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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 फ़रवरी, 2025

अशोक कुमार की कविताऍं


वो एक शहर


हमारे लिए यही एक शहर

हमारे सपनों का शहर था।


जहां पहुंचने के लिए

रावी के ऊपर झूलता हुआ एक पुराना पुल था

और मुहाने पर ’गांधी गेट’

जिसे हम दिल्ली दरवाजा कहते थे

बड़े शहर के नाम पर बड़ा दरवाजा।


इसी दरवाजे से होकर

हमारे भीतर खुलनी थी

छोटी–छोटी खिड़कियां।


हम छोटे–छोटे गांव के बच्चे

छोटे–छोटे सपनों के साथ

अपने छोटे–छोटे हाथों से

इस बड़े से दरवाजे पर दस्तक देने आए थे।


कमाल का शहर था यह

अपनी सरंचना में कस्बा

और चरित्र में महानगरीय ठसक लिए हुए।


सामंती सीढ़ियों से उतरता हुआ यह पुरातन शहर

लोकतंत्र की संकरी सड़क पर

तब रेंगना सीख रहा था।

इसलिए!!

न तो हमारे आने पर यह खुश हुआ

और न ही हमारी उपस्थिति से उदास।


हमनें भी चप्पलों की धूल को–

इसके दरवाजे के बाहर झाड़ा

हरिराय मंदिर पर सिर झुकाया

चौक से गोल–गोल घूमते हुए

उम्मीदों की सीढ़ियों पर दौड़ लगा दी।


किंतु अच्छी बात यह थी कि

राजसी खंडहर अब उच्च शिक्षा का केंद्र था

(हमारा कॉलेज पुराने महल में था)

जिसके झरोखों से झांककर

हम अपने जंगलों की खूबसूरती को निहार सकते थे।


हमारी जेबों में सिर्फ कल्पनाएं थी

और बस्तों में केवल उम्मीदें।


जंगल से शहर के बीच की दूरी

सभ्यता भर की लम्बी दूरी थी

और नींद के लिए वक्त और भी कम।

इसलिए हम चौगान की हरी दूब पर लेटकर ही

कुछ देर सुस्ताता लेते थे।


कभी–कभी अपनी पुरातनता में यह शहर

गंधा जाता था जगह–जगह

और हम अपनी खीज और इस गंध को

कैफे रावी व्यू वाली सड़क पर–

धुएं के छल्लों में उड़ा देते थे।

सारे अवरोधों के बावजूद

इस शहर ने इतना चेतस तो किया ही

कि हमने दीवारों पर नाम नहीं नारे लिखे।

कि हम इसके कानों में चीखकर कह सके

"इंकलाब जिंदाबाद"

तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद

कुछ लोग तो ऐसे मिले ही

कि जिनसे हम कह सकते थे अपनी तकलीफें

बांट सकते थे अपने दुःख।

इस शहर ने इतनी तो छूट दी ही

कि जब–जब भी वापिस लौटे

इसे अपना कहा।

०००












सर्दियां


धुन्ध में लिपटी दिल्ली में सर्दियां वैसी नहीं होती।

कि दादीयां जंगली कांटों से छेद दे पोतियों के कान

यह कहकर—

कि सर्दियों में जल्दी भरते हैं घाव।

या भेड़ों की ऊन के मोटे मोजे पहनकर

पिताओं के जूते में पांव डाल

गिरते–पड़ते पकड़म–पकड़ाई खेलने निकल जाएं बच्चे।

या किसी दोपहर अचानक—

आसमान से उतरने लगे रूई

और हम, उसे अपनी हथेलियों में थामने लग जाएं।

या एक सुबह उठो—

और बाहर सबकुछ सफेद चादर से ढका हुआ मिले

छत–आंगन–खेत–पगडंडियां सब।

या आधी रात के वक्त-

जमकर उल्टी सुइयों सी लटक जाए ओस।

या लोहड़ी पर खिचड़ी के साथ

एक अतिरिक्त चम्मच देसी घी मांग लें मेहमान।

या बसोली के बुजरु सफेद साफा पहनकर

श्रवणकुमार की कथा गाते हुए

दान में मांग लें थोड़ी सी और माश की दाल।

या ठंड में नया ठिकाना तलाशते हुए

भीतर तक आ जाए

फुदकती हुई पहाड़ी गौरैया।

सोचता हूं कि दिल्ली से इतना भी दूर नहीं हैं गांव

किंतु मेरा गांव कहता है—

कि अभी भी! वहां से बहुत...दूर है दिल्ली।


(बुजरु: जम्मू के बसोली के पंडित हैं जो माघ में गाकर घर–घर अनाज मांगते हैं)

०००


बड़े दिनों के बाद


बहुत दिनों बाद पंहुचा हूँ गांव

मां से चाबियां लेकर

जल्दी-जल्दी सीढ़िया उतरते हुए

जल्द से जल्द पहुंचना चाहता हूँ अपने कमरे में।


कई दिनों से बंद पड़ा है यह कमरा

बिस्तर पर कोई सलवट नहीं है

कहीं-कहीं कोनों में जम गए हैं मकड़ी के जाले

कुर्सी पर पड़ा तौलिया

कुछ अकड़ सा गया है। 


एक चप्पल पलंग के पास पड़ी है

वो उस दूसरी का पता बता रही है

जो पलंग के नीचे खिसक गई थी पिछली बार।


पर्दों के पीछे से आ रही सूरज की रेशमी लौ में

कुछ ज्यादा ही उजली दिख रही है

कोने की अलमारी के खुले छूट गए दरवाजे से झांकती हुई

मेरी एक पुरानी कमीज। 


आधा खुला हुआ है किताबों की शेल्फ का कांच

जिसमें करीने से खड़ी हैं कुछ किताबें

बाहरवीं की फिसिक्स

ग्रैजुएशन की इंटीग्रल एंड डिफरेंशियल कैलकुलस

उसके बगल में सेकंड ईयर की ऑर्गेनिक केमिस्ट्री। 


कुछ एक के ऊपर एक रखीं हैं

सबसे नीचे बीएड की फिलॉसफी ऑफ एडुकेशन

साइकोलॉजी और इक्का दुक्का सिलेबस की ही कुछ और।


और इन सबके ऊपर रखीं हैं

मैक्सिम गोर्की की दो किताबें "मां" और "जीवन की राहों पर"। 


मैं एक-एक करके सबके पन्ने पलट रहा हूँ

कहीं- कहीं कुछ लैंडलाईन नम्बर लिखे हैं

कहीं-कहीं किसी के सिग्नेचर हैं


कहीं कुछ पंक्तियाँ लिखी हुई हैं जिन्हें हम “कालेज वाली शायरी’ कहते थे। 

मैं पहली बार साइंस की किताबों में

पढ़ रहा हूं कहानियां

सच्ची कहानियां

जो गुदगुदाती हैं, कुछ कुरेदती हैं

सवाल पूछती हैं, जबाव देती हैं। 


कितने ही दृश्य उभर आये हैं अचानक।

मैं एक के बाद एक कई लैंडलाईन नम्बरों पर

अपने मोबाइल से कॉल लगाता हूँ

दूसरी तरफ से हर बार सुनाई देता है -

“द नम्बर यू हैव डाईल्ड डज़ नॉट एग्जिस्ट”

मैं किताबों को जल्दी-जल्दी पलटता हूँ

मैं देखा रहा हूँ


कि 'जीवन की राहों पर' को छोड़कर

सभी किताबों के पन्नों को छान चुकीं हैं सिल्वर फिश। 


मैं हैरान हूँ कि इन्हें कैसे पता

कि यह किताब मैंने अभी तक नहीं पढ़ी

मैंने उसे इस उम्मीद के साथ अपने बैग में रख लिया है–

कि अबके इसे पढूंगा जरुर। 

यादों का एक ट्रैफिकजैम सा महसूस कर रहा हूँ

मैं कुछ देर इसमें फंसा रहना चाहता हूँ। 


मैं सोफे पर बैठा हुआ

टेबल की तरफ देख रहा हूँ

टेबल पर धूल की एक महीन परत जमी गई है


मैं उस परत पर अपनी ऊँगली से

लकीरें बना बनाता हूँ फिर मिटा देता हूं।

अब मोबाइल पर “बीते हुए लम्हों की कसक”

गाना सुनते हुए आंखे बंद करके लेट गया हूँ।

०००


कौन कहे ?

इस अभागे समय से कौन कहे ?

कि ज़रा  ठहर जा !

कि ज़रा धीमे चल !

या फिर बीत जा।

कि रूठ चुकी ऋतुओं के देस में

प्रतीक्षाएँ भी;

अपना धैर्य खो देतीं हैं।


कौन कहे ?

कि अनाम इच्छाओं की मृत्यु पर

शोक में है पिछली सदी।

कि अपने ही अलाप में;

खो रहा है समय का सबसे खूबसूरत राग।


कौन कहे ?

कि पाप और पुण्य के गणित में

बिसर गए हैं दुःखों की गणना के सारे नियम।

०००


विकल्प


जब सारे विषय चुक जाते हैं

मैं तुम्हारे पास लौट आता हूं।


मैं लौटता हूं—

अपनी असफलताओं के साथ।

चुप्पियों के शिल्प में

शब्दहीन कविताएं लेकर।

मैं लौटता हूं—

जंगली भाषा के व्याकरण में

सभ्य न हो पाने के भय से मुक्त होकर।


मैं लौटता हूं—

अपनी कही हुई बातों को

फिर–फिर दोहराने की स्वतंत्रता लेकर।

कवियों के पास होना ही चाहिए एक विकल्प

कि वो कहीं तो लौट सके

असफल हो जाने के बाद।



दिनचर्या

०००


दृश्य एक


भीड़ भरे चौराहों के इस शहर में

यह सामान्य से थोड़ा कम व्यस्त चौराहा है।

कैब के इंतजार में–


सीवर पाइप के जिस टुकड़े पर वह उकड़ूँ बैठा है

उसे काम खत्म होने के बाद

ठेकेदार उठाना भूल गए हैं।



सामने फुटपाथ पर–

अपनी उम्र से थोड़ी ज्यादा बूढ़ी देह में

एक अधेड़, अपनी पत्नी

जिसकी उम्र उसकी चिढ़ से काफी कम है;

के साथ रहते हुए

बीड़ी सिगरेट बेचता है बरसों से।


उनकी एक बेटी है

जो मोबाइल पर रील्स स्क्रॉल करते हुए

अपनी आंखें गोल-गोल घुमाती है।



उसकी आदमी की नज़र

उसकी गोल-गोल घूमती आंखों पर है

और उसकी मां की उस पर।


जीन-टॉप पहने एक खूबसूरत लड़की

अभी–अभी गली से निकलकर

सड़क पर आ गयी है अचानक।


अब उसकी नज़रें;

गोल-गोल आंखे घुमाने वाली उस लड़की से हटकर

जीन–टॉप वाली इस लड़की की–

जीन और टॉप के बीच बची जगह पर ठहर गईं हैं।


जीन-टॉप वाली यह लड़की

पनवाड़ी के पास पहुंची है।

मोबाइल स्कैनर से क्यू–आर कोड स्कैन करते हुए

उसने एक सिगरेट मांगी है।


अब आसपास की बाकी नजरें भी

टिक गईं हैं उसी पर आकर।

वह अपनी अंगुलियों सी ही सफेद

और पतली सिगरेट को;

अंगुलियों के बीच फंसाती है

और सुतली से लटके लाइटर को खींचकर

दाहिने हाथ के अंगूठे से टिक-टिक-टिक करके

जल्दी से उसे सुलगा लेती है।



फिर एक लम्बा कश लेते हुए

इस बेफिक्री से धुआं छोड़ती है

कि मानों घूरती हुई तमाम आंखों में

उसे झोंक देना चाहती हो।


उस आदमी और उस पनवाड़ी के बीच

एक टूटा हुआ फुटपाथ है

जिसपर जमी है पिछली बरसात की काई

जो रात के पाले से नम हो गई है।


फिसलन से बचते–बचाते वह आदमी

पूरी सावधानी से चलते हुए भी

फिसल गया है उस काई पर।

मुँह बचाने की कोशिश में 

उसके हाथ धंस गए हैं कीचड़ में

और विज्ञापन वाले महंगे पान मसाले की पीक के छींटे

जा गिरे हैं स्वच्छ भारत के पोस्टर पर।


वह हिचकिचाया सा उठता है

और उस औरत के पास जाकर कहता है कि–

"मेरे हाथ पर थोड़ा पानी डाल दो ताकि धो सकूं यह कीचड़"

और वह कहती है कि-

"क्या सिर्फ धोने से धुल जाएगा यह कीचड़?

०००









दृश्य दो


कीचड़ साफ कर लेने के बाद

होर्नों की चिल्ल–पौं के साथ–

कदमताल करते हुए

वह पैदल ही चल पड़ा है अपने काम पर।

फुटपाथों पर लगे ठेलों

छज्जों, खोखों

और बेतरतीब खड़ी मोटरसाइकलों को देखते हुए


वह यह सोच रहा है कि–

पैदल चलने के लिए कितनी कम रह गई है ज़मीन।

एक तेज रफ्तार कार 

ट्रेफिक के नियमों को फलांगती हुई

उल्टी दिशा से चलकर

उसके सामने आ गई है अचानक।


किसी अनहोनी के;

घट जाने की संभावना से बच जाने के बाद

अब वह यह सोच रहा है

कि पैदल चलने से बड़ा जोखिम–

इस शहर में और क्या हो सकता है ?

०००


दृश्य तीन



कई बार कैब के कैंसल हो जाने से हताश

अब वह जहाँ पहुंचा है

वहां बैटरी रिक्शे वाले

सवारियों के इतंजार में बीड़ी फूंकते हैं। 



वे आने-जाने वाले को

इंसानों की तरह नहीं;

सवारी की तरह देखते हैं।


सवारी न मिलने पर बढ़ी निराशा

उनके माथों पर लकीरों

और होठों पर;


एक भयंकर गाली के रूप में उभर आती है।

वे बीड़ी के कश को बार–बार

पूरी ताकत के साथ फेफड़ों तक खींच कर

इस निरंतर नैराश्य को

घोंट डालने की नाकाम कोशिश करते हैं।


वह उनसे पूछना चाहता है

कि वे कोई दूसरा काम क्यों नहीं कर लेते?

किन्तु वह ऐसा नहीं पूछता


वह डरता है कि–

यदि उन्होंने मुड़कर पूछ लिया-

"कि क्या तुम अपने काम पर बीड़ी पीते हुए

ईश्वर और सरकार को एक साथ कोस सकते हो?"

तो वह क्या जबाब देगा ?

०००


दृश्य चार



एक ही काम की ऊब को ढोता हुआ

सुबह से शाम के इंतज़ार में


लगातार खर्च होता हुआ

वह आखिर में थककर घर पंहुचा

पत्नी से चाय मांगी और नहाने चला गया।


चाय बनाती हुई उसकी पत्नी यह सोच रही है

कि उम्रभर की खीज और घुटन को;

यदि इस तेज़ आंच पर


देर तक उबालने का मौका मिले

तो शायद उसका रंग भी ऐसा ही गाढ़ा बने

काले और धूसर के बीच का कुछ।


छलनी से चाय छानते हुए उसने सोचा

कि इस छलनी से कड़वी पत्ती को

मीठी चाय में से निकालना कितना आसान होता है।


काश! दुनिया में बहुत से काम

इतने ही आसान होते।


इतना सोचते हुए उसने

चाय का कप किचन की शेल्फ पर रखा

पति को आवाज़ लगाई


एक पुराना थैला निकाला

थोड़ी देर उसमें झांककर–

उसके खालीपन को गौर से देखा

और फिर उसे कांख में खोंसकर बाहर चली गयी।

दिन भर की कुढ़न को;

खुरचकर निकालने में

उस आदमी को थोड़ा ज्यादा वक्त लगा।



बेडरूम से किचन तक की

सभ्यताभर की दूरी तय करके जब वह वहां पंहुचा

तो तेज़ आंच पर उबली वो चाय

अब ठंडी हो चुकी थी।



उसने चाय गर्म नहीं की

उसने अपनी पत्नी का इंतजार किया

और सबसे आखिर में

दिनभर की खट–खट को अपनी वासना में घोलकर

उसकी देह पर पटक दिया।

०००



परिचय 

मूलतः : जिला चम्बा हिमाचल प्रदेश

वर्तमान पता: म.न.-17, पाकेट-5, रोहिणी सेक्टर-21 दिल्ली-110086

सम्प्रति: दिल्ली के सरकारी स्कूल में गणित के अध्यापक के पद कार्यरत

प्रकाशित संग्रह: “मेरे पास तुम हो” बोधि प्रकाशन से, हिमतरू प्रकाशन हि०प्र० के साँझा संकलन “हाशिये वाली जगह” में कविताएँ प्रकाशित.

पत्रिकाओं में प्रकाशन: युवासृजन, प्रेरणाअंशु, नवचेतना, छत्तीसगढ़ मित्र, कथाबिम्ब, हंस, वागर्थ, कृति बहुमत, ककसाड़, विपाशा, आजकल, अग्रिमान, किस्सा कोताह, मधुमति  में कवितायेँ प्रकाशित।

ऑनलाइन प्रकाशन: हस्ताक्षर, साहित्यकुंज, समकालीन जनमत, अविसद और पोशम्पा, जर्नल इंद्रधनुष सहित्यिकी डॉट कॉम, अनुनाद, समतामार्ग, हिंदवी, जानकी पुल  तथा सदनीरा पर कवितायेँ प्रकाशित.

संपर्क: 9015538006

ईमेल :akgautama2@gmail.com

24 फ़रवरी, 2025

अनुराधा मैंदोला की कविताऍं


दबे पाॅंव 


दबे पांव शाम की आड़ में 

आती है उदासी

गहरा रंग लिए

लगभग रोज ही आती है

उदासी

जैसे आदमखोर आते हैं

मुंह अंधेरे

दबे पांव 

रोज नही मिल पाता उन्हें शिकार

किसी एक ही दिन 

आदमखोर उदासी

निगल जायेगी

सब कुछ

गहरे रंग में

मिलकर और

गहरा हो जायेगा लहू

किसी को कानोंकान 

खबर नही होगी।

०००

     










वसंत के उजालों से


ढक गई हैं 

शुष्क,उधड़ी काया


मुरझाए चेहरे 

फूल हो गए हैं 


खुशबू का हाथ थामे 

आ रही  हैं आहटें 


कोई याद  सी 

खिलखिला रही है

मन में 

ज़रा  देह भी डूब_उतरा रही है

यौवन में 


सूखे  पत्ते कर रहे हैं नृत्य

हवा के संगीत पर

भाव_भंगिमाओं की

बनाते  हुए विलग सी कतार 


छलक कर बिखर गई

रंगों की गगरी 


बटोरते हुए 

पसंदीदा रंग

अपने हिसाब से

सज रही है हर कली 

धरती ने पोंछ लिए


आंचल से 

बचे खुचे सभी रंग


हरे लहंगे पर उभर आया 

सरसों का पीला दुपट्टा

लहरा कर ढक रहा है

कलियों का मुख


चाल बदली है सूरज ने

सौम्यता की आंच पर पक रहे हैं दिन


उल्लास के अनसुने से स्वर

झंकृत पायल की रुनझुन


शांति में गुंजायमान 

दर्जनों गीत

सुने जा रहे पृथक_पृथक


 फिर भी

एक तुम्हारे होने से  ही वसंत है मेरा जीवन

तुम आओगे न!

०००

तुम किसका वरण करोगे ?


मृत्यु के पास सबके पते हैं

घर-कमरा-संसार बदलते हुए भी

वह तुम्हें ढूंढने में सफल होगी


कौन नही डरता मृत्यु से ?

तुम तो प्रेम से भी डरते हो

मृत्यु शरीर ले जाएगी आत्मा मुक्त करेगी

प्रेम आत्मा ले जाएगा

शरीर मुक्त करेगा

तुम किसका वरण करोगे ?

०००

 

तुम और मैं


प्रेम में पाने की अभिलाषा में 

बढ़ाते हुए हाथ

खाली लौटी हूं


तुम और मैं

बढ़ते रहे साथ-साथ

नदी और किनारों जैसे


जबकि हममें से एक को पत्थर होना था

दूसरे को होना था नदी

डूबे हुए पत्थर पर

पड़ता हुआ पानी

और पानी की गहराई में  स्थिर  छुपा पत्थर

 जैसे प्रतीत होता है शून्य सा

जिसमें विलीन है तुम्हारा "मैं"

और मेरा "मैं"।

०००

      

तुमने सोचा होगा


टूटती रही हूं

बनती रही हूं 


दुखों की टूटन में 

आए जब भी पास

ढूंढते रहे दरारें 

झांक सके जहां से

अंदर के बिखराव को

निकाल कर गिनवा सके कमियां 

उड़ा सके उपहास


तुमने सोचा होगा

इस तरह हरा दोगे मुझे

उम्मीदों के पौधे उगाने पड़े

दरारों को ढकने को।

 ०००



तुम्हारा और मेरा समय भिन्न है


तुम्हें प्रेम में दिखा मोह

और मोह में दुःख 

तुम छोड़ कर चले गए

दुनियां दुख का सागर है 

ये कहते हुए


मैं तुम्हें बताती प्रेम मुक्ति है

और निर्वाण है

तुम्हारा और मेरा समय भिन्न है

वरना बुद्ध की जगह

प्रेमी के तौर पर होती तुम्हारी पहचान।

०००


आसक्ति 


निकल गई बाहर

छोड़ती हुई घर,परिवार

विरक्ति के वेग में बही 


चलते हुए पहुंची 

निर्जन वन में 


भय साथ चला आया

अकेला जान 

कसने लगा शिकंजा


अनजाने चेहरे घूरते मिले

लिहाज के परदे फटे हुए


मीठी जीभों पर कांटे थे

ये घावों के बाद ही पता चला


उन हाथों में कसाव नही 

जकड़न थी

गला दबा कर ही गले मिलते रहे


आंखों में भूख के चिह्न 

स्पर्श की लालसा लिए


दौड़ जाती कंदराओं में 

ऊंचाईयों पर पहुंच

बचने के क्षीण आसार

पैरों के नीचे बर्फ की फिसलन


कूद जाती सागर की तलहटी तक

यहां कौन नही खाता देह को?


भटकन के वन में रास्तों की किरणें 

फैली तो थी

जरा ओझल सी


दुश्चिंताओं का जाल फेंक आई

अनजाने ही

इसी में उलझते

वापसी की बाट जोहते 

घर इंतजार का स्टॉपेज बना रहा



आंखे पत्थर हुई

बर्फ बनी

नदी,समुंदर सब ही

लेकिन आँखें न रही


नेत्रहीन की आँखें देखना चाहती है लौटना 

महसूसना चाहती है

देखे जाने का सुख



फेंकते  है अपनत्व की डोर

लंबाई छोटी पड़ती हर बार

दूर जाना हो 

तो उतने ही दूर

जहां तक पहुंच सके अपनत्व की डोर



वापसी की राहों पर

छोड़ते जाना निशान पैरों के 

कि ढूंढे जाने पर मिल सको समय रहते

या लौटना चाहो और पहुंच सको इन रास्तों पर

तो अपने  पदचिन्ह दिखाई दें स्पष्ट 



बुद्ध नही होने देंगे तुम्हें 

तुम बुद्ध की प्रकृति की नही 

और क्यों होना है बुद्ध?

छोड़कर कर भी छोड़ना नही सीख पाती

दुत्कार पर भी प्रेम करना नही छोड़ती


क्रूर बनाने की प्रक्रिया बेअसर रहने दो

मुंह मोड़ने की आदतें नही है तुम्हारी

ऐसा कोई कहे तो मत मानना 

तुम जन्मजात ऐसी ही हो


लौट आओगी 

आसक्ति विरक्ति पर हावी रहेगी

तब तक दुनिया चलती रहेगी।

०००












अनुराधा मैंदोला

व्यवसाय:नर्सिंग ऑफिसर (उत्तराखंड)

अभी लगभग दो साल से लेखन में सक्रिय। कुछ पत्र-पत्रिकाओं में और समाचार पत्रों में प्रकाशित ।

संपर्क: 9411177804

20 फ़रवरी, 2025

नीरा जलक्षत्रि की कविताऍं

 

एक

ट्रोल 


आठ-आठ घंटे

जो लगातार खटते हैं कंप्यूटर पर

देते हुए अनजान लोगों को गालियां

जिनकी उंगलियां

एक मिनट में तीस शब्द प्रति मिनट

टाइप करती रहती हैं गालियां


नींद में भी 

सपनों से बतकही के दौरान

बड़बड़ाते हुए

जिनकी जबान से निकलती 

होंगी .......

कभी-कभी वो भी निहारते होंगे

फूल, पत्ती, चिड़िया और तितली को

और चाहते होंगे गाना गीत 

उनके लिए

पर मुंह से गुनगुनाहट में

निकलती होंगी .......

ख़ुद को ही सुन 

वो हंस देते होंगे फिस्स से


जो दिन-रात घिरे रहते हैं 

दुनियां के सबसे बुरे शब्दों से


उनके मन में

जब कभी किसी के लिए जागेगा 

 प्रेम

वो कैसे जताएंगे प्रेम ? 

क्योंकि जैसे ही जताना चाहेंगे 


ठीक, बिल्कुल ऐन उसी वक़्त 

निकल जाएगी गाली

वो भौंचक से

ताकते रह जाएंगे ख़ुद को


क्या होगा उस दिन

 जब वो कहना चाहेंगे  भूख

पर निकल जाएगी गाली

शायद वो कहना चाहेंगे प्यास

पर झरती रहेगी मुंह से गालियां

शायद वो करना चाहेंगे बात 

पर फिर ......।

०००














दो


लिखो 


एक नया इतिहास  

फिर से लिखो 

और बताओ दुनिया को 

कि शक–यवन–हूण-मुग़ल

कभी कोई नहीं आया 

और नहीं पराजित हुए हम कभी अंग्रेजों से

हज़ारों साल से कायम है यहाँ 

वैदिक सभ्यता 

और सनातन धर्म 

हमारे महान धर्म में 

स्त्री देवी है चार दीवारों में कैद 

और 

दलित जन्म-जन्म से सेवा करने के लिए ही 

जन्मते रहे हैं 

आदिवासी राक्षस और असुर हैं 

भेजों इन्हें जहरबुझे शस्त्रों से स्वर्ग 

इनका उद्धार करों 


चलो फिर से लिखो सब 

और रटाओ इसे आने वाली पीढ़ी को 

ऐसे करो इतिहास का पुनर्लेखन 

और बताओ दुनिया को 

कि हम कितने महान है |

नष्ट करों सारे पुस्तकालय और विश्वविद्यालय

जो इससे अलग कुछ भी बताते हैं

ढहा दो वो सारे स्मारक, किले और महल

जो सर उठाये खड़े हैं हमारे खिलाफ़ 

बदल दो सारे रास्तों और गलियारों के नाम 

जो  अपने होने की गवाही खुद हैं 


ऐसे करो इतिहास का पुनर्लेखन 

साथ  ही  ख़त्म करो 

उन सारे विद्रोहियों को 

जो हमसे अलग कुछ भी बोलते हैं 

चाहे सवाल उठाते नौजवान हों 

या सोचते बुद्धिजीवी 

कल्पना में खोये कलाकार 

या व्यवस्था पर तंज़ कसते नाटककार 

बोलती और अपने हक़ के लिए लड़तीं स्त्रियाँ

या आत्मचेतना से लैस दलित 

संघर्ष करते आदिवासी 

या व्यवस्था की खामियां गिनाते पत्रकार 

यहाँ तक कि 

खिलखिलाते किशोर 

और मुस्कुराते बच्चे 

सब विद्रोही हैं !

०००


तीन 


धर्म नहीं है शांति का मार्ग 


धर्म नहीं है शांति का मार्ग

रक्तरंजित रहा है

इसका इतिहास 

इसके जबड़े पर लगा हुआ है 

कई सभ्यताओं का ख़ून !

ये वैसा ही विषधर सर्प है

जिसके फ़न पर डाली गई है शांति की चादर!

इसका ज़हर जब फैलता है धमनियों में

तो सब लगने लगते हैं विधर्मी


लेकिन, याद रखना...

इसको पालने वाले

कभी नहीं करेंगे

अपनी हथेली फ़न के सामने

 वो हमेशा खड़े रहते हैं इसकी पीठ की तरफ़

वो

तुम्हें ही उकसाएंगे

कि तुम बढ़ाओ अपना हाथ.....

और मारे जाओ!

०००


चार 


सुनो स्त्रियों 


शनि मंदिर में जाने के लिए

लालायित स्त्रियों,

किसलिए जाना है तुम्हे वहां ?

बेजान पत्थरों पर सर पटककर

क्या होगा हासिल ?

होना तो ये चाहिए था

कि मंदिर प्रवेश पर रोके जाने पर

तुम एकजुट होकर,

ठोकर मार देतीं

सभी मठ-मंदिरों को 

धार्मिक आडम्बर के घरों को,

उपेक्षा कर त्याग देना चाहिए था

तुम्हे ऐसे सभी  तथाकथित पावन स्थलों को |

फिर .......

फिर क्या होता,

भागते भगवान तुम्हारे पीछे

और उनके साथ

 पूरा दल-बल  भी

भागता हुआ आता

क्यूंकि

तुम्हारे न जाने से, रुक जाता उनका व्यापार

ठप्प पड़ जाती

अंधविश्वासों की ख़रीदफ़रोख्त

और बंद हो जाती अंधश्रद्धा की दूकानें

तुम्हे घुटनों के बल चलकर

लेने आते वे |

क्यूंकि,

हे नादान स्त्रियों!

सभी धर्मों का पूरा व्यापार

तुम्हारे ही काँधे पर टिका है

दरअसल तुमने ही तो

मूर्खतापूर्ण व्रत-उपवासों,

द्वेषपूर्ण तीज-त्योहारों

और जड़ परम्पराओं का

बोझ उठाया हुआ है |

इस सबके लिए

उन्हें तुम्हारा कोमल, टिकाऊ

और सहनशील कन्धा चाहिए

पर अब समय आ गया है

कि क्लाइमेक्स तुम तय करो

नकार कर सब मठ और मठाधीशों को |

०००













पाॅंच


संविधान


अब उस क़िताब की शक़्ल में नहीं

जिसके पन्ने नोचे जा रहे हों

हर दिन

जिसके हर हर्फ़ को मिटाने की

कोशिश में  लगा हुआ है 

पूरा तंत्र


मेरे दोस्त!

संविधान अब तुम्हारी 

उठी हुई और तनी हुई मुट्ठियों में है

महफ़ूज़


तुम्हारी तरेरती हुई आँखों में

सुरक्षित हैं, उसका हर लफ़्ज़


तुम्हारे हौसलों से 

मिलेगा आने वाली नस्ल को

हक़ और आज़ादी के मायने


संविधान 

अब उस क़िताब से निकलकर

उतर आया तुम्हारी

चुनौती देती आवाज़ों में।

०००


परिचय 

लेखक  और फिल्ममेकर ।

‘द लास्ट लेटर’ पुरस्कृत शॉर्ट फ़िल्म का लेखन- निर्देशन । दिल्ली विश्वविद्यालय में 12 वर्ष तक अध्यापन अनुभव । साहित्य और

सिनेमा के अंतरसंबंध’  विषय पर पुस्तक प्रकाशित। विभिन्न पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं में सिनेमा पर लेख प्रकाशित | 

रेडियो,एडवर्टाइजिंग के क्षेत्र में बतौर RJ और कॉपीराइटर का अनुभव ।

०००

16 फ़रवरी, 2025

शंकरानंद की कविताऍं

 

एक

इस बारिश में


चकाचौंध से भरी दुनिया में

मौके बहुत हैं मुस्कुराने के लिए

मगर उस मन का क्या

जो अभी बारिश नहीं

सुकून की तलाश में बेचैन है


रंगों से भरी दुनियां में

बेरंग मन कांपता है

गीली टहनी की तरह

मन कोई आवाज सुनना चाहता है


छूना चाहता है मीठा जल

कोई चेहरा देखना चाहता है

जो बदल दे

मन के मौसम का हिसाब


मनुष्य की जगह

न बादल ले सकते हैं

न बारिश

न वसंत

चाहे ये कितने ही खूबसूरत हों

फर्क नहीं पड़ता|

०००


चित्र फेसबुक से साभार 









दो

खेत के लिए


वही मिट्टी 

आजकल बंजर है

जिसमे फसलें लगती थी तो

घर भर जाता था


ज़मीन तो मेरे पास बहुत हैं

बीज बोने का हुनर नहीं आया!

०००


तीन 

अपनी जड़ें


जैसे सिक्के चलन से बाहर हो जाते हैं

वैसे ही पुराने दिन

एक दिन इतने पुराने हो जाते हैं कि

उनकी याद भी

मटमैली हो जाती है


इतनी धुंधली कि

उसमे अपना पता खोजना भी

मुमकिन नहीं होता


हम फिर भी उन्हें टटोलते रहते हैं

अपनी जड़ों की तरह

क्योंकि वे हमारे होने का सबूत हैं और

सबूत हमेशा खतरे में होते हैं

ये कौन नहीं जानता!

०००

चार

बच्चे की दुनिया


केनवास की तरह

जिन्दगी मिली है

साथ में हिदायतें भी भरपूर


चाहा हुआ नहीं मिलता कुछ

यातना मिलती है

रंग मिलते हैं तो

उन्हें चुनने का मौका नहीं मिलता


हर लकीर होना कुछ चाहती है

हो कुछ और जाती है

इस तरह तैयार होती है 

दो दुनिया


एक के लिए शाबाशी मिलती है

दूसरी मन के अँधेरे में घुंट कर

एक दिन दम तोड़ देती है|

०००


पॉंच 

पिता की आवाज़


आज भी उनकी आवाज गूंजती है

तब अक्सर लगता है कि

वे पुकार रहे हों शायद


उस आवाज के होने भर से

एक भरोसा हो जाता है

तसल्ली होती है कि

वह यहीं कहीं गूंज रही है


कितनी जरूरी होती है आवाज

कितना जरूरी होता है बोलना

ये चुप रहने वाले लोग

नहीं समझ सकते


आवाज का गूंजना

मनुष्य के होने का पता होता है

जो नहीं होते

उनकी आवाज भी नहीं होती|

०००


छः 

प्यार


गमले में खिला एक फूल

जो बहुत मुश्किल से

खिला


उस पर भी

सबकी नज़र लगी है

क्या पता

कौन तोड़ ले अँधेरी सुबह में!

०००

सात 


अकेला होना


टहनी पर अकेला फूल हो

पेड़ पर बस एक फल

उस पर सबसे पहले आंखें जाती हैं


कोई नहीं जानता

उसकी यातना

उसके उगने का दुःख

जो कभी ख़त्म ही नहीं हुआ


जबसे पृथ्वी पर आने की लालसा हुई

ठीक तभी से आंधियां आई हर रात

कई दिनों तक बरसा पानी

उँगलियाँ छूती रही

दहलाती रही कलेजा


खिलने की रंगत पर

नज़र टिकाने वालो

यह दुःख और संताप

तुम्हें कभी नहीं दिखेगा!

०००



चित्र 

संदीप राशिनकर 








आठ

रात के पहर


चारो तरफ सिर्फ एक सन्नाटा है

रात के पहर ऊंघ रहे हैं

इस बीच कब बदल जाता है समय

पता नहीं चलता


बस एक अँधेरा है

कभी गाढ़ा

कभी पतला

यह रोज की बात है


मैंने जब भी देखा

रात को सहमा हुआ देखा

लगभग शांत और निस्तब्ध

हर बार

ठीक उस पक्षी की तरह

जो एकाग्र होकर

अपने अंडे सेती है चुपचाप |

०००

नौ


कोई पहचान


चेहरे पर धूप का रंग घुला है

चमकते दिनों और घोर रातों में

इसकी परछाई

पीले पत्तों की तरह हिलती है

जैसे पानी में चेहरा कांपता है


मेरे पास कोई तरीका

चेहरे पहचानने के लिए नहीं बचा

बांकी तो सब कागज है और

कागज से कुछ पता नहीं चलता

कौन ज्यादा चमकीला है

कौन ज्यादा मलिन


भरोसे की रौशनी को

खोजना पड़ता है

धोखे के अंधेरों के बीच


मैंने देखा है कि

जिस पर सबसे ज्यादा गुमान था

वह पलट कर देखने तक नहीं आया

अंतिम समय में

कोई पहचान काम नहीं आई


सिसकते समय पता चला

सर रखने के लिए

एक कन्धा नहीं कहीं

अपना सगा भी

सगा नहीं रहा

जिसपर सबसे ज्यादा भरोसा था


समय ऐसा आया अंततः कि

जिस भाई के लिए जान देती थी माँ

पिता के गुजरने के बाद

वह भी घर का पता भूल गया |

०००


परिचय 

संपर्क –क्रांति भवन,कृष्णा नगर,खगरिया-८५१२०४

मोबाइल-८९८६९३३०४९

जन्म-८ अक्टूबर १९८३ को खगडिया जिले के एक गाँव हरिपुर में|

प्रकाशन-कथादेश, आजकल, आलोचना, हंस, वाक्, पाखी, वागर्थ, वसुधा, नया ज्ञानोदय, सरस्वती, कथाक्रम, परिकथा,

पक्षधर, वर्तमानसाहित्य, कथन, उद्भावना,बया, नया पथ, लमही,सदानीरा,साखी,समकालीन भारतीय साहित्य, ्मधुमती,इंदप्रस्थभारती,पूर्वग्रह,मगध,कविताविहान,नईधारा,आउटलुक,दोआबा,बहुवचन,अहा जिन्दगी,बहुमत,बनास जन,निकट,जनसत्ता,लोकमत उत्सव अंक, विश्वरंग कविता विशेषांक,पुस्तकनामा साहित्य वार्षिकी,स्वाधीनता शारदीय विशेषांक,आज की जनधारा वार्षिकी,कथारंग वार्षिकी,सब लोग,संडे नवजीवन,देशबंधु,दैनिक जागरण,नई दुनिया,दैनिक भास्कर,जनसंदेश टाइम्स,जनतंत्र,हरिभूमि,प्रभात खबर दीपावली विशेषांक,जनमोर्चा,नवभारत आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित|कुछ में कहानियां भी|

पिता,बच्चे,किसान और कोरोना काल की कविताओं सहित कई महत्वपूर्ण और चर्चित संकलनों के साथ `छठा युवा द्वादश`और `समकालीन कविता`में कविताएं

शामिल|हिन्दवी,जानकीपुल,सबद,समालोचन,इन्द्रधनुष,अनुनाद,

समकालीन

जनमत, हिंदी समय, समता मार्ग, बिजूका, कविता कोश,पोषमपा,पहली बार,कृत्या आदि पर भी कविताएं|

अब तक चार कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए’,’पदचाप के साथ’,’इंकार की भाषा’ और ‘समकाल की आवाज’ श्रृंखला के तहत चयनित कविताओं का एक संग्रह ‘चयनित कविताएं’ प्रकाशित|आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कविताएं प्रसारित|पंजाबी,बांग्ला,मराठी,नेपाली और अंग्रेजी जैसी भाषाओं में कविताओं के अनुवाद भी प्रकाशित|

कविता के लिए विद्यापति पुरस्कार,राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक पुरस्कार और मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार|

सम्प्रति - लेखन के साथ अध्यापन

संपर्क-क्रांति भवन ,कृष्णा नगर ,खगरिया -८५१२०४ 

मोबाइल -८९८६९३३०४९