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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 फ़रवरी, 2019

         
कहानी 


मरी हुई नीयत के लोगों की दुनिया

                                                         
बद्री सिंह भाटिया


 विक्रमार्क ने अपनी पोशाक बदली और नगर दर्शन के लिए चल दिया। मन में काफी दिनों से विचार चल रहा था कि अपने शासन में लोगों का हाल जानना चाहिए। यह व्यक्तिगत रूप से भी देखा, समझा जाए तो ज्यादा ठीक होगा क्योंकि जो स्थितियाँ मन्त्रियों, मुँह लगे व्यक्तियों द्वारा बताई जाती थी वे एक पक्षीय अथवा उसकी पसन्द या इच्छा की ही होती थी। पत्रकार भी वही कुछ छाप रहे थे जो विरोधियों को भड़काने में ज्यादा कारगर होता था। जन सामान्य की भीतर की बातें जानना भी जरूरी था। यह विचार उसके मन में कई दिनों से कुलबुला रहा था। कहीं भीतर वह समझ रहा था कि वह घिर सा गया है और कर कुछ नहीं पा रहा। इसलिए..... उस दिन उसने अपने साथ एक विश्वसनीय सभासद को भी ले लिया था जो उसके बहुत रत्नों में से एक था और बहुत वफ़ादार भी।




बद्री सिंह भाटिया




वे चलते गये। बड़ी सड़क से छोटी। छोटी से मुहल्लों की तंग गलियों में और फिर बड़ी सड़क से एक ओर को निकलती सीधी सड़क पर। इस सड़क पर सन्नाटा था। मगर सामने एक विशाल भवन भी था। भवन की प्रत्येक मंजिल से तेज रोशनी बाहर के अन्धकार को मिटाने में सक्षम थी। भवन के भीतर से आ रही रोशनी से आस-पास ठीक दूरी तक चाँदनी सी रोशनी बिखरी हुई थी। जिस सड़क पर वे चल रहे थे उसके दोनों ओर तराशी गई झाड़ियाँ थीं। सुंदर लग रही थी। बीच-बीच में  दोनों ओर खम्बे थे जिनके सिरों पर भी अण्डाकार टोकरियों के भीतर बल्व जल रहे थे। विक्रमार्क खुश हुआ। बुदबुदाया, ‘काफी सम्पन्नता आ गई है।’ सभासद को बुदबुदाना तो सुना मगर शब्द स्पष्ट समझ नहीं आए। उसने पूछा भी कि क्या कहा, जनाब?

मगर विक्रमार्क ने उत्तर  नहीं दिया और आगे चलते रहने का ईशारा किया। वे आगे बढ़े। भवन के पास एक और भवन। उस भवन के दूसरी ओर एक और भवन। इन भवनों के बाहर खुला मैदान। मैदान में गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ। रंगीन जलती बिजली की लड़ियाँ ही लड़ियाँ। उसे लगा यहाँ कोई विवाह हो रहा होगा। परन्तु उसके लिए तो पण्डाल होना चाहिए था। कानफाड़ू संगीत होना चाहिए था। मगर ऐसा कुछ नहीं। वे आगे बढ़े। एक ओर एक छोटी सी रेहड़ीनुमा दुकान थी। यह पनवाड़ी था। वे पनवाड़ी के पास जाकर खड़े हो गये। एक विशिष्ठ जगह सामान्य आदमियों को सामने देख पनवाड़ी ने पूछा-‘कौन भइया? क्या चाहिए?’
‘तुम इतनी रात गए तक दुकान में ही हो?’ विक्रमार्क ने पूछा। उसने पनवाड़ी के प्रश्न का प्रत्युत्तर नहीं दिया।
‘तुमसे मतलब! ये मेरा धन्धा है। पान खाओगे?’
‘हाँ! ले लूँगा।’ विक्रमार्क ने उसके बारे में जानने की गर्ज़ से कहा।
‘कितने का?’





‘मतलब?’
‘पैसे। कितने पैसे का। पाँच, पचास या सौ का?’ समझे। उसने अपने मुंह में रखे पान को जरा भीतर कर और गर्दन ऊपर कर फुफकारते  से कहा। ‘लग रहा है पहली बार आये हो?’ वह बुदबुदाया।
‘क्यों पान का तो एक ही रेट तय है न। इसमें कितने का क्या मतलब? और ये रेट जो तुम...।’ विक्रमार्क ने कहा।
‘नहीं! जिस पान की तुम बात कर रहे हो वह साधारण पान होता है। यहाँ साधारण नहीं मिलता। यहाँ तो पाँच सौ और हजार का भी मिलता है।’
‘उसमें क्या-क्या डालते हो ऐसा? पान, सुपारी, चूना, कत्था, लौंग इलायची खुशबू या कोई तम्बाकू कोई सोना भस्म तो नहीं डालते न!’ विक्रमार्क ने जिज्ञासा से पूछा।
‘भइया ये क्लब हैं। यहाँ अमीर लोग आए होते हैं। भीतर गाना-बजाना चला होता है। फिर रात के तीसरे-चैथे पहर जब वे भीतर से निकलते हैं तो उन्हें पान चाहिए होता है। उनके साथ आई नशे में धुत युवतियाँ कीमती पान की माँग करती हैं। इसलिए ये बनाना पड़ता है। कोई सौ का माँगता है कोई पाँच सौ का। लोग पैसे फेंकते नहीं, फूँकते हैं...क्या समझे?’
‘तुम क्या करते हो?’
‘मैं पहले पैसे पकड़ता हूँ और तब पान देता हूँ।’
‘अरे!’
‘हाँ!’ फिर उसे ध्यान आया कि ये भीतर कैसे आए? पूछा, ‘अरे! तुम तो साधारण आदमी हो। तुम्हें अन्दर किसने आने दिया? वहाँ कोई दरबान नहीं था?’ पानवाड़ी ने विक्रमार्क और सभासद की ओर ध्यान से देख कहा।
‘हाँ! नहीं, एक आदमी था। नशे में धुत। लुढ़का हुआ। इस तरह लेटा था कि उसका डण्डा उसी पर पड़ा था। हमने सोचा कि....चुंधियाती रोशनी देख मन किया कि आगे चलकर देखना चाहिए। इसलिए...।’ उसने बात बीच में छोड़ दी।
‘हूँऽ।... क्या करोगे?
‘क्या हो रहा है यहाँ इस समय?’
‘तुम्हें यहाँ की जिन्दगी का पता नहीं। मुझे भी ज्यादा नहीं मगर इतने वर्षों से यहाँ पान बेचते काफी पता लग गया है। यहाँ की दुनिया ही अलग हे।’
‘कैसी?’
‘तुम्हें नहीं पता। यहाँ आने के लिए सदस्यता का होना जरूरी है। या किसी का गेस्ट बनकर भी आया जा सकता है। तुम्हारे साथ कोई स्त्री भी होनी चाहिए। स्त्री मायने पत्नी या प्रेमिका। वैसे यहाँ ज्यादातर युवा जोड़े प्रेमी-प्रेमिका ही होते हैं। पति-पत्नी जो आते हैं जल्दी चले भी जाते हैं।’
‘प्रेमी जोड़े इतनी रात तक क्लब में? उनके घर में नहीं पूछा जाता कि इतनी रात...खासकर लड़कियों के बारे में।’
‘लड़कियों की ठीक कही। भीतर बाॅर गर्ल भी होती हैं। वे डान्स कर रही होती हैं-उनके साथ प्रेमी जोड़े भी नाच रहे होते हैं। फिर नशे में धुत एक दूसरे से चिपके जीवन का आनन्द ले रहे होते हैं।’
‘अच्छाऽ’
‘हाँ!’ पानवाड़ी ने पान लपेटते हुए कहा। ‘यहाँ की अलग दुनिया के अनेक किस्से हैं। एक बार तो भीतर गोली ही चल गई थी।’
‘वो कैसे?’
‘बस अमीरों के शोहदे। ...अपने ग्रुप में दारू पी रहा था एक। नाच भी रहा था। बीच में नशा कम हुआ तो वह दारू के काऊँटर पर आ गया। वहाँ दारू पीते उसकी नज़र एक अन्य ग्रुप की सुन्दर लड़की पर पड़ गई। वह उसके पास चला गया। सुना यह गया है कि अश्लील हरकतें करने लग गया। लड़की क्लब जरूर आई थी। यहाँ की तहज़ीव से भी वाकिफ़ थी मगर अपने को बचाए रखे थी। या उसका कोई प्रेमी वहाँ अलग नाच, झूम  रहा था। वह उस युवक की हरकतें बरदाश्त नहीं कर सकी। ....ये भी हो सकता है, वह उसे जानती भी हो। क्लब है, रोज-रोज तो ये आते ही हैं। अमीर है, पैसा पिता के पास बहुत है। काम कुछ नहीं है तो क्या करे? खर्च। समय काटने को क्लब....खैर!...।’
विक्रमार्क ने रोका, ‘ये यहाँ शराब में इतना खर्च कर रहे हैं, कहीं और कुछ...।’
‘अरे भइया, इनके पास किसी चीज की कमी नहीं है? अब रोज-रोज तो नहीं खरीद सकते कपड़े न।’
‘कहीं किसी पुण्य कार्य...।’
हंसा पनवाड़ी। ‘किस पुण्य की बात कर रहे हैं? पुण्य जब इनका बाप नहीं करता तब ये क्या करेंगे? इनमें से एक के बाप का मिल है। कपड़ा बनता है वहाँ। मजदूरों ने वेतन बढ़ाने की बात की तो...भइया तुम्हें याद होगा। अखबार तो पढ़ते ही होंगे। लाशें बिछवा दी थीं। पर पैसा नहीं बढ़वाया। तालाबंदी तक कर दी। मजदूर भूखे मरने लगे तब फिर सरकार ने दखल दिया तो कुछ बात बनी।’
‘सरकार कैसी चल रही है?’ विक्रमार्क के साथ आए सभासद ने पूछा।
‘ख़ाक चल रही है। कथनी और करनी में अन्तर होता है। जो वह वो लालकिले और रामलीला मैदान में बोला था, उस पर जरा भी अमल नहीं। झूठ; सरासर...बस बातों का हेरफेर था-अपने से पिछलों को ही गरियाता रहा। और अपनी पीठ थपथपाता रहा। और सुनो उसकी गलती। और देखो, जिन लोगों को जनता ने नहीं माना था। यूँ कहें, स्वीकार नहीं किया था उसने उन्हें मन्त्री बना दिया। एक को तो इतना बड़ा बना दिया कि जिनके पास उसे नतमस्तक होना था, उन्हें उसके पास हाजरी देने को मजबूर कर दिया।’
‘इसमें बुरा क्या है? वो उसको पसन्द है। काम के हैं...। फिर ये राजनीति...।’
‘खाक, काम के? उनसे भी ज्यादा ज्ञानवान लोग हैं। ये कमी नहीं है इस देस में।’ तुनक गया पनवाड़ी।
‘और क्या?’ सहनशील बने विक्रमार्क नेे कहा।
‘और क्या, अब पड़ौसी राज्यों से दोस्ती बढ़ा रहा है ताकि कोई खतरा न हो।’ बस यूँ ही चल रहा है, बेवकूफ सा!’ उसकी बात से सभासद तिलमिलाया। कुछ कहने को उद्धत हुआ मगर विक्रमार्क ने हाथ के इशारे से रोक दिया।
‘क्या करना चाहिए उसे?’








‘अरे! पैसा बचाना चाहिए। गरीब की सुरक्षा के लिए जो चैकीदार बनाए हैं, उन्हें पहरना चाहिए। वे लूट रहे हैं। इन अमीरों पर चेक लगाना चाहिए। ये तम्बाकू गुटखा पर बैन लगाने से नहीं होगा। इस खुलेआम शराबखोरी पर बैन लगाना चाहिए। ये जो नित हत्याएँ हो रही हैं, बलात्कार हो रहे हैं, इन्हें रोकना चाहिए। और....औरतों की तो कोई इज्जत ही नहीं रही। रोज कुछ न कुछ होता रहता है। रोज किसी न किसी लड़की...अखबार नहीं पढ़ते शायद।’ पनवाड़ी के माथे पर त्योरियाँ चढ़ गई।
विक्रमार्क कुछ आगे कहता, या वे कुछ पूछते, भीतर से एक जोड़ा निकला। सामने झूलता सा एक बड़ी कार की ओर गया। पुरुष के बगल में एक स्त्री थी। वह नंगी तो नहीं पर नंगी जैसी ही थी। मुश्किल से कार का दरवाजा खोला, फिर उस युवती को दूसरे दरवाजे तक ले गया। वापस आकर ड्राइविंग सीट पर बैठा-चलने से पहले अश्लील सी हरकत की और तेज गति से चला गया। विक्रमार्क ने पूछा-इसने पान नहीं लिया?
‘होश ही नहीं है। साथ में नशा जो है। डब्बल नशा। आगेे कहीं ध्यान आयेगा तो शायद लौटे या उधर ही कहीं....’
‘बड़ी चैड़ी गाड़ी है।’
‘पता भी है, एक करोड़ की है-बाहर से मंगवाई है।’
‘अरे! एक करोड़ की?
‘हाँऽ इतनी तो राजा के पास भी नहीं है। तभी तो कहा, गरीब को मजदूरी नहीं। किसान कर्ज में और....।’
‘किसान क्यों कर्ज में? वह तो...।’
‘खाक कमाता है? वह रिवाजों बल्कि बढ़ती रिवाज़ों के ताब तले दबा है। इन रिवाजों को निभाने में भारी खर्च होता है। भइया लोग छोड़ते नहीं। करो तो मुश्किल, न करो तब भी...लोगों को जुबान हिलाते समय थोड़े भी लगता है-कह दिया कुछ भी...आदमी गरीब है, पहलौठी की लड़की है, दहेज देने में दिक्कत। समधी भी कह रहा कि रहने दो पर लोग, रिश्तेदार कह देते हैं-नहीं! पहलौठी की लड़की है, पहला शुभ काम है, जी खोलकर देना है। कहाँ से लाये। बिरादरी कह देती है कि क्या मुश्किल है। बस.... कोई सुझा देता हैे कि साहूकार से लो तो कोई कहता है कि बैंक से ले लो। किश्तों में हटा देना। बस, अब हो गया न कर्ज। नहीं निबटा पाए तो...यही नहीं कई जगह लोगों के मुंह ही खुले हैं-उनका पेट तो भरता ही नहीं, अब क्या हो? ....आधे किसान तो जमीन के लिए कर्ज से कम अपने बच्चों के ब्याह के लिए कर्ज को न अदा करने से मर रहे हैं।...और इधर ये लोग, भई इनका तो भगवान ही मालिक है किसे कब मार दें, पता नहीं। इनकी शादी और जन्मदिन....तौबा-तौबा।’
विक्रमार्क ने लम्बी हूँ की। तभी साथ आए सभासद ने पूछा, ‘अरे! हाँ! उस गोली, जो भीतर चली थी, का क्या बना? आप कह रहे थे।’
‘हाँ! बस उनमें बात बढ़ गई। सुना है लड़की ने गलत हरकत पर चान्टा मार दिया। भइया, औरत सार्वजनिक तौर पर किया अपमान या हरकत बरदाश्त नहीं करती। बस...और इस पर गुस्साए युवक ने अपना अपमान मान कमीज के नीचे से रिवालवर निकाला और ठाॅयं...गोली चलते क्लब में सन्नाटा छा गया, कुछ लोगों की तो शराब उतर गई। वे भाग निकले, मगर उसकी एक सहेली वहीं खड़ी रही। फिर नीचे गिरी अपनी सहेली की ओर झुककर रोने लगी। और....।’ वह चुप हो गया था। कुछ सोचता या सामने गेट से निकलते किसी जोड़े को देखने लगा था।
‘....और...।’







‘और क्या, तब वही जो होता है। कानूनी प्रक्रिया।’
‘अरे! ऐसा हुआ?’
‘हाँ! तुम्हें नहीं पता? सारे अखबारों में खूब चर्चा था।’
‘अं हं! नहीं, नहीं।’ विक्रमार्क हाँ करने लगा था मगर साथ आए सभासद ने रोक दिया।
‘हाँ, कुछ, कुछ सुना है। चलो जी, अब....क्या...।’ उसने कहा।
‘जाने से पहले ये सुन जाओ, सुना है, वो शोहदा एक मन्त्री का लड़का है। अब कानून बनाने वाले के लड़के का क्या होना। दस साल हो गए हैं।’
‘नहीं कुछ होगा ही। कोर्ट ठीक न्याय करेगा।’ सभासद ने कहा।
‘खाक न्याय करेगा। कहते है, जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड। फिर कानून भी बिकता है। बड़ा वकील छोटे जज को कहाँ टिकने देता है।’
‘अरे! तुम अंग्रेजी जानते हो?’
‘भइया बी.ए. पास हैं, फस्र्टक्लास में । सिफारिश नहीं थी। नौकरी नहीं मिली तो ये काम कर दिया। यहाँ मैं आइ.ए.एस. से कम नहीं कमाता। बस ठिहआ जरा छोटा है। पर कार अपने पास भी ठीक है। तीन मंजिला मकान है मेरा।’
‘चलो जी, चलो।’ सभासद अधीर हुआ बोला।
‘क्यों बाबू? इतने उतावले क्यों हो? भीतर जाने की जुगत में हो तो, एक दो कमरों के सीन ही देख आओ। दुनिया का पता चल जायेगा?....पर एक बात बताओ, इतनी रात तुम लोग? पनवाड़ी ने सवाल किया।
‘रहने का आश्रय खोज रहे थे। कहीं....दूर से आए थे। एक रिश्तेदार से मिलने, वो मिला नहीं। तब। यहाँ तुम्हारे साथ....चलो कुछ वक्त कट गया।’
‘पान नहीं खाओगे?’
‘नहीं पान नहीं खाते।’
‘अरे? सादा पान। ठण्ड है कुलंजन डाल दूँगा। खाँसी भी नहीं लगेगी। गला ठीक रहता है।’
‘मंहगा होगा?’
‘तुम्हारे लिए नहीं। लगता है मेरे गाँव के से हो। इसलिए अपने मुल्क से आए बटोही और आश्रयहीन के लिए मुफ्त।...कमाने के लिए भगवान ने बहुत कुछ दिया है।’
‘नहीं। नहीं।’
‘अरे! नहीं काहे की? तुम मेरे जैसे ही हो। जब मैं इस शहर में आया था-ऐसे ही था। ये तो समय ने करवट ली। तब हुआ....।’
उन्होंने पान ले लिया। पाकेट से मुद्रा निकाली। पनवाड़ी के हाथ पर रखी और चल पड़े।’
हज़ार का नोट देख, पनवाड़ी हक्का-बक्का रह गया। वह बकाया के लिए कहने ही वाला था कि एक ग्राहक भीतर से आकर सामने खड़ा हो गया। उसके साथ तीन युवतियाँ भी थीं। उसने चार पान बनाने को कहा। पानवाड़ी पान बनाने लगा। मन ही मन सोचता, वे कौन लोग थे? कहीं कोई सी.आई.डी. या एनफोर्समेन्ट के लोग....वह सोचता गया। एक बार सोचा, कहीं कुछ गलत तो नहीं कहा होगा?
विक्रमार्क और सभासद आगे बढ़े। दोनों चुप। आगे मेन सड़क पर आए तो सभासद ने कहा-‘कैसी दुनिया है? कहाँ लोग मर रहे हैं और कहाँ ये अपने दम्भ में डूबे भ्रष्टाचार में संलिप्त हैं।’

‘हाँ! हमारी झूठी रिवाज़ें। हमें कुछ करना होगा। संस्कृति मन्त्रालय के तहत कानून बनाना होगा। ये सामाजिक बढ़ी-चढ़ी रिवाजे़ं, खत्म होनी चाहिए। आदमी की बलवती इच्छाओं पर लगाम लगानी चाहिए। संस्कार और हमारी संस्कृति की रक्षा....यदि ऐसा नहीं हुआ तो देश रसातल को चला जाएगा। कल मन्त्रिमण्डल की बैठक बुलाई जानी चाहिए। राय मश्विरा करना जरूरी है। समाज को शिक्षित किया जाना जरूरी है।’
 वे अभी आगे बढ़े और कल की केबिनेट के बारे में विचारने लगे ही थे कि यदि ऐसा ही चलता रहा और आम आदमी यूँ ही पीड़ित होता रहा तब शासन की छवि खराब हो जाएगी। विरोधी नहीं छोड़ेगे और राजगद्दी....कोई आक्रमण...प्रश्न चिन्ह उठते वे बतिया ही रहे थे कि एक मोड़ पर खम्बे के नीचे से आवाज़ आई-राजन! विक्रमार्क चैंका। ये तो बेताल की आवाज़ है। वह ठिठका। देखा वास्तव में ही बेताल था। पूछा-‘तुम?’
‘हाँ! जब तुम पनवाड़ी से बतिया रहे थे, मैं भी सुन रहा था। फिर मैं भीतर चला गया था।’
‘भीतर!’
‘हाँ! मुझे किसी के पास की जरूरत नहीं है। पर तुम भीतर क्यों नहीं आए? तुम्हारे और इस सभासद के पास तो....।’
‘इस लिबास में कैसे आते? मैं तो अगले रास्ते की ओर बढ़ रहा था कि नज़र इस ओर उठी। रात की दुनिया और आम आदमी की स्थिति और अपने शासन के बारे पता करना था। इसलिए नहीं गया।’
‘इस मन्त्री को तो यहाँ कई बार देखा है। कई युवतियों के साथ।’
‘यह भी?’ विक्रमार्क ने सभासद की ओर दृष्टि घुमाई। सभासद हैरान कि राजा साहब क्यों ठिठक गये हैं और बतिया किससे बतिया रहे हैं?
‘हाँ! इस हमाम में सब नंगे हैं। बस देखने की आँख नहीं है।’
‘तुमने क्या देखा भीतर?’ विक्रमार्क ने पूछा।
‘क्या नहीं देखा भीतर?’ क्लब के हाल में शराब में मस्त लोग, युवा। कमरों में सम्भ्रान्त लोगों का नग्न रूप। उनकी हरकतें....और भी बहुत कुछ। एक बूढ़े के सिर पर तो चपत भी मारी...उसे अहसास दिलाने कि अब नहीं। दूसरे कमरे में तुम्हारी एक रिश्तेदार भी है।
‘अरे! ऐसा।’






‘हाँ! यहाँ सब आते हैं।....ये मरी हुई नीयत के लोगों की दुनिया है। तुम कल कानून बनाने की सोच रहे हो? जनमानसिकता बदलने की बात कर रहे हो। पर ये कैसे सम्भव होगा? तुम विदेशों से कह रहे हो, यहाँ आओ? वे आएँगे। भौतिक रूप में ही नहीं। एक सांस्कृतिक, सामाजिक छाप लिए। जो वे बनाएँगे वह तो निर्यात हो जाएगा, साथ में यहाँ के पुराने संस्कार भी मगर जो वे यहाँ के संस्कारों में घोलेंगे या कहो छोड़ जायेंगे उसका क्या करोगे? यह सोचना भी आवश्यक है। अपनी खाल में रहना, विचारों, भावनाओं और नएपन की बलवती इच्छाओं को लगाम दोगे तो कुछ बात बनेगी वर्ना....’
विक्रमार्क चुप सोचता रहा। कुछ देर बाद बेताल बोला, ‘यद्यपि मैं गलत नहीं कहता फिर भी तुम सोचना कहीं....। चलता हूँ। फिर मिलेंगे।’
और बेताल चला गया। सभासद उसे किसी से बतियाते हतप्रभ देख रहा था।
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बद्री सिंह भाटिया की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए

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 बद्री सिंह भाटिया
गांव ग्याणा, डाकखाना मांगू
तहसील अर्की, जिला सोलन हि.प्र. 171102
                                                                                   
 098051 99422
 ई मेल  bsbhatia1947@gmail.com

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