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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 मार्च, 2019

परख: चालीस


उसके सपनों में बहती है एक नदी!

गणेश गनी

ग्रीष्मकाल में तो यह घना जंगल किसी वरदान से कम नहीं होता। इसमें से होकर गुजरना सारी थकान और प्यास मिटा देता। भूख का तो पता ही नहीं लगता था। पहले-पहले शायद लगती भी थी, जब छुट्टी के बाद घर लौटने का समय होता था। कभी-कभी जंगली फलों के झाड़ और पेड़ मिलने पर हम बच्चे उनपर टूट पड़ते थे। बाद के दिनों में आदत पड़ गई और शायद भूख भी मर चुकी थी। शाम को पांच बजे घर पहुंचते ही रोटी मिलती भर पेट। सुबह आठ बजे खाना खाकर फिर निकल पड़ते। चार मील लम्बी पगडण्डी, करीब-करीब दो मील तो घने देवदार के जंगल में से होकर गुजरती है।



रंजना मिश्र



एक दिन मास्टर जी ने शाम को चार बजे उस वक्त घोषणा की जब हम पहाड़े दोहराते हुए घंटी की आवाज का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे कि कल शौर गांव वाले सुबह आती बार सूखी लकड़ियां लेते हुए आएंगे और उनके क्वार्टर में पहुँचाकर फिर दूसरे रास्ते से नीचे उतर कर स्कूल पहुंचेंगे। हम बच्चे खुश हो गए कि मास्टर जी ने कोई काम दिया। यह समय प्रतियोगिता जैसा होता था कि कौन अच्छी और अधिक लकड़ियां लाएगा ताकि मास्टर जी की नज़रों में अच्छी छवि बन जाए और मार न पड़े। स्कूल एकदम चनाब के किनारे स्थित है। चनाब के बहते पानी की मधुर आवाज आज भी कानों में डेरा डाले बैठी है। कुछ यादें छाती से पक्की चिपकी बैठी हैं। यह चनाब भी न बड़ी अजीब नदी है। इसके पानी में गज़ब का रोमांच है। कितनी प्रेम कहानियां इधर ही परवान चढ़ीं! पर अब कौन यकीन करेगा इन प्रेम कहानियों पर! रंजना मिश्रा ठीक कहती हैं-

प्रेम कहानियाँ पसंद हैं मुझे
इनके पात्र कई दिनों , हफ्तों और महीनो मेरे साथ बने रहते हैं

यह दुनिया अनंत तक जी सकती है
सिर्फ़ प्रेम की उंगली थामकर
पर इन दिनों मेरा यकीन
अपने काँपते घुटनों की ओर देखता है बार बार
हम एक दूसरे की आँखों से आँखें नहीं मिला पाते
सचमुच-
अपनी उम्र और सदी के इस छोर पर खड़े होकर
प्रेम कहानियों पर यकीन करना वाकई संगीन है,
ख़ासकर तब-
जब आप पढ़ते हों रोज़ का अख़बार भी !

अगली सुबह हम उत्साहित बच्चे तेजी से आगे बढ़ते गए। जंगल पार करते ही एक छोटा सा पानी का नाला बहता है, कोई एक मील पुर्थी गांव से पहले और इसी गांव में मास्टरजी का क्वार्टर था। गांव से लगभग आधा मील नीचे चन्द्रभागा के किनारे टड नामक स्थान पर था मिडल स्कूल। इस नाले के किनारे अपनी पीठ से किताबों के झोले उतार कर रखे और लगे चुनने सूखी-सूखी लकड़ियां। उसने देखा कि एक झाड़ के नीचे बहुत सारी सूखी लकड़ियां हैं। वह दौड़कर पास गया और ज़ोरशोर से उन लकड़ियों को चटकाते हुए तोड़ने लगा। अचानक कुछ भिनभिनाने की आवाज़ आई, जैसे कोई मधुमक्खियों का झुंड हो। इतने में ततैयों ( जंगली मधुमक्खी ) का झुंड बाहर निकला और उसके करीब आ गया। वह तुरन्त पीछे मुड़ा भागने के लिए। परन्तु तब तक उनके डंक शरीर पर पड़ना शुरू हो चुके थे। वह चिल्लाते हुए भागने लगा। एक दो लड़कों ने अपने ऊनी कोट उतारे और उन्हें लहराते हुए मधुमक्खियों पर वार करते गए। एक लड़के ने अपने कोट से उसे ढक दिया। बाकी बच्चे कह रहे थे कि नाले के पानी में लेट जाओ। ख़ैर यह नौबत नहीं आई हम लोग अब थोड़ी दूर पहुंच गए थे। उसे जंगली मधुमक्खियों ने सिर, चेहरे और पूरे शरीर पर कई जगह डंक मारे थे। दर्द से बुरी हालत हो गई थी। चेहरा सूज गया और सूजन से आंखें लगभग बन्द हो गई थीं। हम सब ने लकड़ियों के गट्ठर उठाए और चल पड़े। उसे बुखार आ रहा था, मगर उन दिनों अध्यापकों से बहुत डरते थे तो बुखार और दर्द सहने की ताकत वैसे ही आ गई। मास्टर जी ने इस घटना को बहुत हल्के में लिया बल्कि डांट दिया कि ध्यान से काम क्यों नहीं करते। हम स्कूल पहुंचे। दिन भर उसे दर्द ने सताया। परंतु इस बात की तसल्ली थी कि मास्टर जी ने बहुत गुस्सा नहीं किया और मारा भी नहीं। छुट्टी कहाँ मिलती थी। घरवालों को ख़बर कैसे भेजते और यह तो रिवाज़ ही नहीं था। चार बजे जब छुट्टी हुई तो फिर चार मील चलकर घर पहुंचे। बस्ता उतारा और मां से बात की। मां ने कुछ देसी इलाज किया, याद नहीं। न शिकायत, न रिपोर्ट, न गुस्सा, न झगड़ा। इस बीच धीरे-धीरे रात ढलती है।                 
इन पहाड़ों के पार एक ऐसी ही एक रात बीत रही है और राजमहल में सब कुछ ठीकठाक चल रहा है, परंतु कुछ ऐसा भी सोचा जा रहा है, जिसे आने वाला समय विस्मय से देखता है और दुनिया अचम्भित रह जाती है। कवयित्री रंजना मिश्रा क्या कहती हैं, ज़रा देखें तो-

सुनो गौतम
याद है न तुम्हे
वह घुप्प अँधेरी रात
जब तुम,
मुझे गहरी नींद में
मीठे सपनों और हमारे नन्हे के साथ
अकेला छोड़ गए थे
संसार के सारे दुखों से मुक्ति का मार्ग ढूँढने.

और अब –
जब तुम लौट आये हो
संसार के दुखों से मुक्ति का मार्ग ढूंढकर
कृशकाय और बुद्ध होकर
मैं अब भी
उन्ही राजसी वस्त्रों में तुम्हारे सामने खड़ी हूँ

एक तपस्या तुमने चुनी
जिसे दुनिया जानती है
एक तपस्या मेरे हिस्से आई
क्या तुम उस से भिज्ञ हो ?

तुम्हारी तपस्या के पास
मेरी तपस्या के लिए कोई ज्ञान है ?

रंजना ठीक कह रही हैं कि जो तपस्या लोकलाज और सामाजिक तानेबाने में उलझी होने के बावजूद भी एक स्त्री करती है, उसे उसका पूरा श्रेय कभी नहीं मिलता।
उसका अस्तित्व पुल पर औरत जैसा ही है-

इस बार
प्रेम करूँगी तो डूबकर करूँगी
नहीं रखूँगी कुछ भी अपना
बस सौंप दूँगी सब कुछ
निडर झूल जाउंगी हवा के हिंडोले में
घाटियों से फिसलूंगी
ऊपर और ऊपर उड़ूँगी
अपने भीतर लगी सारी सांकलें खोल दूँगी

कई जन्मों से
प्रेम को रोक रखा है
मैने अपने भीतर
कोख और कुल की चौखट में क़ैद
प्रेम की परिभाषाएं बूझती आई हूँ
उनपर अमल किया है
देखो ना चलते चलते
पाँवों पे छाले उभर आए है
खून रिसता है इनसे
पुल तक आ पहुँची हूँ
सदियों से इसी पुल पे खड़ी
नीचे पानी की गहराई नापती
सोच में डूबी
तुम्हारा इंतज़ार करती हूँ

नही बस और नहीं
अब जाना ही है मुझे
लहरें अपने पाँव पर महसूसनी हैं
बालों को भिगोना है
उमड़ती गरजती बारिश में।

कवयित्री के अनुभव कहते हैं कि चाहे कुछ भी कर लो, बदलेगा कुछ भी नहीं। पर एक चींटी का मनोबल और परिश्रम उसे आश्वस्त करता है-

जानती हूँ
कुछ नहीं बदलेगा

शब्दों की बेतरह भीड़ में
मेरे शब्द
अजन्मे बच्चे की अनसुनी चीख बनकर
असमंजस के घूरे में फेंक दिए जाएँगे
इनका मूल्यांकन भविष्य की कोई किताब नहीं करेगी

फिर भी
वह चींटी भाती है मुझे
जो इतिहास, समय और असमंजस से परे थे
विश्वास की उंगली थामे
मौन
अपनी कतार बनाती चलती है।

पेड़ों का भोलापन अपने शब्दों में कवयित्री ने अनूठे तरीके से उकेरा है। एक रचनाकार का दृष्टिकोण ऐसे ही होना चाहिए। सम्वेदनशीलता और प्रेम की भावना उसे अन्यों से अलग करता है-

पेड़ भी सोते हैं कभी
अपनी ही टहनियों से
आँखें ढककर
अपनी जड़ें समेटकर
अंजान बन जाते हैं।

दुनिया में औरतें हमेशा से ही अलग अलग तरह से शोषित और प्रताड़ित होती रही हैं। पुरुष लेखकों ने भी स्त्री विमर्श केवल दिखावे के लिए ही किया। भीतर से वह शोषक ही रहा-

स्त्री विमर्श करते
तुम्हारी पुरुष आँखें
छूती रहती हैं
मेरे वक्ष और नितंब
और मेरी आँखें
तुम्हारे चौड़े ललाट
और पैरों के लगातार हिलने में
स्त्री विमर्श का खोखलापन
भाँप लेतीं हैं!
मुझे याद आता है
भीड़ भरी बस का वह अधेड़
जो अक्सर
लड़कियों के बगल बैठने की जगह ढूँढा करता था!

रंजना मिश्रा का एक कविता बहुत कुछ कहती है। इस कविता को ठहरकर पढा जाना चाहिए और फिर कई कई दिन सोचना चाहिए-

ईश्वर को
हमने ठीक उसी समय
सूली पर चढ़ाया
जब उनके साथ चहलकदमी करते, बतियाते
हमें गढ़ने थे
शब्दों के नए अर्थ.
सुकरात को ज़हर का प्याला
ठीक उसी वक़्त भेंट किया
जब
ईश्वर के साथ हुई अधूरी चर्चा
हमें आगे बढ़ानी थी
इतिहास के प्याले को
भविष्य की शराब से भरकर
धरती
और अपनी स्त्रियाँ
हमने ठीक उसी वक़्त
योद्धाओं और उनकी सेनाओं के हवाले की
जब धरती वसंत के आगमन की प्रतीक्षा में थी
और स्त्री गर्भ के पाँचवे महीने में
गर्भ के शिशु ने
अभी करवट बदलना शुरू ही किया था

हमने
प्रेम और शब्दों के अर्थ
अपनी लालसा और भय की भेंट चढ़ाई
और अपनी आत्मा की
कालिख भरी सीढ़ियाँ
उतरते चले गए
ईश्वर के साथ हुए अपने सारे विमर्श भूलकर
हमने इतिहास में योद्धाओं के नाम अमर कर दिए
हमने इंसान शब्द के अर्थ को
ठीक उसी वक़्त अपशब्द में बदला
जब सूली पर चढ़े ईश्वर ने
अपनी आख़िरी सात पंक्तियों में से
पाँचवी पंक्ति में कहा
" मैं प्यासा हूँ"
और छठी पंक्ति में ईश्वर ने विलाप किया
"यह ख़त्म हुआ"
ईश्वर की मृत्यु को तीन दिन बीत चुके हैं
अब हम निर्द्वन्द्व हैं।

नदियों को बचाना इंसान के बूते की बात नहीं है। यह कहना ही बकवास लगता है कि हमने नदियों, जंगलों, वन्य-प्राणियों को बचाया है। दरअसल इंसान केवल इतना भर कर सकता है कि इनका शोषण न हो। इन्हें प्रदूषित न करे बस। बाकी प्रकृति अपने आप अपनी देखभाल करती है। बाघ पिंजरे में डालने से नहीं बचेंगे। यदि उन्हें बचाना है तो जंगल न काटें। केवल इतनी मेहरबानी हो। पेड़ स्वयं अपना बीज बिखेरते हैं और जंगल बसाते हैं-

उनके सपनों में बहती है एक नदी
अपने तमाम किनारे समेटकर
सहमी हुई
पुकारती है स्वप्न में उन्हें
वे पहचानते हैं यह पुकार
और जगह देते हैं इसे
जैसे सूरज जगह देता है छाँव को
और चाँद बिछ जाता है ओस के लिए
उन्हें देखकर मैने जाना
कविता हर बार शब्दों की मोहताज़ नहीं होती
और सपनें
कविता की हदों से दूर भी जिया करते हैं।
 ००


गणेश गनी

परख की पिछली कड़ी नीचे पर पढ़िए

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रंजना मिश्र


रंजना मिश्र की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए


https://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/blog-post_64.html?m=1


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