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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

17 फ़रवरी, 2019

परख अड़तीस

हमें दंगों पर कविता लिखनी है!
गणेश गनी



उत्पल बैनर्जी


इस खूबसूरत नीले ग्रह पर यदि इंसानों को रहने की आज्ञा न होती तो शायद इसकी खूबसूरती में और भी चार चाँद लगते। हम सभी यह जानते हैं कि युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। युद्ध के बाद भी आखिरी रास्ता सम्वाद ही है, तो फिर सकारात्मक सम्वाद पहले ही क्यों न किया जाए। भीड़ के पास तो दंगे के सिवा कोई और विकल्प है ही नहीं, क्योंकि भीड़ के पास दिमाग नहीं होता और यह बात कही जा चुकी है। चार्ली चैप्लिन ने क्या सही बात कही, मनुष्य एक व्यक्ति के रूप में प्रतिभाशाली है, लेकिन भीड़ के बीच मनुष्य एक नेतृत्वहीन राक्षस बन जाता है , एक महामूर्ख जानवर जिसे जहाँ हांका जाए वहां जाता है।
यदि झगड़ा आवश्यक भी हो जाए या टाला ही न जा सके, तो भी विन्सटन चर्चिल की यह उक्ति याद रखी जा सकती है, मैं उस आदमी को पसंद करता हूँ जो झगड़ते वक़्त मुस्कुराता है।
वर्तमान समय में जो भी देश युद्ध जैसे हालात में हैं, उनकी आबादी घोर निराशा में भटक रही है।  व्यवस्था के अंदर उनके प्रतिनिधि जब उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाते तो निराशा और भी बढ़ जाती है। उत्पल बैनर्जी की कविता हमें दंगों पर कविता लिखनी है, ऐसे समय याद आती है-

जब नींद के निचाट अँधेरे में
सेंध लगा रहे थे सपने
और बच्चों की हँसी से गुदगुदा उठी थी
मन की देह,
हम जाने किन षड़यंत्रों की ओट में बैठे
मंत्रणा करते रहे!

व्यंजना के लुब्ध पथ पर
क्रियापदों के झुण्ड और धूल भरे रूपकों से बचते
जब उभर रहे थे दीप्त विचार
तब हम कविता के गेस्ट-हाउस में
पान-पात्र पर भिनभिनाती मक्खियाँ उड़ा रहे थे!

जब मशालें लेकर चलने का वक़्त आया
वक़्त आया रास्ता तय करने का
जब लपटों और धुएँ से भर गए रास्ते
हमने कहा -- हमें घर जाने दो

हमें दंगों पर कविता लिखनी है!

कवि ने ठीक बात ठीक समय पर रखी कि विकल्पहीनता एक दिन हमें खदेड़ देगी। हमारे पास कोई भी विकल्प नहीं होगा, ऐसा दिन भी आएगा। केवल पूंजी तय करेगी कि हम क्या खाएं, क्या पहनें, क्या सोचें और क्या करें-

जनता के लिए
धीरे-धीरे एक दिन ख़त्म हो जाएँगे सारे विकल्प
सिर्फ़ पूँजी तय करेगी विकल्पों का रोज़गार
अच्छे इलाज के विकल्प नहीं रहेंगे
सरकारी अस्पताल,
न ही सरकारी बसें -- सुगम यात्राओं के
सबसे ज़्यादा हिकारत से देखी जाएगी
शिक्षा-व्यवस्था
विश्व बैंक की निर्ममता
नहीं बचने देगी बिजली और पानी के विकल्प
विकल्पहीनता के सतत् अवसाद में डूबे
एक दिन हम इसे ही कहने लगेंगे जीवन
और फिर जब खदेड़ दिए जाएँगे
अपनी ही ज़मीन गाँव और जंगलों से
तो फिर शहरों में आने
और दर-दर की ठोकरें खाकर मर जाने के सिवा
कौन-सा विकल्प बचेगा!!
हर ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेंगी सरकारें
वह कभी नहीं दे पाएगी
सोनागाछियों को जीने का कोई सही विकल्प!

पैरों तले संसद को कुचलते
ग़ुण्डे और अपराधी सरमायेदारों का
कौन-सा विकल्प ढूँढ़ सकी है जनता!!

उत्पल बैनर्जी की कविताओं में नए विमर्श भले ही न हों पर नए प्रश्न ज़रूर हैं। कवि सज़ग है और अपनी बात सतर्क होकर रखता है। कवि को पता है कि कविता कभी कभी अपनी ही आग में झुलस जाती है-

अपनी ही आग में झुलसती है कविता
अपने ही आँसुओं में डूबते हैं शब्द।

जिन दोस्तों ने
साथ जीने-मरने की क़समें खाई थीं
एक दिन वे ही हो जाते हैं लापता
और फिर कभी नहीं लौटते,
धीरे-धीरे धूसर और अपाठ्य हो जाती हैं
उनकी अनगढ़ कविताएँ और दुःख,
उनके चेहरे भी ठीक-ठीक याद नहीं रहते।

धीरे-धीरे मिटती जाती हैं मंगल-ध्वनियाँ
पवित्रता की ओट से उठती है झुलसी हुई देहों की गन्ध,
नापाक इरादे शीर्ष पर जा बैठते हैं,
मीठे ज़हर की तरह फैलाता जाता है बाज़ार
और हुनर को सफ़े से बाहर कर देता है,
दलाल पथ में बदलती जाती हैं गलियाँ
सपनों में कलदार खनकते हैं,
अपने ही घर में अपना निर्वासन देखती हैं किसान-आँखें
उनकी आत्महत्याएँ कहीं भी दर्ज़ नहीं होतीं।

उत्पल बैनर्जी की कविताएं पढ़ते वक्त लगता है कि आगे और बढ़ा जाए और देखा जाए कि कौन सी बात कहने के लिए कवि भूमिका बांध रहा है। यह उत्सुकता बनाए रखना कवि की जिम्मेदारी है-

हममें बहुत कुछ एक-सा
और अलग था .....

वन्यपथ पर ठिठक कर
अचानक तुम कह सकती थीं
यह गन्ध वनचम्पा की है
और वह दूधमोगरा की,

मुझे फूल और चिड़ियों के नाम याद नहीं रहते थे
और न ही उनकी पहचान
लेकिन मैं पहचानता था रंगों की चालाकियाँ
खंजड़ी की ओट में तलवार पर दी जा रही धार की
महीन और निर्मम आवाज़ मुझे सुनाई दे जाती थी

उत्पल बैनर्जी की एक कविता है, जिएँगे इस तरह, जोकि सकारात्मक सोच से भरपूर है। यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम अपने जीवन को कभी कभी बातों ही बातों में मजबूरी क्यों कह देते हैं। जीवन को सहजता से भी तो जिया जा सकता है। कवि का यही दृष्टिकोण उसे बहरीन इंसान बनाता है-

हमने ऐसा ही चाहा था
कि हम जिएँगे अपनी तरह से
और कभी नहीं कहेंगे -- मजबूरी थी,

हम रहेंगे गौरैयों की तरह अलमस्त
अपने छोटे-से घर को
कभी ईंट-पत्थरों का नहीं मानेंगे
उसमें हमारे स्पन्दनों का कोलाहल होगा,
दुःख-सुख इस तरह आया-जाया करेंगे
जैसे पतझर आता है, बारिश आती है
कड़ी धूप में दहकेंगे  हम पलाश की तरह
तो कभी प्रेम में पगे बह चलेंगे सुदूर नक्षत्रों के उजास में।

हम रहेंगे बीज की तरह
अपने भीतर रचने का उत्सव लिए
निदाघ में तपेंगे....  ठिठुरेंगे पूस में
अंधड़ हमें उड़ा ले जाएँगे सुदूर अनजानी जगहों पर
जहाँ भी गिरेंगे वहीं उसी मिट्टी की मधुरिमा में खोलेंगे आँखें।
हारें या जीतें -- हम मुक़ाबला करेंगे समय के थपेड़ों का
उम्र की तपिश में झुलस जाएगा रंग-रूप
लेकिन नहीं बदलेगा हमारे आँसुओं का स्वाद
नेह का रंग .... वैसी ही उमंग हथेलियों की गर्माहट में
आँखों में चंचल धूप की मुसकराहट ....
कि मानो कहीं कोई अवसाद नहीं
हाहाकार नहीं, रुदन नहीं अधूरी कामनाओं का।

तुम्हें याद होगा
हेमन्त की एक रात प्रतिपदा की चंद्रिमा में
हमने निश्चय किया था --
अपनी अंतिम साँस तक इस तरह जिएँगे हम
कि मानो हमारे जीवन में मृत्यु है ही नहीं!!

उत्पल बैनर्जी एक और शानदार कविता हमें पढ़ने को दे रहे हैं। यह कविता ऐसे पढ़ी जानी चाहिए जैसे कोई चिट्ठी पढ़ी जाती है-

अभी आता हूँ -- कहकर
हम निकल पड़ते हैं घर से
हालाँकि अपने लौटने के बारे में
किसी को ठीक-ठीक पता नहीं होता
लेकिन लौट सकेंगे की उम्मीद लिए
हम निकल ही पड़ते हैं,

अकसर लौटते हुए
अपने और अपनों के लौट आने का
होने लगता है विश्वास,
जैसे -- अभी आती हूँ कहकर
गई हुई नदी
जंगलों तलहटियों से होती हुई
फिर लौट आती है सावन में,

लेकिन इस तरह हमेशा कहाँ लौट पाते हैं सब!
आने का कहकर गए लोग
हर बार नहीं लौट पाते अपने घर
कितना आसान होता है उनके लिए
अभी आता हूँ -- कहकर
हमेशा के लिए चले जाना!

असल में
जाते समय -- अभी आता हूँ ... कहना
उन्हें दिलासा देना होता है
जो हर पल इस कश्मकश में रहते हैं
कि शायद इस बार भी हम लौट आएँगे
कि शायद इस बार हम नहीं लौट पाएँगे

उत्पल बैनर्जी की आखेट कविता पढ़ते हुए एक किस्सा याद आया। कहते हैं कि एक पहाड़ी देश में एक कवि रहता था। किस्सा दो छोटी छोटी नदियों की ऊंची ऊंची घाटियों का है। ये दोनों खूबसूरत घाटियां विपरीत दिशाओं में थीं। वह कवि रोज़ इन दो घाटियों में से एक घाटी में अवश्य जाता था। एक दिन उसे बायीं ओर की घाटी में जाना था। कवि हमेशा किस्सों, कहानियों और कविताओं की किताबें अपने बैग में रखता था। पहाड़ियों पर सफ़ेद बर्फ़ जमी थी तो निचली घाटियों में कड़ाके की ठण्ड थी। उस दिन भी सर्द सुबह और पहाड़ों पर उमड़ते घुमड़ते बादल बता रहे थे कि बारिश का आना तय है। सुबह सुबह दोराहे पर कवि की मुलाकात एक निराले साहित्य प्रेमी से हुई। पहली बार मिलने पर भी दोनों एक दूसरे को पहचान रहे थे। उसने बताया कि वह रात से ठानकर बैठा था कि आज तो ज़रूर कवि से मिलेगा और उसकी किताब लेगा इसलिए सुबह से ही इस दोराहे पर इंतज़ार में था कि कवि इधर से गुज़रे तो मुलाकात हो। कवि ने जैसे ही बैग में से कविता की किताब निकाली तो उसकी नज़र किस्से वाली किताब पर भी पड़ी। उसने दोनों किताबें दाम चुकाकर तुरन्त ले लीं। कवि कुछ नहीं बोलना चाह रहा था। उसे लगा कि किताबें हमेशा पढ़ने वाले का इंतज़ार करती हैं।
उस दिन कवि जब नदी की विपरीत दिशा में चलते हुए घाटी में पहुंचा तो बादल छंटने लगे थे। उसे एक कवि मित्र की याद आई जिसकी कविताएँ वह हमेशा सुना करता था। वह बूढ़ा कवि यह भी दावा करता था कि बहुत ऊंचाई पर पहाड़ की तलहटी में देवता का मंदिर है और जिसके आंगन की मिट्टी यदि चुटकी भर भी वह किसी को देदे तो चमत्कार हो जाता है। आज कवि ने उसे सन्देश भिजवाया और मिलने की इच्छा ज़ाहिर की। यह भी बताया कि कविता की किताब छपकर आ गई है तो एक प्रति भेंट देना चाहता है।
उधर से सन्देश आया कि कवि  का नीचे उतरना मुश्किल है, कि उसकी टांगों ने छड़ी का सहारा लेना शुरू कर दिया है, कि मौसम खुलने पर आएगा, और यह भी पूछा कि नीचे घाटी में मौसम कैसा है, बस नहीं पूछा तो केवल कविता का हाल नहीं पूछा। और फिर कहा कि किसी रोज़ ज़रूर मिलेंगे जब मौसम खुशगवार होगा।
इधर से कवि क्या कहता, बस बादलों को छंटते देख रहा था, धूप की किरणें ज़मीन पर पहुंच चुकी थीं, तो इतना ही कहा, जो हुकुम! किसी दिन कविता के मौसम में ज़रूर मिलेंगे। दिन भर धूप खिली रही क्योंकि वो निराला साहित्य प्रेमी कहीं पहाड़ी पर कविता पढ़ रहा है-

अलमारी में बंद किताबें
प्रतीक्षा करती हैं पढ़े जाने की
सुरों में ढलने की प्रतीक्षा करते हैं गीत
प्रतीक्षा करते हैं -- सुने जाने की
अपने असंख्य क़िस्सों का रोमांच लिए
जागते रहते हैं उनके पात्र

जिस तरह दुकानों में
बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं खिलौने
किताबें, पढ़ने वालों की प्रतीक्षा करती हैं

किताबें
गाँव जंगलों से खदेड़ दिए गए लोग हैं
जिनका बाज़ार ने आखेट कर लिया है!!

उत्पल बैनर्जी की कविताओं में पुराने विषयों को नया ट्रीटमेंट दिया गया है। जब तक कवि यह नहीं करेगा तब तक बेहतरीन कविता नहीं बन सकती क्योंकि विषय तो वही रहेंगे। कवि को शिल्प, शैली, बिम्बों और भाषा पर अपनी पकड़ बनाए रखनी चाहिए।
०००
गणेश गनी



परख सैंतीस नीचे लिंक पर पढ़िए

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