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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 फ़रवरी, 2025

संध्या यादव की कविताऍं

 

एक 

दिसंबर -जनवरी 


1


दिसंबर 

मन पर लगा

 ज़ख्म है 

जनवरी

जिस पर 

तेज नाखूनों से

हल्दी-फिटकरी का

लेप  लगाता 

है...

०००





चित्र 

संदीप राशिचक्र 





2


दिसंबर 

जनवरी

 दो दुश्मन 

देश की सीमाओं पर

लगातार घूमते सैनिक हैं

जी तो चाहता है

लपक कर एक दुसरे को 

गले लगा लें

पर हाथ का हथियार 

और मन का अविश्वास 

ऐसा करने नहीं देता..

०००


3


दिसंबर 

जनवरी

की पटरियों पर 

यादों का धुआं 

उगलती समय की  ट्रेन 

सरपट दौड़ती है

आंख में 

धूल झोंकती...

०००


4


दिसंबर

 जनवरी

जीवन के कुंभ में

बिछड़े दो सगे

भाई हैं

एक सपने के घर पला

दूसरा हताशा के

हत्थे चढ़ा..

०००


5


दिसंबर 

हल्दी लगा

लिफाफा था 

जनवरी 

को सौंपने की

जल्दबाजी में 

नियति ने उसका 

कोना फाड़ दिया...

०००


6


दिसंबर 

मंदिर का बंद पड़ा पट है

जनवरी 

पट की ड्योढ़ी पर

रखा तुलसीदल है

जिसे नहीं पता 

देवता के सर का मौर बनेगा

या चरणों में ठौर मिलेगा..

०००

दो

बड़े आदमी की पत्नी


भाग्यशाली हूं, ईर्ष्या -कुंठा ,प्रतिस्पर्धा का कारण हूं

वैसे तो रीढ़ की हड्डी ही उसके संसार की हूं ,पर

ब्रांडेड, चमकदार कपड़ों से ढंकी -छुपी रहती हूं तय

एक बड़े आदमी की पत्नी हूं मैं…


मेरी खामोशी व्हिस्की के गिलास की बर्फ है

धीरे-धीरे पिघलती है ,ठंडक बनाये रखती हूं

सावन के अंधे सी हरी -भरी  रहती-दिखती हूं

एक बड़े आदमी की पत्नी हूं मैं…


एक इंची मुस्कान ही मेरी ,मेरा गुज़ारा -भत्ता है

टॉमी की पीठ पर हाथ फिरा मुझे पुचकारता है

मेरी औकात शब्दों से नहीं इशारों में समझाता है 

एक बड़े आदमी की पत्नी हूं मैं…


मेरी दमक -गमक का सेहरा उसके माथे पे सजता   है 

उसके रूतबे का कोहिनूर मेरे मंगलसूत्र में चमकता है

मेरा संस्कार सिंदूर की कीमत चुकाता है

एक बड़े आदमी की पत्नी हूं मैं...


चढ़ावे में चढ़ाये नारियल सा मुझे पूजता है

 प्रतिष्ठा की हथेली पर खैनी सा मुझे मलता है

 फूंक मार कर मेरी अपेक्षा को गर्द सा उड़ाता है

एक बड़े आदमी की पत्नी हूं मैं...


उसकी अय्याशी मेरी चुप्पी के बिछौने पर गंधाती है

चांद पर सूत कातती बुढ़िया देर रात मुझे समझाती है 

सप्तपदी के सात वचन प्रेमचंद का "पर्दा"बन जाते हैं

एक बड़े आदमी की पत्नी हूं मैं…

०००


तीन 

कुछ ऐसी भी बातें होती हैं...


1)  खामोश सिसकियों के नाद को

      सिर्फ आपका तकिया पहचानता है...


2) शब्दों को अर्थ भाव और स्वर भी देते हैं

    शब्दकोश तो पढ़े-लिखों के लिये हैं...


3) अमूमन कोई काम किसी के बिना रूकता नहीं

     पर हर रूके काम पर कोई नाम याद आता है...


4) घर में रोशनदान ज़रूर होना चाहिए

    रोशनी को शिकायत का मौका नही देना चाहिए...


5) मन करे ,न करे , मन को बहलाते रहना चाहिए

   मन चुगलखोर है चेहरे पर शिकायत  लिखता है   . ..

०००


चार

 हमारा बेटा...


हमारा बेटा होता तो कैसा होता?

न जाने क्यों मन में 

आज कैसा अजीब सा , ये ख़्याल आया ...


रंग मेरे जैसा ?

या मुस्कान तुम्हारे जैसी ?

गु़रूर मेरे जैसा ,

या फिर अकड़ तुम्हारे जैसी ?

ना ,

तुम्हारी तरह झगड़ालू नहीं होता ,

बात -बात में मुँह भी नहीं फुलाता 

मेरी तरह हर हाल में 

रुठों को  मना ही  लेता ...

बाल धुँधराले तुम्हारी तरह

चौड़ी हथेलियाँ होती तुम जैसी 

जिस पर गाल टिका बैठी रहती मैं ...

दिमाग तो तुम्हारे जैसा ही होता

पर दिल होता मेरे जैसा ...

बारिश से प्यार होता उसे 

मेरी तरह...

पर्वतों को छूने की लालसा

बिल्कुल तुम्हारी तरह ...


अरे...

शायद आ गये "वो "

सोचती हूँ 

 "उन्होंने "भी

अपनी बेटी के लिये शायद 

किसी के साथ मिलकर 

कोई नाम तो सोचा ही होगा ?

न जाने कितने बच्चे 

यूँ ही अंजाने ...असमय ...

भाग्य की अनदेखी , अस्पष्ट

रेखाओं पर 

गर्भपात का शिकार हो जाते हैं 

या फिर कर दिये जाते हैं...


उनकी खिलखिलाहट

अक्सर अकेले में 

सुनसान रातों में 

न जाने कितनों की

ख़ामोश सिसकियों का 

कारण बनती होंगी ...

और ऐसे हर अवसर पर ,

औरत अपनी कोख को 

सहला कर रह जाती होगी...

मर्द अपने कंप्यूटर के 

पासवर्ड में अजन्मी 

बिटिया को दुलराता  होगा...

०००

पाॅंच

जूता


कुछ जगहों पर इंसान नहीं 

जूते चलते हैं...

जिसका जूता जितना ब्रांडेड

मँहगा और ऊँची दुकान का होगा

उसका रास्ता उतना

सीधा ,सरल और आसान होगा...


जूता अपने  कॉलर को चमकाये

मूँछों को ऐंठते ,महकते दमकते

शान से चलता है ...चलता नहीं उड़ता है

मँहगी कारों में ,प्लेन में ,रेड कार्पेट पे

ये जूते बहुत आकर्षक होते हैं

कईयों को कई -कई बार 

रास्ता भुलवा कर भटका भी देते हैं ...


इन जूतों पर पलते हैं बहुत सारे पेट

झुकी रहती है गरदन 

और बहुतों की नाक चमकाती है इन जूतों को 

अक्सर देखती हूँ इन जूतों को 

इतने गर्वीले होते हैं कि

मुझपर नजर डालने भर से

मैले से हो जाते हैं ...


खैर...मेरे पैरों में है अनब्रांडेड,सस्ता सा

चप्पल ...सत्तर प्रतिशत सेल से

महीनों के इंतजार के बाद खरीदी थी दीवाली पर

 चप्पल है न ...उड़ता नहीं ...घसीटना पड़ता है...

 बस पकड़ कर पहुँचना है मंत्रालय

फाइल अटकी पड़ी है...सालों से न जाने 

कितनी फाइलों का बोझ  उठाये ...


अक्सर रोक दी जाती हूं

गेट पर ही  वॉचमैन के द्वारा

कभी कोई बहाना...कभी कोई वजह...

और  एक कंकड़ मेरी चप्पल में 

अटक जाता है...

एड़ियों की बिवाई थोड़ी और चौड़ी हो जाती है

खून भी निकलता है...


लोग कहते हैं कंकड़ तो  जूतों में अटकता है

चप्पलों में तो कभी सुना नहीं...

मैं तो बचपन से देख रही हूँ 

साइज़ बदलती रही चप्पलों की 

पर कंकड़ हमेशा साथ चलता है...


कभी देखी नहीं जूता पहन कर

मुझे तो हर जगह मेरे चप्पल ने ही पहुँचाया है

बसों ,ट्रेनों और पैरों ने दौड़ाया है

चलने  वाला जूता मेरे भाग्य  में

कभी नहीं आया है...

०००














छः 

मैं अजीब हूॅं 


अजीब हूॅं ,

थोडी सी नहीं ,

बहुत अजीब हूॅं मैं ... 


नहीं मुझे दिलचस्पी 

गुलाबी कमीज के नीचे 

गुलाबी चप्पल पहनने में 


नहीं आता सलीका मुझे 

लाल साडी पर लाल 

लिपस्टिक लगाने का 


नहीं जानना मुझे कि 

हरी कमीज के नीचे 

पहनी है उसने कौन से रंग की ब्रेसियर 


किसका चल रहा है ,

किसके संग  प्रेम -प्रसंग ,

किसने कल पति संग रात गुजारी 


कौन सा पुरूष देखता है मुझे ,

कैसी नजरों से 

किस हिरोइन का पैर हुआ है भारी 


कहां लगी है सेल ,

कहां चल रही है गोल्ड की 

मेकिंग चार्ज पर रियायत 


तेरी साड़ी मेरी साड़ी 

से सफेद कैसे ?

नहीं आता मेरे मन में ये ख्याल 


हां कि अजीब हूॅं मैं ,

थोड़ी नहीं _बहुत अजीब हूॅं मैं ...


घंटों गुजार सकती हूॅं मैं ,

कबूतरों की गुटर -गूॅं सुनने में 

हाथों में ले कर कॉफी का प्याला ,

मैं गिन सकती हूॅं बारिश की बूंदों को 


ट्रेन में ताली पीट -पीट

 फैली हथेलियों ,

की पीड़ा से निकलती 

ध्वनि सुन सकती हूॅं महसूसती हूॅं गहराई से


मैं बौरा जाती हूॅं लाल गुब्बारों को देखकर 

कंधे पर लदे बैग को बगल में रख लगा सकती हूॅं ,

रोड पर कंचे खेलते बच्चों के साथ निशाना 


भीख मांगती बुढिया से घंटों गपिया सकती हूॅं 

मैं गुजार सकती हूॅं ...

अपने साथ- पूरा दिन अकेले ...


हां कि अजीब हूॅं मैं ,

थोड़ी नहीं _बहुत अजीब हूॅं मैं ...


और इसीलिए हर जगह से 

गर्दनिया कर बाहर 

कर दिया जाता है अक्सर

मैं सबकी तरह सामान्य नहीं ...


इसलिये मिल सकती हूॅं 

कहीं भी अकेली ही

क्योंकि ...


बेवकूफों की बस्ती समझदारों से 

बहुत दूर...चौहद्दी के बाहर

बियाबानों में ही होती है

और लगी रहती है उनके नाम की तख्ती 

उनके माथे पर ...


आप दूर से ही जान लेंगे मुझे 

क्योंकि मैं अजीब हूॅं 

थोड़ी नहीं... 

बहुत -बहुत अजीब हूॅं मैं ..

०००


सात 

तिकड़मी


एक मर्द ,

 रखता है  जब दो औरत

रहता है हमेशा चौकन्ना

पीठ पीछे बहनापा न जोड़ लें...


 एक मर्द ,

 रखता है जब  दो औरत

करता है हमेशा कोशिश

जानी दुश्मन बनी रहें...


एक मर्द ,

रखता है जब  दो औरत

रहता है हमेशा सजग

गलती से भी एक के सामने दूसरी की तारीफ न हो...


एक मर्द,

रखता है जब  दो औरत 

करता है अभिनय

एक के सामने दूसरी से त्रस्त होने का...


  एक मर्द,

 रखता है  जब दो औरत

करता है प्रयास भावुक बन बताने का

"तुम्हारे बिना जीना कितना मुश्किल है"...


एक मर्द ,

जिसकी रगों में दौड़ रहा है

अपने पूर्वज बंदरों का खून

वो जानता है ,

रोटी खानी है तो बिल्लियों को लड़ा के रखो

दोस्ती कर लीं अगर 

तो पहचान लेंगी एक दूसरे की भूख को

और खींच लेगी बंदर की हलक  से

अपने  हक का निवाला...

और इसलिए ही 


  एक मर्द  ,

रखता है जब  दो औरत

एक को पुचकारता है

दूसरी को गले लगाता है 

पूरी सतर्कता के साथ

ऐसा करते हुये न देखे दूसरी उसे

उसे पता है  ,

रोटी सेंकने के लिये ज़रूरत है आग  की

और वो स्वार्थ के चूल्हे में झोंक देता है

दोनों की भावनाओं का ईंधन...


 एक मर्द 

रखता है  जब दो औरत

वो सिर्फ मर्द नहीं रहता 

बन जाता है शातिर खिलाड़ी... 

०००

आठ


कविता  लिखती है मुझे


फुलटाइम गृहस्थन और पार्टटाइम कवयित्री हूँ...

 कविता लिखती नही मैं

कविता  लिखती है मुझे

दाल में पड़ने वाले नमक सी

 छौंक में पड़े पंचफोरन सी

लटपटार सब्जी में स्वाद सी

धीमी आँच पर आहिस्ता-आहिस्ता घुलती है

मैं फुलटाइम गृहस्थन और पार्टटाइम कवयित्री हूँ...


कभी दीपावली सी जगमगा जाती है 

कभी होली के रंगों सी छितरा जाती है

कभी बन जाती है पंचामृत में पड़ी तुलसीदल

कभी नवरातर के उपवास सी पवित्र बन जाती है

कभी अचानक बुझ गये मंदिर के दीये सी

दिप दिपा कर आशंकित सी रह जाती है

मैं फुलटाइम गृहस्थन और पार्टटाइम कवयित्री हूँ...


उनकी शर्ट पर लगी लाली सी मुँह चिढ़ाती है

बच्चों के मनपसंद पकवान में नमक बन जाती है

हाथों से उतरी बदरंग मेंहदी की नक्काशी सी शर्मिंदा

रतजगी आँखों की उदासी में काजल सी मुस्काती है

नकली हँसी ,असली उदासी ,झूठी कहानियां -बहाने

जैसी स्क्रिप्ट चाहूँ वैसी कठपुतली बन जाती है 

मैं फुलटाइम गृहस्थन और पार्टटाइम कवयित्री हूँ...


मैं नहीं बोती इसे रबी -खरीफ की फसलों की तरह

मौसम और फैशन के आधुनिक कपड़ों की तरह

 नहीं सहेजती मौसमी अचार ,फल ,सब्जियों की तरह 

घर पर धमक पड़े फलाने -धमाके अतिथियों की तरह

दाल -रोटी  ,पापड़-अचार ,चटनी -रायता संग परोस

"फलानी को कुछ आता ही नहीं" का दंश भी सहती हूँ

मैं फुलटाइम गृहस्थन और पार्ट टाइम कवयित्री हूँ...

०००


परिचय 

संध्या यादव मुंबई से हैं।पेशे से शिक्षिका हैं ।तीन काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ।पहला काव्य- संग्रह हैं "दूर होती नज़दीकियां "दूसरा काव्य-संग्रह हैं "चिनिया के पापा "और तीसरा काव्य -संग्रह हैं "ओस सी लड़की "। समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं।रेडियो,टीवी और मंचों पर रचनापाठ कर चुकी हैं।

1 टिप्पणी:

  1. संध्या यादव समकालीन हिंदी कविता का एक चमकता सितारा है।

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