श्रुति कुशवाह की कविताएं
अजब है कैफ़ियत मन की
अजब है कैफ़ियत मन की
बिना बादल बरसता है
बिना बोले गरजता है
कभी तो राख हो जाता
कभी ज्वाला कभी चंदन
कभी मिट्टी कभी कंचन
कभी बहता है पानी सा
कभी ये आग हो जाता
न हो तो कुछ नहीं होता
जो हो तो फिर हिमालय हो
कभी कहता नहीं कुछ भी
कभी बेलाग हो जाता
कभी दिखता है सिंदूरी
कभी होता है कस्तूरी
कभी ये मैं भी जाता
कभी ये तू भी हो जाता
कभी कुछ यूं भी हो जाता
कि सबकुछ व्यर्थ सा लगता
कभी फिर मोह में पड़ता
नया हर अर्थ सा लगता
कभी हँसता है होंठों सा
कभी नयनों की जलधारा
कभी संसार को जीता
कभी ख़ुद ही से सब हारा
अजब है कैफ़ियत मन की....
लिखने भर से....
लिखने को तो लिख सकती थी कड़ी धूप को छाँव
लहर को नाव
डगर को पाँव
सफर को ठाँव
लिखने को तो लिख सकती थी तिमिर घटा है
भेद मिटा है
दर्द बंटा है
नई छटा है
लिखने को तो लिख सकती थी फूल खिले हैं
दीप जले हैं
साथ चले हैं
सभी भले हैं
लिखने को तो लिख सकती थी आकाओं ने काम किया है
सबका एक मुक़ाम किया है
दुनियाभर में नाम किया है
हमने उन्हें सलाम किया है
लेकिन लिखने भर से क्या सब सच हो जाता....
जीवन
जीवन एक खिलौना होता
और हम हरदम बच्चे होते
खेल खेल में बीत ही जाते
वो दिन कितने अच्छे होते
जीवन एक समंदर होता
हम छोटी सी मछली होते
या होता एक बाग सलोना
और हम पीली तितली होते
जीवन एक मिठाई होता
और हम बड़े चटोरे होते
सोचो फिर कितना रस आता
रबड़ी भरे कटोरे होते
जीवन जो एक जादू होता
हम जादू में खोए होते
आंखों में और मन में जाने
कितने ख़्वाब पिरोए होते
लेकिन जीवन तो जीवन है.....
सीखना
अभी तो हमें सीखना था
सड़क पर थूका नहीं जाता
कचरा डिब्बे में ही डाला जाता है
ट्रेन से नहीं चुरायी जाती चादरें
दूसरों के कपड़ों में झांकने से
अपनी नंगई नहीं छिपती
और प्लेट में भर-भर खाना लेकर छोड़ना तो
गुनाह है इंसानियत के खिलाफ़
अभी तो सीखना था कि
सड़क किनारे पेशाब करना
सभ्यता पर पानी फेरना है दरअस्ल
और गालियों में माँ-बहन
किसी की भी हो
वो गाली लगती ख़ुद को ही है
अभी तो बहुत कुछ सीखना बाक़ी था
लड़कियां छेड़ना बहादुरी नहीं
औरत को पीटना मर्दानगी नहीं
गुटखा खाना सेहत के लिए नुकसानदेह है
खाने से पहले धोना चाहिये हाथ
सीखने को तो ये भी था कि
घर का कचरा सड़क पर डालने से
घर साफ नहीं होता
या रात में ज़ोर से नहीं बजाना चाहिये रेडियो
देखो ना कितना कुछ सीखना रह गया बाक़ी
यहाँ तुम
इश्क़ के आदाब और
सियासी सलाहियत की बात करते हो....
गए साल का जून महीना
गए साल का जून महीना
कितना अफलातून महीना...
राजा जी ने सूट सिलाया
सूट सिला के बूट मंगाया
बूट पहन के लंदन पहुंचे
महारानी से हाथ मिलाया
हाथ मिलाकर हाथ हिलाया
जनता को भी दरस दिखाया
दरस दिखाकर मुस्काए भी
थोड़े से वो शर्माए भी
शर्माकर फिर सुनी कविता
दो घंटे तक बही सरिता
इन सालों का लेखा जोखा
लोगों ने टीवी पे देखा
देखके सारे भक्त हर्षाए
लौट के बुद्धु घर को आए
देखो हुआ प्रसून महीना
गए साल का जून महीना...
स्त्रीविहीन
स्त्री ने आसमान निहारा
समंदर तलाशा
पर्वत नापे
गुफाएं खोजी
जंगल छाने
लेकिन उसके लिये
कहीं कोई जगह नहीं थी
स्त्री ने दफ्तर, बाज़ार
रेलवे स्टेशन, अस्पताल
नदी, पुल, दुकानें
गौशाला, तबेला
और सारी सड़कें भी देख ली
लेकिन कहीं भी
कोई जगह नहीं मिली
अपने घर से तो
सदा ही निर्वासित रही स्त्रियां
किसी भी देश ने
स्त्रियों को कभी
स्थायी निवासी का प्रमाण पत्र नहीं दिया
सभी धर्मस्थलों के मूल में बद्ध था
स्त्री नर्क का द्वार है
थककर स्त्री
अपनी कोख में भी झांक आयी
लेकिन वहां भी वो अवांछित ही थी
आखिरकार एक दिन
ये धरती स्त्री विहीन हो गयी
अब सब कविताओं में तलाशते हैं स्त्री
स्त्री किताबों में चैन की नींद सो रही है....
बारूद के शहर में
बारूद के शहर में
फूलों से बनी लड़की
धुएं के समंदर में
खुशबू से सनी लड़की
विस्फोट की गली के
सुर ताल बदल देगी
सोचती है इक दिन
ये हाल बदल देगी
ये हाल जो बदला तो
बारूद जो पिघला तो
फूलों का शहर होगा
खुशबू में बसर होगा.....
क्या ये सब सरकारी होगा....?
कहने को तो चाँद का टुकड़ा
फूल गुलाबी
नैन शराबी
जवां बदन और
हुस्न की मलिका कह सकता हूँ
तू बतला दे
क्या ये सब सरकारी होगा...?
मैं ग़र बोलूँ मुझे इश्क़ है
तड़प जगी है
तलब लगी है
तुझे देखने
सारी लानत सह सकता हूँ
तू बतला दे
क्या ये सब सरकारी होगा...?
वैसे मुझको खौफ़ नहीं है
किसी बात का
उम्र ज़ात का
तेरी ख़ातिर
अब अम्मी बिन रह सकता हूँ
तू बतला दे
क्या ये सब सरकारी होगा...?
यूँ तो मेरी जेब है खाली
दिल है भारी
बड़ी उधारी
हिम्मत करके
थोड़ा सा और बह सकता हूँ
तू बतला दे
क्या ये सब सरकारी होगा...?
०००
श्रुति कुशवाहा की कविताएं नीचे लिंक पर उन्हीं की जुबानी सुनिए
https://youtu.be/qjO248J0scg
परिचय
नाम : श्रुति कुशवाहा
जन्म : 13/02/1978 भोपाल, मध्यप्रदेश
शिक्षा : पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि. भोपाल)
प्रकाशन: कविता संग्रह “कशमकश” वर्ष 2016, साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, संस्कृति विभाग, भोपाल के सहयोग से प्रकाशित
वागर्थ, कथादेश, कादंबिनी, उद्भावना, परिकथा, समरलोक एवं जनसत्ता, दैनिक भास्कर, पत्रिका, नई दुनिया सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं-कहानियां प्रकाशित
पुरस्कार: कविता संग्रह “कशमकश” को वर्ष- 2016 “वागीश्वरी पुरस्कार” मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्राप्त, वर्ष 2007 कादंबिनी युवा कहानी प्रतियोगिता में कहानी पुरस्कृत
संप्रति : हैदराबाद, दिल्ली, मुंबई, भोपाल में विभिन्न न्यूज़ चैनल में कार्य करने के पश्चात अब गृहनगर भोपाल में स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता
संपर्क :
श्रुति कुशवाहा
बी- 101, महानंदा ब्लॉक
दानिश कुंज ब्रिज के पास
कोलार रोड, भोपाल
म.प्र. 462042
मोबाइल – 9893401727
ईमेल – shrutyindia@gmail.com
श्रुति कुशवाहा |
अजब है कैफ़ियत मन की
अजब है कैफ़ियत मन की
बिना बादल बरसता है
बिना बोले गरजता है
कभी तो राख हो जाता
कभी ज्वाला कभी चंदन
कभी मिट्टी कभी कंचन
कभी बहता है पानी सा
कभी ये आग हो जाता
न हो तो कुछ नहीं होता
जो हो तो फिर हिमालय हो
कभी कहता नहीं कुछ भी
कभी बेलाग हो जाता
कभी दिखता है सिंदूरी
कभी होता है कस्तूरी
कभी ये मैं भी जाता
कभी ये तू भी हो जाता
कभी कुछ यूं भी हो जाता
कि सबकुछ व्यर्थ सा लगता
कभी फिर मोह में पड़ता
नया हर अर्थ सा लगता
कभी हँसता है होंठों सा
कभी नयनों की जलधारा
कभी संसार को जीता
कभी ख़ुद ही से सब हारा
अजब है कैफ़ियत मन की....
लिखने भर से....
लिखने को तो लिख सकती थी कड़ी धूप को छाँव
लहर को नाव
डगर को पाँव
सफर को ठाँव
लिखने को तो लिख सकती थी तिमिर घटा है
भेद मिटा है
दर्द बंटा है
नई छटा है
लिखने को तो लिख सकती थी फूल खिले हैं
दीप जले हैं
साथ चले हैं
सभी भले हैं
लिखने को तो लिख सकती थी आकाओं ने काम किया है
सबका एक मुक़ाम किया है
दुनियाभर में नाम किया है
हमने उन्हें सलाम किया है
लेकिन लिखने भर से क्या सब सच हो जाता....
जीवन
जीवन एक खिलौना होता
और हम हरदम बच्चे होते
खेल खेल में बीत ही जाते
वो दिन कितने अच्छे होते
जीवन एक समंदर होता
हम छोटी सी मछली होते
या होता एक बाग सलोना
और हम पीली तितली होते
जीवन एक मिठाई होता
और हम बड़े चटोरे होते
सोचो फिर कितना रस आता
रबड़ी भरे कटोरे होते
जीवन जो एक जादू होता
हम जादू में खोए होते
आंखों में और मन में जाने
कितने ख़्वाब पिरोए होते
लेकिन जीवन तो जीवन है.....
सीखना
अभी तो हमें सीखना था
सड़क पर थूका नहीं जाता
कचरा डिब्बे में ही डाला जाता है
ट्रेन से नहीं चुरायी जाती चादरें
दूसरों के कपड़ों में झांकने से
अपनी नंगई नहीं छिपती
और प्लेट में भर-भर खाना लेकर छोड़ना तो
गुनाह है इंसानियत के खिलाफ़
अभी तो सीखना था कि
सड़क किनारे पेशाब करना
सभ्यता पर पानी फेरना है दरअस्ल
और गालियों में माँ-बहन
किसी की भी हो
वो गाली लगती ख़ुद को ही है
अभी तो बहुत कुछ सीखना बाक़ी था
लड़कियां छेड़ना बहादुरी नहीं
औरत को पीटना मर्दानगी नहीं
गुटखा खाना सेहत के लिए नुकसानदेह है
खाने से पहले धोना चाहिये हाथ
सीखने को तो ये भी था कि
घर का कचरा सड़क पर डालने से
घर साफ नहीं होता
या रात में ज़ोर से नहीं बजाना चाहिये रेडियो
देखो ना कितना कुछ सीखना रह गया बाक़ी
यहाँ तुम
इश्क़ के आदाब और
सियासी सलाहियत की बात करते हो....
गए साल का जून महीना
गए साल का जून महीना
कितना अफलातून महीना...
राजा जी ने सूट सिलाया
सूट सिला के बूट मंगाया
बूट पहन के लंदन पहुंचे
महारानी से हाथ मिलाया
हाथ मिलाकर हाथ हिलाया
जनता को भी दरस दिखाया
दरस दिखाकर मुस्काए भी
थोड़े से वो शर्माए भी
शर्माकर फिर सुनी कविता
दो घंटे तक बही सरिता
इन सालों का लेखा जोखा
लोगों ने टीवी पे देखा
देखके सारे भक्त हर्षाए
लौट के बुद्धु घर को आए
देखो हुआ प्रसून महीना
गए साल का जून महीना...
स्त्रीविहीन
स्त्री ने आसमान निहारा
समंदर तलाशा
पर्वत नापे
गुफाएं खोजी
जंगल छाने
लेकिन उसके लिये
कहीं कोई जगह नहीं थी
स्त्री ने दफ्तर, बाज़ार
रेलवे स्टेशन, अस्पताल
नदी, पुल, दुकानें
गौशाला, तबेला
और सारी सड़कें भी देख ली
लेकिन कहीं भी
कोई जगह नहीं मिली
अपने घर से तो
सदा ही निर्वासित रही स्त्रियां
किसी भी देश ने
स्त्रियों को कभी
स्थायी निवासी का प्रमाण पत्र नहीं दिया
सभी धर्मस्थलों के मूल में बद्ध था
स्त्री नर्क का द्वार है
थककर स्त्री
अपनी कोख में भी झांक आयी
लेकिन वहां भी वो अवांछित ही थी
आखिरकार एक दिन
ये धरती स्त्री विहीन हो गयी
अब सब कविताओं में तलाशते हैं स्त्री
स्त्री किताबों में चैन की नींद सो रही है....
बारूद के शहर में
बारूद के शहर में
फूलों से बनी लड़की
धुएं के समंदर में
खुशबू से सनी लड़की
विस्फोट की गली के
सुर ताल बदल देगी
सोचती है इक दिन
ये हाल बदल देगी
ये हाल जो बदला तो
बारूद जो पिघला तो
फूलों का शहर होगा
खुशबू में बसर होगा.....
क्या ये सब सरकारी होगा....?
कहने को तो चाँद का टुकड़ा
फूल गुलाबी
नैन शराबी
जवां बदन और
हुस्न की मलिका कह सकता हूँ
तू बतला दे
क्या ये सब सरकारी होगा...?
मैं ग़र बोलूँ मुझे इश्क़ है
तड़प जगी है
तलब लगी है
तुझे देखने
सारी लानत सह सकता हूँ
तू बतला दे
क्या ये सब सरकारी होगा...?
वैसे मुझको खौफ़ नहीं है
किसी बात का
उम्र ज़ात का
तेरी ख़ातिर
अब अम्मी बिन रह सकता हूँ
तू बतला दे
क्या ये सब सरकारी होगा...?
यूँ तो मेरी जेब है खाली
दिल है भारी
बड़ी उधारी
हिम्मत करके
थोड़ा सा और बह सकता हूँ
तू बतला दे
क्या ये सब सरकारी होगा...?
०००
श्रुति कुशवाहा की कविताएं नीचे लिंक पर उन्हीं की जुबानी सुनिए
https://youtu.be/qjO248J0scg
परिचय
नाम : श्रुति कुशवाहा
जन्म : 13/02/1978 भोपाल, मध्यप्रदेश
शिक्षा : पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि. भोपाल)
प्रकाशन: कविता संग्रह “कशमकश” वर्ष 2016, साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, संस्कृति विभाग, भोपाल के सहयोग से प्रकाशित
वागर्थ, कथादेश, कादंबिनी, उद्भावना, परिकथा, समरलोक एवं जनसत्ता, दैनिक भास्कर, पत्रिका, नई दुनिया सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं-कहानियां प्रकाशित
पुरस्कार: कविता संग्रह “कशमकश” को वर्ष- 2016 “वागीश्वरी पुरस्कार” मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्राप्त, वर्ष 2007 कादंबिनी युवा कहानी प्रतियोगिता में कहानी पुरस्कृत
संप्रति : हैदराबाद, दिल्ली, मुंबई, भोपाल में विभिन्न न्यूज़ चैनल में कार्य करने के पश्चात अब गृहनगर भोपाल में स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता
संपर्क :
श्रुति कुशवाहा
बी- 101, महानंदा ब्लॉक
दानिश कुंज ब्रिज के पास
कोलार रोड, भोपाल
म.प्र. 462042
मोबाइल – 9893401727
ईमेल – shrutyindia@gmail.com
श्रुति जी अच्छी कविताओं के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंस्त्रीविहीन कविता अलग है। इसे यदि फिर से लिखें तो इसकी मारक क्षमता और बढ़ सकती है। यह अपने आप में मुकम्मल है पर मुझे लग रहा है कि जो आप इसमें कहना चाह रहीं थीं वह पूरी शिद्दत से नहीं आ पाया। थोड़ी मेहनत इस पर करें और पूरी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री की कोई जगह नहीं है, यहां तक इसका विस्तार करें तो एक दूसरी और ताकतवर कविता बन सकती है।