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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

10 फ़रवरी, 2019


कहानी 


एनकाउंटर

अरुण यादव 



’जंगल बतियाता है हमसे, कसम से‘-गर्दन की त्वचा अपने दाएँ हाथ की तर्जनी और अँगूठे से पकड़ते हुए बड़े भोलेपन से दसरु बोला।

पुनिया उसकी बात सुनकर मुस्कुरा दी-‘पगला गए हो क्या, ऐसा कभी होता है?‘

‘तुझे विष्वास नहीं है ना, कभी चलना मेरे साथ, जंगल की आवाज़ सुना दूँगा‘-दसरु को समझ नहीं आ रहा था कि अपनी बात का यकीन कैसे दिलाये।

पुनिया के साँवले चेहरे पर अभी भी षरारती मुसकान नाच रही थी-‘अच्छा ज़रा हमें भी बताओ क्या बात करता है जंगल तुमसे?‘


अरुण यादव



‘जब कभी हम जंगल के काफी अंदर चले जाते हैं और ज़ोर से बकरियों को आवाज देते हैं तो जंगल भी हमारे साथ बकरियों को आवाज़ लगाने लगता है‘-दसरु ने पूरी गंभीरता से यह बात कही। लेकिन उसकी संजीदगी का पुनिया पर कोई असर नहीं हुआ। वह दसरु के भोलेपन का उपहास करते हुए बोली-‘बुद्धू कहीं के... जंगल की आँख, कान, नाक, मुँह नहीं होता, जो सब कुछ महसूस कर सके... अरे, वो आवाज़ जंगल की नहीं, तेरी ही होती है, जो पहाड़ों से टकराकर वापस आ जाती है।‘

‘नहीं पुनिया, बाबा कहते हैं कि जंगल हमसे बातें करता है, हमारे सुख-दुख साझा करता है, हमें सँभालता है, हमारा पेट भरता है। अगर जंगल नहीं रहे तो हम भी खत्म हो   जाएँगे... सदियों से जंगल हमें जीवन देता आया है, इसलिए ये मत कहो कि जंगल कुछ महसूस नहीं करता‘-तालाब को एकटक देखता हुआ दसरु बोला।

पुनिया को कुछ न सूझा तो अपने पैरों से तालाब का पानी उछालकर दसरु को भिगोने लगी। दसरु ने भी पत्थर से उतर कर पुनिया पर पानी उलीच दिया।

‘हमें भिगाओगे क्या‘-कहते हुए पुनिया भाग खड़ी हुई।
‘कल आना, जंगल से बात करवा दूँगा‘-दसरु ने भागती हुई पुनिया से जोर से कहा।

यह नोकझोंक रोज़ की है। शाम को दसरु जंगल से बकरी लेकर लौटते समय तालाब में बकरियों को पानी पिलाने के लिए रुकता और इसी समय पुनिया भी यहाँ आ जाती। दोनों तालाब में मिलने के लिए शाम होने का बड़ी बेसब्री से इन्तज़ार करते हैं। थोड़ी देर की मुलाकात में प्रेम का माधुर्य, शिकायतों का तीखापन, मिलन का आल्हाद और विरह की पीड़ा सभी कुछ घट जाता है। सच भी है, बारिश  के बाद स्वच्छ निर्मल आकाश  में खिले सतरंगी इन्द्रधनुष की मानिंद होता है युवा चित्त, तात्कालिक परिस्थितियों से संचालित। भूत और भविष्य से परे विषुद्ध वर्तमान में जीती एक दुनिया।

जिस तालाब में दसरु और पुनिया रोज शाम मिलते हैं, उसे पाण्डु तालाब कहा जाता है। गाँव से बाहर दक्षिण दिशा  में स्थित इस तालाब के बारे में दंतकथा है कि अज्ञातवास के समय पाण्डु कुछ समय के लिए यहाँ रुके थे, बस तभी से इसका नाम पाण्डु तालाब पड़ गया। कपड़े-लत्ते धोने से लेकर सारे गाँव के मवेशियों को पानी इसी तालाब से मिलता है।

ऊपर जिस गाँव का ज़िक्र हुआ है, उसका नाम झूलनपार है। प्रदेश  की सीमा पर स्थित दक्षिण में पूर्व दिशा  की ओर खिसका हुआ आदिवासी बाहुल्य गाँव है झूलनपार। वन सम्पदा से भरपूर होने के बावजूद इस प्रदेश  के अधिकांश  गाँव अत्यन्त गरीब, पिछड़े हुए हैं। लगभग जंगल में धँसा हुआ झूलनपार, दूर से देखने पर जंगल का ही हिस्सा ही दिखाई देता है, लेकिन नजदीक जाने पर कुछ घर दिखाई देते हैं। इन्हें घर कहना ठीक न होगा, बल्कि यह कहें कि फूस और बाँस के बने झोपड़े दिखाई देते हैं, ठीक रहेगा। सागौन, शीशम, धवा, तेंदू, बाँस, अचार, सीताफल आदि के वृक्षों से आच्छादित वन इतना सघन है कि धूप, ज़मीन का बहुत मामूली हिस्सा ही छू पाती है। जंगल की लकड़ी, फल, जड़ी-बूटियाँ आदि बेचकर ग्रामवासियों का गुजारा होता है। थोड़ी-बहुत खेती भी हो जाती है, जो इन्द्र देवता की कृपा पर ही निर्भर है, बरस गए तो ठीक नहीं तो सूखा।











दसरु बकरियाँ लेकर घर वापस लौटा तो बाबा हमेशा की तरह चारपाई पर बैठे बीड़ी फूंक रहे थे। बीच-बीच में वे खुल्ल-खुल्ल करते हुए ढेर सा बलगम भी निकाल देते।

‘कितनी बार कहा है कि छोड़ दो ये बीड़ी, लेकिन सुनता कौन है, देखना किसी दिन बीड़ी पीते-पीते दम न निकल जाए‘-दसरु ने शिकायती लहजे में कहा।

‘अरे अब इस उमर में क्या छोड़ेंगे ये बीड़ी-सीड़ी, तेरह साल का था, जब पहली बार हमारे डुकरा ने पिलाई थी, तब से ऐसा कोई दिन नहीं बीता, जब हमने बीड़ी न पी हो... अब तो हमारी जान के साथ ही छूटेगी ये मुँहलगी‘-छाती तक लटकती अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बाबा बोले।
‘जैसा दिखे वैसा करो, हमें क्या‘-दसरु खीझ गया।

इसी बीच दसरु का बड़ा भाई कोदूलाल भी आ गया। माथे पर सिलवटें लिए वह चुपचाप बैठ गया। बाबा की अनुभवी आँखे ताड़ गई कि आज फिर लकड़ी बेचने में झंझट हुई है।
‘क्या बात है, लकड़ी बेचने में कोई दिक्कत आ गई ?‘
कोदूलाल फट पड़ा-‘ये हरामखोर भुवन, फारेस्ट गार्ड है या चोर-उचक्का, जितनी लकड़ी जंगल से इकट्ठा करो साला आधी तो वही रख लेता है, कहता है अब जंगल सरकार के हो गए हैं। जंगल से लकड़ी, फल या कोई भी वनोपज ले जाना गै़र-क़ानूनी है।‘

बाबा की बूढ़ी आँखें अतीत के किसी बियावान में खो गईं, लगा जैसे बहुत दूर से उनकी आवाज़ आ रही हो-‘न जाने कितनी पीढ़िया बीत गईं इस जंगल की गोद में खेलते हुए, हँसते हुए, रोते हुए, बूढ़े होते हुए, मरते हुए। अरे, हमारी ये छोटी सी दुनिया जंगल से शुरू होती है और उसी में समा जाती है। हमने तो जंगल से उतना ही लिया, जितना हमारे जीने के लिए ज़रूरी था। आज हमसे कहा जाता है कि जंगल तुम्हारे नहीं रहे, सरकार के हो गए हैं।‘ कहते हुए बाबा को खांसी आ गई और खांसते हुए उन्होंने बलगम उगल दिया।

‘शहर तो कभी हमारे थे ही नहीं, बस जंगल है जो हमारी सारी दीनता के साथ हमें स्वीकार करता है... अब उस पर भी नजर गड़ गई है इन सुअरों की, हम क्या करें ? कहाँ जाएँ बाबा, कुछ सूझ नहीं रहा ?‘-ये थका हुआ स्वर कोदूलाल का था।

आजकल जंगल माफिया ने एक नया खेल शुरू किया है यहाँ पर। आदिवासी अपनी ज़मीनों में जो क़ीमती इमारती लकड़ी उगाते हैं, दलाल उन्हें औने-पौने दामों में खरीदकर भारी मुनाफ़ा कमाते हैं और ये अपनी बदहाली के साथ तकदीर को कोसते हुए जहाँ के तहाँ पड़े रहते हैं। शोषण के चौतरफा हमले से घिरे ये भोले-भाले आदिवासी आज अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से गुज़र रहे हैं।

घर का वातावरण बोझिल हो गया था। इस बोझिलता को तोड़ने के लिए कोदूलाल की घरवाली बिन्दिया ने चूल्हे से आवाज़ लगाई-‘रोटी बन गई है, परस दें।‘

‘हाँ ले आओ‘-कहकर कोदूलाल हाथ-पैर धोने के लिए बाहर नरदे में चला गया।

दोनो भाई कोदूलाल और दसरु, बाबा के साथ खाना खाने लगे। बिन्दिया खाना परोस रही थी। बाजरे के आटे से बनी गरम-गरम रोटियों की सौंधी महक, साथ में टमाटर की चटनी का तीखापन झोपड़ी में तैरने लगा।

बिन्दिया को देखते ही कोदूलाल की सारी चिन्ताएँ तिरोहित हो जाती हैं। पूरनमासी के चाँद जैसे गोल चेहरे पर बड़ी-बड़ी भाव से भरी आँखें, तराषी हुई लंबी नाम, संतरे की फाँक जैसे नाजुक पतले होठों को देखकर एकबारगी विश्वास नहीं होता कि बिन्दिया किसी आदिवासी समुदाय से है। दो बच्चे हो जाने के बाद भी उसकी साँवली त्वचा की चमक और देह की सुघड़ता में कोई कमी नहीं आई थी।

कोदूलाल का मित्र किशोरी अक्सर उससे हँसी-ठट्ठे में कहा करता-‘भगवान ने तुझे दुनिया की दूसरी चीजें देने में भले ही कंजूसी की हो, लेकिन रूपवती पत्नी देने में कोई कसर नहीं छोड़ी, कसम से।‘

गाँव में जचकी कराने वाली सुखिया दाई जब यह कहती-‘बिन्दिया जैसी सुन्दर बहू गाँव में दूसरी नहीं है‘ तो कोदूलाल का सिर गर्व से ऊँचा हो जाता। गर्व का यह भाव उसके जीवन के बहुत से अभावों की भरपाई कर देता है।









सुबह की धूप पहाड़ों को पहले छूती है, फिर धीरे-धीरे उतरती हुई झूलनपार गाँव में दस्तक देती है। सूरज की किरण पड़ते ही कुनमुनाता गाँव सुस्ती छोड़कर अपनी दैनिक गतिविधियाँ निबटाने फुर्ती से जुट जाता है। इन गतिविधियों में गाय, बकरी के सानी-भूसे, दुग्धदोहन से लेकर जंगल में महुआ, लकड़ी बीनना भी शामिल है।

दसरु रोज की तरह सुबह-सुबह बकरियाँ लेकर जंगल चला गया। घर में रह गए दो मेमने, जो मुश्किल से तीन-चार महीने के होंगे। ये मेमने कोदूलाल के बच्चों से काफी हिले-मिले थे। मुनिया और पप्पू सुबह से उनके साथ खेल में जुट जाते। मेमने फुदकते, कुलाँचे भरते हुए आँगन में दौड़ते। चितकबरे मेमने का नाम राम और कत्थई रंग वाले मेमने का नाम श्याम, बच्चों ने ही रख दिया था। छोटे होने के कारण ये मेमने अभी जंगल नहीं जाते, बस दिनभर घर में उत्पात मचाते रहते हैं। इनकी उछलकूद से घर में चहल-पहल बनी रहती, वर्ना इस पहाड़ी इलाके में भूख, गरीबी, अशिक्षा, लाचारी का भयावह सन्नाटा स्थाई रूप से डेरा जमाये रहता है।

‘राजाराम धुर्वे है क्या‘-सुबह सुबह फारेस्ट गार्ड भुवन की आवाज़ सुन बाबा चौंक पड़े। कोदूलाल और दसरु घर पर नहीं थे, इसलिए उन्हें ही बाहर आना पड़ा।
‘राम-राम मालिक‘- बाबा ने झुककर बड़े आदर से कहा।

जवाब में भुवन और तनकर खड़ा हो गया। फारेस्ट गार्ड की वर्दी, कंधे पर टँगी दुनाली बंदूक, माथे पर चुचवाता हनुमान मंदिर के सिंदूर का तिलक, बड़ी-बड़ी भूरी आँखे और ऊपर की ओर उठी हुई झबरीली मूँछें देखकर भुवन, फारेस्ट गार्ड कम चंबल का डाकू अधिक लग रहा था।

उसने बाबा की राम-राम का कोई जवाब नहीं दिया और सीधे अपनी बात पेल दी-‘आज हमारे वन मंडल अधिकारी कपूर साहब इंस्पेक्षन पर विथ फैमली आए हुए हैं। उनके खाने-पीने का इंतजाम करना है।‘

‘हम ग़रीब आदमी क्या इंतजाम कर सकते हैं साहब‘-बाबा ने कंपित स्वर में कहा।

‘एक-दो मुर्गी दे दे धुर्वे तो साहब के खाने की बढ़िया व्यवस्था हो जायगी‘-भुवन ने अपनी बात स्पष्ट की।
‘लेकिन मुर्गियाँ तो हमारे यहाँ पली नहीं हैं‘-बाबा ने सफाई दी। बाबा के चेहरे पर तसल्ली के भाव थे। उन्हें लगा कि चलो इस आफत से जान तो छूटी, लेकिन भुवन के चेहरे पर परेशा नी की रेखाएँ उभर आयीं।

इसी समय दोनों मेमने कुलाँचें भरते हुए उनके सामने आ गए। पप्पू और मुनिया उनके पीछे-पीछे दौड़ रहे थे।

मेमनों को देखते ही भुवन खुश  हो गया-‘अरे राजाराम, ये मेमने ही दे दे, बड़ा लज़ीज़ माँस बनेगा इनका... कपूर साहब खुश  हो जाएँगे।‘

‘क्या कह रहे हैं मालिक, ये तो बच्चे हैं, अभी दूध पीते हैं‘-बाबा ने आश्चर्य से कहा।

‘देखो राजाराम, अगर कपूर साहब के लिए अच्छे खाने की व्यवस्था नहीं हुई तो उनकी नाराजी हम सबके लिए भारी पड़ सकती हैं‘-और बाबा के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही भुवन ने दोनों मेमनों की टाँगें बाँधकर उन्हें वन विभाग की जीप में डाल दिया। मेमने बुरी तरह मिमिया रहे थे। मेमनों का मिमयाना सुन बिन्दिया घूँघट डाले हुए बाहर आ गई।
भुवन ने बिन्दिया को देखा तो उसकी नज़रें ठहर गईं। बिन्दिया को देख उसके चेहरे पर एक भद्दी मुस्कुराहट उतर आयी-‘ये आदिवासी भी अपने झोपड़ों कितना क़ीमती ख़जाना छुपाये रखते हैं‘ वह मन ही मन बुदबुदाया। उसने बड़े ही अश्लील तरीके से अपने सूखे होंठों पर जिव्हा फिराई। वासना के लक्षणों को छुपाने का उसने कोई प्रयत्न नहीं किया।

बिन्दिया, भुवन के कुत्सित इरादों को भाँप गई। कुदरत ने दुनिया की हरेक औरत को पुरुषों के चेहरे पढ़ने की अद्भुत क्षमता प्रदान की है। शिक्षण-प्रशिक्षण से इस क्षमता का कोई संबंध नहीं है, वह तो स्त्रियाँ पेट से ही सीखकर आती हैं। बिन्दिया सकुचाती हुई झोपड़ी के अंदर चली गई।
जीप धूल उड़ाती हुई वन विभाग के रेस्ट हाऊस की ओर चल दी। बाबा अंत तक दोनों मेमनों का मिमियाना सुनते रहे। उनकी बूढ़ी आँखें गीली होने से दृष्य धुँधलाने लगा था।










मेमनों के इस तरह चले जाने से मुनिया और पप्पू बहुत दुखी हुए। रो-रोकर उनका बुरा हाल था। बाबा लाचारी के साथ चारपाई में बैठ गए और बीड़ी सुलगाकर खींचने लगे।
उधर बकरियाँ चराते हुए दसरु आज जंगल के कुछ ज्यादा ही अंदर चला गया आया था। बचपन से ही बकरियाँ लेकर वो जंगल में आ रहा है, लेकिन पहली बार इस जगह को उसने देखा। बियावान जंगल की दैत्याकार चट्टाने उसे घूरती सी लग रहीं थीं। लगता है इस दमघोंटू सूनेपन से घबराकर सारे परिन्दे यहाँ से कूच कर गए हैं। जंगल के घनेपन की वजह से दसरु को आसमान, शामियाने की तरह पेड़ों पर टँगा दिखाई दे रहा था। इससे पहले कि जंगल की ये चुप्पी उसे दबोच ले, घबराकर वह बकरियों को घर की तरफ हाँकने लगा। इसी दरम्यान उसे बहुत से लोगों की मिली-जुली आवाज़ सुनाई दी।  वह सोच में पड़ गया कि आखि़र इस बियावान में ये आवाजें किसकी हो सकती हैं, थोड़ा आगे बढ़कर एक बड़ी चट्टान की ओट से उसने जो देखा, यक़ीन नहीं हुआ। बीस-पच्चीस लोग अनुशासित ढंग से तीन क़तारों में खड़े होकर कोई गीत गा रहे थे। उनकी पोशाक देखकर तो नहीं लगता था कि ये वन विभाग के हैं। सभी बिलकुल अपरिचित थे और कुछ के पास बंदूकें भी थीं। वे एक स्वर में गा रहे थे-

आगे बढ़ो, तुम न डरो
होगा जो अंजाम
बदल दो उनकी ये निजाम (दो बार)

अपने हक़ की फ़िक्र करो
समय की है दरकार
बदल दो उनकी ये सरकार (दो बार)

जुल्म किसी के अब न सहो
बहुत सही दुत्कार
बदल दो उनकी ये सरकार (दो बार)

घने जंगल में हथियारबंद लोगों को देख दसरु डर गया। चुपके से उसने बकरियाँ हँकालीं और वापस लौटने लगा। उन अज़नबियों का सामूहिक गीत जारी था।

दसरु के घर पहुँचते-पहुँचते साँझ का झुटपुटा उतर आता है। बडी़-बड़ी चट्टानों से घिरा होने के कारण कुछ पहले ही गाँव से धूप विदा हो जाती है। झोपड़ियों में कंडे और लकड़ियाँ सुलगने से सफेद धुएँ का गुबार, आसमान में कई आकृतियाँ बनाने-बिगाड़ने लगता है।

  बकरियों का झुण्ड घर में आते ही मेमनों की माँ ‘में‘ ‘में‘ करते हुए बच्चों को ढूँढने लगी। प्रसव के पहले कुछ माहों में मेमनों के प्रति उनकी माँ का लगाव बहुत ज़्यादा रहता है, इसलिये मेमनों की माँ अपने बच्चों को दूध पिलाने के लिए आतुर हो रही थी। उसके थनों में बढ़ते कसाव को देखकर लग रहा था कि कहीं दूध ज़मीन पर ही न टपकने लगे। मेमने न मिलने से मेमनों की माँ बुरी तरह बेचैन होकर घर के चक्कर लगाने लगी।

दसरु को मेमनों से संतान की तरह लगाव था। जब उसे पूरी बात बता लगी तो वह बच्चों की तरह बिलखने लगा। उसके रोने में बेबसी और असहाय होने का इतना तीव्र भाव था कि लगा जैसे झोपड़ी बाढ़ के पानी में डूब गई है और झोपड़ी में मौजूद लोग  साँस लेने के लिए छटपटा रहे हैं।

  इस घटना से दसरु का पूरा परिवार सदमें में था। मेमनों की माँ रातभर ‘में‘ ‘में‘ करती रही। दसरु जानता था कि यह एक बकरी की साधारण ‘में‘ ‘में‘ नहीं है, बल्कि अपने बच्चों के वियोग में एक माँ का दारुण प्रलाप है। सारी रात बाबा चारपाई पर बैठे बीड़ी फूँकते हुए खुल्ल-खुल्ल करते रहे। परिवार के बाकी सदस्यों ने भी बिस्तरे पर करवटें बदल कर रात बितायी। उन्हें नींद आती भी कैसे, परिवार की नींद तो वन विभाग के रेस्ट हाऊस में क़ैद हो गई थी, जहाँ वन मंडल अधिकारी कपूर, मेमनों का गोष्त खाकर महँगी शराब के नषे में खर्राटे भर रहा था।
इस घटना के तीसरे दिन गाँव के पश्चमी  सीमाने में बहने वाले सतुआ नाले के पास फारेस्ट गार्ड भुवन की लाश  मिलने से सनसनी फैल गई। खोपड़ी में बना सुराख देख कर लगता था कि गोली बहुत नजदीक से मारी गई थी। भुवन के साथ हमेशा  रहने वाली दुनाली बंदूक भी गायब थी।

गाँव की फिजाँ में तरह-तरह की चर्चाएँ तैरने लगीं। जितने मुँह उतनी बातें। कुछ लोग भुवन की हत्या को उसकी रंगीन तबीयत से जोड़कर देख रहे थे तो कुछ का कहना था कि भुवन ब्याज से पैसा चलाता था और पैसा न चुकाने की स्थिति में किसी कर्ज़दार ने ये हत्या करवाई है। लेकिन इलाके के हालात एवं भुवन के दबदबे को देखकर इन दोनों कारणों में दम नज़र नहीं आ रहा था। एक तीसरा कारण, जो बहुत दबे स्वर में सुनाई पड़ रहा था कि भुवन की हत्या में बागियों का हाथ हो सकता है, बड़ा हैरानी वाला था। प्रदेश  में बागियों की सक्रियता से प्रशासन सकते में आ गया। स्थानीय प्रशासन इसे बागियों की कार्यवाही मानकर चल रहा था। इसकी वजह यह थी कि खुफिया विभाग ने कुछ दिनों पहले झूलनपार गाँव के पास वाले जंगल में बागियों की गतिविधियों की सूचना दी थी। आनन-फानन में प्रदेश  की राजधानी से घटना की जाँच कर बागियों के ख़िलाफ़ तुरंत कड़ी कार्यवाही करने के आदेश  आ गए। अब यह सख्त आदेश  राजधानी से था तो पुलिस को कार्यवाही के नाम पर कुछ तो करना ही था, सो वह कार्यवाही में जुट गई। चूंकि फारेस्ट गार्ड भुवन की लाश  झूलनपान गाँव में मिली थी इसलिये पुलिस कार्यवाही का केन्द्र बना झूलनपार। जंगल से बिलकुल लगा होने के कारण पुलिस को शक था कि गाँव के लोग बागियों से मिले हुए हैं। ख़ुफ़िया विभाग की रिपोर्ट ने उनके शक को और मज़बूत किया।
थाना प्रभारी सुमेर सिंह के नेतृत्व में पुलिस फोर्स ने गाँव में डेरा डाल दिया। फारेस्ट गार्ड भुवन की हत्या मानो झूलनपार गाँव के लिए क़हर बन कर टूटी। एक-एक घर की तलाशी ली जा रही थी। इस दौरान सुमेर सिंह बड़े भद्दे तरीके से गाँव वालों को गरियाता भी जा रहा था-‘बेनचो, खाने-पीने का ठिकाना नहीं है, चले हैं बग़ावत करने.... सरकार के आदमी को मारेंगे... देखो तो हरामजादों की हिम्मत।‘
गाँव वाले निसहाय से इस अपमानजनक कार्यवाही को देख रहे थे। बाबा ने अपने बुढापे का वास्ता देकर थानेदार सुमेर सिंह को समझाने की कोशिश की-‘साहब, हम ग़रीब लोग हैं, मेहनत-मजूरी कर पेट पालते हैं, बागियों से हमें क्या लेना-देना।‘
सुमेर सिंह पर इसका कोई असर न हुआ-‘ए बुड्ढे, अपनी जुबान बंद रख और हमें अपना काम करने दे।‘
तलाशी में पुलिस के काम का कुछ भी हाथ नहीं लगा। राजधानी से पुलिस पर जबरदस्त दबाव था इसलिये पूछताछ के नाम पर गाँव के पन्द्रह लोगों को पुलिस गाड़ी में बैठा लिया गया। इन पन्द्रह लोगों में दसरु और उसका बड़ा भाई कोदूलाल भी शामिल था।








सारी रात पुलिस इन पन्द्रह लोगों से पूछताछ करती रही। सुबह कोदूलाल, दसरु और पाँच गाँव वालों के अलावा बाकी आठ लोगो को छोड़ दिया गया। छोड़े गए आठ गाँव वालों के सूजे-फूले चेहरे और आँखों में भय की परछाईं देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि इनसे किस तरह की पूछताछ की गई होगी।
‘जब इन लोगों को छोड़ दिया गया है तो बाकी लोग अभी तक थाने में क्यों हैं‘ बाबा सोच में पड़ गए। वे लाठी टेकते हुए राधेश्याम  मरकाम के घर जा पहुँचे। राधेश्याम ने बताया कि हम लोगों को तो सुबह ही छोड़ दिया गया था, लेकिन दसरु, कोदूलाल और अन्य पाँच के बारे में थानेदार सुमेर सिंह का कहना था कि इन लोगों के बयान दर्ज कराने हैं, इसलिए इन्हें बाद में छोड़ेंगे।
बाबा की चिंता बढ़ गई। कल से दोनों बेटे और दूसरे पाँच लोग थाने में है। पता नहीं उन्होंने कुछ खाया-पिया भी है कि नहीं। घर आकर बाबा ने पड़ोस में रहने वाले धनीराम उइके के बड़े लड़के संतोष को, बड़ी मिन्नत कर थाने चलने के लिए राजी किया। थाने में बंद लोगों के लिए बिन्दिया ने रोटी और आम का अचार कपड़े में बाँध दिया। बाबा, संतोष की सायकल पर बैठ कर थाने पहुँच गए।
पुलिस थाने में प्रभारी सुमेर सिंह टेबिल पर झुका हुआ कोई फाइल देख रहा था। बाबा की हिम्मत नहीं हुई कि सुमेर सिंह से अपने बेटों और दूसरे गाँव वालों के संबंध में कोई बात कर सके। फिर भी बाबा ने पूरा साहस बटोरकर हाथ जोड़े हुए बोलने कीकोशिश  की, परन्तु शब्द उनके गले में फँस रहे थे-‘मालिक... मैं कोदूलाल और दसरु का बाप हूँ... आपने कुछ गाँव वालों को तो छोड़ दिया, लेकिन ये अभी तक थाने में हैं... कोई गलती हो गई क्या माई बाप ?‘
सुमेर सिंह गरजा-‘इन लोगों से बहुत बड़ी गलती हो गई है धुर्वे, ये बागियों से मिले हुए हैं... ये बात इन्होंने ने अपने बयान में कुबूल की है।‘
बाबा के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी-‘क्या कह रहे हैं साहब! हमें तो पेट की आग बुझाने से फुरसत नहीं मिलती, बागियों से हमारा क्या लेना-देना ?‘
‘देख बुढ़ऊ, बागियों के मामले में सरकार बड़ी सख्त है, अब इन्हें जेल जाने से कोई नहीं बचा सकता‘-सुमेर सिंह लापरवाही से बोला।
बाबा पर एक साथ सैंकड़ों बिजलियाँ टूट गईं। उन्हें लगा कि जैसे पूरा बदन आग में झुलस गया है। आँखों के आगे अँधेरा छा गया। आस-पास की चीजें उन्हें घूमती लग रहीं थीं। शरीर का बोझ सँभालने में असमर्थ होने के कारण उनकी टाँगें काँपने लगीं और वे धड़ाम से ज़मीन पर गिर गए। उनके साथ गए संतोष उइके ने उन्हें सँभाला। बापू को घर तक लाने में उसे बड़ी मुष्किल हुई।
दो दिन बाद अख़बारों के प्रथम पृष्ठ पर छपी ख़बर से झूलनपार गाँव में हाहाकर मच गया। खबर का शीर्षक था ‘पुलिस मुठभेड़ में दो बागी मारे गए और पाँच गिरफ्तार‘‘।
समाचार में पुलिस के अदम्य साहस की प्रशंशा के साथ मुठभेड़ में पुलिस की गोलियों से मारे गये दोनों बागियों के क्षत-विक्षत शवों की तसवीर भी छपी थी। ये क्षत-विक्षत शव कोदूलाल और दसरु के थे।
 


झींगुरों की झाँय-झाँंय अमावस की स्याह रात की स्तब्धता भंग कर रही थी। बीच-बीच में दूर से आतीं कुत्तों के भोंकने की आवाजें भी झूलनपार गाँव से सटे पहाड़ की चट्टानों से टकरा कर अनुगुँजित हो रही थीं। ऐसी अँधेरी रात में सैकड़ों मानव आकृतियाँ बड़ी खामोशी से पुलिस थाने की ओर बढ़ रहीं थीं। इन मानव आकृतियों के हाथ तीर, भाले, फरसे, कुल्हाड़ी, लाठी जैसे परंपरागत हथियारों से लैस थे।
योजना के मुताबिक मानव आकृतियों ने पुलिस थाने को चारों ओर से घेर कर हमला कर दिया। रात में हुए अप्रत्याषित हमले का पुलिस दल ज्यादा देर सामना न कर सका। कुछ ही देर में संघर्ष समाप्त हो गया। मानव आकृतियों ने लाशों के पास पड़ी बंदूकें अपने कब्जें में ले लीं। थोड़ी देर बाद पुलिस थाना आग की लपटों से घिर गया। आग की लपटें इतनी ऊँची थीं कि आकाश  लाल अंगारों सा दहकने लगा।
पिछले कई दिनों से झूलनपार गाँव में नवयुवकों के अचानक लापता हो जाने का सिलसिला चल पड़ा है। इन युवकों को ज़मीन खा जाती है या आसमान निगल जाता, कोई नहीं जान पाया। लाख कोशिशों  के बावजूद युवकों के इस तरह से गुम हो जाने के बारे में पुलिस कुछ भी पता नहीं लगा सकी है, लेकिन गाँव के हनुमान मंदिर के बगल में नीम के पेड़ को घेर कर बने चबूतरे में ढोलक, हारमोनियम और मंजीरे के साथ लोकगीत गाते आदिवासियों के बीच दबे-छुपे अंदाज में चर्चा होती है कि गाँव के ये लापता युवक जंगल के बहुत अंदर, बहुत दूर चले गये हैं। ये इतनी दूर जा चुके हैं कि अब वापिसी का रास्ता जंगल की भूल-भुलैयाँ में कहीं गुम हो गया है।
हाल ही में दिये गये एक साक्षात्कार में प्रदेश  के मुख्य मंत्री ने इलाके में बागियों की बढ़ती गतिविधियों पर चिंता व्यक्त की है।
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अरुण यादव जी की और एक कहानी नीचे लिंक पर पढ़िए


अंतिम इच्छा

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  (अरुण यादव),
                                           
142, यादव मोहल्ला,
                                             
रामपुर, जबलपुर
                                             
मध्य प्रदेष-482008
                                           
  मो. 09926658527     9399583227

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