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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 फ़रवरी, 2019

निर्बंध: सत्रह


सुरक्षाकर्मियों से ज्यादा जान गँवाते हैं गैंगमैन

यादवेन्द्र
                                                                                                                                  

यादवेन्द्र
      

6 नवंबर 2018  के अख़बारों में एक छोटी सी खबर छपी थी कि कुछ  गैंगमैन दोपहर में हरदोई के पास संडीला और उमरताली के बीच रेलवे ट्रैक पर काम कर रहे थे। सुरक्षा की दृष्टि  से और आती जाती गाड़ियों के ड्राइवरों को वे दूर से दिख जाये  इसलिए कुछ दूरी पर उन्होंने लाल रंग का कपड़ा  बांध रखा था। तभी वहाँ  अचानक कोलकाता से अमृतसर जा रही अकालतख्त एक्सप्रेस आ गई और आनन् फानन में  सभी गैंगमैनों को रौंदते हुए तेज रफ्तार से आगे निकल गई। 

मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी निभा रहे इन कामगारों को  न तो ट्रेन आने की कोई सूचना दी गई न ही संकेत।  हादसे में तीन गैंगमैनों  की कटी लाशें तो तत्काल बरामद कर ली गई जबकि एक की लाश के टुकड़े  दूर दूर तक बिखर गए। 








2009 के जनवरी महीने में हरियाणा के पलवल के पास एक साथ छह और गाज़ियाबाद के पास चार  गैंगमैन  ड्यूटी देते हुए तेज रफ़्तार गाड़ियों से कट कर मर गए थे। कुछ समय पहले  बंगलुरु के बाहरी इलाके में डबल रेलवे लाइन पर काम करते हुए दो गैंगमैन भी इसी तरह मारे गए थे -- इनमें से एक को तो तैंतीस साल का कार्यानुभव था। आमने सामने से आती दो गाड़ियों को देख कर दोनों लाइनों के बीच की सँकरी सी जगह में उनका सुरक्षित बचना संभव नहीं था सो वे दोनों विपरीत दिशाओं में भागे -- पर उनका अनुमान गलत निकला और दोनों उलटी दिशाओं से आती गाड़ियों के नीचे आकर उनकी असमय मौत हो गयी। राजस्थान में  बाँदीकुईं रेलवे स्टेशन के पास दिल्ली आगरा इंटरसिटी एक्सप्रेस से कुचल कर दो गैंग मैन काम करते हुए अपनी जान गँवा बैठे। ऐसे हादसों के बारे में पढ़ते पढ़ते  हम अभ्यस्त हो चुके हैं और रेलवे भी बेहद कुशल श्रमिकों की जान बचाने के स्थायी समाधान के बारे में सोचने के बदले कुछ मुआवजे देकर अपने  मुक्त हो जाता है। 

अनुमान है कि भारतीय रेल में लगभग सवा दो लाख  ( इनमें लगभग दस हजार महिलाएँ भी शामिल हैं जो मुख्यतः मृत रेलकर्मियों की आश्रित थीं )  गैंगमैन नियुक्त हैं और इनकी निगरानी और मुस्तैद ड्यूटी की बदौलत भारत की रेल प्रणाली संचालित होती है। जहाँ तक महिला गैंगमैनों के काम का सवाल है ज्यादातर मामलों में इन्हें रात की और बेहद श्रमसाध्य ड्यूटी से अलग ही रखा जाता है पर पिछले साल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ( 8 मार्च 2018 ) को गौहाटी के नॉर्थईस्ट फ्रंटियर रेलवे ने बीस महिला गैंगमैनों की एक टोली बनाने की घोषणा की - इसकी सदस्य महिलायें पहले पुरुष प्रधान गैंगों में काम कर चुकी हैं पर अब सर्व महिला दल की सदस्य होंगी।कुछ माह पहले आंध्र प्रदेश/ तेलंगाना में तीन महिला गैंगमैन तेज तफ्तार गाडी से कुचल कर मर गयी थीं। इस साल से रेलवे गैंगमैन जैसी कठिन ड्यूटी के लिए महिलाओं की नियुक्ति पर प्रतिबंध लगाने की कवायद कर रहा है।   ये चौबीसों घंटे घूम घूम कर पैंसठ हजार किलोमीटर से ज्यादा रेल लाइनों की हालत देखते रहते हैं और यदि कोई कमी हुई तो तत्काल इसका निदान करते हैं -- उनके वश में यह न हुआ तो  ऊपर के अधिकारियों को रिपोर्ट करते हैं।पर उनकी ड्यूटी के हर पल मौत पास में मुँह खोले खड़ा रहता है। 







दिसंबर 2013 में "इंडियन  एक्सप्रेस" ने एक रेलवे गैंगमैन ( जिसे अब कागज पर ट्रैकमैन कहा जाता है) के एक औसत दिन का विवरण देते हुए बड़ी अचरजभरी पर कान खड़े कर देने वाली बात लिखी - देश के पिछले कुछ सालों के असमय मृत्यु के आँकड़े देखें तो सर्वाधिक सशस्त्र मुठभेड़  वाले प्रदेशों में सुरक्षा बल के जवान की तुलना में रेलवे के किसी गैंगमैन की ड्यूटी करते हुए मारे जाने की संभावना ज्यादा होती है। वैसे रेलवे की ओर से ड्यूटी निभाते हुए मारे जाने वाले गैंगमैनों की मृत्यु के जो आंकड़े दिए जाते हैं वे अविश्वसनीय लगते हैं - 2012 और 2017 के बीच 768 मौतों के बारे में कहा गया ( 2016 - 17 में 96 )पर 22 सितंबर 2017 का 'इंडिया  टुडे' साल भर में दो सौ गैंगमैनों के मरने की बात लिखता है ... 31 जनवरी 2016 का 'फाइनेंशियल एक्सप्रेस' प्रतिवर्ष चार सौ और 5 फरवरी 2016 का 'हंस इंडिया डॉट कॉम' गैंगमैनों की मृत्यु की औसत  वार्षिक संख्या पाँच सौ बताता है। आई आई टी कानपुर ,जो भारतीय रेलवे को आधुनिक सुरक्षात्मक उपायों के लिए परामर्श देता है, अपने सूचना तंत्र पर प्रति वर्ष दुर्घटनाओं में मरने वाले गैंगमैनों की संख्या चार सौ बताता है। उसने समग्र सुरक्षा के लिए "सिमरन" प्रणाली विकसित है और गैंगमैनों की सुरक्षा के लिए उपग्रह आधारित "गैंगमैन वार्निंग सिस्टम" विकसित करने का दावा भी किया है जिसमें किसी ट्रेन के दो किलोमीटर दूर रहते हुए ही उन्हें इसकी सूचना मिल जायेगी जिससे वे समय रहते सुरक्षित दूरी पर जा खड़े हों।इसी तरह आई आई टी मद्रास और कुछ अन्य संस्थान 'रक्षक' प्रणाली बना लेने का दावा करते हैं जो अस्सी हजार का है और वॉकी टाकी की तरह काम करता है - पर जमीनी हकीकत यह है कि बरसों के प्रयास और अच्छी खासी राशि खर्च करने के बाद भी रेल यात्रियों की सुरक्षा में लगे गैंगमैनों के  जान गँवाने का सिलसिला थम नहीं रहा है। 

इनके काम करने की स्थितियाँ जान के जोखिम के अलावा भी इतनी विकट और क्रूर हैं तकनिकी विकास के दावों पर हँसने का मन होता है - बारह घंटे की शिफ्ट करने वाले हर गैंगमैन को बीस किलो से ज्यादा वजन के औजार अनिवार्य तौर पर साथ रखने होते हैं ... इनमें से एक सामान भी पीछे छूटा तो काम पूरा नहीं किया जा सकता। रेलवे बोर्ड के एक पूर्व चेयरमैन ने दशकों बीत जाने के बाद इन रेल सैनिकों की व्यथा और मुश्किल समझी और सुधार के उपाय शुरू किये। उन्हीं के प्रयत्नों से अब जाकर  कम वजन वाले हथौड़े और लैंप इत्यादि डिजाइन किये जा रहे हैं और उनको रेनकोट ,जूते  इत्यादि मुहैय्या कराये जाने शुरू हुए हैं।     
         





जब सरकार की सारी  ऊर्जा और फ़ोकस बुलेट ट्रेन बनाने पर लगा हो तब इन मजदूरों की कुछ मौतें क्या मायना रखती हैं। 

यह महज इत्तेफाक है कि इस टिप्पणी को लिखते वक्त मुझे ताईवानी मजदूरों के दमन को प्रतिबिंबित करने वाली एक कविता मिली --
ताइवान के एक कलाकार लेखक "BoTh Ali Alone" ( सरकारी दमन से बचने के लिए रखा गया छद्म नाम) ने  पीड़ित मजदूरों की तकलीफ से खुद को अलग और मसरूफ रखने वाले सुविधा संपन्न वर्ग की ओर इशारा करते हुए यह  कविता लिखी।          

http://globalvoicesonline.org/2013/02/11 से ली गयी यह कविता यहाँ प्रस्तुत है: 

रेल की पटरी पर सोना  

यह एक द्वीप है जिसपर लोगबाग़
लगातार ट्रेन में चढ़े रहते हैं 
जब से उन्होंने कदम रखा धरती पर।
उनके जीवन का इकलौता ध्येय है
कि आगे बढ़ते रहें रेलवे के साथ साथ 
उनकी जेबों में रेल का टिकट भी पड़ा रहता है 
पर अफ़सोस,रेल से बाहर की दुनिया 
उन्होंने देखी  नहीं कभी ...
डिब्बे की सभी खिड़कियाँ ढँकी हुई हैं 
लुभावने नज़ारे दिखलाने वाले मॉनीटर्स से।  

ट्रेन से नीचे कदम बिलकुल मत रखना 
एक बार उतर गए ट्रेन से तो समझ लो 
वापस इसपर चढ़ने की कोई तरकीब नहीं ... 
तुम आस पास देखोगे तो मालूम होगा 
सरकार बनवाती जा रही है रेल पर रेल 
जिस से यह तुम्हें ले जा  सके चप्पे चप्पे पर  
पर असलियत यह है कि इस द्वीप पर बची नहीं 
कोई जगह जहाँ जाया जा सके अब घूमने फिरने
क्यों कि जहाँ जहाँ तक जाती है निगाह 
नजर आती है सिर्फ रेल ही रेल।

जिनके पास नहीं हैं पैसे रेल का टिकट खरीदने  के 
वे किसी तरह गुजारा कर रहे हैं रेल की पटरियों के बीच ..
जब कभी गुजर जाती है ट्रेन धड़धड़ाती हुई उनके ऊपर से   
डिब्बे के अन्दर बैठे लोगों को शिकायत होती है 
कि आज इतने झटके क्यों खा रही है ट्रेन।  
०००

निर्बंध की पिछली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए


निर्बंध: सोलह



कश्मीर : तब कहाँ थीं ख़ौफ़ की परछाइयाँ 
  (मार्च 2014 में लिखी डायरी का एक पन्ना


यादवेन्द्र 
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,

जगदेव पथ, बेली रोड,
पटना - 800014  


मोबाइल - +91 9411100294

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