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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 जून, 2016

कविता : निर्मल पुतुल

आज हम आपको पढ़वाने जा रहे हैं प्रसिद्ध कवयित्री निर्मला पुतुल की कुछ रचनाएँ। इन्होंने आदिवासी साहित्य और स्त्री विमर्श पर प्रचुर मात्रा में लिखकर अपनी पहचान बनाई है।  इनकी रचनाओं में आदिवासी समाज ( विशेषकर आदिवासी स्त्री) की पीड़ा,  पर्यावरण को बचाए रखने की चिन्ता प्रतिबिंबित होती है।

कविताएँ :

1. "आदिवासी स्त्रियाँ "

उनकी आँखों की पहुँच तक ही
सीमित होती उनकी दुनिया
उनकी दुनिया जैसी कई-कई दुनियाएँ
शामिल हैं इस दुनिया में / नहीं जानतीं वे

वे नहीं जानतीं कि
कैसे पहुँच जाती हैं उनकी चीज़ें दिल्ली
जबकि राजमार्ग तक पहुँचने से पहले ही
दम तोड़ देतीं उनकी दुनिया की पगडण्डियाँ

नहीं जानतीं कि कैसे सूख जाती हैं
उनकी दुनिया तक आते-आते नदियाँ
तस्वीरें कैसे पहुँच जातीं हैं उनकी महानगर
नहीं जानती वे ! नहीं जानतीं ! !

2.  "आदिवासी लड़कियों के बारे में"

ऊपर से काली
भीतर से अपने चमकते दाँतों
की तरह शान्त धवल होती हैं वे

वे जब हँसती हैं फेनिल दूध-सी
निश्छल हँसी
तब झर-झराकर झरते हैं....
पहाड़ की कोख में मीठे पानी के सोते

जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ
जब नाचती हैं कतारबद्ध
माँदल की थाप पर
आ जाता तब असमय वसन्त

वे जब खेतों में
फ़सलों को रोपती-काटती हुई
गाती हैं गीत
भूल जाती हैं ज़िन्दगी के दर्द
ऐसा कहा गया है

किसने कहे हैं उनके परिचय में
इतने बड़े-बड़े झूठ ?
किसने ?

निश्चय ही वह हमारी जमात का
खाया-पीया आदमी होगा...
सच्चाई को धुन्ध में लपेटता
एक निर्लज्ज सौदागर

जरूर वह शब्दों से धोखा करता हुआ
कोई कवि होगा
मस्तिष्क से अपाहिज !

3.  "उतनी दूर मत ब्याहना बाबा !"

बाबा!
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हे

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज़्यादा 
ईश्वर बसते हों

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन 

वहाँ तो कतई नही
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाडियाँ
ऊँचे-ऊँचे मकान 
और दुकानें हों बड़ी-बड़ी

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो
मुर्गे की बाँग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहाँ 
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे ।

मत चुनना ऐसा वर 
जो पोचाई और हंडिया में 
डूबा रहता हो अक्सर 

काहिल निकम्मा हो 
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर

कोई थारी लोटा तो नहीं 
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर

जो बात-बात में 
बात करे लाठी-डंडे की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी
जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर 
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया 
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नही उठाया

और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ

ब्याहना तो वहाँ ब्याहना 
जहाँ सुबह जाकर 
शाम को लौट सको पैदल

मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट 
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम 
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....

महुआ का लट और
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश 
तुम्हारी ख़ातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी

मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल 
चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे

उस देश ब्याहना 
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों
बकरी और शेर 
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे !

उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड़ और पंडुक पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख बाँटने तक 

चुनना वर ऐसा
जो बजाता हों बाँसुरी सुरीली
और ढोल-मांदर बजाने में हो पारंगत 

बसंत के दिनों में ला सके जो रोज़
मेरे जूड़े की ख़ातिर पलाश के फूल

जिससे खाया नहीं जाए 
मेरे भूखे रहने पर 
उसी से ब्याहना मुझे ।

परिचय :
जन्म: 06 मार्च 1972
(जिला दुमका, संताल परगना, झारखंड)

कुछ प्रमुख कृतियाँ:
नगाड़े की तरह बजते शब्द, अपने घर की तलाश में (दोनों कविता-संग्रह), ओनोंड़हें (संताली कविता-संग्रह)

विविध:
मुकुट बिहारी सरोज स्मृति सम्मान, भारत आदिवासी सम्मान, राष्ट्रीय युवा पुरस्कार। संताली कविताओं का हिंदी, अंग्रेजी, मराठी और ओड़िया में अनुवाद।
प्रस्तुति बिजूका

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टिप्पणियाँ:-

प्रदीप मिश्रा:-
रचना जी आभार बहुत ही जीवन से पगी कवितायेँ हैं। खैर निर्मलपुतुल को पढना धरती के गीत सुनने जैसी बात है। हमारे समाज से बाज़ारी अतिक्रमण के कारन नष्ट होते शब्दों और संस्कृतियों को सहेजती इन कविताओं के लिए कवियत्री को साधुवाद।

नीलिमा शर्मा निविया:-
आदिवासी स्त्री  हमें आदिवासी लड़की की सूरत याद दिलाते  हुए    उसकी  वेदनाओं से रूबरू होने का मौका  दे गयी  लेकिन कविता पढ़ते हुए अरे ! बहुत जल्दी खत्म  हो गयी उस पर अभी और लिखना चाहिए था का अहसास हुआ ।
बाबा से लड़की की मासूम  सी  विनती मन को छू गयी ।लगा  कोई प्यारी सी बिटिया मेरे सामने हैं और अपने बाबा से  बात कर रही मनुहार  कर रही हैं ।     मेरी अपनी कोई बिटिया नही लेकिन फिर भी दर्द पढ़ पा रही एक बिटिया का । बहुत दिन तक याद रहेगी यह मनुहार ।     आपकी ऐसी संवेदनशील कविताये और भी पढ़ना चाहूंगी ।  बहुत बहुत शुभकामनाये रचना जी

संजीव:-
निर्मला पुतुल
तुम्हारे "नगाडे की तरह बजते शब्द"
अब नगाडे की तरह सुनाई नहीं देते।
सत्ता ने लोगों के कानों में
ध्वनि परावर्तन यंत्र लगा दिए हैं।
ताकि
लोग अब नगाडे के शब्दों को
शंख ध्वनि और मंदिर की घंटी की रूनझुन
या पुलिस के सायरन की तरह सुनते हैं
और या तो वे मंदिरों की ओर दौडते हैं या
घरों में दुबक जाते हैं
ताले बेडें लगाकर।

प्रह्लाद श्रीमाली:-
निर्मला पुतुल जी की कविताओं को पढते हुए  आदिवासी समाज की सहजता जीवंतता के प्रति श्रद्धा  उत्पन्न होती है ।साथ ही उनके प्रति समाज और व्यवस्था की गैरजिम्मेदाराना नीति के लिए  अपराधबोध ।
निर्मला जी को बधाई शुभकामनायें नमस्कार ।
मुद्राराक्षस जी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रस्तुत कहानी -मुठभेड़ -देश की शासन व्यवस्था के कटु यथार्थ का ज्वलंत मार्मिक चित्रण है ।चौंकाने झकझोरने  और सावधान करने वाली कहानी ।
नत्था और रज्जन दोनों मोहरे हैं ।पुलिस  और अपराधी साथ साथ खेलते खिलाड़ी ।शोषित पीड़ित मजबूर जनता तमाशबीन ।जिसका आवश्यकतानुसार बेधड़क मोहरे की तरह  इस्तेमाल ।

प्रभात मिलिंद:-
निर्मला पुतुल जी की तीनों कविताएँ एक तरह से उनकी प्रतिनिधि कविताएँ हैं. इन्हें कई एक बार इनको और इनपर लिखी गई बातों को पढ़ने का अवसर मिला है. कल से भी कई साथियों ने इन पर विस्तार से लिखा होगा. आज समूह से जुड़ने के कारण उन महत्वपूर्ण टिप्पणियों को नहीं पढ़ पाया. साथ ही संशय भी है कि मेरी बात पहले के वक्तव्यों की पुनरावृति न हो जाय.
झारखण्ड के जिस भूभाग संथाल परगना से इन कविताओं का ताल्लुक़ है, मेरी भी उस ज़गह से थोड़ी-बहुत वाकिफियत रही है. ये कविताएँ संथाल परगना के सीधे-सरल आदिवासियों के अभावग्रस्त, शोषण भरे और जीवन की बुनियादी ज़रूरतों और हक़ों से बेदखल किए जा चुके दुरूह समाज का करुण वक्तव्य हैं. विकास की योजनाओं के बहाने ठेकेदार, नौकरशाही, टटपूंजिए नेताओं और बिचौलियों के बीच पिसती इनकी निष्कलुष ज़िन्दगी और हवस का ग्रास बनती औरतें इन कविताओं का केंद्रीय तत्व हैं.
इसीलिए निर्मला पुतुल आज स्त्रियों और विशेष रूप से आदिवासी स्त्रियों की पीड़ा को प्रतिकार और मुख़ालफ़त को एक मुखर आवाज़ देने में एक अग्रणी नाम है.
आज इतना ही.
सोमवार से अधिक विस्तारपूर्वक.
सादर.

सुषमा सिन्हा:-
निर्मला पुतुल की यह कविताएँ हम कई वर्षों से पढ़ रहे हैं। तीसरी कविता 'उतनी दूर मत ब्याहना बाबा' तो उनकी शुरुआत की कविता है जो आज भी पढ़ कर उससे मन जुड़ जाता है। सभी कविताएँ अच्छी हैं।

पवन शेखावत:-
निर्मला पुतुल की तीनों ही कविताएं बरबस ही हमें अपनी ओर खींच लेती हैं... इनकी इन कविताओं में आदिवासी स्त्री का दर्द है , उनकी संघर्षशील जिंदगी का अंश है और अंतिम कविता तो सच में ही दिल को छु जाती है... अपनी शादी के दिनों में लड़की अवश्य ही ऐसा कुछ सोचती है  अपने अपने सामाजिक परिवेश और माहौल के अनुसार... सुन्दर कविताएं..

जय:-
निर्मला पुतुल की लगभग सभी प्रकाशित कविताएँ पढ़ी हैं ।प्रस्तुत कविता भी । पुतुल आदिवासी कविता की जगजीवनराम है ।खूब लड़े उस्ताद दुश्मन से हुए पुरस्कृत मार्का । वही जिसे नारीवादी ग्रीयर female eunuch कहती है तो फैनन I am not what I am कहते है। वे दिकू समाज की इतनी प्रिय ऐसे ही नहीं है । जो जितना ही जन्मना आदिवासी होकर गैर आदिवासी है वह दिकू आलोचक को उतना ही प्रिय है । आत्म निषेध की डिग्री दिकू समाज में स्वीकार्यता की भी डिग्री है । सन्थाल सबसे ज्यादा पड़ोसी दिकू कल्चर में ढ़ले है ।उनके आदिवास दिकू लोगो के पड़ोस में हैं । इसलिए संथाल संस्कृति का सबसे ज्यादा दिकू करण हुआ है ।यहाँ तक कि  बाज लोग  बंग्ला गीत को संताली गाना समझ लेते ।ऐसे में आदिवासी पहचान के रूप में महाश्वेता देवी और नामवर सिंह जैसे दिकू साहित्यिक लोगों ने संताल पृष्ठ भूमि के लोगो को आगे किया है ।असुर हो खड़िया जनजाति को दबाया गया क्योंकि वे अब भी आदिवासी संस्कृति से संपकृत हैं

राजेश सक्सेना:-
निर्म‌ला पुतुल‌जी की क‌विताऎ म‌नुष्य‌ की आदिम‌ की आदिम‌ ग‌न्ध‌ मॆ प‌गी हुई, निस‌र्ग‌ मॆ व्याप्त‌ प्र‌क्र्ति कॆ अद‌भुत‌ सौन्द‌र्य‌ बॊध‌ की क‌विताऎ है ! इन‌ क‌विताऒ  की प्र‌त्याशा ह‌मॆ ऎसॆ मान‌वीय‌ गुणॊ कॆ लॊक‌ मॆ लॆ जाती है  , जिस‌की आज‌ स‌च‌मुच‌ ब‌डी ज‌रुर‌त‌ है ! उस‌कॆ साथ‌ म‌त‌ ब्याह‌ना मुझॆ जिस‌नॆ क‌भी न‌ही ल‌गाया हॊ कॊई पॊधा ! उस‌ ज‌ग‌ह‌ म‌त‌ ब्याह‌ना ज‌हा मुझ‌सॆ मिल‌नॆ आनॆ कॆ लियॆ अप‌नी ब‌क‌रिया बॆच‌नी प‌डॆ ! इन‌ लाईनॊ मॆ छुपा दर्द‌ कित‌ना ब‌डा है य‌ह‌ आदिवासी और‌ ह‌र‌ ग‌रीब‌ की क‌हानी क‌ह्ता है ! ब‌हुत‌ ही सुन्द‌र‌ और‌ स‌च्ची क‌विताऎ

जय:-
मैं इसी सांस्कृतिक राजनीति के बैकड्रॉप में पुतुल की कविता को  देखता हूँ । आदिवासी समाज में बाहरी प्रभाव को छोड़ दें तो पितृसत्ता इतनी हावी नही । ऐसे में बस्तर के गोंड लोगो को मिशाल ले तो वहां स्त्री पुरुष सम्बन्ध लोकतान्त्रिक है और घोटुल जैसी संस्था साथी के चुनाव के आज़ादी की शहीद है ।यहाँ बाप (माँ नही , पितृ सत्ता का डबल जोर ) लड़की के लिए वर तय नही करता ।यह खुलापन प्राय हर आदिवासी समाज में है । बाप से अच्छे घर और वर का गुहार कर पुतुल निहायत ही पितृ सत्तात्मक मूल्य को ओढ़ती बिछाती हैं
बाबुल से इस तरह के करूण पुकार के हज़ार लोकगीत उत्तर भारत के सामन्ती जमीन पर मिलेंगे । ताज्जुब नही कि इस पितृसत्ता में आकंठ डूबे हिंदी आलोचक को यह कबिता अह अह करने को मजबूर करे
जैसे नीरज सी चौधरी भारतीय होते हुए भी अंग्रेज से लिखते थे उसी तरह निर्मला जी भी उत्तर भारतीय सामन्ती मूल्यों के भीतर inscribed हैं और मर्दवादी मूल्यों को आत्मसात किया हुआ है। इस छद्म को एक सच्चे आलोचक की तरह सामने लाने की जगह नामवर सिंहादि जैसे सवर्ण पुरुष उलटे सेलिब्रेट करते  है । जैसा कि पियरी मसेरे ने आलोचना के बारे में कहा कि इसका काम रचना के खुद से भिन्नता को दिखाना है ।ऐसे में हिन्कोदी आलोचक को  प्रकट रूप से स्त्रीवादी इस कविता के स्त्री विरोधी political subconscious को दिखाना चाहिए था । आज जब स्त्री को अपने स्वतन्त्र चुनाव करने की बात होती है । कामकाजी वर ढूंढने की जगह खुद कामकाजी बनने की बात होती है पुतुल की इस कविता की प्रतिगामिता को न देख पाना आलोचना  की सबसे बड़ी नाकामयाबी है।

प्रदीप मिश्रा:-
बाबुल को मायके के अर्थ में लिया जाता है। यह पिता का सम्बोधन नहीं है। मैं इसवक़्त अगरतल्ला में हूँ। इस इलाके में मातृसत्ता है। लगभग पूरे नार्थ ईस्ट में ऐसा ही है। यह भी भारत का अंग है। हम कैसे कह सकते हैं की पूरे भारत में पितृ सत्ता रही है?
निर्मला ने लोक जीवन के मूल्यों को रेखांकित किया है। जो उनके समय और समाज का सत्य है। एक कवि की जिम्मेदारी अपने समय के सत्य को दर्ज करना ज्यादा है। वे अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभा रहीं है। उन्होंने कविता के तकनीक का निर्वाह भी बहुत बेहतर तरीके से किया है। मैं जय भाई के विचारों से सहमत नहीं हूँ। उनकी बातें साहित्य पर उस तरह से लागू नहीं होतीं हैं। यूँ भी पितृ सत्ता वाली बात बहुत पुरानी है। इसको रेखांकित कराटे हुए 100 साल से ज्यादा हो गया है। तब से समय और समाज बहुत बदल है। आदिवासी समाजों में बहुत सरे परिवर्तन हुए हैं। उनको भी दृष्टिगत रखना होगा।

जय:-
बाबुल का अर्थ पिता ही है ।कविता में सम्बोधन पिता को ही है । लोक बड़ा भ्रामक शब्द है ।रामचन्द्र शुक्ल भी बड़ा लोक मंगल शब्द का बहुत प्रयोग किया करते थे । लोक का अर्थ वहां वर्णाश्रम पर आधारित सामन्ती व्यवस्था के कल्याण से है । इसलिए लोक यहाँ दिकू संस्कृति है जो घनघोर पितृसत्तावादी अतः स्त्री विरोधी है । भारत में मेघालय में मातृसत्तात्मक समाज यथा खासी गारो जयंतिया आदि है । यहाँ उनकी बात नही की जा रही ।
देह बनाम मन का problematization अपरिपक्व है ।यह उस झूठे बाइनरी की सृष्टि करता है जिसे देरिदा logocentrism कहता है ।यह टिपिकल संरचनावादी दृष्टि है जो किसी सार्थक अंतर्दृष्टि के बजाय एक अंतहीन शाब्दिक खेल को जन्म देता है ।देह के परे कोई मन नही है। भौतिकवादी दर्शन में एतबार के कारन मानता हूँ कि देह ही मन की भित्ति है । फिर भी देह ही मन नही है । जैसे मिटटी से ही गुलाब जन्म लेता है मिटटी सा नही होता उसी तरह मन देह से निकला है ।
देह ही पुरुष अत्याचार की केंद्र है ।फूको ने इसीलिए कहा है क़ि power operates on body . उसने biopolitics जैसे टर्म इसी सन्दर्भ में दिए है । देह से परे मन पर ज्यादा जोर उसी प्लेटोनिक दर्शन में अपचयित होता है जो प्रतिगामी पितृसत्ता का आधार है।
पुतुल की यह कबिता फिर भी ज्यादा अच्छी है क्योंकि यहाँ कम से कम यह आशय सफलता पूर्वक सम्प्रेषित हो रहा कि स्त्री को महज देह मन समझो

निर्मला के कविता आदिवासी लड़कियो के बारे में बहुत पावरफुल है ।यहाँ आदिवासी स्वर मुखर और सटीक ढंग से न्यस्त है। यह महाश्वेता देवी , मनमोहन पाठक जैसे दिकू गेज से पैदा हुए स्टिरियोटाइप का सशक्त विरोध करती कविता है । यह तस्वीर के यथार्थ हिस्से को देखने का प्रस्ताव है लेकिन पहली कबिता आदिवासी स्त्रियां विडंबनापूर्ण ढंग से दूसरी कबिता का निषेध है । जिस स्टिरियो टाइप को तोड़ने के लिए दूसरी कविता में कवि प्रतिश्रुत है उसी को पहली में एंडोर्स करता है। आदिवासी स्त्रियां आज कलक्टर भी है दातुन भी बेचती है । रांची में हैं तो शिलांग में भी है। संताल है तो खासी भी है । पहली कविता का reductionism उसके प्रभाव को सीमित करता है।

प्रदीप मिश्रा:-
अपनी अपनी समझ है। मैं आपकी व्याख्या से एक दम सहमत नहीं हूँ। कविता हर पाठक में अपने तरीके से खुलती है। रामचंद्र शुक्ल के बारे में आपने जो लिखा है। वह एक भरम है।

आलोक बाजपेयी:-
देह और मन प्रथक नहीं है।
रामचंद्र शुक्ल के बारे में फ़क़ीर का जो मत है वह पूरी तरह खारिज योग्य नहीं है। हिंदी की शुरूआती आलोचना में वे महत्त्वपूर्ण जरूर हैं लेकिन उनकी सीमाएं भी स्पष्ठ हैं और वे काटी जानी चाहिए।
वही मैं कहना चाह रहा था कि मन और देह पृथक नही है ।जो निर्मला कहना चाह रही समझ रहा लेकिन वे इसे ठीक से आर्टिकुलेट नही कर पाई हैं। कवि भाषा का कारीगर होता है । उसकी बुनाई में रेशे रेशे से फर्क पड़ता है । एक एक हर्फ़ मायने रखता है ।ऐसे में शब्द के सही चुनाव से कविता बेहतरीन बन सकती थी

जय:-
देह की जगह वस्तु या commodification सही पदबंध होते । देह तो पवित्र है उसकी अपनी गरिमा है । कालिदास कहते है -शरीर अद्यम खलु धर्म साधनम्। देह का निषेध स्त्री को नर्क का द्वार समझने तक जाता है।लेकिन यह निर्मला जी के गलत articulations के कारण ज्यादा है , पोलिटिकल करेक्टनेस के कारन कम

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