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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 फ़रवरी, 2025

शंकरानंद की कविताऍं

 

एक

इस बारिश में


चकाचौंध से भरी दुनिया में

मौके बहुत हैं मुस्कुराने के लिए

मगर उस मन का क्या

जो अभी बारिश नहीं

सुकून की तलाश में बेचैन है


रंगों से भरी दुनियां में

बेरंग मन कांपता है

गीली टहनी की तरह

मन कोई आवाज सुनना चाहता है


छूना चाहता है मीठा जल

कोई चेहरा देखना चाहता है

जो बदल दे

मन के मौसम का हिसाब


मनुष्य की जगह

न बादल ले सकते हैं

न बारिश

न वसंत

चाहे ये कितने ही खूबसूरत हों

फर्क नहीं पड़ता|

०००


चित्र फेसबुक से साभार 









दो

खेत के लिए


वही मिट्टी 

आजकल बंजर है

जिसमे फसलें लगती थी तो

घर भर जाता था


ज़मीन तो मेरे पास बहुत हैं

बीज बोने का हुनर नहीं आया!

०००


तीन 

अपनी जड़ें


जैसे सिक्के चलन से बाहर हो जाते हैं

वैसे ही पुराने दिन

एक दिन इतने पुराने हो जाते हैं कि

उनकी याद भी

मटमैली हो जाती है


इतनी धुंधली कि

उसमे अपना पता खोजना भी

मुमकिन नहीं होता


हम फिर भी उन्हें टटोलते रहते हैं

अपनी जड़ों की तरह

क्योंकि वे हमारे होने का सबूत हैं और

सबूत हमेशा खतरे में होते हैं

ये कौन नहीं जानता!

०००

चार

बच्चे की दुनिया


केनवास की तरह

जिन्दगी मिली है

साथ में हिदायतें भी भरपूर


चाहा हुआ नहीं मिलता कुछ

यातना मिलती है

रंग मिलते हैं तो

उन्हें चुनने का मौका नहीं मिलता


हर लकीर होना कुछ चाहती है

हो कुछ और जाती है

इस तरह तैयार होती है 

दो दुनिया


एक के लिए शाबाशी मिलती है

दूसरी मन के अँधेरे में घुंट कर

एक दिन दम तोड़ देती है|

०००


पॉंच 

पिता की आवाज़


आज भी उनकी आवाज गूंजती है

तब अक्सर लगता है कि

वे पुकार रहे हों शायद


उस आवाज के होने भर से

एक भरोसा हो जाता है

तसल्ली होती है कि

वह यहीं कहीं गूंज रही है


कितनी जरूरी होती है आवाज

कितना जरूरी होता है बोलना

ये चुप रहने वाले लोग

नहीं समझ सकते


आवाज का गूंजना

मनुष्य के होने का पता होता है

जो नहीं होते

उनकी आवाज भी नहीं होती|

०००


छः 

प्यार


गमले में खिला एक फूल

जो बहुत मुश्किल से

खिला


उस पर भी

सबकी नज़र लगी है

क्या पता

कौन तोड़ ले अँधेरी सुबह में!

०००

सात 


अकेला होना


टहनी पर अकेला फूल हो

पेड़ पर बस एक फल

उस पर सबसे पहले आंखें जाती हैं


कोई नहीं जानता

उसकी यातना

उसके उगने का दुःख

जो कभी ख़त्म ही नहीं हुआ


जबसे पृथ्वी पर आने की लालसा हुई

ठीक तभी से आंधियां आई हर रात

कई दिनों तक बरसा पानी

उँगलियाँ छूती रही

दहलाती रही कलेजा


खिलने की रंगत पर

नज़र टिकाने वालो

यह दुःख और संताप

तुम्हें कभी नहीं दिखेगा!

०००



चित्र 

संदीप राशिनकर 








आठ

रात के पहर


चारो तरफ सिर्फ एक सन्नाटा है

रात के पहर ऊंघ रहे हैं

इस बीच कब बदल जाता है समय

पता नहीं चलता


बस एक अँधेरा है

कभी गाढ़ा

कभी पतला

यह रोज की बात है


मैंने जब भी देखा

रात को सहमा हुआ देखा

लगभग शांत और निस्तब्ध

हर बार

ठीक उस पक्षी की तरह

जो एकाग्र होकर

अपने अंडे सेती है चुपचाप |

०००

नौ


कोई पहचान


चेहरे पर धूप का रंग घुला है

चमकते दिनों और घोर रातों में

इसकी परछाई

पीले पत्तों की तरह हिलती है

जैसे पानी में चेहरा कांपता है


मेरे पास कोई तरीका

चेहरे पहचानने के लिए नहीं बचा

बांकी तो सब कागज है और

कागज से कुछ पता नहीं चलता

कौन ज्यादा चमकीला है

कौन ज्यादा मलिन


भरोसे की रौशनी को

खोजना पड़ता है

धोखे के अंधेरों के बीच


मैंने देखा है कि

जिस पर सबसे ज्यादा गुमान था

वह पलट कर देखने तक नहीं आया

अंतिम समय में

कोई पहचान काम नहीं आई


सिसकते समय पता चला

सर रखने के लिए

एक कन्धा नहीं कहीं

अपना सगा भी

सगा नहीं रहा

जिसपर सबसे ज्यादा भरोसा था


समय ऐसा आया अंततः कि

जिस भाई के लिए जान देती थी माँ

पिता के गुजरने के बाद

वह भी घर का पता भूल गया |

०००


परिचय 

संपर्क –क्रांति भवन,कृष्णा नगर,खगरिया-८५१२०४

मोबाइल-८९८६९३३०४९

जन्म-८ अक्टूबर १९८३ को खगडिया जिले के एक गाँव हरिपुर में|

प्रकाशन-कथादेश, आजकल, आलोचना, हंस, वाक्, पाखी, वागर्थ, वसुधा, नया ज्ञानोदय, सरस्वती, कथाक्रम, परिकथा,

पक्षधर, वर्तमानसाहित्य, कथन, उद्भावना,बया, नया पथ, लमही,सदानीरा,साखी,समकालीन भारतीय साहित्य, ्मधुमती,इंदप्रस्थभारती,पूर्वग्रह,मगध,कविताविहान,नईधारा,आउटलुक,दोआबा,बहुवचन,अहा जिन्दगी,बहुमत,बनास जन,निकट,जनसत्ता,लोकमत उत्सव अंक, विश्वरंग कविता विशेषांक,पुस्तकनामा साहित्य वार्षिकी,स्वाधीनता शारदीय विशेषांक,आज की जनधारा वार्षिकी,कथारंग वार्षिकी,सब लोग,संडे नवजीवन,देशबंधु,दैनिक जागरण,नई दुनिया,दैनिक भास्कर,जनसंदेश टाइम्स,जनतंत्र,हरिभूमि,प्रभात खबर दीपावली विशेषांक,जनमोर्चा,नवभारत आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित|कुछ में कहानियां भी|

पिता,बच्चे,किसान और कोरोना काल की कविताओं सहित कई महत्वपूर्ण और चर्चित संकलनों के साथ `छठा युवा द्वादश`और `समकालीन कविता`में कविताएं

शामिल|हिन्दवी,जानकीपुल,सबद,समालोचन,इन्द्रधनुष,अनुनाद,

समकालीन

जनमत, हिंदी समय, समता मार्ग, बिजूका, कविता कोश,पोषमपा,पहली बार,कृत्या आदि पर भी कविताएं|

अब तक चार कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए’,’पदचाप के साथ’,’इंकार की भाषा’ और ‘समकाल की आवाज’ श्रृंखला के तहत चयनित कविताओं का एक संग्रह ‘चयनित कविताएं’ प्रकाशित|आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कविताएं प्रसारित|पंजाबी,बांग्ला,मराठी,नेपाली और अंग्रेजी जैसी भाषाओं में कविताओं के अनुवाद भी प्रकाशित|

कविता के लिए विद्यापति पुरस्कार,राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक पुरस्कार और मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार|

सम्प्रति - लेखन के साथ अध्यापन

संपर्क-क्रांति भवन ,कृष्णा नगर ,खगरिया -८५१२०४ 

मोबाइल -८९८६९३३०४९

3 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर और भाव-प्रवण कविताएँ।

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  2. शंकरानन्द की कविता इस मौसम में की तासीर प्रकृति नहीं होकर मन के मौसम का हिसाब खोजने में है। कविता इसी कोशिश में खूबसूरत बन गई है ।इसी तरह पिता की आवाज़ कविता भावुकता में न बहकर कविता को आवाज़ को टॉप एंगल से देखना सिखाती है। सभी कविताएं संवेदनाओं की सुंदर ओढ़नी जैसी लगी । अभिनंदन कवि शंकरानन्द ।

    नरेश चन्द्रकर

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  3. भाई शंकरानन्द इन बेहतरीन कविताओं के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

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