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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 मार्च, 2019

परख इकतालीस

वे कौन लोग हैं, जो सिर्फ लौटते हैं वसंत में!

गणेश गनी


पढ़ने की प्रक्रिया तो बाद में चली, उससे पहले लिखा गया, लिखने से पहले अक्षर खोजे गए, अक्षर खोजने से पहले बोलना सीखा गया और बोलने से पहले संकेतों को समझा गया। इस पूरी प्रक्रिया में युगों लग गए। संकेतों को पत्थरों पर उकेरना और फिर धीरे धीरे लिपियों का निर्माण होना कोई साधारण बात नहीं है। पढ़ने तक पहुँचने का सफ़र बेहद रोचक और रोमांचक रहा होगा, इसलिए कवि अखिलेश्वर पांडेय कहते हैं, अदब से पढ़ना-


अखिलेश्वर पाण्डेय


हर्फ-हर्फ पढ़ना
हौले से पढ़ना
पढ़ना मुझे ऐसे
जैसे चिड़िया करती है प्रार्थना
पढ़ा जाता है जैसे प्रेमपत्र
जैसे शिशु रखता है धरती पर पहला कदम
कोई घूंघटवाली उठाती है पानी से भरा घड़ा
स्पर्श करती है हवा फूलों को जैसे
जैसे चेहरे को छूती है बारिश की पहली बूंद
दुआ में उच्चरित होते हैं अनकहे शब्द जैसे

चिड़िया, प्रेमपत्र, स्त्री, बच्चा, फूल, बारिश और दुआ
इन सबमें मैं हूं
इनका होना ही मेरा होना है
शब्द तो निमित मात्र हैं
जब भी पढ़ना
अदब से पढ़ना
पढ़ना ऐसे ही
जैसे पढ़ा जाना चाहिए।

पढ़ने के लिए केवल किताबें ही नहीं होती हैं, शिलाएं भी होती हैं, ताम्रपत्र भी होते हैं, चेहरे भी होते हैं, मन भी होते हैं और आँखों का तो कहना ही क्या! कभी-कभी बोलना और सुनना भी वो काम नहीं कर पाता जो अ-बोला और अ-सुना कर देता है। अखिलेश्वर कहते हैं-

सुना मैंने तुम्हें
पर वैसे नहीं
जैसे तुम कहना चाहती थी

जब तुम बोल रही थी
मैं सुन नहीं पाया वह
जो तुम कहना चाहती थी।

एक बोध कथा यहां आप भी सुने, यदि पहले सुनी है तो भी सुने क्योंकि हम हमेशा सुनकर भुला देते हैं और कभी अमल नहीं करते-
एक राजा के विशाल महल में एक सुंदर वाटिका थी, जिसमें अंगूरों की एक बेल लगी थी। वहां रोज एक चिड़िया आती और मीठे अंगूर चुन-चुनकर खा जाती और अधपके और खट्टे अंगूरों को नीचे गिरा देती। माली ने चिड़िया को पकड़ने की बहुत कोशिश की पर वह हाथ नहीं आई। हताश होकर एक दिन माली ने राजा को यह बात बताई। यह सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ। उसने चिड़िया को सबक सिखाने की ठान ली और वाटिका में छिपकर बैठ गया। जब चिड़िया अंगूर खाने आई तो राजा ने तेजी दिखाते हुए उसे पकड़ लिया।
जब राजा चिड़िया को मारने लगा, तो चिड़िया ने कहा, 'हे राजन, मुझे मत मारो। मैं आपको ज्ञान की चार महत्वपूर्ण बातें बताऊंगी।'
राजा ने कहा, 'जल्दी बता।'
चिड़िया बोली, 'हे राजन, सबसे पहली बात, हाथ आए शत्रु को कभी मत छोड़ो।'
राजा ने कहा, 'दूसरी बात बता।'
चिड़िया ने कहा, 'असंभव बात पर भूलकर भी विश्वास मत करो और तीसरी बात यह है कि बीती बातों पर कभी पश्चाताप मत करो।'
राजा ने कहा, 'अब चौथी बात भी जल्दी बता दो।'
इस पर चिड़िया बोली, 'चौथी बात बड़ी गूढ़ और रहस्यमयी है। मुझे जरा ढीला छोड़ दें क्योंकि मेरा दम घुट रहा है। कुछ सांस लेकर ही बता सकूंगी।'
चिड़िया की बात सुन जैसे ही राजा ने अपना हाथ ढीला किया, चिड़िया उड़कर एक डाल पर बैठ गई और बोली, 'मेरे पेट में दो हीरे हैं।'
यह सुनकर राजा पश्चाताप में डूब गया। राजा की हालत देख चिड़िया बोली, 'हे राजन, ज्ञान की बात सुनने और पढ़ने से कुछ लाभ नहीं होता, उस पर अमल करने से होता है। आपने मेरी बात नहीं मानी। मैं आपकी शत्रु थी, फिर भी आपने पकड़कर मुझे छोड़ दिया। मैंने यह असंभव बात कही कि मेरे पेट में दो हीरे हैं फिर भी आपने उस पर भरोसा कर लिया। आपके हाथ में वे काल्पनिक हीरे नहीं आए, तो आप पछताने लगे।
उपदेशों को जीवन में उतारे बगैर उनका कोई मोल नहीं-

चिड़िया हरती है
आकाश का दुख
उसके आंगन में चहचहाकर
भर देती है संगीत
सूने मन में

बादलों को चूमकर
हर लेती है सूरज का ताप
बारिश होने पर
तृप्त होती है चिड़िया

सुस्त पड़ते ही सूरज के
लौट आती है घोसले में
चोंच में दाने भरकर
खिलाती है बच्चों को
सिखाती है बहेलियों से बचने का हूनर
पढ़ाती है सबक
पंख से ज्यादा जरूरी है हौसला

चिड़िया प्रेम करती है पेड़-पौधों से
करती है प्रार्थना - न हो कभी दावानल
सलामत रहे जंगल
बचा रहे उसका मायका
वह जानती है
उड़ान चाहे जितनी लंबी हो
लौटना पेड़ पर ही है
इसका बचे रहना जरूरी है
मां-बाप की तरह।

ख्वाब देखना चाहिये और कहते हैं कि बड़ा ख़्वाब देखना चाहिए। इतना बड़ा कि सुनने वाला डर जाए। कवि ने भी एक ख़्वाब देखा है-

उम्मीदों की रोशनी के महीन धागों से
कुछ ख्वाब बुने हैं मैंने
तुम सहमत हो जाओ तो
रोशन हो दिल का जहां।

कुछ ही कवि हैं जो प्रेम कविताएँ डूबकर लिखते हैं। प्रेम में डूबना होता है तो ज़ाहिर है प्रेम कविता भी उतनी ही निश्छल डूब मांगती है-

स्त्री जब प्रेम में संलग्न होती है
हमेशा आंखें बंद कर लेती है
वह जानती हैं
अंधेरे में बाकी सभी चीजें खो जाती हैं
सिर्फ  होश बचता है
आंखें हर चीज को सार्वजनिक बना देती है।

कवि ने एक सवाल पूछा है उन लोगों के बारे में कि वे लोग कौन हैं जो केवल सुख में आते हैं और दुःख में कभी नहीं आते। यह कविता वर्तमान में हमारी व्यवस्था पर ज़रूर लागू होती है। मतदान के समय लौट आने वाले प्रजा के दुःख में दूर दूर तक नज़र नहीं आते-

वे कौन लोग हैं
जो सिर्फ लौटते हैं वसंत में
अमलताश पर रिझते हैं
टेसू पर हो जाते हैं फिदा
चहकते हैं फूलों के बाग में
आम की मंजरी निहारते हुए
करते हैं कोयल के कूकने का इंतज़ार
वे कौन लोग हैं!

अखिलेश्वर पाण्डेय की एक कविता आप ज़रूर पढ़ें और सोचें कि इस इस कविता पर कोई क्या लिखे-

एक दिन
मैं तुम्हारे शब्दों की उंगली पकड़ कर
चला जा रहा था बच्चे की तरह
इधर-उधर देखता
हंसता, खिलखिलाता
अचानक एक दिन
पता चला
तुम्हारे शब्द
तुम्हारे थे ही नहीं
अब मेरे लिए निश्चिंत होना असंभव था
और बड़ों की तरह
व्यवहार करना जरूरी।

गांव और शहर का फ़र्क जानने के लिए दोनों जगहों पर जीना आवश्यक है। एक जगह बैठकर दूसरी जगह के बारे काल्पनिक लिखना बेमानी होगा। अखिलेश्वर की यह कविता पढ़ने पर एक गहरे एहसास की अनुभूति होती है-

तुम मेरे भीतर
एक शहर तलाशती हो
अपनी परिकल्पनाओं का महानगर
अपनी अभिरूचियों की खातिर
शायद
वह कभी तुम्हें
मिल भी जाए
और तुम उसमें प्रवेश कर जाओ
मेरा हाथ पकड़ कर
लेकिन
मैं तुम्हारे भीतर
थोड़े से गांव की तलाश में हूं।
  ०००


गणेश गनी


परख की पिछली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए

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