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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

31 मार्च, 2019

परख चौवालीस

कतरा-कतरा पिघलता है दिन!
गणेश गनी

हमारे समाज की यह भी कितनी बड़ी विडम्बना है कि सामाजिक बन्धनों, पारिवारिक जिम्मेदारियों, लैंगिक भेदभाव आदि के चलते कितनी महिलाओं के सपनें और शौक चकनाचूर हो जाते हैं। जीवन बीत जाने के बाद पता चलता है कि अरे मैं तो चित्रकारी भी कर सकती थी, मैं तो  गा सकती थी, मैं तो कविता लिख सकती थी। बहुतों को अवसर ही नहीं मिल पाता। बहुत कम हैं जो अपनी हॉबी को जी रही हैं। कवयित्री प्रियंका पांडेय ने लिखा है-


प्रियंका पाण्डेय


उम्र के बेहद संजीदा
और एकरस समतल मन की जमीन पर
रोटियां
गोल बेलने की जद्दोजहद में
पीछे छूट गए कहीं
अल्हड़ मन के अनगढ़ सपने।

कवयित्री कहती है फिर भी कि नई कोंपलों को मिला जीवन चलते रहना चाहिए और मिट्टी में मिला देने चाहिए जो पीले पत्ते झड़ जाते हैं ताकि जीवन की निरंतरता बनी रहे।
प्रियंका कहती हैं कि रोज़ गलियारों से गुजरता है दिन कभी सुस्त कदमों से कभी वक्त से बहुत तेज-

कतरा कतरा पिघलता है दिन
लम्हा लम्हा ढलता है दिन
बंद आंखों के चंद ख्वाब की तरह
रोज ही बनता बिगडता है दिन
किसी भटके मुसाफिर की तरह
रोज उन्हीं गलियारों से गुजरता है दिन

तमाम पल फिर गिनता है दिन
हर पहर छुडा लेता है हाथ
बारी बारी से
फिर भी मुस्कुराता टहलता है दिन
यूं ही तो नहीं गुजर जाया करता।

हर लोक की अपनी कहावतें हैं, अपनी कथाएं हैं। चलते-चलते पहले आप एक कथा सुनो और फिर कवि की कविताएँ पढ़ना। आप पूछ सकते हैं कि कथा क्यों सुनें। तो आप सीधे कविता पर चले जाना, यदि जा पाओ तो। पर एक बात बताऊं, यह लोककथा है और लोककथाओं में सच्चाई होती है! बाकी तो आपकी मर्जी।
एक बार की बात है। एक पहाड़ी गांव के एक घर में एक बहुत बूढ़ा व्यक्ति रहता था। जैसे जैसे उसके हाथ-पांव काम के नहीं रहे, वैसे-वैसे घर में उसका महत्व भी दिन प्रतिदिन कम होने लगा। उसे घर वाले अब बोझ समझने लगे। कहते हैं कि एक दिन उस बूढ़े के बेटे ने उसे दूर घने जंगल में फैंक देने का निर्णय लिया। जैसे ही आधी रात हुई, बेटे ने बूढ़े बाप को किल्टे में डाला और पीठ पर उठाकर चलने लगा। पास ही सोए छोटे बच्चे की नींद खुल गई।
उसने पूछा, पिताजी आप दादा को कहां ले जा रहे हैं?
बहुत समझाने पर भी बच्चा नहीं माना और साथ चलने की ज़िद्द कर बैठा।
गांव से दूर और वीरान घने जंगल में पहुँचकर उसने किल्टा पीठ से उतारा और वहीं छोड़कर लौटने लगा तो बच्चे ने पूछा, पिताजी आप दादू को यहां क्यों छोड़ रहे हैं? उन्हें कोई जानवर खा जाएगा।
पिता ने कहा, बेटे जब कोई बूढ़ा हो जाता है तो उसे ऐसे ही जंगल में छोड़ देते हैं। चलो, अब हम निकलें यहां से।
पिताजी किल्टा तो साथ ले चलो।
नहीं बेटा, इसकी अब ज़रूरत नहीं है।
नहीं पिताजी, इसकी ज़रूरत है, जब आप बूढ़े होंगे तो मैं आपको इसी में लाऊंगा इधर जंगल में फैंकने।
कहते हैं कि उस रात नन्हें बालक की बात सुनकर एक पिता का हृदय परिवर्तन हुआ और वह अपने बूढ़े पिता को घर वापिस लाया।
प्रियंका रिश्तों को बहुत अहमियत देती हैं, ख़ासकर अपनी माँ से उनका लगाव बहुत गहरा है।

तुम थीं
तो उदासी से घिरे बेरंग मन को
जादू से कभी इंद्रधनुष
कभी तितलियों से रंग लेकर
हौले से पीठ थपक
जाने कब रंग जाया करती थीं

आगे की पंक्तियों में इस प्रेम की अभिव्यक्ति देखें-

घड़ी की सुइयां चली हैं
कैलेंडर बदले हैं
पर
तुम अब भी वहीं हो

सपनें अच्छे लगते हैं मगर सपनों की नींव मजबूत होनी चाहिए, वरना बिखरने का डर रहता है-

अपने हिस्से की हवा और पानी
सपनें एक मुट्ठी सुख लेकर
सहलाते हैं भविष्य का माथा
पर चकनाचूर हो जाते हैं
सच्चाई के पत्थरों से टकराकर
मंजिल तक कहां ले जा पाती हैं
छिछले पानी की नावें।

रिश्ते बहुत नाज़ुक तो होते ही हैं, साथ में उन्हें निभाना तो उससे भी कठिन होता है। प्रियंका रिश्तों की अहमियत जानती हैं और उन्हें गहरे तक जाकर महसूस भी करती हैं-

ओस की बूंदों की तरह नाजुक
खिल उठते हैं थोडी सी नमी पाकर
और खो देते हैं समूचा अस्तित्व
थोडे ही ताप से
हम अक्सर सोचते हैं
इन्हें मुटठी में कैद करके
कि बांध लिया हमेशा के लिए
पर कब भाप बन उड़ जाते हैं
पता ही नहीं लगता

अपनी मंजिलो की तलाश में
हम भी निकल गए बहुत दूर
याद तो बहुत आई
पर वक़्त कहाँ था।

कवयित्री की सम्वेदनाएं उसकी कविता में स्पष्ट झलकती हैं। मुश्किल दौर में भी अपने लिए कुछ पल खुशी ढूंढ लेना भी एक कला है-

लिखना तो था
फूल पत्ती चाँद तारे हवा
रौशनी जुगनू ख्वाब
और जाने क्या क्या
पर
हवाओं में उड़ते विचरते भी
ज़मीन तो सख्त ही हुआ करती है
मौन हो जाते हैं शब्द
सिसकती हैं संवेदनाएं

वहीं कहीं से छनकर
कोई किरण इंद्रधनुष सजा
कह उठती है
आ ज़िन्दगी
कुछ पैबंद सी लेते हैं
घडी भर ही सही थोड़ा तो
जी लेते हैं।
०००





गणेश गनी

परख तिरयालिस नीचे लिंक पर पढ़िए



कुछ मुश्किल से बिताई गई रातें!

गणेश गनी


https://bizooka2009.blogspot.com/2019/03/blog-post_24.html?m=1



1 टिप्पणी:

  1. 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
    निश्चित ही अत्यंत मार्मिक भाव के साथ ही सहज बोध है उपरोक्त बातो में

    मानव को मानवता का ज्ञान सिखाती लोक कथा का पात्र अबोध बालक ही हो सकता है

    उस सहज बालक की तरह ही आप को भी सदा पाया है
    सहज, निश्छल

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