सबका पीछा छोड़कर, कर कुदरत से मेल।।

सांखाऊली फूलती खिलती नन्ही दूब।
कोरोना के सामने, कोयल कूकी खूब।।

खुले खेत में टिटहरी, करती फिरती मौज़।
खिलखिल खिलखिल खेलती,  संग फूलों की फ़ौज।।

कोई नहीं उपाय है, कहता हूं दो टूक।
नृत्य देख ले मोर का, कोयल की सुन कूक।।

बुरे समय से कुछ समझ, कर ले मन का तोल।
एक बार मिलता सिरफ़, जीवन है अनमोल।।


डरे न दादुर छिपकली, डरे न कच्छप सांप।
मनुआ तू ही क्यों रहा, थर थर थर थर कांप।।

करके बंद कपाट सब, मिलना-जुलना बंद।
आग लगा निज झोंपड़ी, क्या सोचे मतिमंद।।

ऊपर से सूरज हुआ,   देख नहीं हैरान।
चक्रव्यूह में फंस गया, खुद ही खुद शैतान।।

दुनिया में दो ही बड़े, अमरीका अरु चीन।
अब तो इनकी भी बजी, ताक धिना धिन धीन।।

सिट्टी-पिट्टी गुम हुई, चिट्ठी अरु संवाद।
नौन तेल लकड़ी रही, सिर्फ़ तीन ही याद।।

भुला दिये उत्सव सभी, रूप रंग अरु राग ।
कौरोना ने चैत में,  ऐसी खेली फाग।।

चींटी चलती सड़क पर, पूछे जग का हाल।
झटका कुदरत का लगा,  भूले आटा-दाल ।।

कब से पृथ्वी-पुत्र की, नभ में उड़ी पतंग।
बिना पेच कैसे कटी,  देख रहा गया दंग।।

कोरोना ने तोड़कर, दिया हाथ में दंभ।
जैसे गिरा ज़मीन पर, किसी महल का खंभ।।

होड़ पड़ी बाज़ार में, बेच बेच सामान।
आपस में ऐसे लड़ें, जैसे दगड़े श्वान।।

याद न कोई सूरमा, याद नहीं धनवान।
भूख लगी तो याद हैं, खेती और किसान।।

टहटहाती टिटहरी, मिली सड़क पर आज।
कहती दुनिया का करो, कोई नया इलाज़।।

बदलो कुटिल निज़ाम को, जिसमें मिले न न्याय।
बाड़ लगाई सुरक्षा, बाड़ खेत को खाय।।

सुबह सुबह ही खुल गया, ऋतु वसंत स्कंध।
फूल प्रफुल्लित सिरस की, भीनी भीनी गंध ।।

भाख फटी पूरब दिशा, बिखरा राता रंग।
आज सुहानी भोर में, बैसाखी के संग।।

घर में दुबके लोग सब, कोउ न आवै पास।
अपनी गंध बिखेरता, फूला नीम उदास।।

उड़ता नभ में परेवा, लगा हवा से होड़।
बिना यशस्वी शान के,  तृष्णा तिर्यक छोड़।।

सबको ही चुग्गा मिले, सबको ही जल पान।
इससे बढ़कर हैं नहीं, तोतों के अरमान।।

आपस में झगड़ा नहीं, नहीं किसी से हीन ।
अपनी अपनी डाल पर, बैठे हैं शुक तीन।।

देश कहीं कोई नहीं, नहीं धर्म अरु जात ।
उड़ते नभ में परिंदे, इक दूजे के साथ।।

गंगा को गंदला किया, यमुना को जलहीन।
बगुला बस्ती पाल पर, प्यासी भटकें मीन।।

धरती का रस खींचकर, ले जाकर आकाश।
माल -मसाला कोष सब, कुछ लोगों के पास।।

पत्थर की बस्ती यहां, हैं पत्थर से लोग।
धन के चाकर लालची, करते केवल भोग।।

धरती जहां अंधेर की, अंधकार हर हाल ।
झूठ दशानन देखकर, सत्य गया पाताल ।।

बाहर से दीखे सलिल, भीतर से जल हीन।
बगुला-बस्ती नगर में, कैसी धरम-धुरीन ।।

सड़क पूछती पांव से, कहां चलोगे साथ।
रख पत्थर छाती विकल, दिन देखा ना रात ।।

शहर छोड़कर जा रहे, क्यों तुम अपने गांव।
पत्थर, पत्थर हो गया, रोटी मिली न छांव।।

कुछ लोगों ने लूटकर, धरतीधर की लाज।
भोगों के रथ बैठकर, छीन लिए सुखसाज ।।

भोगों के सर डूबकर, तजकर सारी लाज।
कहां ले गया  वीर भी,अपने सिर पर ताज।।

कुदरत से मिलकर चलो, संशय रहा न लेश।
कोरोना के भेष में,   कुदरत का संदेश ।।

0000

1 टिप्पणी:

  1. बहुत बहुत आभार बिजूका ब्लागस्पाट संचालक श्रीसत्यनारायण पटेल

    जवाब देंहटाएं