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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 फ़रवरी, 2025

वंदना मिश्रा की कविताऍं


एक 


उसी क्षण 

     

प्रिय सखी !

जब रच ली तुमने

 मेरी बदनामी की कथा

तो हाथों को प्यार से पकड़ 

घोषणा कर दी 

मेरे हाथों में 

प्रसिद्धि की लकीर का होना ।




चित्र 

संदीप राशिनकर








जब मेरे मस्तिष्क को

 पूरी तरह  झिंझोड़ने वाले 

व्यूह   के एक- एक  तार  कस लिए 

 तब 

कहा बहुत स्थिर दिमाग़ है तुम्हारा ।


जब बुरी तरह सिद्ध हो गया 

मेरा अव्यवहारिक होना

 तो प्रमाण पत्र दिया

 तुमने ख़ुद के मासूम 

और मेरे

व्यवहारिक होने का  ।


जब हार और अपमान  से 

मुँह लाल लिए 

मैं स्थिर होने का 

प्रयास कर रही होती हूँ,

उसी क्षण तुम मुस्कुरा कर 

जीत की बधाई देने लगती हो !


मैं पूछना चाहती हूँ,

कच्चे खिलाड़ी के साथ 

खेलने में क्या मज़ा है मित्र !


चूहा- बिल्ली के इस खेल में 

कितना नीचे धँस जाऊँ  मैं  ? 

कि

ऊपर उठने का संतोष 

मिल सके तुम्हें ।

०००


दो

मज़बूत 

        

  ख़ुद

आँसू पोंछ

 उठे व्यक्ति से 

  मज़बूत

  कोई नहीं होता ।

  ◆

तीन 


उम्मीद  

            

ये जो माता- पिता ,

भाई  भाभी के जाने के बाद भी ।


न जाने किस उम्मीद में

मायके की दहलीज़ पर  

ठिठक के रुक गई हैं ।


उनके बूढ़े हाथों को

 प्यार से थाम लो

भतीजो !


ये बूढ़े काँपते हाथ सावन में 

कुछ मांगने नहीं 

आशीर्वाद में

उठने आएं हैं ।

००


चार

कविता

      

तुम्हारी  बातों से 

मन छोटा हो जाता है 

 दर्द के शब्द 

  तुम कविता  की तरह पढ़ते हो ।

  ●

 

पाॅंच

हिस्सा 

   

भाई की शरारतों के

अनगिनत किस्से हैं

बहनों के हिस्से 

 बस भाई की 

शरारतों को

सम्भालना आता है ।

 ●

छः 

आहत

      

  जो शब्दों से चोट खाते हैं

  आहत होते हैं

  दुनिया भर में 

 नही होते ,उनके इलाज


 वे घायल ही रहते हैं हमेशा


 पर उन्हीं के नील पड़े मन से 

 नीला रंग लेता है आसमान


उन्ही के प्रेम की लालिमा से 

रोशनी बिखेरता है सूर्य 

 

सात 

पिताजी मेरे आदर्श थे 

            

पिताजी मेरे आदर्श थे 

लंबे ,ऊंचे चमकते ललाट वाले

 सारे ज्ञान से भरे 

पूछो जरा सा प्रश्न 

और संदर्भ सहित उड़ेल देते थे 

सारा प्रसंग ।


हम हतप्रभ ,चमत्कृत 

सारा कुछ जानते हैं पिता !


और माँ ?


माँ तो भेज देती थी 

सदा पिता के पास 

जैसे विश्व कोष हो वह

 और कभी निराश नहीं किया 

 उन्होंने ।


 धीरे-धीरे माँ  के पास 

जाना ही छोड़ दिया हमने ।


माँ अपनी रसोई में 

अकेली पड़ती गई ।


कभी  पार नहीं की उसने 

बैठक की दहलीज़

 और कभी दुख भी नहीं 

प्रकट किया 

अलग-अलग खुश रहे दोनों ।


तब मैं पिता की तरह 

पति चाहती थी  ।


बड़ी होती गई मैं 

माँ के शब्दों में ताड़ सी 

 और साथ-साथ 

पिता से अलग भी सोचने लगी ।


 और माँ की तो विचारधारा 

 थी ही नहीं जैसे


अब पिता के प्यार के बावज़ूद 

मैं उनकी तरह पति 

नहीं चाहती थी 

मुझे चाचा ज्यादा उपयुक्त लगे ।


 जो रसोई में रहते थे चाची के साथ

 और झगड़ते थे 

 बैठक में दोनों

 तुरंत आए  अख़बार के 

 मुखपृष्ठ के लिए ।

 ◆

आठ

कोई गुनाह नहीं 

        

कोई गुनाह  नहीं किया तुमने  कि

छुप जाओ तुम किवाड़ों की ओट में


कि निराश लौटे पिता को और 

मत थका बच्ची


कि तेरे प्यार से पानी पकड़ाने से 

धुल जाएगी उनकी उदासी


एक प्याला गर्म चाय का 

 रख उनके सामने

और प्यार से पकड़ उनका हाथ

 समझा उन्हें कि

तो क्या हुआ 

जो नहीं तय कर पाए विवाह 

बोल कि यूँ ही भटका न करो 

इस उस के कहने पर

लड़के खोजने 


कि इतनी क्या जल्दी है

मुझे घर से निकालने की

हल्के से छुओ 

 उनके मुरझाए चेहरे को

 और बताओ

 कि कितने तो सुकून से भरी रहती हो

 उनके साथ 

पूछो थोड़ा रुठ कर कि

यूँ  कौन तड़पता है 

अपने दिल के टुकड़े को 

दिल से दूर करने के लिए ।


  मुस्कुराओ 

कि पिता के पास हो तुम 

मुस्कुराओ 

कि तुम्हीं 

ला सकती हो मुस्कुराहट

पिता के चेहरे पर ।





चित्र 

रमेश आनंद 









नौ

प्रेम

       

पीपल का पेड़ होता है प्रेम 

किसी भी जगह उग जाने वाला ।


किसी भी सुराख ,किसी भी दरार में

फैला लेने वाला अपनी जड़ें ।


गुनाह है ,  पाप है ,हमारे समाज  में

पीपल को काटना , 


और प्रेम को ?

पनपने देना ।



दस

अम्मा का बक्सा 

     

अम्मा का एक बक्सा था ।

हरे रंग का ।

बचपन से उसे उसी तरह देखा था ।

एक पुरानी रेशमी साड़ी का बेठन लगा था

उसके तले में जिसके बचे 

आधे हिस्से से ढका रहता था

उसका सब माल  असबाब 

कोई किमखाब का लहंगा नहीं

कोई नथ बेसर नहीं

कोई  जड़ाऊ कंगना नहीं 

सिर्फ

कुछ साड़ियाँ 

पुरानी एक किताब 


पढ़ने के लिए नहीं 

रुपयों को महफूज़ रखने के लिए 

क़ुछ पुरानी फ़ोटो ।


कोई बड़ा पर्स नहीं था माँ के पास

कोई खज़ाना भी नहीं ।

पर पता नहीं क्यों वो बॉक्स खुलते ही 

हम पहुँच जाते थे 

उसके पास ।


झांकने लगते थे

कुछ न कुछ तो मिल ही जाता था

एक सोंधी सी महक निकलती थी

 उस बॉक्स में से

माँ चली गई तो दीदी 

उस बॉक्स को पकड़ के बहुत रोई


उस बक्से को चाह कर भी

बॉक्स नहीं  कह सकते

जैसे अम्मा को मम्मी 

 भाई ने कुछ साल पहले खरीद दी थी

एक बड़ी अलमारी माँ के लिए

पर वो हरे बक्से जैसा 

मोह नहीं जगा पाई

कभी हमारे दिलों में ।

माँ की गन्ध बसी है 

उस बक्से में ।


ग्यारह 

हम घी के लड्डू नहीं थे

      

हम लड़कियों को 

कभी 

इसलिए  सहन किया गया

 कि हम भाग्यशाली थे 

ठीक नवमी या दीपावली को जनमे


आते ही पिता की नौकरी लगी 

ज़मीन का चल रहा मुक़दमा

जीत गए बाबा

पीठ पर भाई आया 


यूँ ही नहीं स्वीकारा गया 

हमारा होना 

हम घी के लड्डू नहीं थे 

कि टेढ़े मेढ़े चल जाते

तराशे जाना नियति थी 

पर पत्थर ही रहे हम 

प्राण के लिए तरसते ।

 

बारह

 मैंने कभी सपना नहीं देखा था 


 मां ने कभी सपना नहीं देखा था 

मेरे लिए 

पर मैं आ गई भाई से पहले ।


सब जगह मैं भाई से पहले

सिर्फ मां के मन को छोड़कर ।


 मैंने सेंध लगानी चाहिए उसके मन में 

जब तक ,

मां ने जो सपने देखे भाई के लिए 

उनके कुछ बीज अनजाने में

 गिर पड़े मेरे मन में ,

और महा वृक्ष का रूप ले लिया उसने ।


 दौड़ती रही मैं मां के सपनों को पूरा करने के लिए 

और मां भाई की तरफ़ ।


हम दोनों दौड़े अपनी अपनी दिशा में ,


अपने ही सपनों के महा वृक्ष को पहचानने से 

इंकार करती है मां ,

सिर्फ स्थान बदल जाने से ।


भले ही काट ले धूप में सारी उम्र 

पर नहीं बैठेगी इस वृक्ष की छाया में 

और मैं ,इस महा वृक्ष को लेकर क्या करूं  ?

जो मां को ही शीतल नहीं कर सकता ।


परिचय 


'कविता कोश' ,'हिंदवी ', 'अभिव्यक्ति अनुभूति ','अनहद कोलकाता' , गूँज  ,'लोकराग ' और  'समकालीन जनमत ','भला -बुरा ' ब्लॉग पर कविताएं प्रकाशित ।

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