डॉ हूबनाथ पाण्डेय के दोहे
भाग - दो
1..
नेता की संपति बढ़े,
परजा का संहार।
ऐसे राजा मारिए,
कस के जूते चार।।
2..
कबिरा धंधा धर्म का,
इन्कमटैक्स से छूट।
स्वर्ग मिलेगा मुफ़्त में,
लूट सके तो लूट।।
3...
नंगा नाचे झूम कर,
लंपट गाए फाग।
चोर बलैया लेत है,
राजा को बैराग।।
4..
धरमसभा की भीड़ में,
नाचा अधरम ख़ूब।
कबिरा नानक ज्ञानदे,
गए शरम से डूब।।
5...
'ध' न जाने धर्म का,
रंग बिरंगा स्वांग।
लंपट लोभी क्रूर बिच,
बंटी झूठ की भांग।।
6...
स्वारथ ने अंधा किया,
वासना बुद्धि मंद।
नफ़रत ने ताक़त दिया,
हिंसा ने आनंद।।
7...
कैसी पाटी पढ़ि भये,
पूत मात से दूर।
विद्या के आशीष हैं,
लोभी कामी क्रूर।।
8...
बेटा हमको माफ़ कर,
नदी खेत खलिहान।
जंगल पर्वत अन्न जल,
हमने किए मसान।।
9...
मां की ममता तब तलक,
जब तक आंचल दूध।
अपने पैरों हो खड़ा,
अपने तक महदूद।।
10...
किसको सीता चाहिए,
किसको चहिए राम।
नैनों में रावण बसा,
मनहिं बसाए काम।।
11...
नगरदीप में जल रहा,
जिस किसान का ख़ून।
उसे मयस्सर ही नहीं,
इक रोटी दो जून।।
12...
जिसके कपड़े साफ़ हों,
उसको सब कुछ माफ़।
मैला कुचला वस्त्र है,
धरती पर अभिशाप।।
13...
महामानव
मानव मिटता है मगर,
नष्ट न होते मूल्य।
मात पिता गुरु तात तू,
तू गौतम के तुल्य।।
14...
हम पशु से बदतर रहे,
हम थे नहीं मनुष्य।
तेरी ताक़त जब मिली,
हमने गढ़ा भविष्य।।
15...
जो जलता है रात भर,
वही जानता दर्द।
दुखिओं को अपनाय जो,
वह सच्चा हमदर्द।।
16...
अंधकार के गर्त में ,
लोग रहे थे डूब।
सूरज बनकर जो उगा,
वो मेरा महबूब।।
17...
करुणा प्रज्ञा शील शांति,
समता औ इन्साफ़।
वंचित रहते हम सभी,
जो नहि आते आप।।
18...
लोहे जैसा तन दिया,
तो दे दुख की आग।
कंचन कर वापस करूं,
ऐसे मेरे भाग।।
19...
सुख सुविधा संपति नहीं,
नहीं चैन आराम।
यह तन जारौं मसि करौं
लिखूं तिहारो नाम।।
20...
उसकी सड़क पे चांदनी,
इसके घर अंधार।
बलिहारी तेरी बुद्धि को,
भली बनी सरकार।।
21...
कब तक देता जायगा,
बस कर मेरे नाथ।
कुछ तो मुझ पर छोड़ तू,
मेरे भी दो हाथ।।
22....
अनुपम दोहे
जल का अर्थ बता गया,
कल का दिया सनेस।
अनुपम उसकी बात थी,
अनुपम उसका भेस।।
23...
धरती से लेते हुए,
जी उसका सकुचाय।
देखी सूखी बावड़ी,
पहले मन मुरझाय।।
24...
मरती नदिया देख कर,
वह मरता सौ बार।
हम सब बहरे स्वार्थ में,
खाली गई पुकार।।
25...
मरघट में दीपक लिए,
वह निश्छल मुस्कान।
पर्वत पानी पेड़ संग,
बचा रहे इन्सान।।
26...
जितनी सच्ची सादगी,
उतना प्यारा काम।
अपनी धुन में रम रहा,
वह अनुपम अविराम।।
ठीक दो साल पहले आज ही के दिन पर्यावरण संरक्षण की ज़िम्मेदारी हम सब पर सौंप कर चले गए श्री अनुपम मिश्र की स्मृति में सादर!
27...
क्रुद्ध दोहे
तुझसे कैसा मांगना,
तुझसे कैसी होड़।
कितना दुख बरसाएगा,
मेरी चिंता छोड़।।
28...
तेरी चौखट पे भला,
रगड़ूं अपनी नाक।
कैसा सिरजनहार तू,
अपनी कींमत आंक।।
29...
दुर्बल को ही सतायगा,
यह तेरा इन्साफ़।
रिश्वत खाकर पाप को,
तू करता है माफ़।।
30...
तुझको चमचे चाहिए,
झूठे और दलाल।
तेरे दर कैसे गले,
कमज़ोरों की दाल।।
31...
तेरे महल के वास्ते,
आदम चकनाचूर।
दरिदनरायन से बना,
कैसे इतना क्रूर।।
32..
बस कर अपने चोंचले,
आगे बढ़ा दुकान।
कब तक छीनेगा बता,
बच्चों की मुस्कान।।
33...
मैं तो घुटने टेक दूं,
तू रख अपनी टेक।
जिसे अपाहिज कर रखा,
उससे तो रह नेक।।
34...
कल जो भूखा मर गया,
उसका बाप किसान।
तेरे ही सिर जाएगी,
बेकसूर की जान।।
35...
तू जग से नाराज़ है,
मैं तुझसे नाराज़।
मेरी ज़िद तेरी सनक,
उल्फ़त का आगाज़।।
36...
मेरी धरती एक है,
तेरे लाख करोड़।
बस इतना अहसान कर,
हमको हम पर छोड़।।
37...
दाता तेरे द्वार पर,
भूखा पड़ा किसान।
जो तुझको भी पालता
कर उसपर अहसान।।
38...
कबीर आंवा इश्क़ का,
तन मिट्टी का भांड।
बिरहा की ज्वाला जगी,
भस्म हुआ ब्रह्मांड।।
39...
माना मां कमज़ोर है,
तुम तो भोलेनाथ।
इतनी पीड़ा यातना,
कब तुम दोगे साथ।।
40..
देह दिया औ दर्द भी,
हिम्मत देगा कौन।
जमे हुए कैलाश में,
कब छोड़ोगे मौन।।
41...
कितनी आहों बाद तुम,
सुध लोगे बिसनाथ।
विषधर डंसता रात दिन,
दर्द न छोड़े हाथ।।
42..
मां की ममता से भला,
कैसे हो पहचान।
तुम स्वयंभू पैदा हुए,
पीड़ा से अनजान।।
43...
देह दिया तो दर्द भी,
पीड़ा दिया अछोर।
सुख घूरे पर फेंक कर,
दुखवा दिया पछोर।।
44...
सूरज चांद निहारिका,
धरती औ आकाश।
इश्क़ नचाए रात दिन,
इश्क़ रचाए रास।।
45..
मौला तेरे इश्क़ में,
कितने हुए फ़कीर।
मीरां,ललदे,जायसी,
नानक ,सूर ,कबीर।।
46...
सोया चाक जगायके,
देह जिलाऊं आग।
कबिरा नांव कुम्हार तब,
जागे माटी भाग।।
47...
तू कुम्हार मैं चाक हूँ,
मैं माटी तू आग।
मेरे बिन तू कुछ नहीं,
मैं तेरा सौभाग।।
48...
जो डूबा वो तिर गया,
जो भूला सो याद।
जो दिखता वो रब नहीं,
व्यर्थ करे फ़रियाद।।
49...
मंदिर मस्जिद तोरि कै,
पोथिन आग लगाय।
स्वर्ग नरक का नास हो,
तब हो खुसी खुदाय।।
50...
तन पर तेरा हुक्म है,
मन पे मेरा ज़ोर।
अपना सूरज रोक ले,
होगी मुझसे भोर।।
51..
पागल,प्रेमी और कवि
नाम तीन पर एक।
तन मन सबकुछ वार कर,
एक उसी की टेक।।
52..
उसकी मीठी याद सी,
ये जाड़े की धूप।
बांस कइन पर कांपती,
पीत सिंदूरी रूप।।
००
डॉ हूबनाथ पाण्डेय के कुछ दोहे नीचे लिंक पर और पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2019/01/1_24.html?m=1
भाग - दो
हूबनाथ |
नेता की संपति बढ़े,
परजा का संहार।
ऐसे राजा मारिए,
कस के जूते चार।।
2..
कबिरा धंधा धर्म का,
इन्कमटैक्स से छूट।
स्वर्ग मिलेगा मुफ़्त में,
लूट सके तो लूट।।
3...
नंगा नाचे झूम कर,
लंपट गाए फाग।
चोर बलैया लेत है,
राजा को बैराग।।
4..
धरमसभा की भीड़ में,
नाचा अधरम ख़ूब।
कबिरा नानक ज्ञानदे,
गए शरम से डूब।।
5...
'ध' न जाने धर्म का,
रंग बिरंगा स्वांग।
लंपट लोभी क्रूर बिच,
बंटी झूठ की भांग।।
6...
स्वारथ ने अंधा किया,
वासना बुद्धि मंद।
नफ़रत ने ताक़त दिया,
हिंसा ने आनंद।।
7...
कैसी पाटी पढ़ि भये,
पूत मात से दूर।
विद्या के आशीष हैं,
लोभी कामी क्रूर।।
8...
बेटा हमको माफ़ कर,
नदी खेत खलिहान।
जंगल पर्वत अन्न जल,
हमने किए मसान।।
9...
मां की ममता तब तलक,
जब तक आंचल दूध।
अपने पैरों हो खड़ा,
अपने तक महदूद।।
10...
किसको सीता चाहिए,
किसको चहिए राम।
नैनों में रावण बसा,
मनहिं बसाए काम।।
11...
नगरदीप में जल रहा,
जिस किसान का ख़ून।
उसे मयस्सर ही नहीं,
इक रोटी दो जून।।
12...
जिसके कपड़े साफ़ हों,
उसको सब कुछ माफ़।
मैला कुचला वस्त्र है,
धरती पर अभिशाप।।
13...
महामानव
मानव मिटता है मगर,
नष्ट न होते मूल्य।
मात पिता गुरु तात तू,
तू गौतम के तुल्य।।
14...
हम पशु से बदतर रहे,
हम थे नहीं मनुष्य।
तेरी ताक़त जब मिली,
हमने गढ़ा भविष्य।।
15...
जो जलता है रात भर,
वही जानता दर्द।
दुखिओं को अपनाय जो,
वह सच्चा हमदर्द।।
16...
अंधकार के गर्त में ,
लोग रहे थे डूब।
सूरज बनकर जो उगा,
वो मेरा महबूब।।
17...
करुणा प्रज्ञा शील शांति,
समता औ इन्साफ़।
वंचित रहते हम सभी,
जो नहि आते आप।।
18...
लोहे जैसा तन दिया,
तो दे दुख की आग।
कंचन कर वापस करूं,
ऐसे मेरे भाग।।
19...
सुख सुविधा संपति नहीं,
नहीं चैन आराम।
यह तन जारौं मसि करौं
लिखूं तिहारो नाम।।
20...
उसकी सड़क पे चांदनी,
इसके घर अंधार।
बलिहारी तेरी बुद्धि को,
भली बनी सरकार।।
21...
कब तक देता जायगा,
बस कर मेरे नाथ।
कुछ तो मुझ पर छोड़ तू,
मेरे भी दो हाथ।।
22....
अनुपम दोहे
जल का अर्थ बता गया,
कल का दिया सनेस।
अनुपम उसकी बात थी,
अनुपम उसका भेस।।
23...
धरती से लेते हुए,
जी उसका सकुचाय।
देखी सूखी बावड़ी,
पहले मन मुरझाय।।
24...
मरती नदिया देख कर,
वह मरता सौ बार।
हम सब बहरे स्वार्थ में,
खाली गई पुकार।।
25...
मरघट में दीपक लिए,
वह निश्छल मुस्कान।
पर्वत पानी पेड़ संग,
बचा रहे इन्सान।।
26...
जितनी सच्ची सादगी,
उतना प्यारा काम।
अपनी धुन में रम रहा,
वह अनुपम अविराम।।
ठीक दो साल पहले आज ही के दिन पर्यावरण संरक्षण की ज़िम्मेदारी हम सब पर सौंप कर चले गए श्री अनुपम मिश्र की स्मृति में सादर!
27...
क्रुद्ध दोहे
तुझसे कैसा मांगना,
तुझसे कैसी होड़।
कितना दुख बरसाएगा,
मेरी चिंता छोड़।।
28...
तेरी चौखट पे भला,
रगड़ूं अपनी नाक।
कैसा सिरजनहार तू,
अपनी कींमत आंक।।
29...
दुर्बल को ही सतायगा,
यह तेरा इन्साफ़।
रिश्वत खाकर पाप को,
तू करता है माफ़।।
30...
तुझको चमचे चाहिए,
झूठे और दलाल।
तेरे दर कैसे गले,
कमज़ोरों की दाल।।
31...
तेरे महल के वास्ते,
आदम चकनाचूर।
दरिदनरायन से बना,
कैसे इतना क्रूर।।
32..
बस कर अपने चोंचले,
आगे बढ़ा दुकान।
कब तक छीनेगा बता,
बच्चों की मुस्कान।।
33...
मैं तो घुटने टेक दूं,
तू रख अपनी टेक।
जिसे अपाहिज कर रखा,
उससे तो रह नेक।।
34...
कल जो भूखा मर गया,
उसका बाप किसान।
तेरे ही सिर जाएगी,
बेकसूर की जान।।
35...
तू जग से नाराज़ है,
मैं तुझसे नाराज़।
मेरी ज़िद तेरी सनक,
उल्फ़त का आगाज़।।
36...
मेरी धरती एक है,
तेरे लाख करोड़।
बस इतना अहसान कर,
हमको हम पर छोड़।।
37...
दाता तेरे द्वार पर,
भूखा पड़ा किसान।
जो तुझको भी पालता
कर उसपर अहसान।।
38...
कबीर आंवा इश्क़ का,
तन मिट्टी का भांड।
बिरहा की ज्वाला जगी,
भस्म हुआ ब्रह्मांड।।
39...
माना मां कमज़ोर है,
तुम तो भोलेनाथ।
इतनी पीड़ा यातना,
कब तुम दोगे साथ।।
40..
देह दिया औ दर्द भी,
हिम्मत देगा कौन।
जमे हुए कैलाश में,
कब छोड़ोगे मौन।।
41...
कितनी आहों बाद तुम,
सुध लोगे बिसनाथ।
विषधर डंसता रात दिन,
दर्द न छोड़े हाथ।।
42..
मां की ममता से भला,
कैसे हो पहचान।
तुम स्वयंभू पैदा हुए,
पीड़ा से अनजान।।
43...
देह दिया तो दर्द भी,
पीड़ा दिया अछोर।
सुख घूरे पर फेंक कर,
दुखवा दिया पछोर।।
44...
सूरज चांद निहारिका,
धरती औ आकाश।
इश्क़ नचाए रात दिन,
इश्क़ रचाए रास।।
45..
मौला तेरे इश्क़ में,
कितने हुए फ़कीर।
मीरां,ललदे,जायसी,
नानक ,सूर ,कबीर।।
46...
सोया चाक जगायके,
देह जिलाऊं आग।
कबिरा नांव कुम्हार तब,
जागे माटी भाग।।
47...
तू कुम्हार मैं चाक हूँ,
मैं माटी तू आग।
मेरे बिन तू कुछ नहीं,
मैं तेरा सौभाग।।
48...
जो डूबा वो तिर गया,
जो भूला सो याद।
जो दिखता वो रब नहीं,
व्यर्थ करे फ़रियाद।।
49...
मंदिर मस्जिद तोरि कै,
पोथिन आग लगाय।
स्वर्ग नरक का नास हो,
तब हो खुसी खुदाय।।
50...
तन पर तेरा हुक्म है,
मन पे मेरा ज़ोर।
अपना सूरज रोक ले,
होगी मुझसे भोर।।
51..
पागल,प्रेमी और कवि
नाम तीन पर एक।
तन मन सबकुछ वार कर,
एक उसी की टेक।।
52..
उसकी मीठी याद सी,
ये जाड़े की धूप।
बांस कइन पर कांपती,
पीत सिंदूरी रूप।।
००
डॉ हूबनाथ पाण्डेय के कुछ दोहे नीचे लिंक पर और पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2019/01/1_24.html?m=1
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें