image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 फ़रवरी, 2025

नीरा जलक्षत्रि की कविताऍं

 

एक

ट्रोल 


आठ-आठ घंटे

जो लगातार खटते हैं कंप्यूटर पर

देते हुए अनजान लोगों को गालियां

जिनकी उंगलियां

एक मिनट में तीस शब्द प्रति मिनट

टाइप करती रहती हैं गालियां


नींद में भी 

सपनों से बतकही के दौरान

बड़बड़ाते हुए

जिनकी जबान से निकलती 

होंगी .......

कभी-कभी वो भी निहारते होंगे

फूल, पत्ती, चिड़िया और तितली को

और चाहते होंगे गाना गीत 

उनके लिए

पर मुंह से गुनगुनाहट में

निकलती होंगी .......

ख़ुद को ही सुन 

वो हंस देते होंगे फिस्स से


जो दिन-रात घिरे रहते हैं 

दुनियां के सबसे बुरे शब्दों से


उनके मन में

जब कभी किसी के लिए जागेगा 

 प्रेम

वो कैसे जताएंगे प्रेम ? 

क्योंकि जैसे ही जताना चाहेंगे 


ठीक, बिल्कुल ऐन उसी वक़्त 

निकल जाएगी गाली

वो भौंचक से

ताकते रह जाएंगे ख़ुद को


क्या होगा उस दिन

 जब वो कहना चाहेंगे  भूख

पर निकल जाएगी गाली

शायद वो कहना चाहेंगे प्यास

पर झरती रहेगी मुंह से गालियां

शायद वो करना चाहेंगे बात 

पर फिर ......।

०००














दो


लिखो 


एक नया इतिहास  

फिर से लिखो 

और बताओ दुनिया को 

कि शक–यवन–हूण-मुग़ल

कभी कोई नहीं आया 

और नहीं पराजित हुए हम कभी अंग्रेजों से

हज़ारों साल से कायम है यहाँ 

वैदिक सभ्यता 

और सनातन धर्म 

हमारे महान धर्म में 

स्त्री देवी है चार दीवारों में कैद 

और 

दलित जन्म-जन्म से सेवा करने के लिए ही 

जन्मते रहे हैं 

आदिवासी राक्षस और असुर हैं 

भेजों इन्हें जहरबुझे शस्त्रों से स्वर्ग 

इनका उद्धार करों 


चलो फिर से लिखो सब 

और रटाओ इसे आने वाली पीढ़ी को 

ऐसे करो इतिहास का पुनर्लेखन 

और बताओ दुनिया को 

कि हम कितने महान है |

नष्ट करों सारे पुस्तकालय और विश्वविद्यालय

जो इससे अलग कुछ भी बताते हैं

ढहा दो वो सारे स्मारक, किले और महल

जो सर उठाये खड़े हैं हमारे खिलाफ़ 

बदल दो सारे रास्तों और गलियारों के नाम 

जो  अपने होने की गवाही खुद हैं 


ऐसे करो इतिहास का पुनर्लेखन 

साथ  ही  ख़त्म करो 

उन सारे विद्रोहियों को 

जो हमसे अलग कुछ भी बोलते हैं 

चाहे सवाल उठाते नौजवान हों 

या सोचते बुद्धिजीवी 

कल्पना में खोये कलाकार 

या व्यवस्था पर तंज़ कसते नाटककार 

बोलती और अपने हक़ के लिए लड़तीं स्त्रियाँ

या आत्मचेतना से लैस दलित 

संघर्ष करते आदिवासी 

या व्यवस्था की खामियां गिनाते पत्रकार 

यहाँ तक कि 

खिलखिलाते किशोर 

और मुस्कुराते बच्चे 

सब विद्रोही हैं !

०००


तीन 


धर्म नहीं है शांति का मार्ग 


धर्म नहीं है शांति का मार्ग

रक्तरंजित रहा है

इसका इतिहास 

इसके जबड़े पर लगा हुआ है 

कई सभ्यताओं का ख़ून !

ये वैसा ही विषधर सर्प है

जिसके फ़न पर डाली गई है शांति की चादर!

इसका ज़हर जब फैलता है धमनियों में

तो सब लगने लगते हैं विधर्मी


लेकिन, याद रखना...

इसको पालने वाले

कभी नहीं करेंगे

अपनी हथेली फ़न के सामने

 वो हमेशा खड़े रहते हैं इसकी पीठ की तरफ़

वो

तुम्हें ही उकसाएंगे

कि तुम बढ़ाओ अपना हाथ.....

और मारे जाओ!

०००


चार 


सुनो स्त्रियों 


शनि मंदिर में जाने के लिए

लालायित स्त्रियों,

किसलिए जाना है तुम्हे वहां ?

बेजान पत्थरों पर सर पटककर

क्या होगा हासिल ?

होना तो ये चाहिए था

कि मंदिर प्रवेश पर रोके जाने पर

तुम एकजुट होकर,

ठोकर मार देतीं

सभी मठ-मंदिरों को 

धार्मिक आडम्बर के घरों को,

उपेक्षा कर त्याग देना चाहिए था

तुम्हे ऐसे सभी  तथाकथित पावन स्थलों को |

फिर .......

फिर क्या होता,

भागते भगवान तुम्हारे पीछे

और उनके साथ

 पूरा दल-बल  भी

भागता हुआ आता

क्यूंकि

तुम्हारे न जाने से, रुक जाता उनका व्यापार

ठप्प पड़ जाती

अंधविश्वासों की ख़रीदफ़रोख्त

और बंद हो जाती अंधश्रद्धा की दूकानें

तुम्हे घुटनों के बल चलकर

लेने आते वे |

क्यूंकि,

हे नादान स्त्रियों!

सभी धर्मों का पूरा व्यापार

तुम्हारे ही काँधे पर टिका है

दरअसल तुमने ही तो

मूर्खतापूर्ण व्रत-उपवासों,

द्वेषपूर्ण तीज-त्योहारों

और जड़ परम्पराओं का

बोझ उठाया हुआ है |

इस सबके लिए

उन्हें तुम्हारा कोमल, टिकाऊ

और सहनशील कन्धा चाहिए

पर अब समय आ गया है

कि क्लाइमेक्स तुम तय करो

नकार कर सब मठ और मठाधीशों को |

०००













पाॅंच


संविधान


अब उस क़िताब की शक़्ल में नहीं

जिसके पन्ने नोचे जा रहे हों

हर दिन

जिसके हर हर्फ़ को मिटाने की

कोशिश में  लगा हुआ है 

पूरा तंत्र


मेरे दोस्त!

संविधान अब तुम्हारी 

उठी हुई और तनी हुई मुट्ठियों में है

महफ़ूज़


तुम्हारी तरेरती हुई आँखों में

सुरक्षित हैं, उसका हर लफ़्ज़


तुम्हारे हौसलों से 

मिलेगा आने वाली नस्ल को

हक़ और आज़ादी के मायने


संविधान 

अब उस क़िताब से निकलकर

उतर आया तुम्हारी

चुनौती देती आवाज़ों में।

०००


परिचय 

लेखक  और फिल्ममेकर ।

‘द लास्ट लेटर’ पुरस्कृत शॉर्ट फ़िल्म का लेखन- निर्देशन । दिल्ली विश्वविद्यालय में 12 वर्ष तक अध्यापन अनुभव । साहित्य और

सिनेमा के अंतरसंबंध’  विषय पर पुस्तक प्रकाशित। विभिन्न पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं में सिनेमा पर लेख प्रकाशित | 

रेडियो,एडवर्टाइजिंग के क्षेत्र में बतौर RJ और कॉपीराइटर का अनुभव ।

०००

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें